30 मार्च 2010

गर्मी और धूल


‘‘कितना बेरिंग!'' स्कूल बस में चढ़ते समय शशांक के मुँह से एक आह निकल गई। ‘‘एक और इतिहास का पाठ, इस पर्यटन में यही तो होने जा रहा है!''

‘‘मालूम है'', राहुल भी जैसे कराहता हुआ बोला, ‘‘और वह भी क्लास रूम में नहीं, तपते हुए रेगिस्तान के बीचोबीच!''

मोहन शान्त रहा। उसे इतिहास प्रिय था और उसे ऐसा नहीं लगा कि यह सैर उबाऊ होगी।

मोहन अहमदाबाद में अपने स्कूल से जा रही अध्ययन यात्रा में शामिल था। वे लोग धोलाविरा के पुरातत्वीय स्थल का भ्रमण कर रहे थे जो सिन्धु घाटी सभ्यता के समय का पाँच हजार वर्ष पुराना आवास स्थान था।

उनके ग्रूप की नेत्री और मार्ग रक्षक उनकी इतिहास अध्यापिका पूरी यात्रा में सभ्यता के विषय में समझा रही थी। राहुल जंभाई पर जंभाई ले रहा था। शशांक पोटैटो वेफर्स के चबाने की तेज आवाज में अपनी बात को दबाने की कोशिश कर रहा था। केवल मोहन ध्यान लगाकर सुन रहा था।

आखिर वे अपने भ्रमण के गन्तव्य स्थान पर पहुँच गये। बच्चे लुढ़कते हुए बस से बाहर निकले और उनकी अध्यापिका ने उनका मार्ग दर्शन किया। धोलाविरा ग्रेट कच्छ रन में पहाड़ी पौधों के साथ ऊंची भूमि-खादिर द्वीप पर बसा हुआ है। आवासीय परिसर विशाल था और अवशेष किलाबन्द महल के खंडहर जैसे लगते थे। पुरातत्व की खुदाई के टीले पर सबके साथ खड़े मोहन ने उस क्षेत्रपर सर्वेक्षण की नज़र डाली।

‘पर ऐसी सूखी ऊसर भूमि पर कोई क्यों बसना चाहेगा?' उसे सन्देह हुआ। कुछ दूरी पर रन की चमकती लवण मरुभूमि वह देख सकता था। निश्चय ही कहीं भूल थी! मोहन जानता था यहाँ कोई नदी नहीं थी और यहाँ वर्षा भी नाम मात्र के लिए होती थी। वह अपने सन्देह का स्पष्टीकरण चाहता था पर थोड़ी हिचक थी। उसके सहपाठियों के चेहरों पर ऊब और अरुचि स्पष्ट दीख रही थी। राहुल अपने जूते की नोक से धरती पर कुछ चित्र खींच रहा था। किसी के पास पूछने के लिए कोई प्रश्न न था। मोहन ने पहल करने का निश्चय किया।


‘‘परन्तु, मैडम, सिन्धु घाटी के लोग यहाँ क्यों बसे? ऐसी सूखी जगह पर जहाँ पानी न हो?''

अध्यापिका मुस्कुराई, ‘‘यह बड़ा स्मार्ट सवाल है, मोहन!'' मोहन गर्व से गुलाबी हो उठा और दूसरे लड़कों की नजरें उस पर घूम गईं। ‘‘सबसे पहले तो यह समझो कि 5,000 वर्ष पूर्व धोलाविरा पहुँचना कठिन नहीं था, क्योंकि उस समय ग्रेट रन और लिट्ल रन् अरब सागर की विस्तारित दो भुजाओं के समान थे जिन पर छोटी नावें चल सकती थीं। आज भी यह रन, जो सागर-तल से थोड़ा ही ऊपर है, मौन सून के दिनों में उथले जल भर जाता है। क्योंकि पानी ज़्यादातर समुद्र का होता है, सूख जाने पर, यह क्षेत्र, लवण क्रिस्टल्स के गाढ़े निक्षेपण के साथ नमक की मरुभूमि बन जाता है।'' बातचीत करते-करते अध्यापिका उन्हें खंडहर से दूर ले गई। मोहन उसके साथ-साथ चल रहा था, जबकि दूसरे बहुत पीछे थे।
‘‘दूसरी बात यह है कि यह इलाका 5,000 वर्ष पहले बहुत उपजाऊ था'', उसने बात जारी रखी। राहुल और शशांक इस बीच एक दूसरे के साथ उलझ रहे थे, इससे मोहन चिढ़ गया। शशांक ने राहुल को धक्का दे दिया जिससे वह फिसल कर गिर गया। अध्यापिका ने उसे सहारा देकर गिरने से बचा लिया। ‘‘राहुल, यदि तुम 5,000 वर्ष पूर्व यहाँ पर गिर जाते तो तुम्हें बचाने के लिए मुझे तैरना पड़ता'', उसने कहा। अब बच्चों ने चकित होकर उसकी ओर देखा। वे लोग सूखे स्थान पर चल रहे थे। मैडम को तैरना क्यों पड़ता!

