08 जून 2011

वृक्ष-वास्तु

वृक्षों को भगवान द्वारा प्रदत्त जीवनी शक्ति मानी गई है। यदि हमें कुछ मिनट वृक्षों से मिलने वाली ऑक्सीजन न मिले तो उसी क्षण विज्ञान की भौतिक उपलब्घियां हमारे लिए कुछ नहीं कर पाएंगी। वृक्षों को हम साक्षात् शिव मान सकते हैं। जिस प्रकार से समुद्र मंथन के दौरान निकले विष को पीकर सृष्टि की रक्षा की उसी प्रकार पेड़ प्रतिक्षण कॉब्ाüनडाइऑक्साइड रूपी जहर पीकर हमें ऑक्सीजन प्रदान करते हैं। अपना शरीर देकर हमारे लिए दैनिक उपयोग और भवन निर्माण के लिए फर्नीचर प्रदान करते हैं। आइए जानें वृक्ष वास्तु के नियम-

पौधारोपण उत्तरा,स्वाति,हस्त,रोहिणी एवं मूल नक्षत्रों में करना चाहिए। ऎसा करने पर रोपण निष्फल नहीं होता।
घर के पूर्व में बरगद, पश्चिम में पीपल, उत्तर में पाकड़ और दक्षिण में गूलर का वृक्ष शुभ होता है किंतु ये घर की सीमा में नहीं होना चाहिए।
घर के उत्तर एवं पूर्व क्षेत्र में कम ऊंचाई के पौधे लगाने चाहिए।
घर के दक्षिण एवं पश्चिम क्षेत्र में ऊंचे वृक्ष (नारियल,अ शोकादि) लगाने चाहिए। ये शुभ होते हैं।
जिस घर की सीमा में निगुण्डी का पौधा होता है वहां गृह कलह नहीं होता।
जिस घर में एक बिल्ब का वृक्ष लगा होता है उस घर में लक्ष्मी का वास बतलाया गया है।

जिस व्यक्ति को उत्तम संतान एवं सुख देने वाले पुत्र की कामना हो,उसे पलाश का पेड़ लगाना चाहिए। यह आवासीय घर की सीमा में नहीं होना चाहिए।
घर के द्वार और चौखट में भूलकर भी आम और बबूल की लकड़ी का उपयोग न करें।
कोई भी पौधा घर के मुख्य द्वार के सामने न रोपें। द्वार भेद होता है। इससे बच्चे का स्वास्थ्य खराब रहता है।
तुलसी का पौधा घर की सीमा में शुभ होता है।
बांस का पौधा रोपना अशुभ होता है।
वृक्षों की छाया प्रात: 9 बजे से दोपहर 3 बजे के मध्य भवन की छत पर नहीं पड़नी चाहिए।
जामुन और अमरूद को छोड़कर फलदार वृक्ष भवन की सीमा में नहीं होने चाहिए। इससे बच्चों का स्वास्थ्य खराब होता है।
वृक्ष के पत्ते, डंडे आदि को तोड़ने पर दूध निकलता हो तो इन्हें दूध वाले वृक्ष कहलाते हैं। ऎसे पेड़ स्थापित करने से धन हानि के योग बनते हैं। इनमें महुआ,बरगद,पीपल आदि प्रमुख हैं। केवड़ा,चंपा के पौधों को अपवाद माना गया है।

बैर,पाकड़,बबूल ,गूलर आदि कांटेदार पेड़ घर में दुश्मनी पैदा करते हैं। इनमें जति और गुलाब अपवाद हैं। घर में कैकट्स के पौधे नहीं लगाएं।

