24 सितंबर 2011

विश्वास आत्मा का धर्म है


वेदान्त आश्रम में प्रवचन सुनाते हुए स्वामी देवेंद्रानन्दगिरी ने कहा कि शिव साक्षात विश्वास का स्वरूप है और पार्वती श्रद्धा है। सवाल यह है कि श्रद्धा और विश्वास में क्या अंतर है।

सामान्य लोगों की नजर में दोनों शब्द समान है परन्तु संतों की नजर में दोनों शब्दों में अंतर है। विश्वास आत्मा का धर्म है और स्थिर रहता है। जबकि किसी व्यक्ति के कमरें को देखकर उसके प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है जो की समय के साथ घटती-बढती रहती है।

स्वामी जी ने श्रद्धा व विश्वास के बारे में श्रद्धालुओं को विस्तार से समझाते हुए कहा कि कई बार हम कहते हैं कि मुझे इस व्यक्ति में श्रद्धा है और कई बार कहते हैं कि मुझे फलां व्यक्ति में विश्वास है। हमें इन दोनों बातों में कुछ फर्क महसूस नही होता है मगर असल में इनमें अंतर होता है। हमारे धर्म शास्त्रों के अनुसार भगवान शिव अजन्मे हैं और विश्वास का भी जन्म नही होता है। इस प्रकार विश्वास व भगवान शंकर में एकरूपता है यानी विश्वास ही भगवान शंकर है। विश्वास आत्मा का धर्म है। परन्तु श्रद्धा पार्वती है।

पार्वती को हिमालय के यहां प्रकट होना था तो श्रद्धा को उत्पन्न करना पडता है। विश्वास सहज धर्म है। बालक जन्म से कुछ नहीं सीखता है फिर भी विश्वास है कि यह मेरी मां है जबकि श्रद्धा अनुभव से उत्पन्न होती है। विश्वास का एक रूप होता है यानी ये मेरे पिता हैं तो हैं यह विश्वास का एक निश्चित रूप है, जबकि श्रद्धा बढती-घटती रहती है अर्थात आज जिसे हम अपना हितैषी मानते है कल वह हमारा दुश्मन भी हो सकता है। उसके द्वारा किये गए कमरें से उसके प्रति हमारी श्रद्धा कम व ज्यादा हो सकती है, यानी किसी व्यक्ति के प्रति श्रद्धा अनुभव से घट-बढ सकती है। विश्वास स्थिर होता है। जबकि श्रद्धा घूमती-फिरती रहती है।

उन्होंने कहा कि विश्वास कभी अंधा नहीं होता पर श्रद्धा अंधी होती है। श्रद्धा टूटे तो दुख ज्यादा नहीं होता है विश्वास टूटे तो अधिक दुख होता है। इसलिए श्रद्धा और विश्वास के बीच में संतों के मतानुसार बुनियादी अंतर है। श्रद्धा न हो तो विश्वास व्यर्थ है। विश्वास न हो तो श्रद्धा को भटकना पडता है। अत:साधक को विश्वास और श्रद्धा का समन्वय बांधना होगा।

भय मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु


शिव मंदिर में पंडित जय भगवान कसारियाने प्रवचन करते हुए कहा कि भय मनुष्य का सबसे बडा शत्रु है। यदि इसे अधिक बढने दिया जाता है तो हमारी आत्म संरक्षण की मूल प्रवृति की ही आघात पहुंचाने लगता है।

किंतु यह भी सत्य है कि मनुष्य में कहीं न कहीं भय का तत्व रहता ही है जिसके कारण मनुष्य अपने जीवन की सुख सुविधाओं का पूर्णरूप से आनन्द नहीं ले पाता है।

पंडित जी ने कहा कि मनुष्य को स्वयं को भय मुक्त करने के लिए प्रभु की शरण में ध्यान लगाना चाहिए। जो इंसान सांसारिक व्यसनों में उलझा रहता है उसे अनेक प्रश्न परेशान करते हैं। ये प्रश्न उस समय उसके समक्ष गंभीर रूप से आते हैं जब वह अस्वस्थ होता है या सामान्य जीवन की सुख सुविधाओं से वंचित हो जाता है अथवा उसके साथ कोई वैयक्तिक दुर्घटना हो जाती है। ऐसी स्थितियों में वह स्वयं से पूछता है मैं यहां क्यों हूं मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है मैं कहां से आया हूं मैं कहां जाऊंगा ये सब सांस्कृतिक प्रश्न नहीं है। ये प्रत्येक मनुष्य के मन में स्वाभाविक रूप से उठने वाले प्रश्न है। ये प्रश्न उस समय विशेष रूप से उठते है जब मनुष्य अपने जीवन का विश्लेषण प्रारंभ करता है।

