कर्मो का हमारे जीवन में बहुत महत्व है यह दो प्रकार के होते है-
अच्छे और बुरे
अच्छे करम ही मनुष्य को सही राह देते है, यह ही हमारी कदम कदम पर रक्षा करते है, अगर मनुष्य के पास बहुत धन है और उसके पास अच्छे करम नही है तो इस समाज में उसे बड़ा गरीब कोई नही है, ईश्वर की प्राप्ति भी कर्मो पर निर्भर है, अगर हम दिन में एक भी अच्हा करम करे तोह वो भी भगवान की पूजा के समान है, मन को शान्ति मिलती है. ईश्वर के चरणों में जगह मिलती है, मरनो उपरांत अच्छे करम ही साथ जाते है
निस्काम्भाव कर्म
जो करम निश्काम्भाव से हो वो भगवान को अधिक प्रिये होते है जिसमे कोई इछा न हो , अगर कर्म करा है तो उसका फल भी जरुर मिलेगा, भाव रखने से उसका यश खत्म हो जाता है
और बुरे करम हमेशा ग़लत ही राह पर लाते है, शुरू में जरुर खुशी मिलते है पर अंत बुरा होता है, बुरे करम हमे ईश्वर से दूर कर देते है, दिन में एक भी बुरा करम करने से अच्छे 10 करम खत्म होते है, कदम कदम पे हर कार्ये में भय सताता रहता है
तो आज हम सब मिलकर यह प्रण करे के जीवन में कभी भी बुरा करम नही करेंगे, बुरे की राह पर कभी नही चलेंगे, भूले से भी किसी का बुरा न करेंगे, सदा सच पर ही चलेंगे और मालिक से भी यह ही प्राथना करेंगे की वह हमेशा हमे सच की ही राह दिखाए.....ॐ सी राम
26 जून 2010
कर्मो का महत्व ( The importance of deeds )
Posted by Udit bhargava at 6/26/2010 02:47:00 pm 1 comments
महानता के लक्षण
एक बालक नित्य विद्यालय पढ़ने जाता था। घर में उसकी माता थी। माँ अपने बेटे पर प्राण न्योछावर किए रहती थी, उसकी हर माँग पूरी करने में आनंद का अनुभव करती। पुत्र भी पढ़ने-लिखने में बड़ा तेज़ और परिश्रमी था। खेल के समय खेलता, लेकिन पढ़ने के समय का ध्यान रखता।
एक दिन दरवाज़े पर किसी ने - 'माई! ओ माई!' पुकारते हुए आवाज़ लगाई तो बालक हाथ में पुस्तक पकड़े हुए द्वार पर गया, देखा कि एक फटेहाल बुढ़िया काँपते हाथ फैलाए खड़ी थी।
उसने कहा, 'बेटा! कुछ भीख दे दे।'
बुढ़िया के मुँह से बेटा सुनकर वह भावुक हो गया और माँ से आकर कहने लगा, 'माँ! एक बेचारी गरीब माँ मुझे बेटा कहकर कुछ माँग रही है।'
उस समय घर में कुछ खाने की चीज़ थी नहीं, इसलिए माँ ने कहा, 'बेटा! रोटी-भात तो कुछ बचा नहीं है, चाहे तो चावल दे दो।'
पर बालक ने हठ करते हुए कहा - 'माँ! चावल से क्या होगा? तुम जो अपने हाथ में सोने का कंगन पहने हो, वही दे दो न उस बेचारी को। मैं जब बड़ा होकर कमाऊँगा तो तुम्हें दो कंगन बनवा दूँगा।'
माँ ने बालक का मन रखने के लिए सच में ही सोने का अपना वह कंगन कलाई से उतारा और कहा, 'लो, दे दो।'
बालक खुशी-खुशी वह कंगन उस भिखारिन को दे आया। भिखारिन को तो मानो एक ख़ज़ाना ही मिल गया। कंगन बेचकर उसने परिवार के बच्चों के लिए अनाज, कपड़े आदि जुटा लिए। उसका पति अंधा था। उधर वह बालक पढ़-लिखकर बड़ा विद्वान हुआ, काफ़ी नाम कमाया।
एक दिन वह माँ से बोला, 'माँ! तुम अपने हाथ का नाप दे दो, मैं कंगन बनवा दूँ।' उसे बचपन का अपना वचन याद था।
पर माता ने कहा, 'उसकी चिंता छोड़। मैं इतनी बूढ़ी हो गई हूँ कि अब मुझे कंगन शोभा नहीं देंगे। हाँ, कलकत्ते के तमाम ग़रीब बालक विद्यालय और चिकित्सा के लिए मारे-मारे फिरते हैं, उनके लिए तू एक विद्यालय और एक चिकित्सालय खुलवा दे जहाँ निशुल्क पढ़ाई और चिकित्सा की व्यवस्था हो।'
माँ के उस पुत्र का नाम ईश्वरचंद्र विद्यासागर।
Labels: अध्यात्म
Posted by Udit bhargava at 6/26/2010 02:43:00 pm 0 comments
25 जून 2010
नया भारत, क्रांति शुरू हो गई है
यदि हम सौ वर्ष पहले की दुनिया को देखें, तो कोई दस हजार वर्ष के लंबे इतिहास में आदमी एक जैसा था, वैसा ही था। समाज के नियम वहीं थे, जीवन के मूल्य वहीं थे, नीति और धर्म का आधार वहीं था। दस हजार वर्षों में मनुष्य की जिंदगी के आधारों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। इस सदी में आकर सारे आधार हिल गए हैं और सारी भूमि हिल गई है। जैसे एक ज्वालामुखी फूट पड़ा हो मनुष्य ने नीचे अरौ सब परिवर्तन हम समाप्त कर देंगे। यह परिवर्तन जारी रहेगा और रोज ज्यादा होता चला जायेगा।
अब तक हमने जिस मनुष्य को निर्मित किया था वह एक स्थायी, सुस्थिर समाज का नागरिक था। अब जिस मनुष्य को हमें निर्मित करना है, वह सतत क्रांति का नागरिक हो सके, इसका ध्यान रखना जरूरी है। भविष्य के मनुष्य की रूपरेखा, या नए मनुष्य के संबंध में सोचते समय पहली बात यह सोच लेनी जरूरी है कि परिर्वतन के जगत में जहाँ रोज सब बदल जायेगा- हम कैसे नीति विकसित करें, हम कैसा आचरण विकसित करें, मनुष्य को फिर से पुनर्विचार करना जरूरी हो गया है। महावीर ने, बुद्ध ने, मनु ने, कृष्ण ने और क्राइस्ट ने हमें मनुष्य की जो रूपरेखा दी थी, वह रूपरेखा आज आउट-ऑफ-डेट हो गयी है, समय के बाहर हो गयी है। उसी रूपरेखा को अगर लेकर हम चलते हैं तो अब जिंदगी ढंग की नहीं हो सकती।
इसलिए पहली बात जो मैं कहना चाहता हूँ वह यह, कि अब तक के सारे आदर्श और सारे मूल्य जिस भांति जिस ढाँचे में विकसित किये गये थे, वे भविष्य के मनुष्य के काम के नहीं रह गये हैं। अब तक हमनें जिस मनुष्य को बनाने की कोशिश की थी वह भय के ऊपर खड़ा था। नर्क का भय, स्वर्ग का प्रलोभन था। और भय और प्रलोभन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
मनुष्य बुरा न करे, इसलिए नर्क के भय से हमने पीड़ित किया था और मनुष्य अच्छा कर सके, इसलिए स्वर्ग के प्रलोभन दिए थे। लेकिन आज अचानक इस सदी में आकर स्वर्ग और नर्क दोनों ही विलीन हो गये। उनके साथ ही वह नैतिकता भी विलीन हुई जा रही है जो भय और प्रलोभन पर खड़ी थी। आज जो अनैतिकता का सारे जगत में विस्फोट हुआ है, उसका कोई और कारण नहीं है। पुरानी नीति के आधार गिर गये हैं।
मैंने सुना है, एक चर्च के स्कूल में एक पादरी बच्चों को नीति की शिक्षा देने आता था। उसने बच्चों को नैतिक साहस के संबंध में छोटी-सी कहानी कहीं, मारल करेज के लिए। उसने बच्चों को समझाने के लिए कहा कि नैतिक साहस मनुष्य के जीवन में बड़ी जरूरी चीज है। वह कहानी बड़ी पुरानी थी।
उसने उन बच्चों से कहा कि मैं तुम्हें एक छोटी-सी-कहानी से समझाऊँ- तीस बच्चे किसी पर्वत पर घूमने के लिए गए। वे दिनभर में थक गये हैं। रात सोने के समय सर्द रात है, ठंड लग रही है, बिस्तर तैयार है। उन्तीस बच्चे सो गये, लेकिन एक बच्चा अपनी रात्रि की अंतिम प्रार्थना करने के लिए अंधेरे कोने में ठंड से सिकुड़ा हुआ बैठा है। तो उस पादरी ने बच्चों को कहा कि वह जो एक है, उसमें बड़ा नैतिक साहस है उन्तीस के विरोध में जाने का। जबकि ठंड बिस्तर में बुला रही हैं और दिनभर की थाकान है। और जब उन्तीस लोग सो गये हैं, तब भी एक बच्चा अपनी रात्रि की अंतिम प्रार्थना पूरा किये बिना नहीं सोता है, उसमें बड़ा नैतिक साहस है।
वह (पादरी) सात दिन बाद वापस आया। उसने बच्चों से पूछा, मैंने नैतिक साहस की तुम्हें कहानी सुनायी थी। मैं तुमसे पूछना चाहता हूँ, तुम समझ सके मेरी बात? क्या तुम भी मुझे कोई घटना सुनाओगे जो नैतिक साहस को बताती हो? एक बच्चा खड़ा हुआ। यह बच्चा बीसवीं सदी के पहले कभी खड़ा नहीं हो सकता था। एक बच्चे ने खड़े होकर कहा कि हमने भी एक कहानी सोची है और आपकी बात से उसमें नैतिक साहस ज्यादा है। उस चर्च के पादरी ने कहा, 'मैं सुनना चाहूँगा।'
उस बच्चे ने कहा, 'आप जैसे तीस पादरी पहाड़ी पर गये हुए थे घूमने, भ्रमण करने। वे दिनभर थके-मांदे वापस लौटे। रात सर्द है, ठंडी है। बिस्तर उन्हें पुकार रहे हैं, लेकिन उन्तीस पादरी प्रार्थना करने बैठ गए हैं, और एक पादरी सोने चला गया है। और उस एक पादरी में बहुत नैतिक साहस है, उन्तीस पादरियों के विरोध में जाने का।'