साधना रहस्य

साधना शक्ति को प्रकट करना अपने संचित धन को प्रदर्शित करने जैसा है, इसे गुप्त रखें।
आध्यात्म की दृष्टि से साधना ही एक मात्र ऎसा साधन है, जिसके माध्यम से साधक उस परम शक्ति से सम्पर्क स्थापित कर सकता है, जो सम्पूर्ण सृष्टि की सत्ता का संचालन कर रही है। साधना के माध्यम से प्रत्येक ऎसे कार्य संभव हो सकते हैं, जो जन सामान्य के लिए असम्भव होते हैं। जन सामान्य के लिए तो असम्भव को सम्भव करके दिखाने वाला चमत्कारी बाबा होता है, और दुनिया चमत्कार को नमस्कार करने के लिए दौड़ती है। ऎसी अवस्था में यदि साधना का रहस्य खुल जाता है, तो साधक का यश चारों ओर फैलने लगता है, परंतु जैसे-जैसे साधक का यश फैलता है, वैसे-वैसे उसकी साधनात्मक शक्ति क्षीण होने लगती है। साधक जो त्याग की मूर्ति होता है। उसकी सेवा करने वालों का तांता लग जाता है, सेवा करने वालों को आर्शीवाद बांटते-बांटते साधना की शक्ति भी आशीर्वाद के साथ जाती रहती है और धीरे-धीरे करके आशीर्वाद सफल होना कम हो जाते हैं। तब साधक को लोग झूठा मानने लगते हैं। इस तरह वह अपमान और अपयश का पात्र बन जाता है। इसलिए साधना कोई ऎसी वस्तु नहीं है जिसका प्रदर्शन किया जाए और साधना शक्ति को प्रकट करना अपने संचित धन को प्रदर्शित करने जैसा है। अत: शास्त्रों में साधना और साधना की शक्ति को गुप्त रखने के लिए कहा गया है।

06 जून 2011

प्रेम कहानी

यशुदा वक्त से पूरे सात मिनट ऊपर हो चुके थे। लड़का मायूस हो चुका था, कि अब लड़की नहीं आएगी। तभी हाथ में एक छोटा-सा लिफाफा पकड़े लड़की सीढ़ियों से प्रकट हुई। बैंच पर संयोगवश लड़के के पास वाली जगह खाली थी, जहाँ लड़की बैठ गई। आसपास इतने लोग बैठे थे कि बात करना बिलकुल असंभव लग रहा था। लड़के के दिल में तूफान-सा मच रहा था। वह लड़की से कम से कम कुछ तो कहना ही चाहता था, विदाई के शब्दों के तौर पर। पर लाइब्रेरी में जमे तल्लीनता से अखबार पढ़ रहे लोगों के बीच पसरी चुप्पी के होते, यह कतई संभव नहीं लग रहा था। लड़के ने कनखियों से लड़की की ओर देखा। वह भी अखबार सामने रखे हुए उसे पढ़ने का नाटक कर रही थी


लाइब्रेरी में लड़का अपने सामने अखबार फैलाए बैठा था, मगर उसका सारा ध्यान सीढ़ियों की तरफ ही था। सीढ़ियों पर जैसे ही किसी के आने की आहट होती, वह चौकन्ना होकर उधर देखने लगता। उसे पूरी उम्मीद थी, कि लड़की आएगी। दरअसल वह खुद ही तयशुदा वक्त से पंद्रह-बीस मिनट पहले आ गया था। आज तो लड़की को हर हालत में आना ही था, क्योंकि वह नौकरी ज्वॉइन करने दिल्ली जो जा रहा था।

यूँ इस कस्बे में उन दोनों की मुलाकातें न के बराबर ही हो पाती थीं। सारा दिन एक-दूसरे के लिए तड़पते रहने के बावजूद, वे दस-पंद्रह दिनों में एकाध बार, बस तीन-चार मिनट के लिए ही मिल पाते थे। इस छोटी-सी मुलाकात के दौरान भी आमतौर पर उनमें आपस में कोई बात न हो पाती। उनकी बातचीत का माध्यम वे स्लिपें ही रह गई थीं, जो एक-दूसरे को लिखा करते थे। इन्हीं स्लिपों में वे अपनी सब भावनाएँ, अपने सब दर्द उड़ेल दिया करते थे। इन्हीं स्लिपों से तय होती थी, उनकी अगली मुलाकात की जगह और उसका वक्त।

दरअसल छोटे से इस कस्बे में लड़के-लड़की का आपस में बात करना इतना आसान नहीं था। बात तो कहीं न कहीं की जा सकती थी, पर बात करने की खबर जंगल की आग की तरह पूरे कस्बे में फैलते देर नहीं लगती थी। कम उम्र के होने के बावजूद लड़के-लड़की में इतनी समझ थी, कि वे न तो अपनी और न अपने घर वालों की बदनामी होने देना चाहते थे। इसलिए जब भी वे आपस में मिलते तो यही कोशिश करते, कि बात न की जाए। हाँ, कभी-कभार मौका मिल जाने पर एकाध वाक्य का आदान-प्रदान हो जाया करता था।