बिना इन प्रश्नों के उत्तर पाये केवल शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के आधार पर जीवन का वास्तविक उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता है। उदाहरण के लिए सुख प्राप्ति के अनेक प्रयासों के बाद भी मनुष्य अपने दुख का कारण नही जान पाता है। जैसे पति-पत्‍ि‌न समाज में साथ रहते हैं, एक दूसरे को चाहते हैं परस्पर ईमानदार रहते है तथा अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करते है फिर भी वे पूर्णरूप से संतुष्ट नहीं रहते है। इसका मुख्य कारण है कि वे जीवन के इस दुख का कारण अवश्य अनुभव कर लें, जिससे अचेतन मन समस्याएं न उत्पन्न करे यदि कोई व्यक्ति यह जान ले कि वह कहां से आया है क्यों आया है तथा उसे मृत्यु का कोई भय न हो तो वह इंद्रि के स्तर पर भी आनन्द लेगा। सामान्यता लोग आनन्द का वास्तविक उपभोग नहीं कर पाते हैं क्योंकि वे अनेक प्रकार के भयों से आक्रांत रहते हैं। यह भय ही इंसान का सबसे बडा शत्रु है। इस भय के कारण ही मनुष्य जीवन का वास्तविक आनन्द नही ले पाता है।

उन्होंने कहा कि यह भी सच्चाई है कि आंतरिक और वाह्य आनंद का उपभोग केवल भय मुक्त अवस्था में ही संभव है। भय मनुष्य जीवन के सुख में सबसे बडी बाधा है। केवल निर्भीक मनुष्य ही जीवन का वास्तविक आनन्द उठा सकता है। लेकिन यह निर्भीकता भावुकतापूर्ण या अज्ञानजन्यनहीं होनी चाहिए।

मास्टर जी


मास्टर जी का असली नाम क्या था वे कहां के रहने वाले थे वे कब उस गांव में आये यह बहुत कम ही लोग जानते थे, सारा गांव उन्हें मास्टर जी के नाम से ही जानता था। कारण यह था कि मास्टर जी ने उस गांव की दो तीन पीढियों को पढाया था, इसलिये वे बच्चों से लेकर उनके पिताओं तक के लिये भी मास्टर जी ही थे। उनके विषय में गांव में लोगों के अलग-अलग विचार थे कोई उन्हें पागल कहता था तो कोई जीनियस, लेकिन उससे मास्टर जी की सेहत पर कोई फर्क नहीं पडता था। छठवें दशक में नौकरी के प्रारंभिक दिनों में जब मास्टर जी अवध के उस पिछडे गांव में प्रायमरी स्कूल के प्रधान अध्यापक बनकर पहुंचे तो वह गांव उन्हें इतना भाया कि वे वहीं के होकर रह गये। लेकिन पहले दिन जब वे स्कूल पढाने पहुंचे तो वहां की दशा देखकर उनका दिल भर आया, एक मडैया के सामने महुये के पेड के नीचे बिछी बोरियों पर आडे तिरछे बस्ते पडे हुए थे और बच्चों का एक झुंड कुछ दूर पर मनोयोग से कबड्डी खेलने में लीन था। मास्टर जी को देखकर झुंड में हलचल मच गई और सब चिडियों की तरह फुर्र से उड कर अपनी सीट पर आ डटे। सरकारी टाटपट्टी और मेज कुर्सी के बारे में पूछने पर पता चला वो सब परधान के घर की शोभा बढा रही थीं। मास्टर जी ने पढाई कराने से पहले बच्चों को लगाकर महुये के पेड से गिरी पत्तियां बिनवाई और मडैया के सामने की सफाई कराई। स्कूल के इतिहास में पहली बार प्रार्थना जैसी दुर्लभ चीज गाई गई- हे प्रभो आनन्द दाता, और फिर मास्टर जी ने खटिया पर बैठकर पढाना शुरू किया।

