इस संसार में यदि सबसे बड़ा कोई संगीतकार है, तो वो हैं श्री कृष्ण। जिस प्रकार से सत्व, रज और तम -तीनों गुणों के समन्वय को प्रकृति कहा गया है। उसी प्रकार से गायन, वादन और नृत्य -इन तीनों में जो पारंगत हो उसे संगीतकार कहते हैं। कृष्ण गायन में कुशल हैं। कुरुक्षेत्र के मैदान में उन्होंने जो गाया वह भगवद् गीता के रूप में आज हमारे पास है। वादन में श्रीकृष्ण कुशल हैं, जब बांसुरी वादन करते हैं, तब जड़ चेतन और चेतन जड़ हो जाता है। नृत्य में भी कुशल हैं। उन्होंने गोपियों के साथ वृंदावन में रास रचाया। इसीलिए हम कहते हैं कि कृष्ण सबसे बड़ा संगीतकार है।
एक चीज और, कृष्ण तटस्थ नहीं वह पक्षधर हैं। जब समाज में धर्म की हानि हो रही हो, अधर्म पुष्ट हो रहा हो, सज्जन कष्ट झेल रहे हों, दुर्जन आनंद भोग रहे हों, ऐसे में कृष्ण तटस्थ नहीं रह
पांच थे और कौरव सौ, लेकिन कौरवों के अत्याचार को कृष्ण देखते नहीं रहे, उन्होंने अर्जुन को युद्घ के लिए ललकार यानी अधर्म के खिलाफ संघर्ष के लिए खड़ा किया। उन्होंने कहा, अर्जुन तू यहां अन्याय के लिए युद्घ के मैदान में खड़ा है। हस्तिनापुर की सत्ता हासिल करने के लिए नहीं। आज का भी यही सत्य है।
कोई गुंडा किसी निर्दोष व्यक्ति को पीट रहा हो और वह चिल्ला-चिल्ला कर मदद की गुहार कर रहा हो और वहां खड़े लोग देखते रहें कि हम तो निष्पक्ष हैं और वह गुंडा उस निर्दोष का कत्ल कर दे, तो सही मायने में उस कत्ल में तटस्थ समाज के लोग भी उतने ही दोषी हैं, जितना कि वह गुंडा। और आज यही हो रहा है कि सज्जन समाज तटस्थ होकर देख रहा है। यह कृष्ण के अनुयायियों का काम नहीं है। कृष्ण न तो रागी हैं और न ही वीतरागी, सही मायने वो अनुरागी हैं। कृष्ण अनासक्त बनना हमें सिखाते हैं। जब अनासक्त हो जाएंगे फिर जहां रहोगे वहीं आनंद बरसने लगेगा। सांसारिक कार्य करते हुए भी मस्त रहोगे। जीव को वस्तु नहीं, बल्कि उसकी आसक्ति उसे बांधती है।
वृंदावन में गोपियों के साथ रास रचाते और कालिया नाग को नाथ कर उसके ऊपर नृत्य करते हैं। बड़ा अद्भुत चरित्र है कृष्ण का। राम का अनुसरण कठिन है और कृष्ण को समझना कठिन है। कृष्ण एक प्रश्न हैं, राम एक पूर्णविराम हैं। अगर उनका अनुसरण करेंगे, तो विश्राम और शांति पाएंगे। देखो, कृष्ण कितने विचित्र हैं। जन्मे जेल में और काम करते हैं मुक्ति देने का। खुद अर्जुन को उपदेश देते हैं कि रणभूमि छोड़ कर भागा नहीं जाता और स्वयं जरासंध को देख भाग खड़े होते हैं।
कृष्ण के जीवन में विधायक दृष्टिकोण अद्भुत है। इसलिए तो उनका चरित्र सबको प्रिय है। सबको लुभाता है। तुम पार्थ तो बनो, वो तम्हारे सारथी होने के लिए लालायित हैं, तैयार हैं। बस देरी तुम्हारी ओर से ही हो रही है। उन्होंने तो बांसुरी की मीठी तान छेड़ रखी है। तुम सुनो तो सही, तुम अपने को उस स्थिति में तो लाओ।
एक बात सदैव ध्यान रखना, कृष्ण हमारे साथ हैं। लेकिन वो सिर्फ हमारे लिए ही हैं ऐसी गलतफहमी में जीवन में हाथ पर हाथ धरे मत बैठे रहना। हम पार्थ बनेंगे तब वो हमारे सारथी बनेंगे। पार्थ बनना मतलब पुरुषार्थ के लिए सदैव तत्पर रहना। कई लोग प्रारब्ध के भरोसे बैठे रहते हैं, अरे भई, तुम्हारा प्रारब्ध मूर्छित है तो उस पर अपने पुरुषार्थ के पसीने की बूंदें छिड़क कर उसे जागृत करो। जीवन में प्रारब्ध के भरोसे हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने वाले मनुष्य कुछ नहीं कर सकते, यही संदेश श्रीकृष्ण देते हैं।
हम सबकी यात्रा का प्रारंभ बंधन से हुआ और सबको मुक्त होना है। मोक्ष ही तो जीवन का लक्ष्य है। कारागृह में सबका जन्म होता है। जन्म के साथ ही बंधन है। कंस मरेगा तब कारागृह से मुक्त होंगे। कंस यानि देहाभिमान। देहाभिमान का नाश सद्विद्या से होगा और सद़विद्या की प्राप्ति सद्गुरु से होगी और कृष्ण जगद्गुरु हैं।
09 दिसंबर 2009
कृष्ण एक प्रश्न हैं, राम एक पूर्णविराम
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Posted by Udit bhargava at 12/09/2009 07:50:00 am 0 comments
'सुख देने से मिलता है सुख'
श्री राजमाता झंडेवाला मंदिर, शाहदरा में आयोजित श्रीमद्भागवत कथा ज्ञान यज्ञ में कथा व्यास समंत कृष्णा ने कृष्णा व सुदामा चरित्र प्रसंग पर कहा कि ब्राह्माण कभी हाथ फैलाता हुआ अच्छा नहीं लगता। किसी के आगे हाथ फैलाने से आंसू, यश, बल और कीर्ति का नाश होता है। श्रीमद्भागवत कथा हमें यह ज्ञान देती है कि जब-जब धर्म की हानि होती है, तब-तब भगवान विभिन्न रूप धारण कर पृथ्वी पर अवतार लेते हैं। संसार के सभी धर्मों के ग्रंथ एक ही ज्ञान देते हैं कि सुख देने से सुख मिलता है और दुख देने से दुख। इसलिए सबसे बड़ा धर्म है कि हर व्यक्ति को परमार्थ और परोपकार के लिए कुछ न कुछ कार्य जरूर करते रहना चाहिए। इसी में इंसान और समाज की भलाई है। इसके बाद इंसान उन सब मोह माया से दूर होकर सच्चे सुख को प्राप्त करता है, जिसके लोभ में वह सारी जिंदगी लगा रहता है और फिर भी उसे सच्चा सुख नहीं मिलता।
Posted by Udit bhargava at 12/09/2009 07:38:00 am 0 comments
सुख तो सेवा से
प्रेम शब्द से सभी परिचित हैं। प्रेम का एक अर्थ शरणागति भी होता है। व्यक्ति जिससे प्रेम करता है उसी के भले-बुरे की चिंता भी करता है। एक मां को हमेशा अपने पुत्र के भले-बुरे की चिंता सताती है क्योंकि वह उससे प्रेम करती है। इस प्रेम में इतनी शक्ति होती है कि वह उस व्यक्ति से, जिसकी सेवा की जा रही है, कोई भी कार्य करवा सकता है। जब एक दुनियावी मां अपने बच्चे के प्रेम में वशीभूत होकर उसके लिए कुछ भी करने के लिए तैयार रहती है, तो क्या भगवान जिसमें करोड़ों माताओं का वात्सल्य भरा हुआ है, प्रेम के वशीभूत होकर हमारे कार्य सुलभ नहीं कर सकते? सर्वशक्तिमान तो असंभव को संभव कर सकते हैं, उनके लिए कुछ भी करना क्या मुश्किल है? बस हमें ही उनसे प्रेम करना होगा। हमें ही उनके शरणागत होना होगा। देखो ना, दुनियावी जगत में हम अपने कुटुंब, अपने व्यापार, अपनी सेहत, इत्यादि का निरंतर चिंतन करते हैं क्योंकि हम इनसे प्रेम करते हैं। और तो और, हम उन्हीं के लिए जीते भी हैं। अर्थात् हम उनके शरणागत हैं। परिवार खुश तो हम भी खुश। व्यापार ठीक, तो हम भी ठीक, इत्यादि। उनकी प्रसन्नता से ही हमारी प्रसन्नता होती है। इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि भले ही कहने को हम अपने परिवार या व्यापार के स्वामी हैं, लेकिन ध्यान देने पर हम पाएंगे कि हम तो उनके दास हैं। जबकि शास्त्रानुसार मनुष्य का वास्तविक स्वरूप है- 'कृष्ण दास'। इस बात को एक प्रसंग से समझा जा सकता है। एक बार परमपूज्यपाद श्रीमद् भक्ति बल्ल्भ तीर्थ गोस्वामी महाराज विदेश यात्रा पर गए। वहां एक कार्यक्रम के अंत में प्रश्न-उत्तर के लिए कुछ समय रखा गया। उस समय एक विदेशी सज्जन ने प्रश्न किया, 'महाराज जी, जैसा कि आपने कहा कि मनुष्य भगवान की शक्ति का अंश है, अर्थात् उनका दास है। क्या यह मान लेने से हमारे सब दुख चले जाएंगे? मैं मानता हूं कि मैं श्रीकृष्ण का दास हूं, परंतु मैं अभी भी दुखी हूं। मुझे कोई सुख नहीं है। मैं अक्सर परेशानियों से घिरा रहता हूं।' महाराज जी ने कहा कि आप जानते हैं कि आप भगवान के दास हैं, परंतु यह बात आप दिल से मानते नहीं हैं। उस व्यक्ति ने कहा, 'यह कैसे संभव है?' महाराज जी ने उन्हें उत्तर देने से पहले उसकी दिनचर्या पूछी। उसकी दिनचर्या सुनकर महाराज जी ने कहा, 'आप तो श्रीकृष्ण के दास हैं परंतु आप दासत्व तो संसार का ही कर रहे हैं। मुंह से भले ही आप खुद को को श्रीकृष्ण दास कहते हैं, परंतु व्यवहार से आप संसार के दास हैं क्योंकि आप अपना सारा समय व सारी शक्ति संसार के कार्य और वस्तुओं को पाने में ही व्यय कर रहे हैं।' 