यह बीसवीं सदी से पहले किसी बच्चे ने न सोचा होगा। और यह बात सच है। जब उन्तीस लोग प्रार्थना कर रहे हों और उनकी आँखे यह कह रही हों कि जो प्रार्थना नहीं करेगा वह नर्क भेज दिया जायेगा, और उनके सारे व्यक्तित्व का सुझाव यह कह रहा हो, उनके गैस्चर, उनकी मुद्राएँ यह कह रही हों कि नर्क में सड़ोगे, तब एक आदमी का प्रार्थना छोड़कर नींद के लिए बिस्तर पर चले जाना बहुत हिम्मत की बात है।
लेकिन यह हिम्मत आज की जा सकती है, क्योंकि नर्क और स्वर्ग हवाई कल्पनाओं से ज्यादा नहीं रह गये हैं। लेकिन आज से कुछ सदियों पूर्व वे बड़ी सच्चाइयाँ थीं। और आदमी उन्हीं से भयभीत होकर जी रहा था। तो हमने आदमी को कहा था कि झूठ बोलोगे तो नर्क में पड़ोगे, सत्य बोलोगे तो स्वर्ग में सुख मिलेगा। हमने बहुत प्रलोभन दिये थे। आदमी डरा हुआ था। तो वह नीति को मानकर जी रहा था। लेकिन आज सारे भय गिर गये हैं। आदमी निर्भय हुआ है। इस निर्भय आदमी पर पुरानी नीति लागू नहीं हो सकती। पुरानी नीति भी पुराने आदमी के साथ मर गयी है, मर रही है, मर जायेगी।
लेकिन क्या मनुष्य को अनीति में छोड़ देना है? क्या मनुष्य के अभय और निर्भय होने का अर्थ यह होगा कि वह अनैतिक हो? अगर यह होगा तो समाज निरंतर गहरे खतरों में पड़ जायेगा। क्योंकि नैतिक होने का एक ही अर्थ है कि मैं दूसरे व्यक्ति की भी चिंता करता हूँ, मैं अकेला नहीं हूँ। मैं अकेला नहीं हूँ! मैं इस पृथ्वी पर साथियों के साथ हूँ। कोई भी अकेला नहीं है। हमारे चारों तरफ पड़ोसियों का बड़ा जाल है और मैं पड़ोसी के लिए भी दायित्वपूर्ण हूँ। मैं उसके लिए भी विचार करता हूँ। उसे दुख न पहुँचे, इस भांति जीता हूँ। नैतिकता का आधार इतना है, लेकिन अब तक हमने भय के आधार पर इस बात को संभाले रखा था। कानून का भय था, पुलिस वाला खड़ा है चौराहे पर। आदालत में मजिस्ट्रेट बैठा है। ऊपर भगवान बैठा है। वह सुप्रीम कांस्टेबल का काम करता रहा है अब तक। बड़े से बड़ा पुलिस का हवलदार था। वह ऊपर से बैठकर नियंत्रण कर रहा है, लोगों को नर्क भेज रहा है, स्वर्ग भेज रहा है। लेकिन वह सब विदा हो गया है।
बीसवीं सदी की खोज ने बताया कि भगवान भी हमने अपने भय से निर्मित कर लिया था और उस भगवान का तो हमें कोई भी पता नहीं है, जो है। और जिस भगवान को हमने निर्मित कर लिया था, वह हमारे भय का ही आधार था। वह भगवान भी धीरे-धीरे फैड-आउट हो गया है। वह भी विलीन हो गया है। उसके साथ उसके नर्क-स्वर्ग भी विलीन हो गये हैं। उसके पुरोहित-पंडे, वे भी सब विलीन हो गये हैं। आदमी एकदम वैक्यूम में, खाली जगह खड़ा हो गया है। अब हम उसे डराकर नैतिक नहीं बना सकते।
पुराना आदमी नैतिक था बुद्धि खोकर। और बुद्धि को खोकर नैतिक होना अनैतिक होने से भी बदतर है। पुराना आदमी नैतिक था व्यक्तित्व खोकर। और व्यक्तित्व को खोकर नैतिक होना अनैतिक होने से भी बुरा है। पुराने आदमी के पास कोई व्यक्तित्व, कोई इंडीवीजुअलिटी न थी, यह भी ध्यान में रख लेना जरूरी है। पुराना आदमी समूह का एक अंग था, व्यक्ति नहीं। गाँव में एक आदमी था, वह समूह का एक अंग था, उसके पास कोई व्यक्तित्व न था। वह अलग से कुछ भी न था। वह भंगी था, ब्राह्मण था, चमार था, बनिया था, एक समूह का हिस्सा था और समूह के ऊपर जिंदा था। वह समूह के खिलाफ इंचभर चलता तो कुएँ पर पानी पीना बंद था, हुक्का बंद था, भोजन बंद था, विवाह बंद था। वह जिंदा नहीं रह सकता था।....
हिंदुस्तान से एक आदमी जर्मनी लौटा- काउंट कैसरलिन, तो उसने अपनी डायरी में लिखा कि हिंदुस्तान में जाकर मुझे पहली दफा पता चला कि स्वास्थ्य एक अनैतिकता है, बीमार होना नैतिकता है। और हिंदुस्तान में जाकर मुझे पता चला कि अस्वच्छ रहना, गंदगी से रहना अध्यात्म है। स्वच्छ रहना और ताजे रहना, साफ-सुधरे रहना भौतिकवाद है, मैटीरियलिज्म है। नहीं, यह सब हमें बदल देना पड़ेगा। एक नयी नीति- स्वस्थ, सुखी आदमी को, मुस्कराते आदमी को स्वीकार करेगी। हमें बुद्ध और महावीर की नयी मूर्तियाँ ढालनी होंगी, जिनमें वे खिलखिलाकर हंस रहे हों। अब उदास महावीर और उदास बुद्ध नहीं चल सकते हैं। ईसाई तो कहते हैं कि जीसस कभी हँसे ही नहीं क्योंकि हँसने जैसी छोटी-ओछी चीज जीसस कर सकते थे! उनकी किताबें कहती हैं, 'जीसस नैवर लाफ्ड'- हँसे ही नहीं कभी जिंदगी में। तो उन्होंने जीसस को जैसा बनाया..देखा होगा सूली पर लटके हुए। अगर वे न भी लटकाते तो ईसाई उनको लटता देते, क्योंकि गंभीर आदमी को सूली पर लटका होना चाहिए। लेकिन अब हम जीसस को हँसाकर रहेंगे। हमें जीसस की नयी तस्वीरें बनानी पड़ेंगी, जिसमें वे हँस रहा हों, फूल के बगीचे में खड़े हों।
नये आदमी को सुखी और स्वस्थ्य और आनंदित- इस पृथ्वी पर, स्वर्ग में नहीं, इस पृथ्वी पर सुख और स्वास्थ्य को स्वीकार करना पड़ेगा तो हम एक विधायक नीति के आधार रख सकते हैं। मुझे कोई कारण नहीं दिखायी पड़ता कि ये आधार क्यों नहीं रखे जा सकते हैं। मैं आपसे इतनी ही प्रार्थना करूँगा, इन दिशाओं में सोचें। बड़ा सवाल है, जिंदगी के सामने बड़ी समस्या है कि नयी नीति को कैसे जन्म दें। इन दिशाओं में सोचें। शायद हम सब सोचें तो हम कुछ रास्ते खोज लें।
मैं कोई उपदेश देनेवाला नहीं हूँ कि आपको उपदेश दूँ और आप ग्रहण कर लें। वह मामला छोड़ें, वह गुरु-शिष्य का संबंध गया। अब कोई उपदेश देगा, कोई ग्रहण करेगा, यह सवाल नहीं है। हम सब इकट्ठे होकर सोच सकें, हम सब मित्र की तरह साथ सोच सकें, और नये मनुष्य की रूपरेखा निर्मित कर सकें, इस दिशा में मैंने कुछ बातें कहीं। मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुग्रहीत हूँ और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूँ, मेरे प्रणाम स्वीकार करें!
Posted by Udit bhargava at 6/25/2010 05:20:00 pm 0 comments
बांसुरी वाले की कहानी और जिंदगी के वायदे
संत राजिंदर सिंह जी महाराज
हरेक इंसान की जिंदगी में ऊँच-नीच आता है। हर एक की जिंदगी में कुछ ऐसे मौके आते हैं, जिनमें की तकलीफें बढ़ जाती हैं। महापुरुष हमें समझाते हैं कि हर मौके पर धैर्य रखना है, प्रेम से काम करना है। ध्यान रखना है कि हम अपने छोटे से फायदे के लिए सिद्धांतों को न छोड़ दें।
एक बाँसुरी वाले की रोचक कहानी है। एक शहर में चूहे बहुत हो गए। लोग सड़कों पर जाएँ, तो वहाँ चूहे देखें और घरों में भी चूहे धमाचौकड़ी मचाते दिखें। जिधर देखो, चूहे ही चूहे। वहाँ बीमारी शुरू हो गई। एक दिन शहर के लोग मिल कर मेयर के पास गए और उससे कहा कि आप कुछ करिए। उसने भी अपनी तरफ से बड़ी तरकीबें कीं, पर चूहों की संख्या बढ़ती चली गई।
फिर मेयर ने घोषणा करवाई कि अगर कोई आदमी हमें वह नुस्खा बताए, जिससे चूहे यहाँ से चले जाएँ, तो हम उसे एक हजार फ्लोरेंस देंगे। वहाँ की मुदा का नाम फ्लोरेंस था। ऐलान के अगले ही दिन वहाँ एक आदमी कहीं बाहर से आया। उसने अजीब से कपड़े पहने हुए थे। उसने मेयर से पूछा कि अगर मैं इन चूहों को यहाँ से बाहर ले जाऊँगा, तो घोषणा के अनुसार क्या आप मुझे एक हजार फ्लोरेंस देंगे? मेयर ने कहा, हाँ, अगर सब चूहे चले गए, तो तुझे हजार फ्लोरेंस जरूर दे देंगे।
अगले दिन सुबह, वह आदमी पूरे शहर में घूम-घूम कर बाँसुरी बजाने लगा। उसकी आवाज चूहों को ऐसी लगी, जैसे खाने के डिब्बे खुल रहे हों। तो सारे चूहे उस आवाज के पीछे-पीछे जाने लगे। चलता-चलता वह शहर के बाहर आ गया। बाहर एक नदी बहती थी। बाँसुरी बजाता हुआ वह नदी के अंदर चला गया। तो उसके पीछे-पीछे सारे के सारे चूहे भी नदी के अंदर चले गए और डूब गए।
जब सारे चूहे डूब गए, तो वह वापस शहर आया और अपना मेहनताना माँगा। मेयर ने कहा, तुमने तो कुछ किया ही नहीं, सिर्फ बाँसुरी बजाई है। बाँसुरी बजाने के लिए हजार फ्लोरेंस कौन देता है?