लड़का अखबार सामने रखे अपने आसपास बैठे लोगों पर भी नजर रखे था। यह ध्यान रखना बेहद जरूरी था, कि उन लोगों में से उसकी जान-पहचान का कोई न हो। साथ ही इस बात का ख्याल रखना भी जरूरी था, कि वहाँ बैठे किसी आदमी को उस पर यह शक न हो जाए कि वह वहाँ अखबार पढ़ने के लिए नहीं बल्कि किसी और इरादे से आया है। एक समस्या और भी थी। सामने के, किताबों से भरी अलमारियों वाले, कमरे में लाइब्रेरियन के अलावा कई लोग मौजूद होते थे। उस कमरे में लोगों का आना-जाना भी लगा रहता था।

लड़के-लड़की की मुलाकात करीब एक साल पहले एक टाइपिंग क्लास में हुई थी। लड़के ने बीए करने के बाद नौकरी पाने के लिए कोई इम्तिहान दिया था और फिर टाइपिंग सीखने के लिए इस क्लास में आने लगा था। यहाँ आना शुरू करने के दूसरे-तीसरे दिन से उसने एक टाइपराइटर छोड़कर, अगले टाइपराइटर पर टाइप करती लड़की पर ध्यान देना शुरू किया था। वह भी टाइप करने दो से तीन बजे ही आया करती थी। हालाँकि वह एक छोटे कद की, साँवली सी, साधारण-सी लड़की थी, पर न जाने क्यों लड़के को वह बड़ी आकर्षक लगी थी। लगभग एक महीने तक साथ-साथ टाइप करते रहने के बावजूद उनके बीच सिर्फ एक बार बात हुई थी, जब लड़की ने लड़के से अपना टाइपराइटर थोड़ा-सा दूसरी तरफ खिसका लेने के लिए कहा था। यह बात जरूर थी कि टाइप करने के दौरान लड़का लड़की की तरफ नजरें उठाकर देख लिया करता था। इस तरह देखने के दौरान कभी-कभी लड़की भी लड़के की ओर देख लेती थी। हालाँकि लड़का बहुत चाहता था, कि लड़की से बात की जाए, पर ऐसा करने की हिम्मत अपने में पाता नहीं था। अलबत्ता उसने क्लास के रजिस्टर से यह जरूर जान लिया था, कि लड़की का नाम सपना था।

फिर अचानक लड़की टाइपिंग क्लास में दिखना बंद हो गई। दो-चार दिन तो लड़का यही सोचता रहा, कि कहीं बाहर गई होगी या बीमार होगी। मगर जब पूरे एक सप्ताह तक लड़की की शक्ल दिखाई न दी, तो उसने क्लास के रजिस्टर के जरिए पता लगाया, कि लड़की अब चार से पाँच के बीच वहाँ आती है। लड़के ने भी अपना वक्त बदलवाकर चार से पाँच करवा लिया। साथ ही अपना टाइपराइटर बदलवाकर लड़की के साथ वाला करवा लिया। अब वे दोनों पास-पास बैठकर टाइप करते।

तब धीरे-धीरे उनमें बातों का सिलसिला शुरू हुआ। कस्बे के माहौल के हिसाब से कुछ ज्यादा बात तो की नहीं जा सकती थी। मगर करीब दस-बारह दिन बाद ही जब लड़के के एक दोस्त, विपिन ने उससे पूछा कि लगता है टाँका फिट हो गया है, तो वह सन्न-सा रह गया। अपने दोस्त की बात सुनकर लड़के को यह एकदम से समझ आ गया था, कि इस स्थिति को और ज्यादा खींचना ठीक नहीं है। उसने लड़की से बात करके अपना टाइपराइटर बदलवा लिया। अब वह उससे दूर बैठने लगा था। एक-दूसरे से बात करने का एक नया तरीका उन्होंने ढूँढ निकाला। वे छोटी-छोटी स्लिपों पर अपनी भावनाएँ व्यक्त करके उन्हें किताब में रखकर एक-दूसरे को पकड़ा देते। मगर किताब के अंदर रखकर स्लिप देने का तरीका दो-चार दिन ही चल पाया। जल्दी ही लड़के-लड़की को यह भान हो गया कि ही रोज इस तरह किताबों का आदान-प्रदान करना ठीक नहीं। तब एक नया तरीका उन्होंने निकाला, कि पेन में निब वगैरह निकाल उस जगह में स्लिप रखकर एक-दूसरे को देने लगे। एक-दूसरे तक ऐसा 'पेन' पहुँचाना भी कोई आसान बात नहीं थी। इसके लिए किया यह जाता था, कि टाइप करते-करते दोनों में से कोई एक टाइप करने की सामग्री वाला कोई दूसरा गत्ता ढूँढते-ढूँढते दूसरे के पास जाता और चुपचाप पेन वहाँ रख देता।