'यदि आप मानते कि आप श्रीकृष्ण के दास हैं तो आपकी दिनचर्या भगवान की सेवा अर्थात उनको प्रसन्न करने मात्र के लिए होती। कोई नौकर अगर अपने मालिक की सेवा न कर किसी अन्य की सेवा करेगा तो क्या उसका मालिक खुश होगा? मालिक क्या ऐसे नौकर को अपनी नौकरी पर रखेगा?' स्पष्ट है कि जब लोग उन सांसारिक कार्यों और ऐसे लोगों की सेवा में व्यस्त हैं जो दुख का कारण हैं या स्वयं दुखी हैं, तो वे आपको सुखी कैसे कर सकते हैं? स्थायी सुख तो भगवान की सेवा करने से ही मिलेगा क्योंकि वे ही सच्चिदानंद स्वरूप हैं। आनंद के स्त्रोत की सेवा करने से ही आनंद होगा। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद् भगवदगीता में कहा है कि यह जगत दुखालय है। दुखालय का अर्थ होता है, दुखों का घर। जब सृष्टिकर्ता ही कह रहा है कि उसकी रचना का संसार दुखों से भरा है तो फिर हमें यहां सुख कैसे मिल सकता है? इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने स्वरूप को पहचानें और भगवान के शरणागत होकर, जन्म-मृत्यु के इस सागर से पार चले जाएं।
Posted by Udit bhargava at 12/09/2009 07:37:00 am 0 comments
सबसे बड़ी तपस्या
सत्यनगर का राजा सत्यप्रताप सिंह अत्यंत न्यायप्रिय शासक था। एक बार उसे पता चला कि सौम्यदेव नामक एक ऋषि अनेक सालों से लोहे का एक डंडा जमीन में गाड़कर तपस्या कर रहे हैं और उनके तप के प्रभाव से डंडे में कुछ अंकुर फूट कर फूल-पत्ते निकल रहे हैं और जब वह अपनी तपस्या में पूर्ण सफलता प्राप्त कर लेंगे तो उनका डंडा फूल-पत्तों से भर जाएगा। सत्यप्रताप ने सोचा कि यदि उनके तप में इतना बल है कि लोहे के डंडे में अंकुर फूट कर फूल-पत्ते निकल सकते हैं तो फिर मैं भी क्यों न तप करके अपना जीवन सार्थक बनाऊं।
यह सोच कर वह भी ऋषि के समीप लोहे का डंडा गाड़कर तपस्या करने लगा। संयोगवश उसी रात जोर का तूफान आया। मूसलाधार बारिश होने लगी। राजा और ऋषि दोनों ही मौसम की परवाह न कर तपस्या में मगन रहे। कुछ देर बाद एक व्यक्ति बुरी तरह भीगा हुआ ठंड से कांपता आया। उसने ऋषि से कहीं ठहरने की जगह के बारे में पूछा पर ऋषि ने आंख खोलकर भी नहीं देखा। निराश होकर वह राजा सत्यप्रताप के पास पहुंचा और गिर पड़ा। राजा ने उसकी इतनी बुरी हालत देखकर उसे गोद में उठाया। उसे नजदीक ही एक कुटिया नजर आई। उसने उस व्यक्ति को कुटिया में लिटाया और उसके समीप आग जलाकर गर्माहट पैदा की। गर्माहट मिलने से व्यक्ति होश में आ गया। इसके बाद राजा ने उसे कुछ जड़ी-बूटी पीसकर पिलाई। कुछ ही देर बाद वह व्यक्ति बिल्कुल ठीक हो गया। सुबह होने पर राजा जब उस व्यक्ति के साथ कुटिया से बाहर आया तो यह देखकर हैरान रह गया कि जो लोहे का डंडा उसने गाड़ा था वह ताजे फूल-पत्तों से भरकर झुक गया था। इसके बाद राजा ने ऋषि के डंडे की ओर देखा। ऋषि के थोड़े बहुत निकले फूल-पत्ते भी मुरझा गए थे। राजा समझ गया कि मानव सेवा से बड़ी तपस्या कोई और नहीं है। वह अपने राज्य वापस आकर प्रजा की समुचित देखभाल करने लगा।
Posted by Udit bhargava at 12/09/2009 07:35:00 am 0 comments
नारद और मनुष्य के बीच आधुनिक संवाद
अलग-अलग युगों में सिंहासन को डोलाने के लिए डिफेंट्र लेवल का एफर्ट करना पड़ता है। सतयुग में न्यूनतम प्रयास में अधिकतम की प्राप्ति होती थी। अब कलयुग में अधिकतम एफर्ट में न्यूनतम भी नहीं मिलता है। यहां तक कि कलयुग के प्रारंभ में तो देवता आदि सिंहासन डोलाने की कूवत किसी में न जानकर स्वर्ग में एक जोरदार फंक्शन तक एडवांस में आयोजित कर चुके हैं।
तो हे! मनुष्यों में अत्यंत लोलुप व्यक्ति, तुम उस फंक्शन का विस्तृत विवरण भी सुन ही लो- जिस दिन देवताओं ने इस उत्सव का आयोजन किया था, उस दिन व्यर्थ के झंझट से मुक्ति पाकर देवताओं ने खुद पर ही फूलों की वर्षा की थी।
अप्सराएं किलपी-किलपी सी डोल रही थीं। उन्हें लग रहा था कि अब शायद धरती पर ध्यान भंग करने जैसे फिजूल कामों से मुक्ति मिल जाएगी। क्योंकि कई बार तो उनके सामने इस कार्य के दौरान यह समस्या आ जाती थी कि टारगेट ऋषि-मुनि पीछे ही पड़ जाता था।
फिर उससे ब्याह आदि के झंझट तक में पड़ना पड़ता था। जिस पर वे देवताओं को नहीं समझा पाती थीं कि तुम्हारा क्या? इधर सिंहासन डोला, उधर तुमने टप्प से नोटशीट चलाई कि जाओ ध्यान भंग कर दो, रूपजाल में फांस लो। अब तुम क्या जानो कि कैसी-कैसी युक्तियां भिड़ानी पड़ती थीं। कितना मेकअप चपोड़ना पड़ता था।
कैसे-कैसे तो डांस स्टेप्स करने पड़ते थे। पांव तक थक जाते थे, आत्मा तक पर बेहोशी छाने लगती थी। लेकिन कई खुर्राट महात्मा एक आंख दाबकर पूरा डांस देखते रहते थे। कुछ तो प्रवृत्तिवश इतने जालिम होते थे कि पहले पूरा डांस भी देख लेते थे, फिर जैसे-तैसे आंख खोलते थे, फिर भसम करने आदि की धमकियां भी देना शुरू कर देते थे।
ऐसे दुष्टों पर ज्यादा रूपजाल के बाण फेंको तो कमंडल से जल-वल निकालना शुरू कर देते थे कि अभी बनाता हूं कीड़ा-मकोड़ा। ज्यादा अनुनय-विनय करो तो पेड़-पत्ती बना देने वाली दुष्टता पर उतर आते थे।
हालांकि वत्स, मेरा निजी एक्सपीरियंस है कि कुछ सिंहासन तो इन्हीं अप्सराओं के पीछे ही डोलते थे। कुछ साधकों की साधना में इतनी गहराई होती ही इसलिए थी कि उनका परम लक्ष्य किसी अप्सरा की प्राप्ति होता था।
तभी सदियों एक ही मुद्रा में अडिग बैठे रहते थे। वे तो इकाध मॉडर्न किस्म की अप्सरा से शादी कर धरती पर ही स्वर्ग की व्यवस्था बैठा लेने के प्रति ज्यादा उत्सुक रहते थे।
.तो, हे! चलते पुर्जेनुमा व्यक्ति, अब तुम अपना मंतव्य उगलो, बताओ तुम किस चक्कर अर्थात् जुगाड़ में यहां घूम रहे हो? सर, मुझे स्वर्ग का अधिपति बनने में ज्यादा इंट्रेस्ट नहीं है। मैं तो इन्हीं अप्सराओं की डच्यूटी लगाने वाला और नोटशीट चलाने वाला सेक्शन अधिकारी बनाना चाहता हूं। मनुष्य ने उद्देश्य बताया।
चल बे भ्रष्ट, ये तो स्वर्ग का सिंहासन मिलने से भी ज्यादा कठिन है। अबे, अधिकारी बनना, अधिपति बनने से ज्यादा कठिन है। हमें देख हम यूं ही सदियों यहां से वहां टल्ले खाते धूम रहे हैं क्या? इतना आसान होता तो हम ही कभी के न बन जाते। नारदजी ने तंबूरा उस पतित मनुष्य के सिर पर मारा और स्वर्ग की ही दिशा में नारायण-नारायण करते हुए निकल लिए।
Posted by Udit bhargava at 12/09/2009 05:13:00 am 0 comments
परिस्थिति कैसी भी हो उसका सदुपयोग करें
कर्ण हो या द्रोण, इस बात के प्रति नतमस्तक थे कि कृष्ण के ज्ञान के आगे वे कुछ भी नहीं हैं। कृष्ण का पराक्रम उनके ज्ञान पर ही आधारित था और सबने उनके इसी बुद्धि-कौशल का लोहा माना।
महाभारत युद्ध के असली नायक श्रीकृष्ण ही थे। उन्होंने गीता सुनाकर अपने ज्ञान का परिचय दिया और साबित किया कि बिना ज्ञान के नायक नहीं बना जा सकता। उन्होंने बताया कि उनका ज्ञान गीता का ज्ञान है, संपूर्ण जीवन के लिए खरा ज्ञान। पूरे युद्ध की योजना, क्रियान्वयन और परिणाम में गीता ही अपनाई गई।
अजरुन को निमित्त बनाकर श्रीकृष्ण ने पूरे मानव समाज के कल्याण की बात कही। गीता में यह व्यक्त हुआ है कि कैसी भी परिस्थिति आए, उसका सदुपयोग करना है। 18 अध्यायों में श्रीकृष्ण ने जीवन के हर क्षेत्र में उपयोगी सिद्धांतों की व्याख्या की है। युद्ध के मैदान से गीता ने निष्काम कर्मयोग का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत दिया। यदि निष्कामता है तो सफल होने पर अहंकार नहीं आएगा और असफल होने पर अवसाद नहीं होगा।