बाँसुरी वाले ने कहा, देखो, अभी मुझे उस शहर में जाना है, वहाँ पर बिल्लियों को हटाना है। उसके बाद एक अन्य शहर में जा कर वहाँ से बिच्छुओं को हटाना है। तो आप जल्दी से मुझे पूरे पैसे दे दीजिए। पर मेयर ने कहा कि ये 50 फ्लोरेंस ले जाओ, तुमने तो खाली बाँसुरी बजाई है, और कुछ किया नहीं। हम तो मजाक में बोल रहे थे कि हजार फ्लोरेंस देंगे। यह सुनकर बाँसुरी वाला बड़ा दुखी हुआ।
अगले दिन उसने फिर से बाँसुरी बजानी शुरू की, किसी अलग तरह से और ऐसी बाँसुरी बजाई कि शहर में जितने भी बच्चे थे, सब खुश हो कर उसके पीछे-पीछे चलने लगे। फिर वह शहर से बाहर निकला और एक पहाड़ की गुफा में चला गया और सारे बच्चे उसके पीछे चले गए और उसके बाद गुफा का दरवाजा बंद हो गया।
इस कहानी से हमें कई चीजें समझने को मिलती हैं। एक तो यह है कि जब हम किसी से कुछ वादा करें, तो वह हमें अवश्य पूरा करना चाहिए, उसे निभाना चाहिए। हम सोचते हैं, हमारा काम हो गया, हम चालाकी कर लेते हैं। पर प्रभु की निगाह में किसी की कोई चालाकी नहीं चलती। हरेक बोल, हरेक कार्य, हरेक सोच का हमें भुगतान करना है। हम लोग काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार से घिरे हुए हैं; हमारी आत्मा सिकुड़ती जाती है और हम असलियत को नहीं जान पाते हैं। काल के दायरे में इतने फँस चुके हैं कि उसमें धँसते चले जाते हैं। वे लोग, जो अपनी जिंदगी में सदगुणों को ढालते हैं, वे अपनी मंजिल तक पहुँच जाते हैं।
जैसे बाँसुरी वाले ने बाँसुरी बजाई, ऐसे ही महापुरुष हमारे अंदर शब्द को शुरू कर देते हैं। प्रभु का 'शब्द' हम सबके अंदर चल रहा है, उसे सुन कर ,उसका प्रसाद ग्रहण कर हम आनंदित तो होते हैं, लेकिन उस आनंद को भोगने के लिए किया गया वाद नहीं निभाते।
स्वामी विवेकानंद जी कहते है -
बोध वाक्य "तुम्हारे भविष्य को निश्चित करने का यही समय है। इस लिये मै कहता हूँ, कि तभी इस भरी जवानी मे, नये जोश के जमाने मे ही काम करों। काम करने का यही समय है इसलिये अभी अपने भाग्य का निर्णय कर लो और काम में जुट जाओं क्योकिं जो फूल बिल्कुल ताजा है, जो हाथों से मसला भी नही गया और जिसे सूँघा ही नहीं गया, वही भगवान के चरणों मे चढ़ाया जाता है, उसे ही भगवान ग्रहण करते हैं। इसलिये आओं ! एक महान ध्येय कों अपनाएँ और उसके लिये अपना जीवन समर्पित कर दें "
Posted by Udit bhargava at 6/25/2010 04:59:00 pm 0 comments
दुख के समय भगवान और धर्म क्यों याद आता है?
गीता में कृष्ण कहते हैं- 'चार प्रकार से व्यक्ति मेरी भक्ति करते हैं- आर्त, जिज्ञासु, ज्ञानी और अर्थार्थी। मनुष्य जब
दुखी होता है, तब मेरी भक्ति करता है। जब तक उसे कोई पीड़ा नहीं सताती, वह मुझे कभी याद नहीं करता।
आम्रपाली अपने समय की प्रसिद्ध नर्तकी थी। उसने एक बार बुद्ध से कहा- 'भंते! आप मेरे पास कभी नहीं आते।' बुद्ध बोले- 'अभी जरूरत नहीं है, जिस दिन जरूरत होगी, मैं अवश्य आऊंगा।' वह बूढ़ी हो गई। उसका शारीरिक लावण्य मिट गया। अब उसके पास कोई नहीं आता था। तब बुद्ध पहुंचे और बोले- 'प्रिय! मैं आ गया।' आम्रपाली ने कहा- 'भंते! अब समय बीत गया। अब मुझ में बचा ही क्या है? वह शारीरिक सौंदर्य अब नहीं रहा। आप आज क्यों आए?' बुद्ध ने कहा- 'प्रिये! यही तो समय है आने का। पहले तुझे मेरी आवश्यकता भी नहीं थी। धर्म की आवश्यकता तुझे अब महसूस हो रही है। मैं उसकी पूर्ति करने आया हूं।'
पीड़ा और दुख के समय भगवान और धर्म को याद किया जाता है। जब व्यक्ति महसूस करता है कि उसकी उपेक्षा हो रही है, सब उसको सता रहे हैं, वह बूढ़ा और शिथिल हो गया है, व्याकुलता बढ़ गई है, मन बेचैन है- तब उसे भगवान याद आते हैं, धर्म की बात याद आ जाती है।
पर ज्यादा श्रेयस्कर यह होगा कि व्यक्ति भगवान और धर्म की याद जिज्ञासु होकर, ज्ञानी होकर या अर्थार्थी होकर करे। जिज्ञासु होकर मनुष्य ईश्वर को तब याद करता है, जब उसके मन में यह जिज्ञासा जाग जाती है कि मैं सत्य का साक्षात्कार करूं। मैं यह जानूं कि आत्मा क्या है? चैतन्य क्या है? मोक्ष क्या है? उस जिज्ञासु अवस्था में व्यक्ति की जिज्ञासा की उपासना कर अपने को समाहित करना चाहता है। जिज्ञासा सत्य तक पहुंचाने वाला मार्ग है।
तीसरी अवस्था ज्ञानी की है। यह वह अवस्था है, जिसमें ज्ञानी व्यक्ति परम की उपासना करता है, ईश्वर और सत्य के प्रति समर्पित हो जाता है। ज्ञान की आराधना सत्य की आराधना है। ज्ञानी जान जाता है कि संसार में सार क्या है और निस्सार क्या है। वह जानता है कि सत्य का मार्ग कौन-सा है।
चौथी स्थिति में अर्थार्थी व्यक्ति भगवान की उपासना करता है। जब व्यक्ति के मन में पदार्थ की आकांक्षा उभर जाती है, वह उसकी पूर्ति के लिए भगवान की उपासना करता है, धर्म की आराधना करता है।
ध्यान रहे कि धार्मिकता का एक अर्थ अंत:करण की पवित्रता से है। वह धर्म की रुचि होने मात्र से प्राप्त नहीं होती, बल्कि उसकी साधना से प्राप्त होती है। संसार में साधना करने वाले धार्मिक बहुत कम है। ज्यादातर तो धार्मिक सिद्धि चाहने वाले लोग हैं। वे धर्म को इसलिए नहीं चाहते कि उससे जीवन पवित्र बने, किंतु वे उसे इसलिए चाहते हैं कि उससे भोग मिलें। आज का धर्म भोग से इतना आच्छन्न है कि त्याग और भोग के बीच कोई विभाजक रेखा ही नहीं जान पड़ती। धर्म का क्रांतिकारी रूप तब होता है, जब वह जन-मानस को भोग-त्याग की ओर अग्रसर करे।
आज त्याग भोग के लिए अग्रसर हो रहा है। यह वह कीटाणु है जो धर्म के स्वरूप को विकृत बना डालता है। धर्म तो जीवन की अनिवार्य जरूरत है। जब धर्म की पूर्ति नहीं होगी, तो जीवन में मानसिक संतुलन का अभाव तो अवश्य पैदा होगा। मानसिक संतुलन का अभाव अर्थात शांति का अभाव। शांति का अभाव अर्थात सुखानुभूति का अभाव। पदार्थ सुख के कारण तो जरूर हैं, पर उनसे सुख की अनुभूति नहीं होती। सुख की अनुभूति तो मन और मन से जुड़ी हुई इंद्रियों को होती है। वह तभी होती है, जब मन संतुलित और शांत होता है।
जहां त्याग और भोग की रेखाएं आस-पास आती हैं, धर्म अर्थ से संयुक्त होता है, वहां धर्म अधर्म से अधिक भयंकर बन जाता है। यदि हम चाहते हैं कि धर्म पुन: प्रतिष्ठित हो तो हम उसके विशुद्ध रूप का अध्ययन करें। आज ऐसे धर्म की आवश्यकता है, जो बुद्धि से प्रताड़ित न हो और शक्ति से हीन न हो।
Posted by Udit bhargava at 6/25/2010 08:02:00 am 1 comments
छोटा सा अंतर ( Little difference )
Posted by Udit bhargava at 6/25/2010 07:59:00 am 0 comments
23 जून 2010
शंखनाद की औषधीय विशेषता
शंख मुख्यतः दो प्रकार के होते ह्रैं : वामावर्ती और दक्षिणावर्ती। इन दोनों की पूजा का विशेष महत्व है। दैनिक पूजा-पाठ एवं कर्मकांड अनुष्ठानों के आरंभ में तथा अंत में वामावर्ती शंख का नाद किया जाता है। इसका मुख ऊपर से खुला होता है। इसका नाद प्रभु के आवाहन के लिए किया जाता है। इसकी ध्वनि से क्क शब्द निकलता है। यह ध्वनि जहां तक जाती है, वहां तक की नकारात्मक ऊर्जा नष्ट हो जाती है। वैज्ञानिक भी इस बात पर एकमत हैं कि शंख की ध्वनि से होने वाले वायु-वेग से वायुमंडल में फैले वे अति सूक्ष्म किटाणु नष्ट हो जाते हैं, जो मानव जीवन के लिए घातक होते हैं।
उक्त अवसरों के अतिरिक्त अन्य मांगलिक उत्सवों के अवसर पर भी शंख वादन किया जाता है। महाभारत के युद्ध के अवसर पर भगवान कृष्ण ने पांचजन्य निनाद किया था। कोई भी शुभ कार्य करते समय शंख ध्वनि से शुभता का अत्यधिक संचार होता है। शंख की आवाज को सुन कर लोगों को ईश्वर का स्मरण हो आता है।
शंख वादन के अन्य लाभ भी हैं। इसे बजाने से सांस की बीमारियों से छुटकारा मिलता है। स्वास्थ्य की दृष्टि से शंख बजाना विशेष लाभदायक है। शंख बजाने से पूरक, कुंभक और प्राणायाम एक ही साथ हो जाते हैं। पूरक सांस लेने, कुंभक सांस रोकने और रेचक सांस छोड़ने की प्रक्रिया है। आज की सबसे घातक बीमारी हृदयाघात, उच्च रक्त चाप, सांस से संबंधित रोग, मंदाग्नि आदि शंख बजाने से ठीक हो जाते हैं।
घर में शंख वादन से घर के बाहर की आसुरी शक्तियां भीतर नहीं आ सकतीं। यही नहीं, घर में शंख रखने और बजाने से वास्तु दोष दूर हो जाते हैं।
दक्षिणावर्ती शंख सुख-समृद्धि का प्रतीक है। इसका मुख ऊपर से बंद होता है। घर के मंदिर में इसकी स्थापना करने पर लक्ष्मी की प्राप्ति और व्यवसाय में लाभ होता है। दक्षिणावर्ती शंख से भगवान सूर्य को जल का अर्य देने से मानसिक तथा शारीरिक कष्टों का निवारण होता है और नेत्र विकार से मुक्ति मिलती है।
Posted by Udit bhargava at 6/23/2010 02:10:00 pm 1 comments
प्रभु मिलन की आकांक्षा