लेकिन जल्दी ही लड़के को लगा कि उनके बीच उपजे संबंध की बात फैल रही है। ऐसा उसे तब लगा, जब टाइप क्लास के मालिक ने उसे चेतावनी दी, कि यहाँ यह सब नहीं चलेगा। तब लड़के ने लड़की से फिर बात की और अपना वक्त पाँच से छः बजे तक का करवा लिया।

अब उन दोनों के मिलने का तरीका बस यही रह गया था कि वह लड़की के, टाइप खत्म करके घर लौटने के, वक्त से कुछ पहले साइकल पर सवार होकर टाइपिंग क्लास की ओर निकल पड़ता। ऐसे में कभी-कभी वे एक-दूसरे को सड़क पर आते-जाते देख पाते। कभी एक-दो मिनट का हिसाब गड़बड़ा जाने पर, एक-दूसरे को देख पाना संभव न हो पाता। ऐसे में एक दूसरे से बात करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था।

फिर कुछ महीने बाद लड़की ने टाइप सीखना बंद कर दिया। शायद उसकी आर्थिक स्थिति इसका कारण थी- ऐसा लड़के को लगा था। लड़का हर रोज दोपहर के बाद लाइब्रेरी जाया करता था। एक दिन संयोग से या न जाने कैसे, लड़की उसे लाइब्रेरी में मिल गई। अब उन्हें आपस में मिलने की एक नई जगह मिल गई थी। उस कस्बे में तीन लाइब्रेरियाँ थीं, जो ज्यादा बड़ी नहीं थीं। इनमें से एक तो बिल्‍कुल ही छोटी थी- एक छोटे कमरे जितनी। अब लड़का, लड़की के घर पर चिट्ठी लिखता मधु के नाम से और लड़की, लड़के को चिट्ठी लिखती रमेश के नाम से। कोड शब्दों के जरिए मिलने की जगह, तारीख और समय तय कर लेते और इस तरह दस-पंद्रह दिनों में एक बार मिला करते। इन्हीं मुलाकातों में वे भावनाओं से लबालब अपनी-अपनी स्लिपें, किसी न किसी तरीके से एक-दूसरे को पकड़ा देते।

आज का मिलना भी इसी तरह एक चिट्टी के जरिए ही तय हुआ था, जो लड़के ने लिखी थी। लड़की की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। वह मान रहा था कि उसकी चिट्ठी लड़की को मिल गई हो। उसकी नजरें बार-बार अपनी कलाई घड़ी से टकराती। तयशुदा वक्त से पूरे सात मिनट ऊपर हो चुके थे। लड़का मायूस हो चुका था, कि अब लड़की नहीं आएगी। तभी हाथ में एक छोटा-सा लिफाफा पकड़े लड़की सीढ़ियों से प्रकट हुई। बैंच पर संयोगवश लड़के के पास वाली जगह खाली थी, जहाँ लड़की बैठ गई। आसपास इतने लोग बैठे थे कि बात करना बिलकुल असंभव लग रहा था। लड़के के दिल में तूफान-सा मच रहा था। वह लड़की से कम से कम कुछ तो कहना ही चाहता था, विदाई के शब्दों के तौर पर। पर लाइब्रेरी में जमे तल्लीनता से अखबार पढ़ रहे लोगों के बीच पसरी चुप्पी के होते, यह कतई संभव नहीं लग रहा था। लड़के ने कनखियों से लड़की की ओर देखा। वह भी अखबार सामने रखे हुए उसे पढ़ने का नाटक कर रही थी।