निष्कामता का अर्थ है कर्म करते समय कर्ताभाव का अभाव। महाभारत में गीता की अपनी अलग चमक है। इसी प्रकार जीवन में ‘ज्ञान’ का अपना अलग महत्व है। श्रीकृष्ण ने पांडवों की हर संकट से रक्षा की और अपने ज्ञान के बूते सत्य की विजय के पक्ष में अपनी भूमिका निभाई।
कौरवों के पक्ष में एक से बढ़कर एक योद्धा और पराक्रमी थे, जिनमें भीष्म सर्वश्रेष्ठ थे। कर्ण हो या द्रोण, इस बात के प्रति नतमस्तक थे कि कृष्ण के ज्ञान के आगे वे कुछ भी नहीं हैं। युद्ध में शस्त्र न उठाने का निर्णय कृष्ण ले ही चुके थे, अत: वीरता प्रदर्शन का तो कोई अवसर था ही नहीं। ऐसे में कृष्ण का सारा पराक्रम उनके ज्ञान पर ही आधारित था और सबने उनके इसी बुद्धि-कौशल का लोहा माना। गीता उसी का प्रमाण है।
Posted by Udit bhargava at 12/09/2009 05:12:00 am 0 comments
गौमाता
भारतीय संस्कृति में प्रत्येक जीव को सम्मान दिया जाता है। पुराणों में ऐसी असंख्य किवदंतियां विद्यमान हैं, जहां पशु-पक्षियों का वर्णन देवता स्वरूप में किया गया है। गरुड़ देवता भगवान विष्णु के वाहन हैं, तो नाग शिव के गले का हार हैं। मां दुर्गा शेर पर सवार हैं, तो कार्तिकेय के साथ मयूर है।
इसी प्रकार इन शास्त्रों में गाय के महत्व को सवरेपरि माना गया है। गाय को माता कहा गया है। जिस प्रकार माता अपने बच्चों के लिए पूर्ण रूप से समर्पित होती हैं, उसी प्रकार गाय भी अपने प्रत्येक स्वरूप में सर्वहितकारी हैं। पुरातन काल में इसे गौधन कहा जाता था।
स्वयं भगवान श्रीकृष्ण गौमाता के भक्त थे। गोपाष्टमी का पर्व गौमाता व श्रीकृष्ण के प्रेम प्रतीक स्वरूप हर वर्ष मनाया जाता है। इसी दिन श्रीकृष्ण को गौ-चारण के लिए वन में भेजा गया था। श्रीकृष्ण ने इसी दिन कंस द्वारा भेजे गए मायावी राक्षसों का वध किया था, जिस कारण गोपाष्टमी को कालाष्टमी भी कहते हैं। गोपाष्टमी वास्तव में गाय के प्रति हमारे सम्मान का प्रतीक पर्व है।
कृष्ण का गो-प्रेम
भगवान श्रीकृष्ण का नाम गौमाता के साथ भी बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। श्रीकृष्ण गौमाता के अनन्य भक्त थे। वह स्वयं गायों को नहलाते। उन्हें चारा डालते तथा उनके पास बैठकर अपनी बांसुरी से मोहक धुनें सुनाते। वह गौमाता के साथ ऐसे बातें करते, जैसे यशोधा मैय्या से।
श्रीकृष्ण ने ही ब्रज वासियों को गोपाष्टमी मनाने के लिए प्रेरित किया। तभी यह यह पर्व मनाया जाता है। इस दिन गौमाता का श्रंगार करके तिलक लगाकर आरती उतारी जाती है। गौ को साक्षात नारायण जानकर सुख-समृद्धि की मनोकामना की जाती है।
महर्षि विश्वामित्र तथा कामधेनू
महर्षि विश्वामित्र पहले परम पराक्रमी राजा थे। विश्वामित्र की वीरता का डंका सर्वत्र बजता था। एक बार राजा विश्वामित्र अपनी सेना सहित शिकार के लिए वन में गए। शिकार करते-करते वह थक गए। राजा ने वन में एक आश्रम देखा। उन्होंने सेना को आश्रम की ओर प्रस्थान करने का आदेश दिया।
आश्रम में महर्षि वशिष्ठ अपने शिष्यों सहित निवास करते थे। विश्वामित्र ने महर्षि को अपना परिचय देकर कहा- ‘ऋषिवर, मैं और मेरी सेना अत्यंत भूखे है। क्या आप हमारे लिए कुछ खाने-पीने का प्रबंध कर सकते हैं?’ महर्षि वशिष्ठ ने राजा विश्वामित्र का पूरा सत्कार किया तथा राजा समेत सारी सेना को नाना प्रकार के व्यजंन खिलाए। पूरी सेना तृप्त हो गई। विश्वामित्र को बड़ा आश्चर्य हुआ कि जंगल में कैसे ऋषियों ने इतने सारे भोजन का प्रबंध किया होगा।
विश्वामित्र अपनी जिज्ञासा दबा न सके। उन्होंने वशिष्ठ से पूछ ही लिया। वशिष्ठ ने विश्वामित्र की बात सुन कर कहा- ‘यह सब हमारी माता की कृपा से संभव हो सका है।’
‘माता की कृपा से?’ विश्वामित्र बोले। वशिष्ठ ने विश्वामित्र को बताया कि उनके पास एक गाय है, जिसका नाम कामधेनू है। उससे जो कुछ मांगा जाए, वह तुरंत हाजिर कर देती हैं।
विश्वामित्र ने गाय देखने की इच्छा जाहिर की। वशिष्ठ ने उन्हें गौमाता के दर्शन करवा दिए। गाय को देखकर विश्वामित्र का मन बेईमान हो गया। वह बोले, ‘महर्षि, आप को चाहिए कि यह गाय राजा को भेंट कर दें।’
वशिष्ठ ने असमर्थता प्रकट कर दी। इस पर विश्वामित्र को क्रोध आ गया। वह बोले- ‘अगर आप हमें अपनी इच्छा से गाय नहीं देगें, तो हम इसे जबरन ले जाएंगे।’
आश्रम के शिष्य व विश्वामित्र की सेना आमने सामने डट गईं, परंतु कहां शाही सेना और कहां कुछ छात्र। महर्षि वशिष्ठ गौमाता के पास गए तथा अपनी रक्षा की प्रार्थना की। तभी गौमाता के कानो का आकार बढ़ने लगा तथा उसमें से एक सुसज्जित सेना निकली। उसने विश्वामित्र की सेना को खदेड़ दिया।
विश्वामित्र की शाही सेना को जान बचाकर भागना पड़ा। विश्वामित्र ने राजमहल पहुंचकर अपने मंत्रियों को बुलाया तथा युद्ध की तैयारी करने को कहा। एक मंत्री बोला- ‘राजन, वशिष्ठ ऋषि है। उनके तप का तेज बहुत ज्यादा है। उनके तप का सामना करना शाही फौज के वश का कार्य नहीं है।’ विश्वामित्र को बड़ा अचरज हुआ।
उन्होंने सोचा कि अगर एक ऋषि के तप का बल उनसे •यादा है, तो उन्हें भी तपस्या कर बल प्राप्त करना चाहिए। विश्वामित्र अपने राजपाठ को अलविदा कहकर तप करने जंगल में निकल पड़े। बाद में ब्रहार्षि विश्वामित्र कहलाए। ऐसी है गौमाता की महिमा।
33 करोड़ देवी देवताओं का वास
धर्मशास्त्रों में अनेक स्थानों पर वर्णन आता है कि जब-जब पृथ्वी पर पाप बढ़ता है, धर्म का नाश होता है, तो पृथ्वी परम पिता परमेश्वर के पास गौमाता के रूप में पहुंचती है तथा पाप का बोझ कम करने की प्रार्थना करती हैं। गौमाता की पुकार सुनकर प्रभु पाप का अंत करने के लिए स्वयं अवतरित होते हैं और पापियों का विनाश करके धर्म की पुन:स्थापना करते हैं। अत: गौमाता हमारे लिए परम आदरणीय है।
गौमाता के शरीर में 33 करोड़ देवी-देवताओं का वास कहा गया है। गौमाता के शरीर का शायद ही कोई भाग ऐसा हो, जिस पर किसी देवता का वास न हो। इस प्रकार गौमाता संपूर्ण ब्रह्माण्ड अथवा साक्षात नारायण का साक्षात स्वरूप हैं। इसी लिए शास्त्रों में कहा गया है कि मात्र गौमाता की पूजा-अर्चना करने से सृष्टि के 33 करोड़ देवी-देवताओं की आराधना का फल मिलता है।
गौमाता की सेवा करने वाले को अंत में वैकुंठ की प्राप्ति होती है। वह आवागमन के चक्कर से छूट जाता है। जिस घर में गौमाता का वास होता है, वहां 33 करोड़ देवी-देवता निवास करते हैं। गौमाता की सेवा करने वाले को अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। घर परिवार में सुख-समृद्धि बढ़ती है। धर्म का वास होता है।
परंतु वर्तमान परिपेक्ष्य में विडंबना यह है कि पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव तेजी से हमारे समाज पर बढ़ रहा है। जिस गाय की महिमा का गुनगान करने हमारे धर्म शास्त्र थकते नहीं, वहीं गौमाता आज दुर्दशा का शिकार हो रही हैं। हमारी संस्कृति में गौमाता का पूजन देवी-देवता भी करते आए हैं। गोपाष्टमी के दिन नई पीढ़ी को साथ लेकर गौमाता की पूज करनी चाहिए, ताकि अपनी सांस्कृति को जीवित रखा जा सके।
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Posted by Udit bhargava at 12/09/2009 04:58:00 am 1 comments
दया हिरण और भरत
Posted by Udit bhargava at 12/09/2009 04:53:00 am 0 comments
चलो बुलावा आया है, माता ने बुलाया है..