   कुछ दिन तो मास्टर जी खामोश रहे फिर वे धीरे-धीरे अपने रंग में आने लगे बच्चों को सख्त हिदायत दी गई कि खडिया से तख्ती पोतकर स्याही से लिखने के बजाय घर के दिये में जो कालिख होती है उससे तख्ती पोती जाय और दावात में खडिया घोलकर लिखा जाये तो खडिया की बरबादी नहीं होगी। पढने में कमजोर बच्चों को फैशन में देखकर मास्टर जी फौरन दहाड लगाते, क्यों रे जितना टाइम बाल की पाटी बनाने में लगाया उतनी देर में तो एक हिसाब हल हो सकता था। हिसाब की बात पर ध्यान आया कि हिसाब में मास्टर जी का कोई जोड नहीं था पाइथागोरस की तरह गणित सिखाने के उनके अपने सिद्धांत थे। उनके अनुसार गणित बिना मार खाये आ ही नहीं सकती। इसलिए वे बच्चों को गणित में पारंगत करने के लिये एक गीली नीम का गोदा हमेशा अपने साथ रखते थे, जिसका नाम उन्होंने रख छोडा था समझावनदास। समझावनदास मास्टर जी को बहुत प्रिय थे और उनका इस्तेमाल बच्चों का दिमाग तेज करने के लिये दिन में कई बार अक्सर किया जाता था। मास्टर जी के छात्र उनसे बाघ की तरह डरते थे जिसमें निर्विवाद रूप से उनके सोटे का खासा योगदान था। लेकिन वे उनकी इज्जत भी करते थे क्योंकि मास्टर जी धुनाई और पढाई दोनों ही निष्काम भाव से करते थे।

   मास्टर जी के पढाने का ढंग भी निराला था एक बार किसी की खोपडी में सोंटे के बल पर जो विद्या वे घुसा देते थे वह जिंदगी भर शिव की जटा में गिरने वाली गंगा की तरह बाहर निकलने का रास्ता भूल जाती थी और कुंडली मारकर वहीं पडी रहती थी। मास्टर जी को अपने बारह तेरह साल पहले आजाद हुये देश पर भी बहुत गर्व था। उनका एक प्रिय तकिया कलाम था चूंकि अब देश आजाद है जिसका वे बात-बात में इस्तेमाल करते थे। हिंदी भाषा के सूर, तुलसी, कबीर के पद उन्हें मुंहजबानी कंठस्थ रहते थे किंतु अंग्रेजी के वे प्रबल आलोचक थे। उनके हिसाब से यह एक अवैज्ञानिक भाषा थी जिसका वे खुलकर मजाक उडाते थे। सायकोलॉजी की स्पेलिंग बताते थे पिसाई का लोगी, नालेज की स्पेलिंग टिप्स देते कनउ लदिगे। इतिहास के बारे में भी उनकी सूझ नितांत मौलिक थी, कभी-कभी वे बच्चों से पूछते, बच्चों बताओ कौन महान था, राणाप्रताप या अकबर? तो बच्चे चकरा जाते। मन राणा प्रताप को महान मानता लेकिन इतिहास अकबर को महान बताता था। कोई बच्चा बहुत दिमाग लगाकर अगर जवाब देता, मास्टर जी, दोनों। तो तड से उसकी पीठ पर डंडा पडता क्यों बे, दोनों एक साथ कैसे महान हो सकते हैं! मास्टर जी विदेशी जीवन शैली के घोर विरोधी थे। अपने देश की परंपरा और संस्कृति एवं अपने देशीपन पर उन्हें हद तक प्यार था।

   क्रिकेट, हॉकी उनके अनुसार पैसे की बरबादी थी। वे बच्चों को समझाते कबड्डी खेलो, दौड लगाओ, खो खो खेलो, इससे फेफडों का व्यायाम होगा और मां बाप का पैसा बचेगा। सत्तू को वे दुनिया का सबसे पौष्टिक फास्ट फूड मानते थे, उनके अनुसार गर्मी में घोल कर पीने पर सत्तू तरावट देता है और सर्दी में लिट्टी में भर कर खाने पर शरीर में गर्मी रहती है। मास्टर जी सिर्फ सलाह ही नहीं देते थे अपने ऊपर उसका एक्सपेरीमेंट भी करते थे। अपनी पुरानी घिसी धोतियों से वह मुलायम कथरियां बनवाते थे। उनके अनुसार गर्मियों में जो सुख कथरी पर लेटने में मिलता था वह रुई के गद्दे में कहां और बेकार धोतियों का उपयोग भी होता है। फूलों से उन्हें विशेष लगाव था उन्होंने मडैया के अगल-बगल क्यारियां बनवाई। उनमें गेंदा, गुलमेंहदी के फूल लगवाये जिसमें एक घंटे बच्चों को श्रमदान करना अनिवार्य था। उस ग्रामीण स्कूल में पढाते हुए मास्टर जी ने कैसे अपने छात्रों के शिक्षक के साथ-साथ गांव वालों के अभिभावक का भी दर्जा प्राप्त कर लिया यह कहना मुश्किल है। किन्तु देखा यही जाता था कि छात्रों के माता पिता शिक्षा के अलावा शादी ब्याह, खेती-बारी, हारी- बीमारी, दवा दारू के बारे में भी मास्टर जी से सलाह मांगने आते जिसका वे खुशी-खुशी निदान करते।

