ब्रह्मदत्त जिन दिनों काशी राज्य पर शासन करते थे, बोधिसत्व ने तक्षशिला नगर में एक बड़े शिल्पाचार्य के रूप में जन्म लिया। उनके यहॉं शिल्प विद्या का अध्ययन करने के लिए देश के कोने-कोने से कई राजकुमार आया करते थे।
तक्षशिला नगर के शिल्पाचार्य का यश सुनकर काशी नरेश ने भी अपने पुत्र को विद्याभ्यास के लिए उनके यहॉं भेजने का निर्णय किया। लेकिन सोलह वर्ष से कम उम्रवाले राजकुमार को अकेले दूर स्थित तक्षशिला में भेजना और वहॉं गुरु की सेवा-शुश्रूषा करते शिक्षा प्राप्त करना मंत्री और सामंतों को कतई पसंद न था।
इस विचार से सब ने कहा, ‘‘महाराज, शिल्प विद्या के कई पंडित हमारे ही नगर में हैं; ऐसी हालत में युवराजा को तक्षशिला क्यों भेजते
हैं?’’
पर राजा ने उनके सुझाव को न माना। उनका विचार था कि राजधानी में उनके पुत्र के लिए युुवराजा के ओहदे पर रहते हुए शिल्प विद्या का अभ्यास करना मुमकिन न होगा।
यों विचार कर राजा ने अपने पुत्र को एक जोड़ी खड़ाऊँ और ताड़-पत्रों वाला छाता मात्र देकर आदेश दिया, ‘‘तुम तक्षशिला जाकर वहॉं के शिल्पाचार्य के यहॉं शिक्षा प्राप्त करो। शिक्षा के समाप्त होते ही लौट आओ! उन्हें गुरु दक्षिणा के रूप में सौंपने के लिए एक हजार चांदी के सिक्के अपने साथ लेते जाओ।’’
राजकुमार अपने पिता के आदेशानुसार अकेले चल पड़ा। बड़ी तक़लीफ़ें झेलकर आख़िर वह तक्षशिला पहुँचा।
युवराजा ने शिल्पाचार्य के दर्शन करके अपने आने का उद्देश्य बताया। एक हज़ार चांदी के सिक्के उन्हें सौंपकर उन्होंने विद्याभ्यास शुरू किया।
थोड़े दिन बीत गये। गुरु और शिष्य रोज सवेरे नगर के बाहर नदी में स्नान करने जाते थे। एक दिन जब वे दोनों नहा रहे थे, तब एक बूढ़ी औरत थोड़े तिल पानी में धोकर नदी किनारे एक वस्त्र पर सुखाने लगी।
राजकुमार तिल को देखते ही झटपट स्नान पूरा करके किनारे पर पहुँचा। बूढ़ी को असावधान देख मुट्ठी भर तिल मुँह में डाल लिया। बूढ़ी ने इसे भांप लिया, लेकिन वह चुप रह गई।
दूसरे दिन भी राजकुमार ने ऐसा ही किया। बूढ़ी देखकर भी अनदेखी सी रह गई। तीसरे दिन भी राजकुमार ने मुट्ठी भर तिल खा लिया। इस पर बूढ़ी को उस युवक पर बड़ा गुस्सा आया।
जब शिल्पाचार्य स्नान समाप्त कर नदी के किनारे पहुँचे, तब बूढ़ी औरत ने आचार्य से शिकायत की, ‘‘आचार्यजी, तीन दिन से बराबर आप का शिष्य मेरे तिल चुराकर खाता जा रहा है। तिल के नष्ट होने का मुझे दुख नहीं है, लेकिन उस युवक की चुराने की आदत मुझे अच्छी नहीं लगती। यह आप के यश में कलंक लगने की बात होगी। कृपया उसे ऐसा दण्ड दीजिए जिससे वह आइंदा ऐसी चोरी न करे।’’
घर लौटते ही शिल्पाचार्य ने राजकुमार की पीठ पर छड़ी से तीन बार मार कर कहा, ‘‘तुमने जो अनुचित कार्य किया है, उसके लिए यही सजा है! आइंदा तुम ऐसा काम बिलकुल न करो।’’
राजकुमार को गुरु पर बड़ा क्रोध आया। लेकिन काशी राज्य की सीमा के बाहर वह एक साधारण व्यक्ति था, उसने सोचा।