यहां रात को भी अकेले लड़कियां व लड़के चढ़ाई करते हैं लेकिन किसी को कोई भय नहीं रह जाता। क्योंकि कटरा क्रास करते ही सबका मन अपने आप माता में लग जाता है। जिससे व्यक्ति अपनी सुध बुध खो देता है। वह अपने को पूर्ण रूप से माता के चरणों में समर्पित कर देता है।
वैष्णों माता के पास पहुंचने की लंबी चढ़ाई इतनी आसान हो जाती है कि पता ही नहीं चलता। मार्ग में आते जाते सभी एक दूसरे को देखकर माता के जयकारे जय माता की लगाते हैं। इससे अहसास होता है कि हर व्यक्ति को अपनेपन का अहसास होता है।
उसका अकेलेपन का अहसास एकदम से खत्म हो जाता है। मुझे अपने परिवार के साथ पहली बार 1996 में व दूसरी बार 2000 में माता के दर्शनों का मौका मिला। माता के दर्शनों को हमेशा लंबी लाइन लगती है। लेकिन हम आर्मी से थे इसलिए हमें स्पेशल पास मिला था। जिसके फलस्वरूप हमें सीधे दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। अगले बार फिर बुलावा आएगा तो हम दोबारा जाएंगे।
Posted by Udit bhargava at 12/09/2009 04:49:00 am 0 comments
भगवती तुलसी
दैत्यराज कालनेमी की कन्या वृंदा का विवाह जालंधर से हुआ। जालंधर महाराक्षस था। अपनी सत्ता के मद में चूर उसने माता लक्ष्मी को पाने की कामना से युद्ध किया, परंतु समुद्र से ही उत्पन्न होने के कारण माता लक्ष्मी ने उसे अपने भाई के रूप में स्वीकार किया। वहां से पराजित होकर वह देवि पार्वती को पाने की लालसा से कैलाश पर्वत पर गया।
भगवान देवाधिदेव शिव का ही रूप धर कर माता पार्वती के समीप गया, परंतु मां ने अपने योगबल से उसे तुरंत पहचान लिया तथा वहां से अंतध्यान हो गईं।
देवि पार्वती ने क्रुद्ध होकर सारा वृतांत भगवान विष्णु को सुनाया। जालंधर की पत्नी वृंदा अत्यन्त पतिव्रता स्त्री थी। उसी के पतिव्रत धर्म की शक्ति से जालंधर न तो मारा जाता था और न ही पराजित होता था। इसीलिए जालंधर का नाश करने के लिए वृंदा के पतिव्रत धर्म को भंग करना बहुत ज़रूरी था।
इसी कारण भगवान विष्णु ऋषि का वेश धारण कर वन में जा पहुंचे, जहां वृंदा अकेली भ्रमण कर रही थीं। भगवान के साथ दो मायावी राक्षस भी थे, जिन्हें देखकर वृंदा भयभीत हो गईं। ऋषि ने वृंदा के सामने पल में दोनों को भस्म कर दिया। उनकी शक्ति देखकर वृंदा ने कैलाश पर्वत पर महादेव के साथ युद्ध कर रहे अपने पति जालंधर के बारे में पूछा।
ऋषि ने अपने माया जाल से दो वानर प्रकट किए। एक वानर के हाथ में जालंधर का सिर था तथा दूसरे के हाथ में धड़। अपने पति की यह दशा देखकर वृंदा मूर्चिछत हो कर गिर पड़ीं। होश में आने पर उन्होंने ऋषि रूपी भगवान से विनती की कि वह उसके पति को जीवित करें।
भगवान ने अपनी माया से पुन: जालंधर का सिर धड़ से जोड़ दिया, परंतु स्वयं भी वह उसी शरीर में प्रवेश कर गए। वृंदा को इस छल का ज़रा आभास न हुआ। जालंधर बने भगवान के साथ वृंदा पतिव्रता का व्यवहार करने लगी, जिससे उसका सतीत्व भंग हो गया। ऐसा होते ही वृंदा का पति जालंधर युद्ध में हार गया।
इस सारी लीला का जब वंृदा को पता चला, तो उसने क्रुद्ध होकर भगवान विष्णु को शिला होने का श्राप दे दिया तथा स्वयं सति हो गईं। जहां वृंदा भस्म हुईं, वहां तुलसी का पौधा उगा। भगवान विष्णु ने वृंदा से कहा, ‘हे वृंदा। तुम अपने सतीत्व के कारण मुझे लक्ष्मी से भी अधिक प्रिय हो गई हो। अब तुम तुलसी के रूप में सदा मेरे साथ रहोगी। जो मनुष्य भी मेरे शालिग्राम रूप के साथ तुलसी का विवाह करेगा उसे इस लोक और परलोक में विपुल यश प्राप्त होगा।’
जिस घर में तुलसी होती हैं, वहां यम के दूत भी असमय नहीं जा सकते। गंगा व नर्मदा के जल में स्नान तथा तुलसी का पूजन बराबर माना जाता है। चाहे मनुष्य कितना भी पापी क्यों न हो, मृत्यु के समय जिसके प्राण मंजरी रहित तुलसी और गंगा जल मुख में रखकर निकल जाते हैं, वह पापों से मुक्त होकर वैकुंठ धाम को प्राप्त होता है। जो मनुष्य तुलसी व आवलों की छाया में अपने पितरों का श्राद्ध करता है, उसके पितर मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं।
उसी दैत्य जालंधर की यह भूमि जलंधर नाम से विख्यात है। सती वृंदा का मंदिर मोहल्ला कोट किशनचंद में स्थित है। कहते हैं इस स्थान पर एक प्राचीन गुफ़ा थी, जो सीधी हरिद्वार तक जाती थी। सच्चे मन से 40 दिन तक सती वृंदा देवी के मंदिर में पूजा करने से सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं।
Posted by Udit bhargava at 12/09/2009 04:42:00 am 0 comments
आंखों में छिपा व्यक्तित्व
जन्म पत्रिका में ग्रह अपनी-अपनी स्थितियों के अनुरूप जातक की आंखों को प्रभावित करते हैं। सूर्य, मंगल एवं शनि के अशुभ प्रभाव से व्यक्ति अंधा होता है। वहीं सूर्य व मंगल के अशुभ प्रभावों से आंखों का नूर कम होता है। गुरु की शुभता वाले व्यक्ति की आंखें बड़ी एवं आकर्षक होती हैं। वह प्रतिभाशाली होते हैं और लोग उनका आदर करते हैं लेकिन गुरु के अशुभ प्रभाव से आंखों का तेज कम होता है और ऐसे लोगों को देखने में तकलीफ होती है।
Posted by Udit bhargava at 12/09/2009 04:09:00 am 0 comments
भूख और हवन
विंध्य प्रदेश का राजा धार्मिक और दयालु प्रवृति का था। एक बार सूखे के कारण राज्य में अकाल पड़ गया। आदमी और जानवर भूख से तड़पने लगे। चारों तरफ त्राहि-त्राहि मच गई। दरबार के आचार्यों ने सुझाव दिया, राजन इस अकाल से छुटकारा पाने के लिए राज्य भर में हवन करना होगा। राजा ने आचार्यों की बात मान ली।
राज महल से लेकर गली-गांव तक हवन होने लगे। हजारों टन गेहूं और देसी घी हवन कुंड में जला दिए गए, लेकिन न देवता प्रसन्न हुए और न ही अकाल दूर हुआ। जब राजा की मृत्यु हुई तो यमदूतों ने उसे धर्मराज के सामने पेश किया। उसी समय राजा का एक पुराना नौकर भी धर्मराज के सामने लाया गया था। धर्मराज ने बही खाता देखा और राजा को नरक में तथा नौकर को स्वर्ग में भेजने का आदेश दिया। राजा ने कहा, मैंने हमेशा धर्म का काम किया, फिर मुझे नरक और इस नौकर ने कभी कोई धर्म कर्म नहीं किया, फिर भी इसे स्वर्ग -यह तो अन्याय है। धर्मराज ने कहा, तुम ठीक कहते हो, लेकिन तुम्हारे एक अकर्म ने सभी अच्छे कर्मों को निष्फल कर दिया। सूखे के समय जब जनता को अनाज की सख्त जरूरत थी, तब उस अनाज को जनता में न बांट कर, तुमने उसे कर्मकांड के लिए जला दिया। तुम्हारे अन्न के भंडार भूखों के लिए बंद थे, लेकिन हवन के लिए खोल लिए गए। इससे बड़ा पाप कोई और नहीं हो सकता। इसी अधर्म के कारण तुम्हें नरक मिला है। रही बात नौकर की। उसने कभी पूजा पाठ नहीं किया लेकिन वह भूखा- प्यासा सात दिन तक आप के हवन कुंड के पास इस आशा में बैठा रहा कि हवन के बाद अनाज के जो दाने बिखरे मिल जाएंगे, उससे वह अपनी भूख मिटा लेगा। लेकिन उसे एक दाना नहीं मिला और वह वहीं भूख से मर गया। उसने जब तक तुम्हारे यहां काम किया पूरी मेहनत और ईमानदारी से किया, इसलिए उसको स्वर्ग मिला।
Posted by Udit bhargava at 12/09/2009 03:35:00 am 0 comments
अपना पता
एक बार रामकृष्ण परमहंस के पास एक श्रीमंत आकर बोले, सुना है आपके पास मां आती हैं, आप उनसे बातें भी करते हैं। रामकृष्ण बोले, हां... आती हैं .. जिस तरह से तुम मेरे साथ बातें कर रहे हो, उसी प्रकार मैं उनके साथ भी बातें करता हूं।
मां कब आती हैं? श्रीमंत ने पूछा। उनका आगमन तय नहीं होता, जब उनकी इच्छा होती है तब आ जाती हैं, रामकृष्ण सहज भाव से बोले। श्रीमंत बोला, स्वामी जी मेरा एक काम करना, इस बार जब मां आएं तो कहना कि मेरे पास भी पधारें। आप तो जानते ही हैं कि मैं बहुत व्यस्त रहता हूं, इसलिए यहां बैठ कर प्रतीक्षा नहीं कर सकूंगा। रामकृष्ण बोले, ठीक है, अगली बार मां जब भी मुझे मिलेंगी तो अवश्य कहूंगा, मगर वह तुम्हें मिलने के लिए कहां आएंगी?
