30 मार्च 2010

पंच कल्याणी


जब ब्रह्मदत्त काशी पर राज्य करते थे, उन दिनों बोधिसत्व ने एक उत्तम नस्ल के घोड़े के रूप में जन्म लिया। वह राजा के घोड़ों में उत्तम घोड़ा और पंच कल्याणी माना जाता था। इस कारण उसका पोषण और अलंकार विशेष रूप से राज परिवार की गरिमा के अनुरूप किया जाता था।

उस घोड़े के लिए तीन साल पूर्व के बढ़िया व पुराने धान के साथ बनाया गया खाना तैयार किया जाता था। उसका खाना एक हज़ार स्वर्ण मुद्राओं के मूल्य के थाल में परोसा जाता था। वह जिस घुड़साल में बंधा रहता था, वह हमेशा सुगंधित द्रव्यों से महकता रहता। उस घुड़साल के चारों तरफ़ सुन्दर परदे लटकते रहते थे। ऊपर की चांदनी सोने के फूलों से सजी रहती थी। चारों तरफ की दीवारें खुशबूदार फूलों से सुशोभित रहतीं, दिन-रात वह घुड़साल अगरबत्तियों तथा सुगंधित द्रव्यों के परिमल से देदीप्यमान दिखाई देता था।

ऐसे उत्तम अश्ववाले राजा के वैभव को देख अड़ोस-पड़ोस के सारे सामंत राजा ईर्ष्या करते थे। वे सभी इस ताक में रहते थे कि कैसे उस राज्य को हड़प लें। लेकिन उनमें से किसी एक को काशी पर आक्रमण करने का साहस नहीं होता था।

इसलिए उन सबने मिलकर काशी पर आक्रमण करने का निश्चय किया। एक बार इकठ्ठे सात सामंत राजाओं ने काशी राजा के पास एक दूत के द्वारा यों संदेशा भेजा, ‘‘आप बिना देरी किये तुरंत अपना राज्य हमें सौंप दीजिए, वरना हमारे साथ युद्ध के लिए तैयार हो जाइये। हम सात राजाओं की सम्मिलित सेना के साथ आप के राज्य की सीमा पर आप के उत्तर का इन्तजार कर रहे हैं।''


इस पर काशी राजा ने अपने मंत्रियों को बुलवा कर सामंत राजाओं का संदेशा उन्हें सुनाया। मंत्रियों ने सोच-समझकर राजा को समझाया, ‘‘महाराज, आपको युद्ध क्षेत्र में स्वयं जाने की कोई ज़रूरत नहीं है। हमारे सेनापति वीरवर्मा को सेना के साथ भेज दीजिए, वे बहादुर और कुशल योद्धा हैं। वही दुश्मन को पराजित कर शीघ्र लौट आयेंगे। अगर वे दुश्मन को हरा नहीं सकेंगे तो फिर आगे की बात सोची जाएगी।''

इस पर राजा ने सेनापति को बुलवाकर कहा, ‘‘वीरवर्मा, हम पर एक भारी विपत्ति आ पड़ी है। एक साथ सात सामंत राजा हमारे देश पर हमला करने जा रहे हैं। क्या आप उन सातों को पराजित कर सकते हैं?''

इसके उत्तर में वीरवर्मा ने कहा, ‘‘महाराज, यदि आप अपने प्यारे घोड़े पंच कल्याणी को मेरे हाथ सौंप दें तो उन सातों सामंतों को क्या, सारे देशों को पराजित कर कुशलपूर्वक लौट सकता हूँ।'' सेनापति का जवाब सुनकर राजा खुश हुए और पंच कल्याणी को उनके हाथ सौंपकर शत्रु पर विजय प्राप्त करने भेजा।

राजा से विदा लेकर पंच कल्याणी को साथ ले सेनापति वीरवर्मा बड़े उत्साह के साथ उसी व़क्त युद्ध भूमि की ओर चल पड़ा।

इसके बाद वीरवर्मा क़िले से बिजली की भांति निकल पड़ा। हिम्मत के साथ लड़कर प्रथम सामंत को बुरी तरह से हराया और उसे बन्दी बनाया। फिर युद्ध क्षेत्र में जाकर दूसरे सामंत को बन्दी बनाया। इस तरह उन्होंने एक-एक करके पाँच सामंतों को हरा कर क्रमशः उन्हें बन्दी बनाया।

छठे सामंत के साथ युद्ध करके उसको भी हराया, लेकिन इस बीच घोड़ा बुरी तरह से घायल हो गया और उसके घावों से खून बहने लगा।


वीरवर्मा ने सोचा कि पंच कल्याणी को एक द्वार के पास बांधकर दूसरे घोड़े को लेकर युद्ध क्षेत्र में चला जाये। इस ख्याल से वीरवर्मा पंच कल्याणी के निकट पहुँचा और उसकी लगाम, जीन वगैरह खोलने को हुआ।