   इसी प्रकार समय का चक्र चलता रहा। कितने ही बसन्त, पतझड आए और चले गए। धीरे-धीरे मास्टर जी के पढाये हुए बच्चे बडे होकर जीवन की राहों में जूझने के लिए बिखर गए और मास्टर जी के पास पढने वाले बच्चों की नई-नई खेपें आती गई। मास्टर जी ने अब प्राइवेट परीक्षा देकर इंटर और बी.ए. कर लिया था। पुराना प्रायमरी स्कूल हाई स्कूल हो गया था जिसे वे हमेशा उच्चतर माध्यमिक विद्यालय कहा करते थे। अब वे बूढे हो रहे थे और स्कूल में उनका वह जलवा नहीं रह गया था। गांव में अब कबड्डी, खो-खो नहीं खेला जाता था, बल्कि जमीन में डंडियों का विकेट गाड कर बच्चे क्रिकेट खेलते। स्कूल के छात्रों में अब अधिक संख्या ऐसे उद्दंड बच्चों की थी जिनके लिये अब बूढे मास्टर आउटडेटेड हो चुके थे। उनकी डांट सुनकर वे व्यंग्य से हंसते थे और मास्टर जी बिना विष के ढोंढवा सांप जैसे फुफकारते रहते थे। किन्तु एक दिन जब मास्टर जी ने सुना स्कूल के ऊंची क्लास के कुछ लडकों ने साप्ताहिक बाजार में माल बेचने जा रहे एक सीधे साधे व्यापारी का गल्ला लूटने की योजना बनाई है तो उनके सब्र का बांध टूट गया और वे अपनी उम्र और सहकर्मियों की चेतावनियों को नजरअंदाज कर घटनास्थल पर पहुंच गए। वहां अपने स्कूल के आधा दर्जन लडकों को देख मास्टर जी क्रोध से आग बबूला हो गए। उन्होंने रौद्र रूप धारण कर सबको रेस्टीकेट करने की धमकी दी, तो अभियुक्तों के चेहरे भय आशंका और क्रोध से विवर्ण हो गये। उन्होंने एक दूसरे को कनखियों से देखा, यह बुढ्डा यहां क्यों मरने चला आया? आंखों ही आंखों में इशारे हुए इसे छोडना नहीं है। इन इशारेबाजियों से अनभिज्ञ बुजुर्ग मास्टर ने जब छात्रों को सजा देने के लिए हाथ उठाया तो छात्रों के हाथ मार खाने के लिये आगे बढने के बजाय ऊपर उठे और उनका सोंटा बीच में ही पकडकर उन्हें नीचे गिरा दिया और उन पर हाकियों की बौछार होने लगी। नीचे गिरते हुए मास्टर जी ने धुंधली आंखों से देखा और आंखें मूंद लीं। बाद में जब लोग उधर पहुँचे तो देखा मास्टर लहूलुहान अर्धनग्न अवस्था में जमीन पर पडे थे, आंखें सदमें से फैली हुई थीं, नाक मुंह से बहा हुआ खून चेहरे पर सूखकर ऐसा लग रहा था जैसे भारत के मानचित्र पर लाल रंग से गंगा जमुना उकेरी गई हो। लोगों को देख कर उनके होंठों में हरकत सी हुई और फुसफुसाहट जैसी धीमी किन्तु स्पष्ट आवाज सुनाई दी, अब देश आजाद है उसके बाद वे बेहोश हो गए।

21 सितंबर 2011

रहमान की म्यूजिकल राह...

अल्लाह रखा रहमान एक ऐसी शख्सीयत, जिसने संगीत की दुनिया की राह में अपने कदमों को इस तरह बढ़ाया कि आज विश्वस्तर पर उसने एक अमिट पहचान कायम की है।
5 जनवरी 1966 को मद्रास में जन्मे रहमान का पहले नाम ए. एस. दिलीप कुमार था, लेकिन 1988 में उन्होंने इस्लाम धर्म अपना लिया। इसके पीछे का रहस्य यह माना जाता है कि एक बार रहमान की बहन गंभीर रूप से बीमार पड़ीं, तब वह एक पीर बाबा की मजार पर गए और उनकी दुआ का इतना असर पड़ा कि उनकी बहन को एक नया जीवन मिल गया, इसी से प्रभावित होकर रहमान के पूरे परिवार ने इस्लाम कबूल कर लिया। 'मोजार्ट ऑफ मद्रास' के नाम से पहचाने जाने वाले रहमान ने संगीत प्रेमी परिवार में जन्म लिया, उनके पिता आर. के. शेखर मलयालम सिनेमा के जाने-माने म्यूजिक कंपोजर थे। रहमान ने सिर्फ 4 वर्ष की आयु में पियानो बजाने का प्रशिक्षण लेना शुरू कर दिया था। बचपन से ही मुसीबतों ने रहमान की राह का रोड़ा बनना चाहा, पर करना है, तो करना है... के मार्ग पर चलने वाले रहमान हमेशा आगे बढ़ते रहे।

