29 मई 2010

नमक हराम ( Namak Haram )

काशी नरेश ब्रह्मदत्त का पुत्र बचपन से ही दुष्ट स्वभाव का था। वह बिना कारण ही मुसाफिरों को सिपाहियों से पकड़वा कर सताता और राज्य के विद्वानों, पंडितों तथा बुजुर्गों को अपमानित करता। वह ऐसा करके बहुत प्रसन्नता का अनुभव करता। प्रजा के मन में इसलिए युवराज के प्रति आदर के स्थान पर घृणा और रोष का भाव था।

युवराज लगभग बीस वर्ष का हो चुका था। एक दिन कुछ मित्रों के साथ वह नदी में नहाने के लिए गया। वह बहुत अच्छी तरह तैरना नहीं जानता था, इसलिए अपने साथ कुछ कुशल तैराक सेवकों को भी ले गया। युवराज और उसके मित्र नदी में नहा रहे थे। तभी आसमान में काले-काले बादल छा गये। बादलों की गरज और बिजली की चमक के साथ मूसलधार वर्षा भी शुरू हो गई।

युवराज बड़े आनन्द और उल्लास से तालियाँ बजाता हुआ नौकरों से बोला, ‘‘अहा! क्या मौसम है! मुझे नदी की मंझधार में ले चलो। ऐसे मौसम में वहाँ नहाने में बड़ा मजा आयेगा!''

नौकरों की सहायता से युवराज नदी की बीच धारा में जाकर नहाने लगा। वहाँ पर युवराज के गले तक पानी आ रहा था और डूबने का खतरा नहीं था। लेकिन वर्षा के कारण धीरे-धीरे पानी बढ़ने लगा और धारा का बहाव तेज होने लगा। काले बादलों से आसमान ढक जाने के कारण अन्धेरा छा गया और पास दिखना कठिन हो गया।

युवराज की दुष्टता के कारण इनके सेवक भी उससे घृणा करते थे। इसलिए उसे बीच धारा में छोड़ कर सभी सेवक वापस किनारे पर आ गये। युवराज के मित्रों ने जब युवराज के बारे में सेवकों से पूछा तो उन्होंने कहा कि वे जबरदस्ती हमलोगों का हाथ छुड़ा कर अकेले ही तैरते हुए आ गये। शायद राजमहल वापस चले गये हों।

मित्रों ने महल में युवराज का पता लगवाया। लेकिन युवराज वहाँ पहुँचा नहीं था। बात राजा तक पहुँच गयी। उन्होंने तुरंत सिपाहियों को नदी की धारा या किनारे-कहीं से भी युवराज का पता लगाने का आदेश दिया। सिपाहियों ने नदी के प्रवाह में तथा किनारे दूर-दूर तक पता लगाया लेकिन युवराज का कहीं पता न चला। आखिरकार निराश होकर वे वापस लौट आये।

इधर अचानक नदी में बाढ़ आ जाने और धारा के तेज होने के कारण युवराज पानी के साथ बह गया। जब वह डूब रहा था तभी उसे एक लकड़ी दिखाई पड़ी। युवराज ने उस लकड़ी को पकड़ लिया और उसी के सहारे बहता रहा। आत्म रक्षा के लिए तीन अन्य प्राणियों ने भी उस लकड़ी की शरण ले रखी थी- एक साँप, एक चूहा और एक तोता। युवराज ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहा था, बचाओ! बचाओ! लेकिन तूफान की गरज में उसकी पुकार नक्कारे में तूती की आवाज़ की तरह खोकर रह गई। बाढ़ के साथ युवराज बहता जा रहा था। थोड़ी देर में तूफान थोड़ा कम हुआ और बारिश थम गई। आकाश साफ होने लगा और पश्चिम में डूबता हुआ सूरज चमक उठा। उस समय नदी एक जंगल से होकर गुजर रही थी। नदी के किनारे, उस जंगल में ऋषि के रूप में बोधिसत्व तपस्या कर रहे थे।

युवराज की करुण पुकार कानों में पड़ते ही बोधिसत्व का ध्यान टूट गया। वे झट नदी में कूद पड़े और उस लकड़ी को किनारे खींच लाये जिसने युवराज और तीन अन्य प्राणियों की जान बचायी थी। उन्होंने अग्नि जला कर सबको गरमी प्रदान की, फिर सबके लिए भोजन का प्रबन्ध किया। सबसे पहले उन्होंने छोटे प्राणियों को भोजन दिया, तत्पश्चात युवराज को भी भोजन खिलाकर उसके आराम का भी प्रबन्ध कर दिया।