उस श्रीमंत ने रामकृष्ण को अपना विजिटिंग कार्ड बढ़ाया। रामकृष्ण बोले, नहीं, नहीं, मुझे तुम्हारी कोठी का नहीं, तुम्हारा एड्रेस चाहिए, बस वह दे दो। श्रीमंत उलझन में फंस गया, बोला, 'मेरा पता' का मतलब?
हां, तुम्हारा पता, तुम कौन हो? मां को तो तुम्हारा पता देना पड़ेगा, तभी तो वह जा पाएंगी।रामकृष्ण ने विजिटिंग कार्ड वापस लौटा दिया और कहा, ये एड्रेस तो आपकी कोठी, ऑफिस और फैक्ट्री के हैं। मां वहां थोड़े ही जाएंगी। वे तो तुम्हारे पास जाएंगी, इसलिए अपना पता बताओ।
श्रीमंत को फिर भी समझ में नहीं आया, मेरा पता का मतलब? तब रामकृष्ण ने समझाया, तुम्हारे पते का मतलब है, तुम्हारे देह के भीतर जो आत्मा बैठी है, उसका पता। जिस दिन तुमको उसका पता मिल जाएगा, उस दिन मां बिना बुलाए तुम्हारे पास आ जाएंगी।
अचानक श्रीमंत को सब कुछ समझ में आ गया। वह रामकृष्ण के चरणों पर गिर कर रोने लगा, उसका सारा अहंकार पिघल गया। उस दिन से वह अपना सही ठिकाना ढूंढने के लिए एक साधक की तरह जीवन बिताने लगा।
Posted by Udit bhargava at 12/09/2009 03:34:00 am 0 comments
वास्तविक ज्ञान
शूरसेन प्रदेश में चित्रकेतु नामक राजा थे। उनकी अनेक रानियां थीं, किंतु कोई संतान नहीं थी। एक दिन महर्षि अड्गिरा राजभवन में पधारे। नरेश को संतान के लिए लालायित देख उन्होंने एक यज्ञ कराया, पर जाते समय कह गए, 'महाराज, आप पिता बनेंगे किंतु आपका पुत्र आपके हर्ष तथा शोक दोनों का कारण बनेगा।' महारानी कृतद्युति गर्भवती हुईं। समय पर उन्हें पुत्र उत्पन्न हुआ। राज्य भर में महोत्सव मनाया गया। राजा पुत्र के स्नेहवश बड़ी रानी के भवन में अधिक समय बिताने लगे।
फल यह हुआ कि दूसरी रानियां कुढ़ने लगीं। उनकी ईर्ष्या इतनी बढ़ी कि उन्होंने उस अबोध शिशु को विष दे दिया। बालक मर गया। राजा विलाप करने लगे। तभी वहां महर्षि अड्गिरा के साथ देवर्षि नारद पधारे। महर्षि ने राजा से कहा, 'राजन्, तुम पर प्रसन्न होकर मैं तुम्हारे पास इसलिए आया था कि तुम्हें ईश्वर प्राप्ति का मार्ग दिखा दूं, किंतु तुम्हारे चित्त में उस समय प्रबल पुत्रेच्छा देखकर मैंने तुम्हें पुत्र दिया। अब तुमने पुत्र-वियोग के दुख का अनुभव कर लिया। यह संसार इसी प्रकार दुखमय है।'
चित्रकेतु अभी शोकमग्न थे। वह समझ नहीं सके। देवर्षि नारद ने ताड़ लिया कि इनका मोह ऐसे दूर नहीं होगा। उन्होंने अपनी दिव्यशक्ति से बालक की जीवात्मा को आमंत्रित किया। जीवात्मा के आ जाने पर उन्होंने कहा, 'देखो, ये तुम्हारे माता-पिता अत्यंत दुखी हो रहे हैं। तुम अपने शरीर में फिर प्रवेश करके इन्हें सुखी करो और राजसुख भोगो।' उस जीवात्मा ने कहा, 'देवर्षि, ये मेरे किस जन्म के माता-पिता हैं? जीव का तो कोई माता-पिता या भाई-बंधु है नहीं। अनेक बार मैं इनका पिता, ये मेरे मित्र या शत्रु रहे हैं। ये सब संबंध तो शरीर के हैं। शरीर के छूटने के साथ ही सब संबंध छूट जाते हैं।'
जीवात्मा यह कहकर चली गई। राजा चित्रकेतु का मोह उसकी बातों को सुनकर नष्ट हो चुका था। नारद ने उन्हें भगवान शेष की आराधना का उपेदश किया, जिसके प्रभाव से कुछ काल में ही उन्हें शेषजी के दर्शन हुए।
Posted by Udit bhargava at 12/09/2009 03:33:00 am 0 comments
जनक की परीक्षा
महाराज जनक के राज्य में एक तपस्वी रहता था। एक बार किसी बात को लेकर जनक उससे नाराज हो गए। उन्होंने उसे अपने राज्य से बाहर चले जाने की आज्ञा दी। इस आज्ञा को सुनकर तपस्वी ने जनक से पूछा, 'महाराज, मुझे बता दीजिए कि आपका राज्य कहां तक है क्योंकि तब मुझे आपके राज्य से निकल जाने का ठीक-ठीक ज्ञान हो सकेगा।' महाराज जनक स्वभावत: विरक्त तथा ब्रह्माज्ञानी थे। तपस्वी के इस प्रश्न को सुनकर वह सोच में पड़ गए। पहले तो संपूर्ण पृथ्वी पर ही उन्हें अपना राज्य तथा अधिकार दिखा। फिर मिथिला नगरी पर वह अधिकार दिखने लगा। आत्मज्ञान के झोंके में पुन: उनका अधिकार घटकर प्रजा पर, फिर अपने शरीर में आ गया और अंत में कहीं भी उन्हें अपने अधिकार का भान नहीं हुआ।
उन्होंने तपस्वी को अपनी स्थिति समझाई और कहा,' मेरा किसी वस्तु पर भी अधिकार नहीं है। आपकी जहां रहने की इच्छा हो, वहीं रहें और जो इच्छा हो, भोजन करें।' इस बात पर तपस्वी को आश्चर्य हुआ। उसने पूछा, 'महाराज, आप इतने बड़े राज्य को अपने अधिकार में रखते हुए किस तरह सब वस्तुओं से तटस्थ हो गए हैं और क्या समझकर पहले पृथ्वी पर अधिकार की बात सोच रहे थे?' जनक ने कहा, 'संसार के सब पदार्थ नश्वर हैं। शास्त्रानुसार न कोई अधिकार ही सिद्ध होता है और न कोई अधिकार-योग्य वस्तु ही। अतएव मैं किसी वस्तु को अपना कैसे समझूं? अब जिस बुद्धि से सारे विश्व पर अपना अधिकार समझता हूं, उसे सुनिए। मैं अपने संतोष के लिए कुछ भी न कर देवता, पितर, भूत और अतिथि-सेवा के लिए करता हूं। अतएव पृथ्वी, अग्नी, जल, वायु, आकाश और अपने मन पर भी मेरा अधिकार है।' जनक के इन वचनों के साथ ही तपस्वी ने अपना चोला बदल दिया। वह बोला, 'महाराज, मैं धर्म हूं। आपकी परीक्षा के लिए तपस्वी वेश में आपके राज्य में रहता आया हूं। अब भलीभांति समझ गया कि आप सत्वगुणरूप नेमियुक्त ब्रह्माप्रतिरूप चक्र के संचालक हैं।'
Posted by Udit bhargava at 12/09/2009 03:32:00 am 0 comments
गुरु और शिष्य
एक गुरु के अखाड़े में अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा दी जाती थी। वहां दूर-दूर से नौजवान आते थे। उन में से लक्ष्मण नाम का एक शिष्य गुरु का विशेष प्रिय था क्योंकि तलवारबाजी में वह सबसे होशियार और फुर्तीला था। शिक्षा समाप्त करने के बाद उसने तलवारबाजी में बहुत नाम और दाम कमाया लेकिन उसके मन में एक दुख था कि इतनी शोहरत के बाद भी लोग उसे गुरु के शिष्य के रूप में ही जानते थे। सारा यश उसे नहीं, गुरु को मिलता था। एक बार उसने सोचा कि यदि वह गुरु को पराजित कर दे तो लोग गुरु को भूल कर उसका नाम याद करने लगेंगे।
एक दिन उसने अखाड़े में जाकर गुरु से कहा, 'गुरुवर, मैंने कुछ ऐसी नई विद्याएं सीख ली हैं कि आप देखेंगे तो अचरज में पड़ जाएंगे। आप से द्वंद्व युद्घ करके मैं अपना कौशल आप को दिखाना चाहता हूं।' गुरु समझ गए कि शिष्य अहंकार में अंधा हो गया है। उन्होंने कहा, 'तुम चाहते हो तो ऐसा ही होगा। एक महीने बाद हम तुमसे द्वंद्व युद्घ करेंगे।' कुछ दिनों के बाद लक्ष्मण अखाड़े में आया। वहां उसे मालूम हुआ कि गुरु जी चार हाथ लंबी म्यान बनवा रहे हैं। यह सुन कर उसने आठ हाथ की लंबी तलवार बनवा ली। निश्चित समय पर गुरु चार हाथ लंबी म्यान लेकर और शिष्य आठ हाथ लंबी म्यान लेकर अखाड़े में आया।
द्वंद्व युद्घ का संकेत मिलते ही शिष्य ने जब अपनी लंबी म्यान से लंबी तलवार निकाल कर हमला किया, तो गुरु ने लंबी म्यान से छोटी तलवार निकाल कर फुर्ती से उसके गले पर लगा दी। गुरु की छोटी तलवार देख कर शिष्य भौंचक रह गया और घबराहट में गिर गया। वह अपने गुरु से पराजित हो चुका था। गुरु ने कहा, 'तुमने सुनी सुनाई बातों में आकर लंबी तलवार बनवा ली। तुम यह भूल गए कि छोटी तलवार से ही फुर्ती से हमला किया जा सकता है, लंबी तलवार से नहीं। अहंकार हमारे ज्ञान पर पानी फेर देता है।'
Posted by Udit bhargava at 12/09/2009 03:30:00 am 0 comments
सुकरात का संदेश
एक बार सुकरात अपने कुछ शिष्यों के साथ घूमने निकले। रास्ते में उनके एक शिष्य ने कहा कि यहां एक दुकान पर विभिन्न प्रकार की बेहद खूबसूरत वस्तुएं बिकती हैं। कृपया आप भी उन्हें देख लीजिए। शिष्यों के बहुत जोर देने पर सुकरात उनका मन रखने के लिए दुकान के अंदर गए। वहां ढेरों वस्तुएं सजा कर रखी गई थीं। सुकरात उन वस्तुओं को देखकर बेहद प्रसन्न हुए। कुछ वस्तुएं तो इतनी अधिक आकर्षक थीं कि सुकरात उन्हें उठा-उठा कर देखने लगे। उन्हें इस तरह प्रसन्न व शांत मन से वस्तुओं को निहारते देख उनका एक शिष्य बोला, 'गुरुजी, आप इन सुंदर वस्तुओं को देख रहे हैं। क्या आप की इच्छा इन खूबसूरत वस्तुओं को खरीदने की तो नहीं हो रही?'