मीरा कहै प्रभु हरि अविनासी, तन मन ताहि पटै रे।' मीरा कहती है कि मैं तुम्हें यह कह दूं कि मुझे जबसे यह अविनाशी मिला है, जबसे यह शाश्वत मिला है, तब से मेरा तन-मन, आत्मा सब एक हो गए हैं। वे द्वंद्व भीतर के गए; मैं निर्द्वंद्व हो गई हूं। वे जो भीतर खंड-खंड थे मेरे, वे सब समाप्त हो गए हैं; मैं अखंड हो गई हूं।
अखंड से जुड़ो तो अखंड हो जाओगे।
साधारणतः आदमी संसार में जीता है तो खंड-खंड रहता है, क्योंकि कितने खंडों से तुम जुड़े हो। एक हाथ पश्चिम जा रहा है, एक हाथ पूरब जा रहा है। एक पैर दक्षिण जा रहा है, एक पैर उत्तर जा रहा है। तुम कट गए। एक इच्छा कहती है - धन कमा लो; एक इच्छा कहती है - पद बना लो; एक इच्छा कहती है कि ज्ञान अर्जित कर लो; एक इच्छा कहती है यहीं संसार की चिंता में पडे+, थोड़ा स्वर्ग में भी इंतजाम कर लो, कभी कुछ दान-पुण्य भी कर लो। ऐसी हजार इच्छाएं हैं - और तुम हजार हो गए हजार इच्छाओं के कारण। और इन सबमें कलह है। ये इच्छाएं एक दिशा में भी नहीं जा रही हैं, क्योंकि अगर धन कमाना है तो पद न कमा पाओगे। अगर पद कमाना है तो धन गंवाना पड़ेगा। चुनाव लड़ना हो तो धन गंवाना ही पड़ेगा। और धन कमाना हो तो फिर चुनाव लड़ने से जरा बचना पड़ेगा। अगर स्वर्ग में कुछ पद-प्रतिष्ठा पानी हो, वहां सोने के महलों में वास करना और चांदी के रास्तों पर चलना हो, तो फिर आदमी को यहां भूखे मरना पड़े, उपवास करना पड़े - इत्यादि।
आकांक्षाएं विपरीत हैं। शरीर कहता है- भोजन करो। मन की आकांक्षाएं लोभ से भरी हैं; वह कहता है कि यहां क्या करना भोजन, स्वर्ग में ही कर लेंगे इकट्ठा। अभी कुछ दिन की बात है, गुजार लो; वहां शराब के चश्मे बह रहे हैं। मन कहता है - सुंदर स्त्री जा रही है, क्यों छोड़ दे रहे हो? एक मन कहता - इस स्त्री में उलझे तो फिर अप्सराएं नहीं मिलेंगी और खयाल रखना, फिर पछताओगे। अरे, यह तो दो दिन की बात है; एक दफा पहुंच गए स्वर्ग, तो अप्सराएं मिलेंगी। फिर भोगना सुख-ही-सुख अनंतकाल तक।
ऐसा मन अनेक-अनेक खंडों में बंटा है। इन खंडों के कारण तुम भी खंडित हो गए हो; तुम्हारी एकता टूट गई है।
सारे शास्त्रों का शास्त्र एक ही है कि तुम एक हो जाओ। लेकिन तुम एक कैसे होओगे; जब एक ही आकांक्षा रह जाए। उस एक आकांक्षा को ही हम राम कहते हैं। उस एक आकांक्षा का अर्थ ही यह है कि राम के सिवा कुछ भी नहीं पाना है। बाकी सब पाना उसी पर चढ़ा देना है; बस एक परमात्मा को पा लेना है।
जब एक ही आकांक्षा रह जाएगी तो तुम एक ही हो जाओगे। और कोई उपाय नहीं है। तुम्हारे भीतर योग साधने का और कोई उपाय नहीं है। जितनी आकांक्षाएं, उतने टुकड़े। यह बात तो तुम्हारी समझ में आ जाएगी कि जितनी आकांक्षाएं उतने टुकड़े हो जाते हैं। हर आकांक्षा एक टुकड़ा लेकर भागने लगती है। जब एक ही आकांक्षा रह जाएगी तो तुम अखंड हुए। वही है अर्थ - ÷मेरो मन रामहि राम रटै रे।' एक ही आकांक्षा बची है। बस एक ही को पाने की धुन सवार हुई है। सब धुनें खो गईं। सभी धुनें उसी में लीन हो गईं। जैसे सब छोटे-छोटे नदी-नाले आकर गंगा में सम्मिलित हो गए हैं, और गंगा सागर की तरफ - ऐसे ही सब छोटी-छोटी इच्छाएं एक विराट इच्छा बन गई हैं प्रभु को पाने की और सारी आकांक्षाएं उसी में सम्मिलित हो गई हैं। एक ही लक्ष्य बचा।
फिर ज्यादा देर तुम रुक न सकोगे। बहोगे अपने-आप, सागर तक पहुंच जाओगे। छोटे-छोटे नाले सागर तक नहीं पहुंच सकते; रास्ते में खो जाएंगे, मरुस्थलों में उड़ जाएंगे। लेकिन सब इच्छाएं मिल जाएं और एक अभीप्सा बन जाए... । अभीप्सा शब्द का यही अर्थ है। अभीप्सा का अर्थ होता है - सारी इच्छाएं एक इच्छा में निमज्जित हो गईं। छोटी-छोटी लपटें सब एक विराट लपट में खो गईं। तुम एक मशाल बन गए।
अब इस अविनाशी से लगन लग गई; अब तन और मन के बीच जो फासला था वह पट गया। अब कोई फासले नहीं रहे। अब कोई भेद नहीं रहे। अब कोई खंड नहीं रहे। मैं अखंड हो गई हूं।
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Posted by Udit bhargava at 6/23/2010 02:09:00 pm 0 comments
22 जून 2010
सुख देकर दुख लेना महापुरुषों का स्वभाव
वेदान्त आश्रम में प्रवचन सुनाते हुए स्वामी देवेंद्रानन्दगिरी ने कहा कि सुख देकर दुख लेना महापुरुषों का स्वभाव है। अपने दुख से तो पशु-पक्षी भी दुखी होते हैं, पर सत्पुरुषों का कोमल हृदय पर पीडा से पीडित होता है जिससे जीवन में त्याग और प्रेम की अभिव्यक्ति होती है। मगर यह सब तभी संभव है जब मानव का अपनी इंद्रियों पर पूर्ण काबू होता है।
पंडित जी ने कहा कि इंद्रियों के अधीन रहने वाला मनुष्य बार-बार जन्मता और मरता है। विष को खाने से तो एक बार ही मृत्यु होती है परन्तु विषयों के भोगी को तो अनेकों बार मरना पडता है। विष को खाकर मनुष्य बच भी जाता है पर विषय-भोगी तो भोगते-भोगते स्वयं ही भुगत जाता है।
आश्चर्यजनक है कि यह सब जानते हुए भी मनुष्य भोगों से नहीं हटता। इस दृष्टि से हर वस्तु, व्यक्ति, अवस्था और परिस्थिति निरंतर हमारा त्याग कर रहे हैं। यदि अपनी ओर से उनकी ममता और कामना का त्याग कर दिया जाए तो हमें उनकी याद नहीं आएगी। हमें दुख भले ही अरुचिकर लगें मगर ये सुख आने की सुचना के प्रतीक माने जाते हैं।
मनुष्य के विकास के लिए जीवन में दुखों का आना जरूरी होता है क्योंकि दुखों के समय ही मनुष्य के मन में उनसे लडकर तरक्की करने की इच्छा पैदा होती है। हम सब इतना साधन जानते हैं जितना इस जीवन में कर ही नहीं सकते और जितना करने की आवश्यकता भी नहीं है। हमारी जो रुचि साधक संबंधी चर्चा सुनने में है वह रुचि साधन करने में नहीं है। हमारी शक्ति तो सीमित ही है। यदि इस सीमित शक्ति को हमने साधन की चर्चा में ही व्यय कर दिया तो फिर साधन करने के लिए सामर्थ्य कहां से आयेगा।
मन की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है। अपनी पसन्द के प्रभाव का समूह ही मन है जिसे हम पसन्द करते हैं उसके साथ हमारा मन लग जाता है और जिसको नापसन्द करते हैं वहां से मन हट जाता है। उन्होंने कहा कि कमी होते हुए कमी का अनुभव न करना परम भूल है क्योंकि इस भूल से ही सभी भूलें उत्पन्न होती है। सच्चा साधक जो सुनता है उसे अपने जीवन में उतार लेता है। चिंता रहित होते ही साधक इंद्रियां अविषय हो जाती है। मन निर्विकल्प हो जाता है और बुद्धि सम हो जाती है।
Labels: प्रवचन
Posted by Udit bhargava at 6/22/2010 09:47:00 pm 0 comments
मेहंदीपुर के श्री बालाजी महाराज
गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा था जब-जब धर्म की हानि होती है, तब-तब मेरी कोई शक्ति इस धरा धाम पर अवतार लेकर भक्तों के दु:ख दूर करती है और धर्म की स्थापना करती है। अंजनी कुमार श्री बाला जी घाटा मेहंदीपुर में प्रादुर्भाव इसी उद्देश्य से हुआ है। घाटा मेहंदीपुर में भगवान महावीर बजरंगबली का प्रादुर्भाव वास्तव में इस युग का चमत्कार है। राजस्थान राज्य के दो जिलों सवाईमाधोपुर दौसा में विभक्त घाटा मेहंदीपुर स्थान बड़ी लाइन बांदी कुई स्टेशन से जो कि दिल्ली, जयपुर, अजमेर अहमदाबाद लाइन पर 24मील की दूरी पर स्थित है। अब तो हिण्डौन, आगरा, कानपुर, मथुरा, वृंदावन,दिल्ली जयपुर, अजमेर अहमदाबाद लाइन पर 24मील की दूरी पर स्थित है। अब तो हिण्डौन, आगरा, कानपुर, मथुरा, वृन्दावन, दिल्ली आदि से जयपुर जाने वाली सभी बसें बालाजी मोड़ पर रुकती है। यहां तीनों देवों की प्रधानता है। श्री बालाजी महाराज श्री प्रेतराज सरकार और श्री कोतवाल (भैरव) यह तीन देव यहां आज से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व प्रकट हुए थे। इनके प्रकट होने से लेकर अब तक बारह महंत इस स्थान पर सेवा पूजा कर चुके हैं जिनमें अब तक इस स्थान के दो महंत इस समय भी विद्यमान हैं। किसी शासक ने श्री बाला जी महाराज की मूर्ति को खोदने का प्रयत्न किया, सैकड़ों हाथ खोद देने के बाद भी जब मूर्ति के चरणों का अंत नहीं पाया तो वह हार मानकर चला गया। वास्तव में इस मूर्ति को अलग से किसी कलाकार ने गढ़कर नहीं बनाया है, अपितु यह तो पर्वत का ही अंग है।
यह समूचा पर्वत ही मानो उनका कनक मूधराकार शरीर है। इस मूर्ति के चरणों में एक छोटी सी कुडी थी जिसका जल कभी भी खत्म नहीं होता था, यह रहस्य है कि महाराज की बायीं छाती के नीचे एक बारीक जल धारा बहती रहती है, जो पर्याप्त चोला चढ़ जाने के बाद भी बन्द नहीं होती है। यहां की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि मूर्ति के अतिरिक्त किसी व्यक्ति विशेष का कोई चमत्कार नहीं है। यहां प्रमुख है सेवा और भक्ति।
Labels: धार्मिक स्थल
Posted by Udit bhargava at 6/22/2010 09:29:00 pm 0 comments
प्यार में इकरार से डरता है दिल?