किन्तु उसने उसी व़क्त अपने मन में यह शपथ ली, ‘‘मेरे राजा बनने के बाद इस दुष्ट को किसी बहाने काशी राज्य में बुलवाकर जरूर इसकी जान ले लूँगा।’’
कालक्रम में राजकुमार की शिक्षा समाप्त हुई। काशी लौटते व़क्त राजकुमार ने अपने गुरु को प्रणाम करके उनके आशीर्वाद लिये ।
इसके बाद राजकुमार ने अपने गुरु से कहा, ‘‘आचार्यजी, मेरे राजा बनने के बाद आप को एक बार अवश्य काशी नगर में पधारना होगा। उस समय मैं उचित रीति से आपका सत्कार करना चाहता हूँ।’’ अपने शिष्य के निमंत्रण पर गुरु बहुत ख़ुश हुए और उन्होंने अपनी स्वीकृति दे दी।
काशी नगर को लौटने के थोड़े साल बाद राजकुमार का राज्याभिषेक हुआ। एक दिन उसे अपने गुरु की बात याद आई । उसी व़क्त उसने अपने एक नौकर को बुलाकर आज्ञा दी, ‘‘तुम तक्षशिला जाकर शिल्पाचार्य के दर्शन कर उन्हें मेरा यह निमंत्रण-पत्र सौंप दो।’’
शिल्पाचार्य निमंत्रण पाकर भी तुरंत काशी के लिए रवाना न हुए। उन्होंने सोचा कि राजा गद्दी पाने के शौक में होगा। राज्य-भार का उसे अनुभव होने के बाद मिलना उचित होगा।
इसी निर्णय के अनुसार शिल्पाचार्य थोड़े दिन बाद काशी नगर पहुँचे । राजा के गुरु के आने का समाचार सुनकर सभासदों ने शिल्पाचार्य के प्रति बड़ा आदर भाव दिखाया और उन्हें एक ऊँचे आसन पर बिठाया।
गुरु को देखते ही राजा को अपना पुराना क्रोध याद हो आया । उसने गुरु की ओर तीक्ष्ण दृष्टि डालकर पूछा, ‘‘मुट्ठी भर तिल खाने पर दण्ड देनेवाले को हाथ में आने पर कहीं प्राणों के साथ छोड़ दिया जाता है?’’
राजा ने सोचा कि सभासदों की समझ में न आनेवाले ढंग से शिल्पाचार्य के मन में मौत का डर पैदा कर फिर सुविधानुसार वह उसे मार डालेगा। लेकिन शिल्पाचार्य डरे नहीं। उल्टे उन्होंने राजा का रहस्य इस रूप में प्रकट किया, ‘‘हे राजन, जब तुम मेरी जिम्मेदारी के अधीन शिष्य थे, तब तुमने अपने ओहदे के विपरीत काम किया। शिष्य के दुष्टतापूर्ण व्यवहार पर दण्ड देकर उसे अच्छे पथ पर लाना गुरु का कर्तव्य है। अगर उस दिन मैंने तुम्हें दण्ड न दिया होता तो तुम आज राजा नहीं डाकू बन गये होते। बुद्धिमान लोग जब कोई अपराध करते हैं, तब वे दण्ड देनेवालों के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हैं।’’
इस पर असली बात सभासदों पर प्रकट हो गई। राजा का अपमान हुआ। वह गुरु के पैरों पर गिरकर बोला, ‘‘महानुभाव, एक बार और आप ने मुझे गलत मार्ग से हटा कर सही रास्ते पर लगाया। मैं आप के प्रति हमेशा के लिए कृतज्ञ हूँ!’’ राजा के भीतर यह परिवर्तन देख सभासदों के साथ गुरु भी बहुत ख़ुश हुए।
इसके बाद राजा के अनुरोध पर शिल्पाचार्य ने अपना निवास तक्षशिला से काशी बदल लिया और दरबारी आचार्य के पद पर रहते हुए राजा को सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते रहे।
30 मार्च 2010
गुरु की जिम्मेदारी
Posted by Udit bhargava at 3/30/2010 07:59:00 am
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