इसी उधेड़बुन में कई मिनट बीत गए। लड़का बड़ी बेचैनी-सी महसूस कर रहा था। इससे पहले ऐसे कई मौके आए थे, जब वे इस तरह लाइब्रेरी में मिले थे और आपस में उनकी कोई बात नहीं हो पाई थी, पर आज का दिन तो विशेष था। एक बार दिल्ली जाने के बाद फिर न जाने कब लड़के का वापस आना होता।

तभी अचानक लड़की मेज पर रखा लिफाफा, धीरे से उसकी तरफ खिसकाते हुए फुसफुसाई, 'आल दि बेस्ट!' ये शब्द सुनते ही आसपास बैठे तीन-चार लोगों के चेहरे एकदम से लड़की की ओर घूम गए, जो तब तक बैंच से उठकर सीढ़ियों की तरफ जा रही थी। संकोच, डर और घबराहट से लड़के का चेहरा पीला पड़ गया और उसके माथे पर पसीना चुहचुहाने लगा। सीढ़ियों की तरफ जा रही लड़की को देख पाने का साहस जुटा पाना, उसके लिए संभव नहीं हो पाया। वह उसी तरह नजरें गड़ाए, अखबार पढ़ने का नाटक करता रहा।

पृथ्वीराज संयोगिता: स्‍वर्णाक्षरों से अंकित प्रेमकथा

पृथ्वीराज चौहान और संयोगिता की प्रेमकथा राजस्थान के इतिहास में स्वर्ण अंकित है। वीर राजपूत जवान पृथ्वीराज चौहान को उनके नाना सा. ने गोद लिया था। वर्षों दिल्ली का शासन सुचारु रूप से चलाने वाले पृथ्वीराज को कन्नौज के महाराज जयचंद की पुत्री संयोगिता भा गई। पहली ही नजर में संयोगिता ने भी अपना सर्वस्व पृथ्वीराज को दे दिया, परन्तु दोनों का मिलन इतना सहज न था। महाराज जयचंद और पृथ्वीराज चौहान में कट्टर दुश्मनी थी।


राजकुमारी संयोगिता का स्वयंवर आयोजित किया गया, जिसमें पृथ्वीराज चौहान को नहीं बुलाया गया तथा उनका अपमान करने हेतु दरबान के स्थान पर उनकी प्रतिमा लगाई गई। ठीक वक्त पर पहुँचकर संयोगिता की सहमति से महाराज पृथ्वीराज उसका अपहरण करते हैं और मीलों का सफर एक ही घोड़े पर तय कर दोनों अपनी राजधानी पहुँचकर विवाह करते हैं। जयचंद के सिपाही बाल भी बाँका नहीं कर पाते।


इस अपमान का बदला लेने के लिए जयचंद ने मुहम्मद गौरी से हाथ मिलाता है तथा उसे पृथ्वीराज पर आक्रमण का न्योता देता है। पृथ्वीराज ने 17 बार मुहम्मद गौरी को परास्त किया तथा दरियादिल होकर छोड़ दिया।


18वीं बार धोखे से मुहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज को कैद कर लिया तथा अपने मुल्क ले गया। वहाँ पृथ्वीराज के साथ अत्यन्त ही बुरा सलूक किया गया। उसकी आँखें गरम सलाखों से जला दी गईं। अंत में पृथ्वीराज के अभिन्न सखा चंद वरदाई ने योजना बनाई। पृथ्वीराज शब्द भेदी बाण छोड़ने में माहिर सूरमा था। चंद वरदाई ने गौरी तक इस कला के प्रदर्शन की बात पहुँचाई। गौरी ने मंजूरी दे दी। प्रदर्शन के दौरान गौरी के शाबास लफ्ज के उद्घोष के साथ ही भरी महफिल में अंधे पृथ्वीराज ने गौरी को शब्दभेदी बाण से मार गिराया तथा इसके पश्चात दुश्मन के हाथ दुर्गति से बचने के लिए दोनों ने एक-दूसरे का वध कर दिया।


अमर प्रेमिका संयोगिता को जब इसकी जानकारी मिली तो वह भी वीरांगना की भाँति सती हो गई। दोनों की दास्तान प्रेमग्रंथ में अमिट अक्षरों से लिखी गई।