सुकरात कुछ कहते उससे पहले ही उनका दूसरा शिष्य बोला, 'हां गुरुजी, आप कुछ वस्तुओं को खरीद लीजिए न। मेरा मन तो कर रहा है कि मैं सारी की सारी वस्तुएं खरीद लूं किंतु मेरे पास इसके लिए पर्याप्त धन नहीं हैं।' दूसरे शिष्य की बात पर सुकरात मंद-मंद मुस्कुराते हुए बोले, 'इसमें कोई दो राय नहीं कि यहां पर उपस्थित सभी वस्तुएं अत्यंत सुंदर हैं, लेकिन मुझे फिलहाल इनमें से किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं है और अनावश्यक रूप से वस्तुओं का संग्रह करने से क्या लाभ?' सुकरात की इस बात पर पहला शिष्य बोला, 'गुरुजी, मगर खूबसूरत वस्तुओं को खरीदने में क्या हर्ज है?' शिष्य की बात पर सुकरात बोले, 'पुत्र, दवा की दुकान पर दवाएं भी विभिन्न रंगों की बेहद आकर्षक शीशियों व पैकिटों में बिकती हैं। किंतु कोई भी व्यक्ति सिर्फ दवाओं को इसलिए नहीं खरीदता कि वे खूबसूरत हैं बल्कि तब खरीदता है जब उसे वाकई उनकी जरूरत महसूस होती है। यही बात इन खूबसूरत वस्तुओं पर भी लागू होती है। बेशक ये खूबसूरत हैं किंतु जब इनका उपयोग ही नहीं होगा तो इनका संग्रह व्यर्थ है। अनावश्यक संग्रह से जीवन सुखी नहीं होता।'
Posted by Udit bhargava at 12/09/2009 03:29:00 am 0 comments
रास्ते का पत्थर
एक बार यूनान के महान दार्शनिक संत डायोजिनस एक सड़क के किनारे बैठे थे। सड़क के बीच में एक बड़ा पत्थर पड़ा हुआ था। अनेक राहगीर सड़क पर आते और पत्थर को देखकर दूसरे मार्ग से निकल जाते। जो यात्री अपनी ही धुन में चल रहे होते वह पत्थर से टकरा कर अपनी चोट सहलाते हुए आगे बढ़ जाते।
कुछ देर बाद अपनी रौ में चलता एक नवयुवक तेजी से उस तरफ आया और पत्थर से टकरा कर चीखता हुआ गिर पड़ा। अगले ही क्षण वह किसी तरह संभल कर उठा और उठते ही मार्ग में पत्थर डालने वाले व्यक्ति को कोसने लगा। यह देख कर संत डायोजिनस जोर से हंस पड़े। संत डायोजिनस को हंसते देख युवक गुस्से से बोला, 'मुझे चोट लग गई और आपको हंसी सूझ रही है।'
युवक की इस बात पर संत गंभीर होते हुए बोले, 'मैं तुम्हारे गिरने पर नहीं हंसा। तुम्हारी चोट के लिए तो मैं हृदय से दु:खी हूं किंतु हंसी मुझे तुम्हारी बुद्धि पर आ रही है।' युवक ने पूछा, 'वह कैसे?' संत बोले, 'मैं जब से यहां बैठा हूं तब से अनेक राहगीर इस मार्ग से गुजरे। कुछ इस पत्थर से टकराए और कुछ बच कर निकल गए। लेकिन किसी ने भी इस पत्थर को हटाने का साहस नहीं किया। तुम तो उन से भी दो कदम आगे निकले। चोट खाकर भी पत्थर हटाने की बजाय पत्थर रखने वाले को कोसते रहे पर तुम्हारी बुद्धि में यह बात नहीं आई कि उस पत्थर को मार्ग से हटा दिया जाए। अरे भलेमानस, पत्थर से तो ठोकर लगती ही है किंतु यदि जरा सी इंसानियत व समझदारी से उस पत्थर को हटा दिया जाए तो मार्ग अत्यंत सुगम हो जाता है।' यह सुनकर वह युवक लज्जित हो गया और फिर उसने संत डायोजिनस के साथ मिलकर उस पत्थर को रास्ते से हटा दिया और उनके प्रति श्रद्धा से नतमस्तक होकर आगे बढ़ गया ।
Posted by Udit bhargava at 12/09/2009 03:29:00 am 0 comments
सेठ की दयालुता
काशी के सेठ गंगादास भगवान शंकर के सच्चे भक्त थे। एक दिन वह गंगा में स्नान कर रहे थे कि तभी एक व्यक्ति नदी में कूदा और डुबकियां खाने लगा। चारों तरफ शोर मच गया लेकिन किसी की हिम्मत नहीं हुई कि उसे बचाए। कुछ देर तक सेठजी उसे डूबते देखते रहे फिर तेजी से तैरते हुए उसके पास पहुंचे और किसी तरह खींच कर उसे किनारे ले आए। सेठजी ने उसे ध्यान से देखा तो चौंक पड़े। वह उनका मुनीम नंदलाल था।
उन्होंने पूछा, 'आप को किसने गंगा में फेंका?' नंदलाल बोला, 'किसी ने नहीं, मैं तो आत्महत्या करना चाहता था।' सेठजी ने इसका कारण पूछा तो उसने कहा, 'मैंने आप के पांच हजार रुपये चुरा कर सट्टे में लगाया और हार गया। मैंने सोचा कि आप मुझे गबन के आरोप में गिरफ्तार करा कर जेल भिजवा देंगे। इससे मेरी तथा मेरे परिवार की बड़ी बदनामी होगी, इसलिए बदनामी के डर से मैंने मर जाना ही ठीक समझा।' सेठजी ने कहा, 'तुम्हें सजा तो मिलनी ही चाहिए।' नंदलाल ने विनती की, 'ऐसा मत कीजिए सेठ जी।' कुछ देर तक सोचने के बाद सेठजी ने कहा, 'तुम्हारा अपराध माफ किया जा सकता है लेकिन मेरी एक शर्त है। तुम प्रण करो कि आज से कभी किसी प्रकार का जुआ नहीं खेलोगे, सट्टा नहीं लगाओगे।'
नंदलाल ने वचन दिया कि वह अब ऐसे काम नहीं करेगा। सेठ ने कहा, 'जाओ माफ किया। पांच हजार रुपये में मेरे नाम घरेलू खर्च में डाल देना।' मुनीम भौंचक रह गया। उसने सोचा था कि अब तो उसकी नौकरी चली जाएगी। उसने पूछा, 'क्या चोरी करने के बाद भी आप मुझे नौकरी पर रख लेंगे?' सेठजी ने कहा, 'तुमने चोरी तो की है लेकिन स्वभाव से तुम चोर नहीं हो। तुमने एक भूल की है, चोरी नहीं। जो आदमी अपनी एक भूल के लिए मरने तक की बात सोच ले, वह कभी चोर हो नहीं सकता।' उसके बाद नंदलाल ने कभी कोई गलत काम नहीं किया।
Posted by Udit bhargava at 12/09/2009 03:27:00 am 0 comments
समानता का पाठ
यह घटना उस समय की है जब फ्रांस में हेनरी चतुर्थ का शासन था। हेनरी चतुर्थ सभी नागरिकों को एक समान मानते थे और उनमें अमीरी-गरीबी, ऊंच-नीच आदि के आधार पर भेदभाव नहीं करते थे। मगर उनके दरबारी और अधिकारी इस बात को पसंद नहीं करते थे कि सम्राट सभी को समान मानते हुए उनको सम्मान दें। एक बार हेनरी चतुर्थ अपने अधिकारियों के साथ किसी कार्यक्रम में शामिल होने जा रहे थे। रास्ते में उन्हें एक भिक्षुक मिला। भिक्षुक ने बड़ी विनम्रता से अपना हैट उतारा और सिर झुकाकर सम्राट का अभिवादन किया।
सम्राट ने भिक्षुक के अभिवादन का ठीक उसी तरह विनम्रता के साथ सिर झुकाकर उत्तर दिया। सम्राट का यह व्यवहार उनके एक अधिकारी को अच्छा नहीं लगा। वह तुरंत उनसे बोला, 'महामहिम, किसी साधारण भिक्षुक को उसके अभिवादन का इस प्रकार उत्तर देना आपको शोभा नहीं देता। यदि आप एक भिक्षुक को भी इस प्रकार उत्तर देंगे तो राजशाही की गरिमा को ठेस पहुंचेगी।' अधिकारी की बात सुनकर सम्राट हंस पड़े। फिर उन्होंने कहा, 'बंधु, सभ्यता और संस्कार यही बताते हैं कि हमें प्रत्येक व्यक्ति के साथ विनम्र रहना चाहिए और यदि सम्राट ही सबके साथ विनम्रता व शालीनता से पेश नहीं आएगा तो फिर प्रजा उसके साथ आदर से कैसे पेश आएगी? याद रखना, प्रजा भी अपने राजा का तभी आदर करती है जब राजा उसके साथ पूर्ण आदर व प्रेम दर्शाए। लोगों को यह लगना चाहिए कि सत्ता उनके साथ है। वह उनसे दूर नहीं है। राजशाही का अर्थ नागरिकों को आतंकित करना नहीं, बल्कि उनके भीतर आत्मविश्वास पैदा करना है। यह तभी हो सकता है जब राजा और उसके समस्त अधिकारियों का व्यवहार सामान्य लोगों से मधुर और सौहार्दपूर्ण हो। फिर हम सभी मानव पहले हैं और राजा या भिक्षुक बाद में। सबको एक समान समझकर ही राजा अपनी प्रजा के साथ न्याय कर सकता है।' हेनरी चतुर्थ का जवाब सुनकर अधिकारी लज्जित हो गया और उसने सम्राट से माफी मांगी।