उस व़क्त पंच कल्याणी के रूप में स्थित बोधिसत्व ने आँखें खोलकर देखा। वह मन ही मन यह सोचकर दुखी होने लगा, ‘हे वीर, तुम भी कैसे भोले हो? मुझे घायल देख एक और घोड़े को दुश्मन से लड़ने के लिए तैयार कर रहे हो। सातवें व्यूह को भेदकर सातवें सामंत राजा को बन्दी बनाना बेचारा वह क्या जाने? उस पर विश्वास करके लड़ाई के मैदान में ले जाओगे तो अब तक मैंने जो विजय प्राप्त की, वह सब बेकार जाएगी। तुम अकारण ही दुश्मन के हाथों मर जाओगे। हमारे मालिक काशी के राजा बड़ी आसानी से सामंत राजाओं के हाथों में फँस जायेंगे। तुम यह समझ न पाये कि सातवें सामंत राजा को हराना सिर्फ़ मेरे लिए ही संभव है, कोई दूसरा घोड़ा उसको किसी भी हालत में जीत नहीं सकता!'

यों विचार कर वह चुप नहीं रहा। घायल होकर पड़ा हुआ वह पंच कल्याणी वीरवर्मा को अपने निकट बुलाकर बोला, ‘‘हे वीर-शूर वीरवर्मा, यह अच्छी तरह से समझ लो कि सातवें व्यूह को भेदकर सातवें शत्रु सांमत राजा को पकड़ सकनेवाला घोड़ा मुझे छोड़कर दूसरा कोई नहीं है। अब तक मैंने जो श्रम किया है उसे व्यर्थ मत जाने दो। हर हालत में तुम्हें हिम्मत और पराक्रम को नहीं खोना है। इसके साथ आत्म-विश्वास और सहनशीलता की ज़रूरत होती है। इसलिए तुम मुझ पर पूर्ण रूप से विश्वास रखो। घायल होने मात्र से मुझे कमजोर मत समझो; मेरी बात सुनकर मत त्यागो। मेरे घाव पर तुरंत मरहम पट्टी करके उसे चंगा कर दो। फिर से मुझे लड़ाई के मैदान में ले जाओ।'' यों अनेक प्रकार से पंच कल्याणी ने वीरवर्मा को समझाया।


वीरवर्मा ने पल पर भी विलंब किये बिना पंच कल्याणी की मरहम पट्टी करवा दी। उसके चंगे होने पर ज्यों ही वह उस पर सवार हुआ, त्यों ही वह बिजली की गति से निकल गया और सातवें व्यूह को भेद डाला। इस पर वीरवर्मा ने सातवें सामंत को भी बन्दी बनाया।

इस तरह युद्ध में वीरवर्मा की विजय हुई। बन्दी बने सातों सामंत राजाओं को वीरवर्मा के सैनिकों ने काशी राजा के सामने हाज़िर किया। उस समय पंच कल्याणी के रूप में स्थित बोधिसत्व वहाँ आ पहुँचे।

वे राजा से बोले, ‘‘राजन, ये सातों सामंत राजा आपके ही समान राजा हैं। इनको सताना आपको शोभा नहीं देता। इनका अपमान करना भी उचित नहीं है। आप अपनी इच्छा के मुताबिक़ किसी शर्त को उनसे पूरा करा कर छोड़ देना न्याय संगत होगा। आप अपने दुश्मन के प्रति भी उदार बने रहिए। इसी में आपका बड़प्पन है। काशी राज्य की महान परम्परा और गरिमा के अनुकूल धर्म का पक्ष लेकर न्यायपूर्वक शासन कीजिए।'' यों राजा को पंच कल्याणी ने उपदेश दिया। उसी व़क्त सिपाहियों ने आकर घोड़े की सजावट वाली सारी चीज़ें हटा दीं। शीघ्र ही पंच कल्याणी के रूप में स्थित बोधिसत्व पंच भूतों में मिल गये।

इस के बाद काशी राजा ब्रह्मदत्त के आदेशानुसार राज सम्मान के साथ पंच कल्याणी घोड़े की अत्येष्टि क्रिया संपन्न की गई। इसके बाद सेनापति वीरवर्मा का बड़े पैमाने पर अभिनंदन हुआ।

सातों सामंत राजाओं को उनके राज्यों में वापस भेज दिया गया। वे सभी अपनी ईर्ष्या और शत्रुता की भावना पर बहुत लज्जित हुए। उन सबने राजा ब्रह्मदत्त से क्षमा माँगी। वे हमेशा के लिए काशी राज्य के मित्र बन गये । उस दिन से बोधिसत्व के सुझाव के अनुसार काशी राज्य में न्यायपूर्वक शासन होने लगा।
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