प्यार की सीढ़ियाँ

हमने लैला-मजनूँ, रोमियो-जूलियट, सोहनी-महिवाल, हीर-रांझा के प्रेम के किस्से बहुत सुने...कुछ लोग उसे काल्पनिक भी कहते हैं। लेकिन आज मैजो प्रेम कथा आपके सामने लाया हूँ वह सत-प्रतिशत सत्य है। प्यार के बड़े-बड़े वादे तो हर कोई करता है... लेकिन जीवनभर साथ निभाने वाले लोग बहुत कम होते हैं।

यह कथा दो ऐसे प्रेमियों की है जिन्होंने देश-दुनिया से दूर रहकर भी उम्रभर एक दूसरे का साथ दिया। यह कथा चीन प्रांत की है। जहाँ पर एक बूढ़े शख्स और बूढ़ी औरत ने दुनिया की परवाह न करते सिर्फ एक-दूसरे के साथ रहकर अपने जीवन के पचास साल व्यतीकर दिए।

वह दोनों चीन के दक्षिणी चौंगकिंग नगर की जियांगलिन कांउटी में बसी पहाड़ी पर स्थित एक गुफा में रहते थे। वह अपनी बूढ़ी पत्नी से बहुत प्यार करता था। चूँकि वह उससे दस साल बड़ी थी। इसलिए उसने अपना पूरा ध्यान अपनी प्यारी पत्नी की जरूरतों को पूरा करने में दिया।

आज से पचास साल पहले जब वो दोनों यहाँ पर आए थे तब उनके पास न तो कोई खाना था, न बिजली, न घर का कोई सामान। कुछ दिनों तक उन्होंने एक गुफा में रहकर घास और कंदमूल से ही अपना गुजारा किया। बाद में लुई नाम के इस 70 साल के बूढ़प्रेमी ने अपनी पत्नी शू के लिए केरोसिन लेम्प बनाया और इस प्रकार उनके घर में रोशनी का आगमन हुआ।

दोस्तो, आप सोच रहेंगे कि इसमें ऎसी कौन सी बात है। जो इसे सबसे श्रेष्ठ प्रेम कथा कहा जा रहा है...तो सुनिइसका जवाब...

आज से पचास साल पहले जब 19 साल के लुई गुओजियांग ने 29 साल की विधवा महिला शू चाओजिन को देखा तो पहली नजर में ही दोनों के बीच में प्यार हो गया।

उन्होंने अपनी शादी की बात अपने परिजनों के सामने रखी तो सभी ने उनका जमकर विरोध किया। शू भी लुई को बहुत चाहती थी। उन दोनों ने अपने परिवार के लोगों को मनाने का बहुत प्रयास किया लेकिन किसी को भी उन दोनों का रिश्ता मान्य नहीं थाआखिर में उन दोनों ने भागकर शादी कर ली और सबसे दूर दक्षिणी चौंगकिंग नगर की जियांगलिन कांउटी में बसी पहाड़ी पर स्थित एक गुफा में जाकर अकले रहने लगे।

शू उम्र में लुई से दस साल बड़ी थी। उसे पहाड़ से अपने घर तक की चढा़ई पार करने में मुश्किल हुई। लुई को यह बात मालूम थी इसलिए उसने यहाँ पर आने के दूसरे दिन से ही पहाड़ को काटकर सीढ़ियाँ बनाना शुरू कर दिया था। यह सिलसिला पचास सालों तक चला। इतने समय में उसने अपनी प्यार पत्नी की सहूलियत के लिए खुद अपने हाथों से लगभग 6 हजार सीढ़ियाँ बनाईं जो आज भी इस पहाड पर हैं।

वर्ष 2001 में इन सीढ़ियों पर साहसिक कार्य करने वाली एक संस्था का ध्यान पड़ा। पहले तो वह लोग यह मानने के लिए तैयार ही नहीं हुए कि इसको किसी एक आदमी ने अपने जीवन के पचास साल देकर खुद अपने हाथों से बनाया है, लेकिन बाद में उन लोगों को इस पर भरोसा हुआ।

एक दिन खेत से घर आने के बाद लुई अचानक ही बेहोश हो गया। यह उसके जीवन का अंतिम समय था। उसका हाथ अपनी पत्नी के हाथ में था। शू उसे देखकर रो रही थी। लुई ने एक प्यारभरी मुस्कान से शू के सामने देखा और फिर धीरे-धीरे उसकी आँखेहमेशा-हमेशा के लिए बंद हो गई।

