किसी प्रेम को, आस्था को या समर्पण को जानना है, तो मीरा को जानना होगा। मीरा को जानना मोहन को पाने के बराबर है। कारण इसका यह भी है कि एक स्तर पर आकर उनका आपस का भेद ही ख़त्म हो जाता है..
कृष्ण को जानना हो, तो मीरा को सेतु बनाओ, क्योंकि मीरा के अलावा दूसरा कोई सेतु नहीं जो कृष्ण की थाह पा सके। भक्त हर युग में हुए, मगर मीरा जैसा भक्त किसी युग में दूसरा नहीं हुआ। मीरा की कृष्ण भक्ति के आगे दुनिया की हर भक्ति फीकी दिखाई पड़ती है। मीरा कृष्ण जी की मूर्ति के सामने खड़ी होकर कहती हैं- ‘मैं तो सिर्फ़ इस योग्य हूं कि तुम्हारे गीत गा सकूं। इसके अलावा मुझमें दूसरा कोई गुण नहीं है।
‘जहां बैठाने तित ही बैठूं, बेचे तो बिक जाऊं।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, बार-बार बलि जाऊं।’
अर्थात- अब तो मेरा जीवन उसी की आज्ञा के जैसा चलता है। जहां बिठा देता है, वहीं बैठ जाती हूं। उठने को कहता है, तो उठ जाती हूं। मेरे तो प्रभु कृष्ण कन्हैया हैं, जिन पर जीवन बलिहारी है। परमात्मा के प्रति मीरा की दीवानगी इस हद तक थी कि उन्हें दुनिया में कृष्ण के अलावा कुछ दिखाई ही नहीं देता था। वह कहती हैं, संतों के संग बैठ बैठ कर वह जो लोक लाज का व्यर्थ आडम्बर था, बोझ था वह सारा मैंने उतार दिया है। संत के संग बैठ कर भी अगर लोग लाज न खोई, तो संत से क्या सीखा?
कौन थीं मीरा?
मीरा कृष्ण की दीवानी थी, ऐसा सारा संसार जानता है। मगर उनकी पृष्ठभूमि को जानना भी बहुत Êारूरी है। मीरा का जन्म राठौर परिवार के रत्न सिंह और वीर कुंवरी के घर 1512 में मेड़ता में हुआ था। मीरा के दादा का नाम राव द्दा जी था, जो अत्यंत धनाडच्य थे। मीरा की माता वीर कुंवरी झाला राजपूत सुल्तान सिंह की बेटी थी। रत्न सिंह ने कुड़की गांव को अपना केंद्र बनाया था। मीरा ने गुरु गजाधर से शिक्षा ग्रहण की। उन्हें अपनी आजीविका के लिए सात हज़ार बीघा जमीन दे रखी थी और उन्हें व्यास की पद्वी से विभूषित किया था। मीरा की एक बाल सखी थी ललिता, जो वास्तव से उसकी दासी थी।
एक बार मीरा महल के ऊपर खड़ी थी। नीचे से एक बारात जा रही थी। बाल सुलभ मीरा ने मां से पूछा कि यह क्या हो रहा है? मां ने बताया कि बारात जा रही है। मीरा के यह पूछने पर कि बारात क्या होती है? मां ने कहा कि वर पक्ष के लोग कन्या के घर पर उसे विवाह कर लातें है और विवाह में वर का किसी कन्या के साथ विवाह होता है। उसने मां से पूछा कि मेरा वर कौन होगा? इतने में कुल पुरोहित श्रीकृष्ण की एक मूर्ति लेकर आए और मां ने मज़ाक में कह दिया कि यह है तेरा वर। और मीरा ने श्रीकृष्ण को अपना वर मान लिया।
जब मीरा की शादी हुई
मीरा जब शादी के योग्य हुईं, तो माता-पिता ने उनका रिश्ता राजकुंवर भोजराज से कर दिया। भोजराज चितौड़ नरेश राणा सांगा के पुत्र थे। मीरा ने इसे अपनी दूसरी शादी करार दिया। राजघराने की बहू बनने के बाद भी वह हर व़क्त श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहने लगीं। मीरा की एक देवरानी थी अजब कुंवरी, जो बाल विधवा थी। उसने मीरा की भावनाओं को समझ लिया तथा उसे सखी जैसा प्यार देने लगी। दूसरी तरफ़ उसकी ननद ऊदो ने बड़ी कोशिश की कि मीरा कृष्ण भक्ति छोड़ दें, मगर असफल रहीं।
राजकुंवर भोजराज की असमयिक मृत्यु हो गई। प्रथा के अनुसार पति की मृत्यु पर पत्नी को सती हो जाना था, मगर मीरा ने सती होने से इंकार कर दिया। सभी लोग चाहते थे कि मीरा सती हो जाए, मगर भोजराज का छोटा भाई मीरा के पक्ष में खड़ा हो गया और वह सती होने से बच गईं।
जब मीरा पर अत्याचार हुए
उसी समय बाबर ने भारत पर आक्रमण कर दिया। राणा सांगा और बाबर में भीष्ण युद्ध हुआ, तो मीरा के पिता रत्न सिंह और भाई जलमल तथा अन्य रिश्तेदार राणा सांगा के साथ खड़े हो गए। मगर युद्ध में मारे गए, जिससे मीरा बहुत आहत हुईं। राणा सांगा भी मारा गया, तो चित्तौड़ की गद्दी पर राणा रत्न सिंह और उसके बाद विक्रम सिंह बैठे। विक्रम सिंह की बुरी नज़र मीरा पर पड़ गई। उसने मीरा को प्राप्त करने का हर संभव प्रयास किया, मगर उसके इंकार करने पर वह मीरा से बदला लेने की सोचने लगा।
जन्माष्टमी के दिन राजा विक्रम सिंह ने मीरा को एक उपहार पेटिका भेजी, जिसमें काला भयंकर सांप था। मीरा ने पेटिका खोली, तो उस सांप को देखते ही पकड़ लिया। उसे कुछ नहीं हुआ। इतना ही नहीं, एक बार मीरा को धोखे से श्रीकृष्ण का चरणामृत कहकर विष भेजा गया। मीरा विष पीकर भी Êिांदा रहीं। तब क्रोधित विक्रम सिंह ने मीरा पर तलवार से हमला किया, तो उसे एक साथ चार-चार मीरा नज़र आने लगीं। आख़िरकार मीरा अपने ताया के पास मेड़ता चली गईं, ताकि उसके अत्याचारों से बच सके। वह मथुरा वृंदावन भी गईं। और वहां के रणछोड़ जी के मंदिर में अपने बनाए भजन गाया करती थीं।
मीरा समुद्र की लहरों में समा गईं
उधर राणा विक्रम अभी भी मीरा के पीछे पड़ा था। उसने पुरोहितों को मीरा के पास भेजा कि राणा बदल गया है। उसने यह भी कहलवा दिया कि अगर वह न लौटीं, तो वह आमरण अनशन करेगा। मीरा ने समझ लिया कि अब प्रभु मिलन का समय आ गया है। वह समुद्र की लहरों की ओर बढ़ने लगीं और इस तरह 1573 में वह समुद्र की लहरों में समा गईं।
01 अप्रैल 2010
मीरा और मोहन
Posted by Udit bhargava at 4/01/2010 08:15:00 am
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