ज़िंदगी में किसी न किसी मोड़ पर हर व्यक्ति प्यार की महक महसूस करता है। प्यार तो सभी करते हैं, लेकिन खुशनसीब लोगों को ही अपनी मंज़िल मिल पाती है। अगर आप भी किसी को मन ही मन पसंद करती हैं, लेकिन उनसे अपनी चाहत का इज़हार करने से डरती हैं तो इन टिप्स को आप क्यों नहीं आज़माती? हो सकता है आपकी झिझक दूर हो जाए और जिसको आप हमसफर बनाना चाहती हों, वह आपकी चाहत को कबूल कर ले।
पसंद-नापसंद
आप जिसे चाहती हैं, उनसे मिलने से पहले उनकी पसंद और नापसंद जान लें। ऐसे में जब आपकी उनसे पहली मुलाकात होगी तो आप उनकी पसंद के मुद्दों पर ही उनसे बात कर सकेंगी और उनके आपकी ओर आकर्षित होने के चांस पूरे होंगे।
जवाब का इंतज़ार करें
आपने पहली मुलाकात में उन्हें इंप्रेस कर लिया है तो अब उन्हें मौका दें। कुछ पुरुषों को लड़कियों की ओर से पीछा किया जाना ठीक नहीं लगता। इसलिए अब आप उन्हें फॉलो न करें, बल्कि उनकी ओर से जवाब का इंतज़ार करें।
डोंट वरी, बी हैपी
लड़कियां हमेशा इस बात को लेकर परेशान रहती हैं कि वह जो कर रही है क्या वह सही है? अगर आप किसी को पसंद करती हैं तो ऐसी स्थिति में केवल दो ही तरह की बातें हो सकती हैं। आप जिसे प्रपोज़ कर रही हैं, वह एकदम मान जाए या उसके लिए आपको कुछ मेहनत करनी पड़े। दोनों ही हालत में वह आपके साथ ही होंगे इसलिए बेकार में परेशान न हों।
Labels: प्रेम गुरु
Posted by Udit bhargava at 6/22/2010 08:11:00 pm 0 comments
लड़के-लड़कियों को सेक्स एजुकेशन अलग-अलग
सेक्स एजुकेशन के बाबत जानकारी देने के लिए को-एजुकेशनल स्कूलों में जल्द ही लड़कों और लड़कियों के लिए अलग-अलग क्लास होगी। यह क्लास हफ्ते में एक बार 30 मिनट की होगी।
छात्रों को मेल टीचर और छात्राओं को फीमेल टीचर सेक्स एजुकेशन के बारे में विस्तार से जानकारी देंगे। क्लास में स्टूडंट्स को यह बताया जाएगा कि सेक्सुअली ट्रांसमिटेड इनफेक्शन (एसटीआई) क्या होता है, इसके लक्षण क्या होते हैं, एचआईवी कैसे फैलता है, क्या एचआईवी से बचने के लिए संयम एक बेहतर विकल्प है, इस खतरनाक बीमारी से बचने के लिए क्या क्या सावधानी बरतनी चाहिए।
उल्लेखनीय है कि देश की पहली आधिकारिक सेक्स एजुकेशन मैनुअल में इस बीमारी की रोकथाम के बाबत कुछ अहम सुझाव दिए गए हैं। इन सुझावों पर लोग अगस्त तक अपनी राय दे सकते हैं। उम्मीद है कि इस मैनुअल (नियमावली) को अक्टूबर तक अंतिम रूप दे दिया जाएगा।
बहरहाल, टीचरों से कहा गया है कि वे स्टूडंट्स से कुछ नई बीमारियों के नाम पूछें। जब स्टूडंट एचआईवी/एड्स का जिक्र करेंगे तभी टीचर इस बीमारी के बारे में चर्चा शुरू करेंगे। इस दौरान टीचर यह बताएंगे कि किस तरह से वायरस की उत्पत्ति होती है, महिलाओं और बच्चों को प्रभावित होने का ज्यादा खतरा क्यों रहता है और किस तरह से यह वायरस एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के शरीर में पहुंचता है।
ऐसा भी हो सकता है कि जब क्लास में इतने अहम विषय पर टीचर जानकारी दे रहे हों तब बच्चे इसे हंसकर टाल दें अथवा इसे गंभीरता से न लें। लेकिन, टीचर की बातों पर ध्यान देना ही बेहतर है क्योंकि मैनुअल के मुताबिक, टीचरों को हिदायत दी गई है कि क्लास समाप्त होने के बाद वे स्टूडंट्स से सवाल करें ताकि जो जानकारी उन्हें दी गई वह बेकार न जाए।
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Posted by Udit bhargava at 6/22/2010 08:07:00 pm 0 comments
महाभारत - दुर्योधन को शाप
पाण्डवगण दुर्योधन से अपमानित होकर हस्तिनापुर के वर्द्धमानपुर वाले द्वार से निकल कर उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान करने लगे। हस्तिनापुर की प्रजा भी रोती-बिलखती उनके पीछे-पीछे चल रही थी। जब प्रजा उनके साथ बहुत दूर तक आ गई तो अत्यन्त कठिनाई से युधिष्ठिर ने उन्हें समझा-बुझा कर नगर वापस भेजा। सन्ध्याकाल तक वे गंगा के तट तक पहुँच गये। रात्रि उन्होंने गंगा तट पर ही एक विशाल वट वृक्ष के नीचे व्यतीत की। प्रातःकाल होने पर यधिष्ठिर की भेंट शौनक ऋषि से हुई। शौनक ऋषि ने युधिष्ठिर से कहा, "हे धर्मराज! मैं जानता हूँ कि आप लोग बारह वर्ष के वनवास तथा एक वर्ष के अज्ञातवास के लिये निकले हैं। इस अवधि को सुगम बनाने के लिये मेरी सलाह है कि आप भगवान सूर्य की उपासना करें।" इतना कह कर वे चले गये।
धर्मराज युधिष्ठिर ने पुरोहित धौम्य से सूर्य के एक सौ आठ नामों का वर्णन करते हुये सूर्योपासना की विधि सीखी और सफलतापूर्वक भगवान सूर्य की आराधना की। उनकी उपासना से प्रसन्न हो कर भगवान सूर्य ने उन्हें दर्शन दिया और कहा, "हे पाण्डवश्रेष्ठ! तुमने मेरी अति उत्तम उपासना की है। तुम्हारी उपासना से प्रसन्न होकर मैं तुम्हें यह अक्षयपात्र प्रदान कर रहा हूँ। इस अक्षयपात्र से तुम्हारी गृहणी समस्त प्रकार के भोज्य पदार्थ प्राप्त कर पायेगी, जिससे वह ब्राह्मणों, भिक्षुकों आदि को भोजन कराने के पश्चात् तुम लोगों की क्षुधा शांत करने में सर्वदा समर्थ रहेगी। किन्तु द्रौपदी के भोजन कर लेने के पश्चात् इस पात्र की क्षमता दूसरे दिन तक समाप्त हो जाया करेगी तथा दूसरे दिन इस पात्र की भोजन प्रदान करने की क्षमता पुनः वापस आ जाया करेगी।" इतना कहकर सूर्य नारायण ने युधिष्ठिर को ताम्र से बना वह अक्षयपात्र प्रदान किया और अन्तर्ध्यान हो गये।
इधर पाण्डवों के वनगमन के पश्चात् धृतराष्ट्र को बड़ी व्याकुलता हुई। धृतराष्ट्र पाण्डवों की भलाई तो चाहते थे किन्तु उनका मोह अपने दुष्ट, अन्यायी तथा अत्याचारी पुत्रों के प्रति अधिक था और वे सदा दुर्योधन के वश में रहते थे। इस प्रकार की मनोस्थिति के कारण धृतराष्ट्र की बुद्धि कभी स्थिर न हो पाती थी। उन्होंने विदुर को बुला कर कहा, "विदुर! क्या कोई ऐसा उपाय नहीं है जिससे कौरवों और पाण्डवों में मित्रता हो जाये?" विदुर ने उत्तर दिया, "धर्म और न्याय के आचरण से ही अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष चारों फल प्राप्त होते हैं। किन्तु आपके पुत्र अधर्मी और अन्यायी हैं, इसलिये पाप से मुक्ति प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है कि आप पाण्डवों को पुनः वापस बुलवा कर उन्हें उनका राज्य सम्मान के साथ लौटा दें। दुष्ट शकुनि को गान्धार वापस भेज दें और यदि दुर्योधन आपकी आज्ञा की अवहेलना करे तो उसे भी बन्दीगृह में डाल दीजिये।" विदुर के वचनों को सुन कर धृतराष्ट्र क्रोधित होकर बोले, "विदुर! तुम सदैव पाण्डवों के हित और मेरे पुत्रों के अनिष्ट की बातें करते हो। दूर हो जाओ मेरी दृष्टि से।"
धृतराष्ट्र के कठोर वचन सुन कर विदु वहाँ से वन में पाण्डवों के पास आ गये। पाण्डवगण सदैव विदुर को पूज्य, सम्माननीय तथा अपना हितचिन्तक समझते थे और उनकी नीतियुक्त वचनों का पालन किया करते थे। विदुर ने युधिष्ठिर से कहा, "वत्स! मैं चाहता हूँ कि तुम सभी भाइयों में परस्पर प्रेम तथा एकता सदैव बनी रहे क्योंकि इसी के बल पर तुम अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सकोगे।" युधिष्ठिर ने हाथ जोड़कर उनके इस उपदेश को स्वीकार किया।