उनके कठिन समय की कहानी तो उस वक्त ही शुरू हो गई थी, जब नौ साल की छोटी सी उम्र में उन्होंने अपने पिता को खो दिया था। इस विषम परिस्थिति में परिवार के पालन-पोषण की जिम्मेदारी मासूम रहमान के नाजुक कंधों पर आ गई। रहमान ने म्यूजिक की ओर अपना रुझान किया और इलयाराजा के ट्रच्प को जॉइन किया। रहमान को इसके चलते अपनी स्कूली एजुकेशन छोड़नी पड़ी। अतीत के उन दिनों के बारेे में रहमान बताते हैं कि वह मेरी जिंदगी का टर्निंग पॉइंट था, मैंने हमेशा सॉफ्टवेयर इंजीनियर बनने का सपना देखा था, पर उस स्थिति में मां ने कहा कि मुझे म्यूजिक को कैरियर ऑप्शन के रूप में अपनाना चाहिए। स्थिति ऐसी नहीं थी कि मैं किसी विकल्प के बारे में सोचता, मैने वैसा ही किया, जैसा मां चाहती थीं। रहमान कहते हैं कि शुक्र है डैड का, जिन्होंने म्यूजिक इंस्ट्रुमेंट्स का बेहतरीन कलेक्शन किया था, जो मेरे बहुत काम आया।

जब रहमान सोलह साल के थे, तभी से वह काम में इतने व्यस्त हो गए कि वह मात्र तीन घंटे ही सोते थे। अपने उन दिनों के शेड्यूल के बारे में रहमान बताते हैं कि मेरी लाइफ उसी समय से काफी सीरियस हो गई थी। मैं सुबह ९ से रात दस बजे तक जिंगल, सॉन्ग रिकॉर्डिंग आदि में व्यस्त रहता था, एक स्टूडियो से दूसरे, फिर तीसरे। फिर रात को घर आता था और जैसा कि कहावत है कि रात अपनी होती है, बस उसी तर्ज पर रात ग्यारह बजे नई धुनों की कंपोजिंग करना शुरू करता था और बस कब सुबह हो जाती थी, पता ही नहीं चलता था। फिर सुबह 6 से 9 बजे तक सोता था।

एजुकेशन के विषय पर रहमान कहते हैं कि मुझे अफसोस होता है कि मुझे कॉलेज छोड़ना पड़ा था और तभी से किताबें और क्लासेज मुझसे दूर हो गई थीं। अपनी इसी इच्छा के चलते मैंने ट्रिनिटी कॉलेज, ऑक्सफोर्ड से वेस्टर्न क्लासिकल म्यूजिक में डिग्री लेने की ठानी और फिर डिग्री हासिल की। मैंने यह कोर्स लंदन न जाकर पत्राचार से चेन्नई से ही किया है।

रोजा से अपनी एक सशक्त पहचान बनाने वाले रहमान इस फिल्म से कैसे जुड़े, इसका जवाब देते हुए बताते हैं कि एक एडवरटाइजिंग अवॉर्ड समारोह के दौरान उनकी मुलाकात डायरेक्टर मणिरत्नम से हुई, रहमान ने उन्हें अपने बनाए कुछ म्यूजिकल सैंपल सुनाए, जिससे वे इतने प्रभावित हो गए कि उन्होंने रहमान को अपनी आने वाली फिल्म रोजा के लिए म्यूजिक कंपोज करने की जिम्मेदारी दे दी। रहमान अपनी पत्नी सारया के बारे में कहते हैं कि वह म्यूजिक के बारे में मेरी मां की तरह ज्यादा नहीं जानती हैं, पर कंपोजिंग के वक्त यह जरूर बता देती हैं कि सुनने में वह कर्णप्रिय है या नहीं, पर तीनो बच्चों खतीजा, राहिमा और अमीन का संगीत में काफी इंटरेस्ट है। आजकल रहमान अपनी आगामी फिल्मों एलिजाबेथ- द गोल्डन एज (हॉलीवुड), गुरु, अकबर-जोधा, चमकी, रॉकस्टार आदि पर कार्य कर रहे हैं।