इस प्रकार वे सब बोधिसत्व के यहाँ दो दिनों तक विश्राम करके पूर्ण स्वस्थ होने के बाद कृतज्ञता प्रकट करते हुए अपने-अपने घर चले गये। तोते ने जाते समय बोधिसत्व से कहा, ‘‘महानुभाव! आप मेरे प्राणदाता हैं। नदी के किनारे एक पेड़ का खोखला मेरा निवास था, लेकिन अब वह बाढ़ में बह गया है। हिमालय में मेरे कई मित्र हैं।

यदि कभी मेरी आवश्यकता पड़े तो नदी के उस पार पर्वत की तलहटी में खड़े होकर पुकारिये। मैं मित्रों की सहायता से आप की सेवा में अन्न और फल का भण्डार लेकर उपस्थित हो जाऊँगा।''

‘‘मैं तुम्हारा वचन याद रखूँगा।'' बोधिसत्व ने आश्वासन दिया।

साँप ने जाते समय बोधिसत्व से कहा, ‘‘मैं पिछले जन्म में एक व्यापारी था। मैंने कई करोड़ रुपये की स्वर्ण मोहरें नदी के तट पर छिपा कर रख दी थीं। धन के इस लोभ के कारण इस जन्म में सर्प योनि में पैदा हुआ हूँ। मेरा जीवन उस खज़ाने की रक्षा में ही नष्ट हुआ जा रहा है। उसे मैं आप को अर्पित कर दूँगा। कभी मेरे यहॉं पधार कर इसका बदला चुकाने का मौका अवश्य दीजिए।''

इसी प्रकार चूहे ने भी वक्त पड़ने पर अपनी सहायता देने का वचन देते हुए कहा, ‘‘नदी के पास ही एक पहाड़ी के नीचे हमारा महल है जो तरह-तरह के अनाजों से भरा हुआ है। हमारे वंश के हजारों चूहे इस महल में निवास करते हैं। जब भी आप को अन्न की कठिनाई हो, कृपया हमारे निवास पर अवश्य पधारिए और सेवा का अवसर दीजिए। मैं फिर भी आप के उपकार का बदला कभी न चुका पाऊँगा।''

सबसे अन्त में युवराज ने कहा, ‘‘मैं कभी-न-कभी अपने पिता के बाद राजा बनूँगा। तब आप मेरी राजधानी में आइए। मैं आप का अपूर्व स्वागत करूँगा।''

कुछ दिनों के बाद ब्रह्मदत्त की मृत्यु हो गई और युवराज काशी का राजा बन गया। राजा बनते ही प्रजा पर अत्याचार करने लगा। सच्चाई और न्याय का कहीं नाम न था। झूठ और अपराध बढ़ने लगे। प्रजा दुखी रहने लगी।

यह बात बोधिसत्व से छिपी न रही। उसे राजा का निमंत्रण याद हो आया। उसने सबसे पहले राजा के यहाँ जाने का निश्चय किया। वे एक दिन राजा से मिलने के लिए काशी पहुँचे।

बोधिसत्व नगर में प्रवेश कर राजपथ पर पैदल चल रहे थे। तभी हाथी पर सवार होकर राजा सैर के लिए जा रहा था। उसने बोधिसत्व को पहचान लिया और तुरत अपने अंगरक्षकों को आदेश दिया, ‘‘इस साधु को पकड़कर खंभे से बाँध दो और सौ कोड़े लगाओ और इसके बाद इसको फाँसी पर लटका दो। यह इतना घमण्डी है कि इसने जान बूझ कर मेरा अपमान किया था।

दासी पुत्र

ब्रह्मदत्त काशी राज्य पर जब शासन कर रहे थे, उन दिनों बोधिसत्व एक धनवान के रूप में पैदा हुए। जवान होने पर शादी कर ली। थोड़े समय बाद बोधिसत्व के एक पुत्र हुआ। उसी दिन उस घर की दासी के गर्भ से भी एक पुत्र पैदा हुआ। उसका नाम कटाहक रखा गया।

धनवान का पुत्र और कटाहक भी धीरे-धीरे बढ़ने लगे। धनवान का पुत्र जब पढ़ने जाता, तब कटाहक उसका त़ख्ता व किताबें लेकर साथ चलता था। इसलिए धनवान के पुत्र ने जो सीखा, वह दासी पुत्र ने भी सीख लिया।