विदुर को कठोर वचन कहने के कुछ दिनों के बाद धृतराष्ट्र को अपने व्यवहार पर पश्चाताप हुआ और उन्होंने संजय के द्वारा विदुर को वन से वापस बुलवाकर कहा, "विदुर! क्या करूँ, मैं अपने पुत्रमोह को अत्यन्त प्रयास करने के पश्चात् भी नहीं छोड़ सकता और न ही तुम्हारे बिना जीवित रह सकता हूँ। मुझे अपने कहे गये कठोर वचनों के लिये अत्यन्त दुःख है।" धृतराष्ट्र के पश्चाताप को देख कर विदुर ने उन्हें क्षमा कर दिया।
इधर पाण्डवों को वन में निरीह, निहत्था तथा सेनारहित जानकर कौरवों ने उन्हें मार डालने की योजना बना कर एक विशाल सेना का संगठन कर लिया और पाण्डवों से युद्ध करने का अवसर खोजने लगे। दुर्योधन द्वारा तैयार किये गये इस योजना में उनके परम मित्र कर्ण का भी समर्थन था। योगबल से उनकी योजना के विषय में वेदव्यास को ज्ञात हो गया और धृतराष्ट्र के पास आकर उन्होंने कहा, "धृतराष्ट्र! तुम्हारे पुत्रगण पाण्डवों को वन में मार डालने की योजना बना चुके हैं। आप उन्हें रोकें अन्यथा कौरवों का शीघ्र नाश हो जायेगा।" इस पर धृतराष्ट्र बोले, "हे महर्षि! उस दुर्बुद्धि दुर्योधन को आप ही समझायें।" वेदव्यास ने उत्तर दिया, "वत्स! मैं तुम्हारे अन्यायी और अत्याचारी पुत्रों का मुख नहीं देखना चाहता, अतः मैं जा रहा हूँ। अभी यहाँ पर मैत्रेय ऋषि आने वाले हैं। तुम उन्हीं से प्रार्थना करना कि वे तुम्हारे पुत्रों को समझायें।"
कुछ काल पश्चात् मैत्रेय ऋषि वहाँ पधारे। धृतराष्ट्र के द्वारा यथोचित सत्कार प्राप्त करने के पश्चात् वे बोले, "राजन्! मैं अभी पाण्डवों से भेंट कर के आ रहा हूँ। वहाँ तुम्हारे पुत्रों के द्वारा किये हुये अन्याय और अत्याचार की बात सुनी। भीष्म, द्रोण एवं तुम्हारे जैसे गुरुजनों के होते हुये पाण्डवों के साथ अन्याय हुआ वह कदापि उचित नहीं हुआ।" फिर धृतराष्ट्र की प्रार्थना पर वे दुर्योधन को समझाते हुये बोले, "दुर्योधन! तुम मेरी सलाह मान कर पाण्डवों से सन्धि कर लो और अपने कुल की रक्षा करो।" मैत्रेय ऋषि के वचनों को मानना तो दूर, दुर्योधन उनकी बातें सुन कर जोर जोर से हँसने लगा और अपनी जंघा ठोंक ठोंक कर उनका उपहास करने लगा। दुर्योधन की असभ्यता से मैत्रेय ऋषि क्रोधित हो उठे और बोले, "रे दुष्ट! तू अपनी जंघा ठोंक ठोंक कर मेरा अपमान कर रहा है। मैं तुझे शाप देता हूँ कि युद्ध में भीम तेरी इसी जंघा को अपनी गदा से तोड़कर तुझे और तेरे भाइयों को यमलोक पहुँचायेगा।" इतना कहकर मैत्रेय जी वहाँ से प्रस्थान करने के लिये उठ खड़े हुये। यह देख कर धृतराष्ट्र उनके चरणों में गिर पड़े और अपने पुत्र के अपराध को क्षमा करने की प्रार्थना करने लगे। उनकी इस प्रार्थना पर मैत्रेय ऋषि ने कहा, "धृतराष्ट्र! यदि तुम्हारा पुत्र पाण्डवों से सन्धि कर लेगा तो मेरे शाप का प्रभाव समाप्त हो जायेगा अन्यथा मेरे शाप को पूर्ण होने से कोई नहीं रोक सकता।" इतना कह कर मैत्रेय ऋषि वहाँ से चले गये।
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Posted by Udit bhargava at 6/22/2010 07:30:00 pm 0 comments
20 जून 2010
सुखपूर्वक जीने की कला
वर्तमान में लोग भिन्न-भिन्न कारणों से बहुत दुखी हैं। इसलिये जब उन्हें सूचना मिलती है कि शहर में कोई ऐसा साधु, ज्योतिषी अथवा तांत्रिक आया है, जो दूसरों का दुःख दूर कर सकता है तो वे वहीँ चल पड़ते हैं। परन्तु आजकल सच्चे साधु-संत, ज्योतिषी या तांत्रिक प्राय: मिलते नहीं। जो मिलते हैं, वे केवल पैसा कमानेवाले, अपना स्वार्थ सिद्ध करनेवाले ही होते हैं। किसी-किसी की प्रारब्धवश झूठी प्रसिधी भी हो जाती है। किसी बनावटी साधु के पास सौ आदमी अपनी-अपनी कामना लेकर जायं तो उनमें से पच्चीस- तीस आदमियों की कामना तो उनके प्रारब्धके कारण यों ही पूर्ण हो जायेगी। परन्तु वे प्रचार कर देंते कि आमुक साधु की कृपा से, आशीर्वाद से ही हमारी कामना पूर्ण हुई। इस प्रकार बनावटी साधु का भी प्रचार हो जाता है।
परन्तु एक शहर में कोई सच्चे संत आये। वे किसी से कुछ नहीं मांगे। भिक्षा से जीवन-निर्वाह करते हैं। किसी से भी किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं जोड़ते। किसी को चेला-चेली भी नहीं बनाते। जो उनके पास आता है, उसी का दुःख दूर करने की चेष्टा करते हैं। शहर में उनकी चर्चा फ़ैली तो लोगों की भीड़ उमड़ने लगी। अनेक लोग उन संत के पास इकट्ठे हो गए। कुछ लोग अपना-अपना दुःख सुनाने लगे। संत प्रत्येक श्रोता की बात सुनकर उस का समाधान करने लगे।
एक श्रोता - महाराजजी ! में बहुत दुखी हूँ। मेरा कष्ट कैसे दूर हो?
संत - देखो भाई ! संसार में सुख भी है, दुःख भी। आजतक एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं हुआ, जो सदा सुखी रहा हो अथवा सदा दुखी रहा हो। जैसे दिन के बाद रात और रात के बाद दिन आता है, वैसे ही सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख आता ही है। न तो दुःख सदा रहता है, न दुःख. इसलिये घबारो मत। केवल इस सत्य को स्वीकार कर लो कि यह समय सदा ऐसा नहीं रहेगा। रात बीतेगी, दिन आयेगा।
श्रोता - परन्तु वर्तमान में जो दुःख है, वह मुझसे सहन नहीं हो रहा है। कोइ उपाय बताएं।
संत - उसके लिये भगवान् से प्रार्थना करो। व्याकुल होकर भगवान् को पुकारो। उन्हें पुकारने के सिवाय और कोई उपाय नहीं है।
श्रोता - में भगवान् से प्रार्थना करता हूँ, पर वे सुनते ही नहीं!
संत - ऐसी बात नहीं है।
सच्चे ह्रदय से प्रार्थना जब भक्त सच्चा गाय है।
तो भक्तवत्सल कान में वह पहुँच झट ही जाय है।।
भगवान् तो सबके ह्रदय में बैठे हैं। वे आपकी प्रत्येक प्रार्थना सुनते हैं।
भगवान् वही कार्य करते हैं। जिससे परिणाम में मनुष्य का हित हो।
भगवान् श्री कृष्ण पांडवों के मित्र थे। द्रौपदी के पुकारते ही वे प्रकट हो जाते थे। फिर भी पांडवों को कितना कष्ट भोगना पडा! तुम्हारा काम है कि उन्हें पुकारो!
'हरिस्मृति: सर्वविपद्वीमोक्षणं'
'भगवान् की स्मृति समस्त विपत्तियों से मुक्त कर देती है।'
अन्य श्रोता - भगवान् दुःख देते क्यों हैं?
संत - भगवान् के पास दुःख है ही नहीं, फिर वे दुःख देंगे कैसे? दुःख तो तुम्हारा अपना पैदा किया हुआ है।
करम प्रधान बिस्व करि राखा।
जो जस करइ सो तस फ़लु चाखा॥
भगवान् तो तुम्हारे किये कर्मों का फल भुग्ताकर तुम्हें शुद्ध कर रहें हैं, मुक्त कर रहे हैं। भगवान् आनंददाता हैं, दुखदाता नहीं। वे तो तुम्हें दुखों से छुडाना चाहते हैं। परन्तु तुम उनसे विमुख होकर संसार में लगे हो, जो दुखालय है, दुखों का घर है। अब भैया, तुम ही सोचो, तुम्हारा दुःख दूर कैसे होगा?
दुःख भगवान् द्वारा बनायी सृष्टि में नहीं है, अपितु जीव द्वारा बनायी सृष्टि (मैं- मेरापन) में हैं। यदि जीव मैं-मेरापन मिटा दे तो दुखों की जड़ ही कट जायेगी। परमश्रधेय स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराज कहते थे कि त्याग से सुख मिलता है - यह अटकल लोगों को आती नहीं, तभी वे दुःख पाते हैं। दुःख से बचने का उपाय सुख नहीं है, अपितु त्याग है।'
अन्य श्रोता - महाराज ! मेरे व्यापार में निरंतर घाटा लग रहा है! आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गयी है। क्या करूं?