‘‘यह मन्सर नदी का सूखा तल है, जो कभी पूरे क्षेत्र के लिए ताजे पानी का स्रोत था'', उनके चकित चेहरों को देख मुस्कुराती हुई अध्यापिका बोली। बच्चों ने आश्चर्य के साथ नजरें चारों ओर घुमाईं। नदी? और पानी एक बून्द भी नहीं! ‘‘एक दूसरी नदी, मनहर, धोलाविरा से बहती हुई मन्सर से मिलती थी। लोग उन पर पत्थर के बाँध बना कर पानी जमा करते थे जिसे हरप्पा नगर के अन्दर की टंकियों में पहुँचाया जाता था।''


‘‘मन्सर और मनहर नदियों का क्या हुआ?'' अब राहुल ने जानना चाहा। ‘‘करीब 5,000 वर्ष पहले सिन्धु घाटी तथा इसके आस-पास के क्षेत्रों के लोग खेती करने लगे। वक्त के साथ कृषि और मवेशी पालन उनका मुख्य पेशा बन गया। सिंचाई, जलावन, चरागाह तथा अन्य कामों के लिए अधिक जमीनों को खाली करने की आवश्यकता पड़ी। शीघ्र ही जंगल गायब होने लगे। इसलिए इस क्षेत्र में वर्षा कम हो गई। भूजल की सतह नीचे जाने लगी। शीघ्र ही नदियाँ सूख गईं!'' अध्यापिका एक मिनट के लिए रुकी। ‘‘हवा के साथ सिल्ट उड़कर पूरे क्षेत्र में फैलने लगा। इस प्रक्रिया को ऊसरीकरण कहते हैं। यह, अर्ध शुष्क भूमि पटल को, पूर्णतया शुष्क बना देता है। धोलाविरा में ऊसरीकरण 3,500 वर्ष पूर्व हरप्पा काल के अन्त में आरम्भ हुआ। आज यह पूरे विश्व में हो रहा है!''

तभी पास के गाँव का स्थानीय गाइड भोला लंच के लिए बुलाने आ गया। ‘‘इस भूमि को ऊसर होने से बचाने के लिए क्या किसी ने कुछ किया नहीं?'' गाइड के पीछे-पीछे जाते हुए मोहन ने जिज्ञासा की। गाँव में लंच इन्तजार कर रहा था। बच्चों को यह देख आश्चर्य हुआ कि खंडहरों के आस-पास के सूखे परिवेश से गाँव बिलकुल अलग है। यह एक विशाल गाँव था जहाँ की आबादी घनी थी तथा पालतू पशु भरे पड़े थे। इसके अतिरिक्त झाड़ियाँ और कुछ वृक्ष भी थे।

‘‘यह गाँव हराभरा और उपजाऊ लगता है। धोलाविरा की तरह नहीं!'' राहुल ने मोहन से धीमे से कहा।

‘‘हाँ, हाँ, है'', भोला बोला। दोनो लड़के खुशी और आश्चर्य से उछल पड़े। उन्हें भोला से उत्तर की आशा नहीं थी। भोला ने आगे कहा, ‘‘यदि हमलोग ध्यान न दें तो यह गाँव भी शीघ्र ही धोलाविरा जैसा सूखा हो जायेगा! परन्तु इसे रोकने के लिए हमलोग कृत संकल्प हैं। कुओं का ताजा जल पीने और घर के काम-काज भर है। खेती में कठिनाई हो रही है। हमलोग मवेशी, भेड़, बकरी, गधे, ऊँट आदि पशुओं को पालते हैं। हमलोगों ने कच्छ के निकट एक सार्वजनिक चरागाह बनाया है। हमलोग गाँव के अन्दर तथा आस-पास की हरियाली को अपने मवेशियों से बचाते हैं। इससे इस स्थान की प्राकृतिक वनस्पतियों की वृद्धि में मदद मिलती है। हमलोगों ने कुछ ऐसी झाड़ियों और पेड़ों को भी रोपा है जो इस स्थान के लिए नये हैं!''

लंच के बाद लड़के भोला के साथ गाँव में घूमते रहे। उन्होंने देखा कि गाँववाले लकड़ी जलाने के बदले उपले को इंधन की तरह उपयोग में लाते हैं। बारिश के पानी का बून्द-बून्द जमा करते हैं। ‘‘एक दिन अवश्य ही खेती के लिए पर्याप्त पानी हमारे पास हो जायेगा।'' भोला ने लगभग स्वप्नवत् आशा व्यक्त की। गाँववाले अपनी भूमि को उपजाऊ बनाने तथा पानी और हरियाली वापस लाने के लिए कितना संघर्ष कर रहे हैं, बच्चे यह सब देख कर शान्त और गम्भीर हो गये।

जब वे सब शाम को वापस लौटने के लिए बस पर सवार हो रहे थे, तब राहुल और शशांक ने भी स्वीकार किया कि इस सैर ने हमारी आँखें खोल दी हैं। ‘‘बोरिंग इतिहास का पाठ नहीं, एह?'' मोहन ने मुस्कुरा कर आँखें मिचकाते हुए कहा। कुछ झेंपते हुए वे भी मुस्कुरा पड़े।