Posted by Udit bhargava at 12/09/2009 03:25:00 am 0 comments
स्वर्ग और नरक
गणेश भक्त मुद्गल के परोपकार के कार्यों से प्रसन्न होकर एक बार देवराज इंद्र ने गणेश से कहा, 'मेरी इच्छा है कि मुनि मुद्गल को स्वर्ग में लाकर उनका सम्मान किया जाए।' इस पर नारद जी बोले, 'लेकिन क्या मुनि स्वर्ग में आने को तैयार होंगे?' वहां उपस्थिति सभी लोगों ने आश्चर्य से कहा, 'स्वर्ग में आने के लिए तो पृथ्वी लोक के सभी लोग, चाहे वे संत हों या किसान, लालायित रहते हैं। यह तो मुनि मुद्गल का सौभाग्य है कि इंद्र स्वयं उन्हें यहां आमंत्रित कर रहे हैं।' नारद ने कहा, 'फिर भी एक बार उनसे पूछ तो लेना चाहिए।'
इंद्र ने अपने दो दूतों को मुनि मुद्गल के पास भेजा। दूतों ने जब मुनि को इंद्र का संदेश सुनाया तो वह बोले, 'देवदूतों, आप तो हमारे अतिथि हैं। हम आप का सम्मान करते हैं लेकिन मैं पृथ्वी लोक छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगा। मेरी जरूरत पृथ्वी पर है, स्वर्ग लोक में नहीं। दुखियों की सेवा करके मुझे जो आनंद यहां मिल रहा है, वैसा स्वर्ग लोक में नहीं मिलेगा।' देवदूतों ने कहा, 'मुनिवर, पृथ्वी लोक का हर व्यक्ति स्वर्ग में जगह पाने के लिए उत्सुक रहता है। फिर आप क्यों नहीं जाना चाहते?' मुनि ने कहा, 'वत्स, स्वर्ग और नरक तो पृथ्वी पर भी है। यह हमारी इच्छा पर है कि इसे स्वर्ग बनाएं या नरक। परोपकार के कार्य करके पृथ्वी को स्वर्ग बनाया जा सकता है और अधर्म का काम करके नरक। मैं पृथ्वी को स्वर्ग बनाने का काम कर रहा हूं। आप देवराज इंद्र से कहना कि मैं अपनी कुटिया छोड़ कर उनके स्वर्ण सिंहासन पर बैठने का दुख सह नहीं पाऊंगा।'
यह वार्तालाप स्वर्ग लोक मैं बैठे इंद्र ध्यान से सुन रहे थे। वह नारद की ओर देख कर बोले, 'उनका पूरा जीवन परोपकार के कार्यों में व्यतीत हो रहा है, उनके पास स्वर्ग और नरक में अंतर करने का समय ही कहां है। अब हमें स्वयं महर्षि के पास जाकर उन्हें सम्मानित करना होगा।'
Posted by Udit bhargava at 12/09/2009 03:24:00 am 0 comments
दो घड़ी धर्म की
एक नगर में एक धनवान सेठ रहता था। अपने व्यापार के सिलसिले में उसका बाहर आना-जाना लगा रहता था। एक बार वह परदेस से लौट रहा था। साथ में धन था, इसलिए तीन-चार पहरेदार भी साथ ले लिए। लेकिन जब वह अपने नगर के नजदीक पहुंचा, तो सोचा कि अब क्या डर। इन पहरेदारों को यदि घर ले जाऊंगा तो भोजन कराना पड़ेगा। अच्छा होगा, यहीं से विदा कर दूं। उसने पहरेदारों को वापस भेज दिया। दुर्भाग्य देखिए कि वह कुछ ही कदम आगे बढ़ा कि अचानक डाकुओं ने उसे घेर लिया। डाकुओं को देखकर सेठ का कलेजा हाथ में आ गया। सोचने लगा, ऐसा अंदेशा होता तो पहरेदारों को क्यों छोड़ता? आज तो बिना मौत मरना पड़ेगा। डाकू सेठ से उसका माल-असबाब छीनने लगे। तभी उन डाकुओं में से दो को सेठ ने पहचान लिया। वे दोनों कभी सेठ की दुकान पर काम कर चुके थे। उनका नाम लेकर सेठ बोला, अरे! तुम फलां-फलां हो क्या? अपना नाम सुन कर उन दोनों ने भी सेठ को ध्यानपूर्वक देखा। उन्होंने भी सेठ को पहचान लिया। उन्हें लगा, इनके यहां पहले नौकरी की थी, इनका नमक खाया है। इनको लूटना ठीक नहीं है।
उन्होंने अपने बाकी साथियों से कहा, भाई इन्हें मत लूटो, ये हमारे पुराने सेठ जी हैं। यह सुनकर डाकुओं ने सेठ को लूटना बंद कर दिया। दोनों डाकुओं ने कहा, सेठ जी, अब आप आराम से घर जाइए, आप पर कोई हाथ नहीं डालेगा। सेठ सुरक्षित घर पहुंच गया। लेकिन मन ही मन सोचने लगा, दो लोगों की पहचान से साठ डाकुओं का खतरा टल गया। धन भी बच गया, जान भी बच गई। इस रात और दिन में भी साठ घड़ी होती हैं, अगर दो घड़ी भी अच्छे काम किए जाएं, तो अठावन घड़ियों का दुष्प्रभाव दूर हो सकता है। इसलिए अठावन घड़ी कर्म की और दो घड़ी धर्म की। इस कहावत को ध्यान में रखते हुए अब मैं हर रोज दो घड़ी भले का काम अवश्य करूंगा।
Posted by Udit bhargava at 12/09/2009 03:22:00 am 0 comments
अनमोल धन
एक विचारक थे । वे नास्तिक थे। न ईश्वर को मानते थे और न आत्मा को, सिर्फ वर्तमान क्षण में विश्वास रखते थे। अपने शिष्यों के साथ वे नगर से बाहर एक बगिया में रहते थे। एक दिन सम्राट की इच्छा हुई कि इस विचारक से मिला जाए, वह उनकी बगिया में पहुंचा। उसने देखा कि वातावरण बेहद शांत है। सब अपने-अपने काम में मगन हैं। खुश और आनंदित। लेकिन भौतिक सुविधाओं का अभाव है-न बैठने की जगह, न सर ढंकने के लिए छत, न पानी के लिए कोई कुआं। रसोई की जगह लगभग फाकाकशी के हालात। फिर भी संत आनंदित थे। सम्राट हैरान हुआ और प्रभावित भी। उसने विचारक से कहा, 'मैं आपको कुछ भेंट भेजना चाहता हूं। बताइए क्या मंगा दूं, जिस चीज की भी आपको जरूरत हो।'
यह सुनते ही विचारक के माथे पर बल पड़ गए। उसने मानो दुखी हो कर कहा, 'आपने तो हमें चिंता में डाल दिया, क्योंकि हम भविष्य का तो कोई विचार ही नहीं करते। अभी पास जो है, उसी का आनंद लेते हैं। जो नहीं है, वह आ जाए तो भला हो जाए, उस तरह सोचते ही नहीं। अब आपने दुविधा में डाल दिया है। विचार करना पड़ेगा, सोचना होगा कि आपसे क्या मांगें।'
फिर बोले, 'हां एक रास्ता है। आज ही हमारी इस बगिया में एक नया शिष्य आया है। वह अभी तक यहां के वातावरण में घुल-मिल नहीं पाया है। उससे पूछ लेते हैं, शायद उसे किसी चीज की जरूरत हो।' शिष्य से पूछा गया। वह थोड़ी देर सोचता रहा, फिर बोला, 'कुछ भेंट ही करना चाहते हैं तो थोड़ा मक्खन भेंट कर दें। यहां रोटियां बिना मक्खन के बनती हैं।' सम्राट स्वयं मक्खन लेकर आया। उसने देखा कि उसका वहां ऐसा स्वागत हुआ, मानो स्वर्ग उतर आया हो। मक्खन खा कर सभी नाचे और आनंदित हुए। सम्राट को तब यह अहसास हुआ कि मेरे पास इतना सब कुछ है, फिर भी मैं आनंद नहीं मनाता। शायद मैंने संतुष्ट होना ही नहीं सीखा।
Posted by Udit bhargava at 12/09/2009 03:20:00 am 0 comments
बापू की रजाई
गांधीजी रोज अपने आश्रम की हर चीज का बारीकी से मुआयना करते थे। जाड़े के दिनों में एक बार वह आश्रम की गोशाला में पहुंचे। उन्होंने गायों को सहलाया और प्यार से बछड़ों को थपथपाया। उनका प्रेम भरा स्पर्श पाकर जानवरों ने भी गर्दन हिलाकर उनके स्नेह का जवाब दिया। वह वहां से बाहर निकल ही रहे थे कि तभी उनकी नजर पास खड़े एक गरीब लड़के पर गई। उन्होंने पूछा, 'तू रात को यहीं सोता है?'