संत - रुपयों के अभाव को हम रुपयों से मिटा लेंगे- इसके समान कोई मूर्खता नहीं है! तुम प्रयत्न मत छोड़ो। पर भैया ! मिलेगा वही, जो तुम्हारे भाग्य में लिखा है। जो तुम्हें मिलने वाला है, वह तुम्हें अवश्य मिलेगा। उस कोई दूसरा छीन सकता ही नहीं। एक लोटेको चाहे तालाब में डुबाओ, चाहे समुद्र में, जल लोटा भर ही निकलेगा।
जब दांत न थे तब दूध दियो,
अब दांत भये कहा अन्न न दैहैं।
जीव बसे जल में थल में,
तिन की सुधि लेई सौ तेरीहु लैहैं।।
जान को देत अजान को देत,
जहान को देत सौ तोहूँ कूँ दैहैं।
काहे को सोच करैं मन मूरख,
सोच करै कछु हाथ न ऐहैं।।
श्रोता - लडकियां बड़ी हो रही हैं। भविष्य में उनका विवाह भी करना है! कैसे होगा?
संत - इसके लिये चेष्टा करो, पर चिंता मत करो -"होइहि सोई जो राम रची राखा'। लडकियां केवल तुम्हारे प्रारब्धपर ही निर्भर नहीं हैं। उनका अपना भी प्रारब्ध है। इसलिए समय आने पर उनके प्रारब्ध के अनुसार जो मिलना है, वह अवश्य मिलेगा और उनका विवाह हो जायेगा।
अन्य श्रोता - बेटा मेरे प्रतिकूल चलता है। मेरी बात बिल्किल नहीं मानता।
संत - ऐसा समझो कि वह तुम्हारे पूर्वजन्म का बाप है! उसकी बात यदि अनुचित न हो तो मान लो। तुम्हें जो बात उचित दीखे, वह उससे कह दो। अब वह माने या न माने, उसकी मर्जी। यह आग्रह छोड़ दो कि वह मेरी बात माने।
जो पै मूढ़ उपदेस के होते जोग जहान।
क्यों न सुजोधन बोध कै आए स्याम सुजान।।
भैया ! जब वह तुम्हारी बात मानता ही नहीं, तो फिर उसे अपना बेटा मानते ही क्यों हो? उसे अपना न मानकर भगवान् का मान लो, उसे भगवान् के अर्पण कर दो।
अन्य श्रोता - मैंने अपने रिश्तेदारों की समय पर बहुत सहायता की। पर अब वे मेरे विरुद्ध चलते हैं। वे दूसरों के आगे मेरी निंदा करते हैं और मेरे बारे में झूठी-झूठी बातें फैलाते हैं।
संत - तुम उनकी तरफ न देखकर अपने को देखो कि कहीं तुमसे कोइ गलती तो नहीं हुई है। यदि अपनी कोई गलती दीखे तो उसे दूर कर दो, और यदि अपनी कोई गलती न दीखे तो फिर दुखी होने की कोई जरूरत नहीं, प्रसन्न रहो। यह आशा मत रखो कि दूसरे तुम्हारे अनुकूल चलें। दूसरे सब हमारे अनुकूल चलें - यह सम्भव ही नहीं है। बड़े-बड़े संत हुए, भगवान् के अवतार हुए, पर उनके भी सब अनुकूल नहीं हुए।
अन्य श्रोता - महाराज जी ! मैंने सदा दूसरों पर विशवास किया, पर मेरे साथ सदा धोखा ही हुआ है।
संत - विश्वास करने योग्य तो केवल भगवान् ही है। संसार विशवास करने योग्य है ही नहीं। संसार पर विशवास करोगे तो धोखा ही मिलेगा।
संसार साथी सब स्वार्थ के हैं,
पक्के विरोधी परमार्थ के हैं।
देगा न कोइ दुःख में सहारा,
सुन तू किसी की मत बात प्यारा।
X X X
सच्चा मित्र और जन्म का साथी ईश्वर सर्वाधार,
राधेश्याम शरण चल उसकी, तब तो बड़ा पार,
दुखी का वही ठीकाना है।
किससे करिए प्यार यार खुदगर्ज ज़माना है।।
संसार सेवा के योग्य है, विश्वास के योग्य नहीं। उसकी सेवा कर दो, पर विशवास मत करो।
अन्य श्रोता - महाराजजी ! मेरी कोई संतान नहीं है। मन में चिंता रहती है कि बुढापे में हमारी सेवा कौन करेगा? क्या कोई बालक गोद ले लें?
संत - संसार में देखो, जिनकी संतान है, वे सब सुखी हैं क्या? कई लोग तो अपनी संतान से इतने दुखी हैं कि सोचते हैं, संतान न होती तो अच्छा होता! क्या इस बात का तुम्हें पता है कि संतान होने से तुम सुखी हो ही जाते अथवा बुढापे में तुम्हारी सेवा होती ही? यदि बुढापे में सबकी संतान सेवा करती तो आज वृद्धाश्रम क्यों बनाए जा रहे हैं? जब अपनी संतान भी सेवा नहीं करते तो फिर गोद लिया बालक तुम्हारी सेवा करेगा, इसकी क्या गारंटी है? यदि प्रारब्ध में होगा तो बुढापे में उन लोगों की उपेक्षा भी अच्छे सेवा होगी, जिनकी संतान है। भगवान् किसी ऐसे व्यक्ति को भेज देंगे, जो बेटे से भी बढ़कर तुम्हारी सेवा करेगा। अतः भविष्य की चिंता मत करो।
अन्य श्रोता - मैं लम्बे समय से बीमार हूँ। किसी ने मुझ पर तांत्रिक प्रयोग कर दिया है। कोई उपाय बताएं।
संत - यदि कोई तांत्रिक प्रयोग करता है तो उसका असर हम पर तभी पड़ता है, जब हमारे प्रारब्ध वैसा हो। दूसरा तो केवल उसमें निमित्त बनता है। यदि हमारे प्रारब्ध में न हो तो हमें कष्ट पहुंचाने की किसी में ताकत है ही नहीं। यदि तुम बीमार रहते हो तो यह तुम्हारा प्रारब्ध है, पुरारे कर्मों का फल है और दूसरे (तांत्रिक प्रयोग करने वाले) का यह नया कर्म है, नया पाप है, जिसका फल उसे भविष्य में भुगतना पडेगा। याद रखो कि दूसरा कोई भी व्यक्ति तुम्हें सुख या दुःख नहीं पहुंचा सकता -
सुखस्य दुखास्य न कोSपि दाता
परो ददातीति कुबुद्धिरेषा।
अहं करोमीति वृथाभिमान:
स्वकर्मसूत्रे ग्रथितो हि लोक:॥
'सुख या दुःख को देने वाला कोई और नहीं है। कोई दूसरा सुख-दुःख देता है- यह समझना कुबुद्धि है। मैं करता हूँ - यह वृथा अभिमान है। सब लोग अपने-अपने कर्मों की डोरी से बंधे हुए हैं
काहु न कोउ सुख दुःख कर दाता।
निज कृत करम भोग साबू भ्राता।।
अन्य श्रोता - महाराजजी ! मैं बहुत दुखी हूँ। मुझसे दुःख सहा नहीं जाता। मेरे मन में आत्महत्या करने की आती है।
संत - आत्महत्या करने से तुम अपने कर्मों के भोग से बच नहीं सकते। पूर्वकृत कर्मों का फल तो भोगना ही पडेगा, आत्महत्या करने से एक मनुष्य की हत्या करने का पाप लगता है। अत: आत्महत्या करने से तुम दुखों: से छूटोगे नहीं, अपितु और अधिक दु:खी हो जाओगे और प्रेतयोनि में भटकते रहोगे, नरकों में तडपते रहोगे। अभी जो दु:ख है, वह आगे मिट भी सकता है और तुम भविष्य में सुखी भी हो सकते हो। अंधेरी रात बीतने पर सूर्य का उदय भी हो जाता है। अत: अभी निराश न होकर नयी सुबह की प्रतीक्षा करो।
अन्य श्रोता - महाराज ! मैं पारिवारिक समस्याओं से बहुत दुखी हूं। कोई उपाय बतायें।
सन्त - दु:ख का मूल कारन है ममाता ! जिन वस्तुओं और व्यक्तियों में हमारी ममता है, उन्हीं के बनने-बिगडने का असर हम पर पडता है। संसार में असंख्य वस्तुएं हैं, पर उनके बनने-बिगडने, जीने-मरने आदि का असर हम पर नहीं पडता। इसलिये किसी भी वस्तु-व्यक्ति में ममता मत करो, फ़िर दु:ख नहीं आयेगा।
विचार करो, जितनी भी वस्तुएं और व्यक्ति हैं, वे सब-के-सब मिलने बिछुडनेवाले हैं। पहले वे हमारे साथ नहीं थे, पीछे वे हमें मिल गये, और भविष्य में वे सदा हमारे साथ नहीं रहेंगे, एक दिन वे हमसे बिछुड जायेगे अथवा हम उनसे बिछुड जाएंगे।
प्राय: मनुष्य अपने खराब स्वभाव के कारण दु:ख पाता है। अत: अपना स्वभाव सुन्दर बनाओ।
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Posted by Udit bhargava at 6/20/2010 07:50:00 pm 0 comments
रजनीगंधा उगाएं वाटिका महकाएं
रजनीगन्धा के फूल को कहीं कहीं 'अनजानी', 'सुगंधराज' और उर्दू में गुल-ए-शब्बो' के नाम से पहचाना जाता है. अंगरेजी और जर्मन भाषा में रजनीगन्धा को 'टयूबेरोजा', फ़्रेंच में 'ट्यूबरेयुज' इतालवी और स्पेनिश में 'ट्यूबेरूजा' कहते हैं। इस का मूल उत्पत्ति स्थान मध्य अमेरिका माना जाता है, जहां से यह दूसरे देशों में पहुंचा।
यह कंद (बल्ब) से उगाया जाने वाला पौधा है और हर किस्म की साफ़ मिट्टी में आसानी से उगाया जा सकता है। विशेषकर यह बलुई-दोमट या दोमट मिट्टी में अधिक उगता है।
भूमि का चुनाव और तैयारी
रजनीगंधा के लिये भूमि का चुनाव करते समय 2 बातों पर विशेष ध्यान दें। पहला, खेत या क्यारी छायादार जगह पर न हो, यानी जहां सूर्य का प्रकाश भरपूर मिलता हो। दूसरा, खेत या क्यारी में जल निकास का उचित प्रबंध हो। सब से पहले खेत, क्यारी व गमले की मिट्टी को मुलायम व बराबर कर लें, चूंकि यह कंद बीज वाली किस्म है, अत: कंद के समुचित विकास के लिये खेत की तैयारी विधिवत होनी चाहिए। खासकर मिट्टी को खरपतवार रहित कर लें, अन्यथा निराई करने में बडी कठिनाई होगी।