तुमने मुझसे वादा किया था कि तुम जीवनभर मेरी देखभाल करोगेतुम तब तक मेरा साथ नहीं छोड़ोगे जब तक मैदुनियमेहूँऔर आज तुम मुझसे पहले ही यह दुनिया छोड़कर जा रहे होआखिर तुमने मेरे साथ धोखा किया है। लुई, मैं तुम्हारे बगैर कैसे जी सकूँगी।

उस बूढ़ी़ औरत की आँखों में आँसू थमने का नाम नही ले रहे थेवह एक काले ताबूमेलिपटी हुई अपने पति की लाश के सामने फूट-फूटकर रो रही थी।

वर्ष 2006 में 'चाइनीज वूमन वीकली ' ने उनके प्यार की इस दास्तान को चीन की सर्वश्रेष्ठ 10 प्रेम कहानियों में से एक के तौर पर प्रदर्शित की। यहाँ की स्थानीय सरकार ने आज भी उस 'प्यार की सीढ़ियों को सुरक्षित रखा है और वह स्थान जहाँ पर यह दोनो प्रेमी रहते थे उसको म्यूजियम में तब्दील किया गया है। यहाँ पर हर दिन कई सारे प्रेमी आते हैं।

रेत के कणों का मिलन

इराकी कहानी
गरम हवाएँ चल रहीं थीं। आकाश में धूल छा रही थी। एक युवा यात्री रेगिस्तान से गुजर रहा था। उसे रास्तों का भी ठीक से पता नहीं था। रेतीला तूफान इतना तेज था कि उसे अपने घोड़े के कान भी नहीं दिख रहे थे। उसने सोचा मेरे यही ठीक रहेगा कि मैं हवा की दिशा के साथ ही चलूँ। यदि मैं रुकता हूँ तो तेज जहरीली गर्म हवा मेरे फेफड़े ही जला देगी और मेरा शरीर रेत से ढँक जाएगा। और यदि मैं विपरीत दिशा में जाता हूँ तो रास्ता भटक जाऊँगा और मर जाऊँगा।

इसलिए उसने अपने चेहरे को कपड़े से ढँक लिया और हवा की दिशा में चल पड़ा। कुछ समय बाद उसे एक मीनार दिखाई पड़ी। 'आखिर मैंने शैतान हवा से बचने के लिए आश्रय पा ही लिया!' उसने घोड़े सहित मीनार में प्रवेश किया। जब वह अपने चेहरे से रेत झाड़ रहा था तब उसे एक आवाज सुनाई दी-'तुम इंसान हो, जिन्न हो या हवा की शैतानी शक्ति हो?'

युवा यात्री का नाम अली था उसने उत्तर दिया-'मैं मनुष्य हूँ। आप कौन हैं?'अली ने देखा चाँद से चेहरे और गुलाब की पंखड़ी सी नाजुक, लताओं की तरह खूबसूरत लड़की सामने आई। उसे देखते ही अली का मन खिल गया और दिल खो गया। लड़की बोली-'मैं भी मनुष्य हूँ और तूफान में खो गई हूँ। हवा में भटक गई हूँ इस तूफानी मंजर में यहाँ तक आ पहुँची हूँ।'

अली ने उस सुंदरी से कहा-' यहाँ हमें तब तक शरण लेनी पड़ेगी जब तक तूफानी हवा थम नहीं जाती। मुझे अपना नाम तो बताओ।'

'
तुम्हें मेरे नाम से क्या मतलब? तुम एक अनजान मुसाफिर हो मुझे तुमसे बात नहीं करनी चाहिए।' अली का मन उस लड़की का नाम जानने को बेताब हो रहा था और उससे ढेर सारी बातें करने का भी हो रहा था। उसने मीनार के दरवाजे से बाहर इशारा करते हुए कहा- 'देखो हवा में रेत के कण ही कण हैं। ऐसी कोई जगह ही नहीं जहाँ रेत के कण न हों।' 'हाँ तुम्हारी बात सही है।' लड़की ने कहा।