गांधीजी का प्रश्न सुनकर लड़का धीमे से बोला, 'जी बापू जी। मैं रात यहीं बिताता हूं।' गांधीजी बोले, 'बेटा, इन दिनों तो बहुत ठंड है। ऐसे में क्या तुम्हें सर्दी नहीं सताती?' लड़का बोला, 'सर्दी तो बहुत लगती है।' बापू ने कहा, 'फिर तुम ठंड से बचने के लिए क्या ओढ़ते हो?' लड़के ने एक फटी चादर दिखाते हुए कहा, 'मेरे पास ओढ़ने के लिए बस एक यही चादर है।' लड़के की बात सुनकर बापू आश्चर्य से उसे देखते रहे, फिर अपनी कुटिया में लौट आए। उन्होंने उसी समय कस्तूरबा से दो पुरानी साडि़यां मांगी, कुछ पुराने अखबार तथा थोड़ी सी रूई मंगवाई। रूई को अपने हाथों से धुना। साडि़यों की खोली बनाई, अखबार और रूई भरकर एक रजाई तैयार कर दी। जब रजाई पूरी तरह तैयार हो गई तो बापू ने गोशाला से उस लड़के को बुलवाया। लड़का सहमता हुआ उनके पास आया तो गांधीजी ने उसके सिर पर प्यार से हाथ रखा और रजाई उसे देते हुए कहा, 'इसे ओढ़कर देखना कि रात में ठंड लगती है या नहीं।'
लड़का खुशी-खुशी रजाई लेकर चला गया। अगले दिन जब गांधीजी गोशाला की ओर गए तो उन्हें वही लड़का नजर आया। बापू ने उससे पूछा, 'क्या तुझे कल भी ठंड लगी?' लड़का तपाक से बोला, 'नहीं बापू जी, कल तो आपकी दी हुई रजाई ओढ़कर मुझे बहुत गरमाहट महसूस हुई और बड़ी मीठी नींद आई।' लड़के का जवाब सुनकर बापू हंस पड़े और बोले, 'सच, तब तो मैं भी ऐसी ही रजाई ओढूंगा।'
Posted by Udit bhargava at 12/09/2009 03:19:00 am 0 comments
उपकार का ऋण
काशी के पास गांव के एक गांव के पुजारी अपने बेटे के साथ मंदिर में ही रहते थे। वह पूरी तन्मयता से मंदिर का सारा काम करते थे। पुजारी चाहते थे कि उनका बेटा थोड़ा पढ़-लिख कर उनके काम में हाथ बंटाए। लेकिन बेटा चाहता था कि वह शहर में जाकर खूब धन कमाए। पढ़ाने के लिए पुजारी के पास पैसा नहीं था। किसी तरह पुजारी के कर्म से अपना गुजारा करते थे। जब गांव वालों के कानों में यह बात गई तो उन्होंने चंदा इकट्ठा करके पुजारी के बेटे को ऊंची शिक्षा दिलवाई। वह पढ़ लिख कर शहर चला गया। शहर में उसने धन और कमाया। काफी समय के बाद एक बार वह गांव आया। उसे पिता को पुजारी का काम करते देख कर बुरा लग रहा था। उसने कहा, 'पिता जी, अब आप यह काम छोड़ कर हमारे साथ चलें। पिता ने कहा, 'नहीं बेटा। मैं मंदिर छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगा।'
बेटे ने कहा, 'यदि आप को मंदिर की इन पत्थर की मूर्तियों से इतना प्रेम है तो मैं इससे अच्छी मूर्ति लाकर आप को दूंगा।' इस पर पुजारी पिता ने कहा, 'बेटा, तुम सुंदर मूर्ति तो ला सकते हो लेकिन यहां का प्रेम नहीं ला कर दे सकते। यह ठीक है कि ये मूर्तियां पत्थर की है लेकिन मुझे जितनी खुशी इन मूर्तियों की सेवा करने में मिलता है उतनी खुशी कहीं और नहीं मिलेगी।' बेटे ने तब खीज कर अपने मन की बात कही, 'पिता जी, आप यहां एक सामान्य पुजारी की तरह काम करें, यह मुझे अच्छा नहीं लगता। इससे हमारी प्रतिष्ठा को चोट पहुंचती है।'
पुजारी पिता ने तब ने जवाबी सवाल किया, 'क्या तुम्हारी प्रतिष्ठा इन चीजों से कीमती है कि तुम्हारी पढ़ाई का खर्च गांव वालों ने चंदा इकट्ठा करके निकाला? तुम्हारी मां बीमार थी तो गांव वालों ने उसकी सेवा की। बहन की शादी गांव वालों ने की। क्या तुम अपनी प्रतिष्ठा के बल पर शहर में मुझे इतना प्रेम दिलवा सकते हो? तुम्हारी प्रतिष्ठा और अपने सुख के लिए मैं गांव के लोगों को छोड़ कर नहीं जाऊंगा। बेटा, मैं तुम्हें भी यह सीख देता हूं कि सब कुछ भूल जाना लेकिन किसी का किया हुआ उपकार कभी मत भूलना।' बेटे को अब समझ में आ गया कि गरीब बाप की मानवता कितनी ऊंची है। उसके मुकाबले उसके धन और यश की बिसात ही क्या है। उसने पिता के मन के दर्द को समझा और उनसे माफी मांग कर शहर चला गया।
Posted by Udit bhargava at 12/09/2009 03:12:00 am 0 comments
सत्संग का प्रभाव
एक बार मगध के राजा चित्रांगद अपने मंत्री के साथ प्रजा के सुख-दुख का पता लगाने के लिए दौरे पर निकले। जंगल में उन्होंने एक तपस्वी को देखा। राजा ने उनके पास पहुंचकर कहा, 'मैं यहां का राजा हूं। आप सोने की कुछ मोहरें रख लीजिए और जंगल से बाहर सुखपूर्वक अपना जीवन बिताइए।' तपस्वी बोले, 'पुत्र, मैं तो एक ऋषि हूं, भला मोहरों का मेरे पास क्या काम? आप इन मोहरों को किसी निर्धन को दे दीजिए।' इस पर राजा ने कहा, 'लेकिन आपको भी तो जीविकोपार्जन के लिए धन की आवश्यकता होती होगी न? आप इन मोहरों को क्यों ठुकरा रहे हैं?' तपस्वी बोले, 'पुत्र, हम स्वर्ण रसायन से तांबे को सोना बना देते हैं। उसी से अपनी जीविका चलाते हैं।' यह सुनकर राजा हैरान रह गए।
उन्होंने तपस्वी से निवेदन किया, 'कृपया मुझे भी वह कला सिखा दीजिए। इससे हमारे राज्य में कभी भी धन-धान्य की कमी नहीं होगी और मेरी प्रजा अपना सारा जीवन आराम से व्यतीत करेगी।' राजा की बात पर तपस्वी बोले, 'राजन, मैं आपको वह कला सिखा दूंगा किंतु उसके लिए आपको एक वर्ष तक मेरे साथ रह कर साधना करनी होगी।' राजा अपनी प्रजा के हित के लिए तपस्वी के साथ साधना करने को तैयार हो गए। वह एक वर्ष तक नि:स्वार्थ तपस्वी के साथ साधना करते रहे। इस बीच उन्हें यहां पर सच्चे अध्यात्म और आनंद की प्राप्ति हुई और उनका धन से मोह दूर हो गया। एक दिन तपस्वी बोले, 'आओ राजन, आज मैं आपको तांबे से सोना बनाने की कला सिखाता हूं।' तपस्वी की बात पर राजा ने कहा, 'अब मुझे स्वर्ण रसायन की जरूरत नहीं है, क्योंकि इस एक वर्ष में आपने मेरे पूरे अस्तित्व को ही अमृत रसायन में परिवर्तित कर डाला है। बस आप मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मैं नि:स्वार्थ भाव से ऐसे ही प्रभु का स्मरण करते हुए अपने कार्य करूं।' तपस्वी राजा को आशीर्वाद देकर वहां से चले गए।
Posted by Udit bhargava at 12/09/2009 03:06:00 am 0 comments
कर्म और भाग्य
एक बार गुरु नानक किसी गांव में अपने एक भक्त के यहां प्रवचन करने जा रहे थे। रास्ते में एक किसान धान के अपने खेत के पास प्रसन्नचित्त बैठा था। गुरु नानक ने उससे कहा, 'भगवान की कृपा से इस बार बहुत अच्छी फसल हुई है।' किसान बोला, 'इसमें भगवान की कृपा कहां से आ गई। यह तो मेरी मेहनत और सूझबूझ का फल है। मैंने कड़ी मेहनत करके बारिश में भीग कर खेतों की जुताई की, कुदाल से खोद-खोद कर खर पतवार निकाले। समय पर खाद और पानी दिया, तब जाकर अच्छी पैदावार हुई है। यदि मैं मेहनत नहीं करता तो फसल अच्छी कैसे होती।' गुरु नानक ने कुछ नहीं कहा और चुपचाप आगे बढ़ गए। कई साल बाद फिर वह उसी गांव में प्रवचन करने आए। इस बार भी वही किसान अपने खेत के पास मुंह लटकाए बैठा था। किसान को उदास देख कर गुरु नानक ने पूछा, 'भइया, इतना उदास क्यों हो?'
किसान ने कहा, 'क्या बताऊं। सूखे ने सारी मेहनत, सारा खर्च बर्बाद कर दिया। भगवान ने मुझे तबाह कर दिया।' गुरु नानक ने कहा, 'भइया, यह सब भगवान की माया है। वह कभी देता है तो कभी ले लेता है।' इस पर किसान बोला, 'आप जख्म पर नमक क्यों छिड़क रहे हैं।' गुरु नानक ने जवाब दिया, 'आपको याद होगा कि जब मैं पिछली बार आया था तो आपकी अच्छी फसल देख कर मैंने कहा था कि यह भगवान की कृपा है। उस समय आपने कहा था कि इसमें भगवान की कृपा कहां से आ गई। यह तो मेरी मेहनत का फल है। अब आप कह रहे हो कि भगवान ने तबाह कर दिया। अच्छे कार्य का श्रेय आप स्वयं लो और बुरे कामों का दोष भगवान पर डाल दो, यह उचित नहीं है। सफलता के लिए भगवान की कृपा और परिश्रम दोनों चाहिए।'
किसान को गुरु नानक की बात समझ में आ गया। उसकी उदासी दूर हो गई।
Posted by Udit bhargava at 12/09/2009 02:58:00 am 0 comments
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