कंदो की बुआई/रोपाई : इस फ़ूल के बीज, जिन्हें कंद, गांठ या बल्ब कहते हैं, रोपने का समय अप्रैल से मई-जून तक होता है। कंद का आकार 2 सेंटीमीटर व्यास का या इस से बडा होना चाहिए। हमेशा स्वस्थ और ताजे कंद ही इस्तेमाल करें।
रजनीगंधा की प्रजातियां : फ़ूल के आकारप्रकार, पत्तियों के रंग के अनुसार इसे 4 वर्गो में बांटा गया है:
सिंगल : इस वर्ग के फ़ूल सफ़ेद रंग के होते हैं तथा इन में पंखडियों की केवल एक ही पंक्ति होती है।
डबल : सफ़ेद फ़ूल तथा पंखडियों का ऊपरी सिरा हलका गुलाबी रंग लिए होता है। पंखडियां कई पंक्तियों में सजी होती हैं, जिस से फ़ूल का केंद्रबिंदु दिखाई नहीं देता।
अर्धडबल : यह डबल किस्म की तरह ही है, परंतु पंखडियों की संख्या कम, केवल 4-5 की पंक्ति होती है। इस की पंक्तियों के आकर्षक रंगो एवं विविधता के कारण ही इसे क्रमश: स्वर्णरेखा और रजतरेखा के नामों से जाना जाता है।
खाद और उर्वरक डालना : इस फ़ूल के पौधों में एक वर्गमीटर की क्यारी में 2 से 4 किलो कंपोस्ट, 20 ग्राम नाइट्रोजन, 20-40 ग्राम फ़ास्फ़ोरस और पोटाश डालना लाभदायक है। क्यारी बडी हो तो इसी अनुपात में खाद की मात्रा बढा लें। बराबर-बराबर मात्रा में नाइट्रोजन 3 बार देना चाहिए। एक तो रोपाई से पहले, दूसरी इस के करीब 60 दिन बाद तथा तीसरी मात्रा तब दें जब फ़ूल निकलने लगे। (लगभग 90 से 120 दिन बाद) कंपोस्ट, फ़ास्फ़ोरस और पोटाश की पूरी खुराक कंद रोपने के समय ही दे दें।
सिंचाई : पहले साल कंद रोपने के बाद से ले कर बारिश आने तक हर एक सप्ताह के अंतर से सिंचाई करें। दूसरे साल, गरमी के दिनों में, सप्ताह में 2 बार सिंचाई करें। बरसात के होने पर नमी की जरूरत के मुताबिक सिंचाई करें।
देखरेख के दूसरे तरीके : रजनीगंधा के पौधों के लिए खाद व उर्वरक का इस्तेमाल ठीक ढंग से करें। खेत, क्यारियों में खरपतवार दिखाई देते ही निकाल दें। निराई करने से पौधों के आसपास मिट्टी ढीली हो जाती है, जिस से उन में वायु संचार ठीक से होता है तथा कंद और जडों का विकास भी यही होता रहता है।
3 साल बाद हर पौधो से 25-30 छोटेबडे कंद भी प्राप्त होते हैं, डबल किस्म के स्पाइक (डंडियां) लगभग 75-95 सेंटीमीटर लंबे होते हैं, जिन से हर डंठल से 40-50 फ़ूल प्राप्त होते हैं। स्पाइक को यदि काटा न जाए तो 18 से 22 दिन तक उस पर फ़ूल खिलते रहते हैं। ऐसा देखा गया है कि सिंगल किस्म के फ़ूल लगभग हर मौसम में पूरी तरह खिल जाते हैं।
डबल किस्म के फ़ूल केवल जाडे के मौसम में ही पूरी तरह से खिलते हैं। फ़लस्वरूप बाकी समय इस फ़ूल के सुगंध बहुत कम या न के बराबर होती है। अत: व्यावसायिक दृष्टि से पैदावार के लिये सिंगल किस्म अधिक उपयुक्त पाई गई है।
फ़ूल सहित डंठल की बुडाई : रजनीगंधा के फ़ूल डंठल पर लगते हैं और जब इन फ़ूलों को माला, गजरा अथवा बुके बनाने के लिये चुनना यानी तोडना हो तो प्रात: का समय उपयुक्त रहता है। व्यावसायिक तौर पर उगाए गए फ़ूलों को यदि शाम को तोड कर दूसरे दिन सुबह बाजार भेजते हैं तो लगभग इस से प्रति फ़ूल 20-30 प्रतिशत वजन कम हो जाता है। एक व्यक्ति एक दिन में प्राय: 5 से 6 किलो तक फ़ूल तोड पाता है। कटे फ़ूल (कट्फ़्लावर) के रूप में इन के डंठल को 100-100 का बंडल बना कर बाजार में भेजा जाता है। यदि डंठल दूर भेजने हैं तो उस के नीचे खिलने वाले फ़ूलों को खिलने के पहले ही काट लें और यदि निकट बाजार के लिए हैं तो 2-3 फ़ूल खिलने पर डंठल को काट कर भेजना चाहिए। डंठल जितने लंबे होंगे मूल्य अधिक मिलेगा। अत: यथासंभव निचले भाग से तेज चाकू से काट कर तुरंत पानी भरी प्लास्टिक की बाल्टी में रखना चाहिए।
फ़ंगस से बचाव : रजनीगंधा में रोगों का प्रकोप प्राय: न के बराबर है लेकिन पानी से गीले होने वाले भाग पर फ़फ़ूंद (फ़ंगस) की बीमारी अकसर लग जाती है, जो पत्ती और फ़ूल दोनों को प्रभावित करती है। बचाव के लिए कीटनाशक दवा ’ब्रसीकोल’ (2 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल कर) का छिडकाव करें।
कीटों (कीडों) में खासतौर से थ्रिप्स (एक छोटा कीडा) तथा माइट (दीमक) का आक्रमण होता है, जोकि पत्ति और फ़ूल दोनों को प्रभावित करते है। थ्रिप्स से बचाव के लिये ’नूवान’ (2 ग्राम प्रति लिटर पानी में) या ’सेविन’ 0.4 प्रतिशत की दर से छिडकाव करना लाभकारी रहता है। कभी-कभी कैटर-पिल्लर भी पत्तियों, फ़ूल और डंठल को खा कर नुकसान पहुंचाते है।
अत: आक्रमण होने पर ’नुवान’ या ’रोजर’ दवाओं का छिडकाव 0.02 प्रतिशात की दर से करें, लाभ होगा।
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Posted by Udit bhargava at 6/20/2010 07:33:00 pm 0 comments
बढाएं सोशल स्किल्स ( Increase Social Skills )
वर्तमान समय में सोशल स्किल्स आपके पर्सनैलिटी को निखारने के लिये आवश्यक हो गए हैं। आज यह आपके प्रोफेशनल और बिज़नस मैनर्स का एक भाग बन गए हैं। साथ ही करियर को बुलंदी पर पहुंचाने के लिये आज यह काफी महत्वपूर्ण माने जाते हैं।
दूसरों के साथ आपका व्यवहार कैसा है, यह आपकी उन्नती का एक कारण बन सकता है, इसलिए आवश्यक है कि आप अपने व्यवहार को इस तरह का बनाएं कि सभी के साथ आपके अच्छे सम्बन्ध बने रहें, ताकि आपकी पर्सनल और प्रोफेशनल लाइफ के टारगेट्स निर्बाध पूरे हो सकें। यह जरूरी नहीं है कि हर व्यक्ति में यह सोशल स्किल्स स्वभावतः ही हों। थोड़े अभ्यास से इस गुण को अपने अन्दर विकसित कर सकते हैं। इससे आपको करियर में आगे बढ़ने में काफी लाभ भी मिलेगा। सोशल स्किल्स को विकसित करने के लिये आपको कुछ बातों पर ध्यान देना होगा। अधिकांशतः हम दूसरों की बात को सुनने से पहले ही सोच लेते हैं कि वह क्या कहेगा, ऐसा एटीट्यूड ठीक नहीं है। अक्सर ऐसा तब भी होता है, जब हमारे उच्चाधिकारी हमें कुछ निर्देश देते हैं और हम उसे समझ नहीं पाते है। परिणामस्वरूप गलतियाँ होना स्वाभाविक ही होता है, पर देखने में ऐसा लगता है कि निर्देशों का उचित पालन नहीं हुआ। इस सभी से बचने के लिये आपको अपने में कुछ परिवर्तन लाकर निम्न बातों को अपनाना चाहिए।
आपसे जो भी बात कही जा रही है, उसे ध्यानपूर्वक सुनें और समझें, ताके उसका सही अनुपालन हो सके। अपनी बात को स्पस्ट रूप से और प्रभावी ढंग से कहने की आदत डालें। आपसे जो कुछ कहा जा रहा है, उसे अच्छी तरह से समझकर ही करें, जिससे आप अपेक्षित परिणाम दे सकें। यदि आपको किसी की बात एक बार में समझ में न आए, तो दूसरी बार पूछने में झिझकें नहीं, क्योंकि गलती करके सीखने से अच्छा है कि बिना किसी हिचकिचाहट के बात को स्पस्ट तरीके से समझकर उसके ही अनुरूप काम किया जाए।
साथ ही कुछ साफ्ट स्किल्स भी प्रयास कर सीखने की कोशिश करें, जैसे कि कम्युनिकेशन स्किल्स और बॉडी लैंग्वेज की समझ। इससे अतिशय तनाव के क्षणों में आप अपने को ज्यादा शांत रख सकेंगे। उदहारण के लिये अगर कोई समस्या आपको परेशान कर रही है, तो उसे अपने सुपरवाइजर या बाँस से से डिस्कस करने में संकोच न करें। अपनी बात को उन्हें पूर्ण रूप से समझाएं, लेकिन याद रखें आप अपनी समस्या को उनके पास 'एक्सप्लेन' करने गए हैं, न कि 'कंप्लेन' करने। अपनी समस्या बताते समय अपनी आवाज और भाषा-शैली पर पूर्ण नियंत्रण रखें। यहीं पर आपके कम्युनिकेशन स्किल्स की भूमिका शुरू होती है। आपको पता होना चाहिए कि कौन से शब्दों से आपकी बात शिकायत कम, घटना का ब्यौरा ज्यादा लगेगी। बाँस से बात करते समय अपनी बाँडी लैंग्वेज पर कण्ट्रोल करना भी आपके फेवर में जायेगा।
इन बातों का ध्यान रखकर आप अपने व्यवहार और व्यक्तित्व में सुधार के साथ-साथ अपनी सोशल इमेज भी इम्प्रूव कर सकते हैं।
Posted by Udit bhargava at 6/20/2010 09:03:00 am 1 comments
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