'
क्या एक रेत के कण को दूसरे रेत के कण से डरना चाहिए? और एक दूसरे के साथ से बचना चाहिए? रेत के कणों को एक दूसरे से डरना ही नहीं चाहिए क्योंकि वो तो हवा के कारण उड़ रहे हैं। मैं और तुम और कुछ नहीं बस रेत के कण हैं जो हवा में साथ उड़ गए हैं। हमें एक दूसरे से डरना नहीं चाहिए और न ही एक दूसरे से बचना चाहिए क्योंकि हमारे भाग्य में यही लिखा था।' युवा लड़की ने सोचा कि अली ठीक ही कह रहा है। उसने शर्माते हुए कहा-'मेरा नाम सलमा है और मेरे पिता का नाम हुसैन है।'

अली और सलमा ने पूरा दिन दिल खोलकर बातें कीं। तूफान अपने तेवर दिखाता रहा पर उन्हें खबर नहीं थी। घंटों बीत गए, शाम हुई और रात ढलने लगी और अली की आँख लग गई। जब अली उठा तो गहरा अँधियारा फैला हुआ था और सलमा का कहीं पता नहीं था। वह मीनार के दरवाजे पर गया, देखा तो हवा बह रही थी पर तूफान थम गया था। उसने सलमा के पैरों के निशान ढूँढने की बहुत कोशिश की लेकिन कुछ भी नजर नहीं आया।

अली बहुत दुःखी हो गया फिर भी वह रोना नहीं चाहता था। उसे चिंता भी हो रही थी कि सलमा कहाँ चली गई। उसने सोचा -'वह अरब की बेटी है और रेगिस्तान में अरब लोग तो रेत के कणों की तरह फैले हुए हैं। रेत केकणों की बात याद आते ही उसे सलमा के साथ गुजारा वक्त याद आ गया, वह और भी बेचैन हो गया। मैं सलमा को कैसे ढूँढ सकूँगा? कितने लोग होंगे जिनका नाम हुसैन होगा और उनकी बेटियों का नाम सलमा होगा। अब मैं क्या करूँ? उसने मुझे बताया भी नहीं कि वो कहाँ रहती है। दो रेत के कण तूफान में मिले और बिछुड़ गए। अब उन्हें फिर से कौन मिलाएगा?'

अली सलमा की तलाश में पागलों की तरह भटकने लगा। जहाँ-तहाँ सलमा के बारे में पूछता। सलमा के विछोह में वह बेहद दुखी हो गया। उसके बाल उलझ गए, कपड़े फट गए दाढ़ी लंबी हो गई। जिस भी गाँव जाता लोगों से एक ही प्रश्न पूछता-'हुसैन यहीं रहते हैं? जिनकी बेटी का नाम सलमा है?' लोग समझते यह आदमी पागल हो गया है और उसका मजाक बनाते- 'कितने लोग होंगे जिनका नाम हुसैन होगा और उनकी बेटी का नाम सलमा होगा। अब हमें क्या पता यह किस सलमा को तलाश कर रहा है?'

अली शहर से शहर और कस्बे से कस्बे घूमता रहा। न तो उसने कोई काम किया न ही कोई व्यवसाय अपनाया, बस वह तो अपने खोए प्यार के बारे में ही सोचता रहता। वह बहुत दुबला हो गया और उसके घोड़े की भी हालत खराब थी। एक दिन जोर की बरसात आई। नदी में पानी नहीं समाया और बाढ़ आ गई। अली और उसका घोड़ा पानी में डूबते-उतराते एक टीले पर चढ़ गए। उसके फेफड़ों में पानी भर गया था और भूख के मारे उसके पेट में खिंचाव हो रहा था। टीले पर पहुँचकर लगा कि अब उसके प्राण गए, उसे बेहोशी आने लगी। लेकिन तभी एक युवा लड़की ने उसके पेट से पानी निकाला और उसके घोड़े को भी खींचकर बचा लिया।

अली ने जब आँखें खोली तो उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा उसे बचाने वाली और कोई नहीं सलमा ही थी। वह अली के चहरे को एकटक देख रही थी। वह मुस्कराई और बोली-'जब रेत के दो कण हवा उड़ा ले जाती है और वही हवा उन्हें जुदा भी करती है। लेकिन जब दो रेत के कण एक दूसरे को पा लेते हैं तो वे हमेशा एक दूसरे के साथ रहते हैं और कभी जुदा नहीं होते!'