धीरे - धीरे कटाहक शिक्षित और अ़क्लमंद हो गया। अब एक नौकर के स्तर पर रहना कटाहक को अच्छा न लगा। उसके मन में यह इच्छा पैदा हुई कि उसकी शिक्षा और अ़क्लमंदी के अनुकूल उचित स्थान प्राप्त कर लेना चाहिए। इस वास्ते उसने एक उपाय सोचा।

काशी से कई कोस की दूरी पर प्रत्यंत देश में बोधिसत्व का एक लखपति मित्र रहा करता था। उसके नाम कटाहक ने ख़ुद अपने मालिक की ओर से एक जाली पत्र लिखाः

‘‘मैं अपने पुत्र को आप के पास भेज रहा हूँ। हमारे बीच रिश्ता जोड़ लेना उचित होगा। इसलिए आप अपनी पुत्री का विवाह मेरे पुत्र के साथ करके अपने ही घर इसे रखिये। मैं फ़ुरसत पाकर ज़रूर आप से मिलने की कोशिश करूँगा!''

यह चिट्टी लिखकर कटाहक ने अपने मालिक की मुहर उस पर लगा दी, उनके खज़ाने से आवश्यक धन लेकर प्रत्यंत देश चला गया और लखपति के हाथ यह चिट्ठी दी।

लखपति वह चिट्टी पाकर खुशी के मारे उछल पड़ा। उसने एक शुभ मुहूर्त में कटाहक के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया।

फिर क्या था, कटाहक की सेवा में अब अनेक नौकर-चाकर हाज़िर रहने लगे। उसे स्वादिष्ट भोजन मिलने लगा। वह सुख-भोगों में डूब गया, फिर भी वह प्रतिदिन नाहक़ ख़ीझकर कह उठता था- ‘‘छीःछीः, इस प्रत्यंत देश की जनता सभ्यता तक नहीं जानती। यह भी क्या कोई भोजन है? और देखो, ये वस्त्र कैसे हैं? मैंने ऐसी असभ्यता और उजड्डपन कहीं नहीं देखी है।''

इस बीच बोधिसत्व के मन में संदेह हुआ कि आख़िर कटाहक का क्या हुआ? इसलिए उसकी खोज करने के लिए बोधिसत्व ने चारों तरफ़ अपने सेवकों को भेजा। उनमें से एक ने प्रत्यंत देश जाकर इस बात का पता लगाया कि कटाहक ने एक लखपति की बेटी के साथ शादी करके अपना नाम तक बदल डाला है और वह अपने को काशी के अमुक धनवान का पुत्र बतला रहा है।

यह ख़बर मिलते ही बोधिसत्व को बड़ा दुख हुआ। वे ख़ुद जाकर कटाहक को ले आने के ख़्याल से प्रत्यंत देश के लिए रवाना हुए। उनके आगमन का समाचार सुनकर कटाहक घबरा गया। पहले उसने भाग जाना चाहा, फिर उसने सोचा कि ऐसा करने पर उसका ही नुक़सान होगा। आख़िर उसने सोचा कि अपने मालिक को सच्चा हाल बतलाना ही उचित होगा। अपने मालिक के द्वारा स्वयं सारा हाल जानने के पहले सच्ची हालत उन्हें बताकर उन्हे शांत करना और उनसे अपनी करनी के लिए क्षमा मॉंग लेना अच्छा होगा।

पर अपने मालिक के पास नौकर जैसा व्यवहार करते देख लोग उस पर शंका कर सकते हैं । यों विचार करके एक दिन कटाहक ने अपने नौकरों से कहा, ‘‘मैं सब पुत्रों जैसा नहीं हूँ। मैं अपने पिता के प्रति पूज्य भाव रखता हूँ। जब मेरे पिता भोजन करने बैठते हैं, तब मैं उनके पास खड़े होकर पंखा झलता हूँ। पानी वगैरह सारी चीज़ें मैं उन्हें खुद पहुँचा देता हूँ।''

इसके बाद कटाहक अपने ससुर के पास जाकर बोला, ‘‘मेरे पिताजी आ रहे हैं, मैं अगवानी करके उन्हें ले आऊँगा।'' लखपति ने मान लिया। कटाहक अपने मालिक से नगर के बाहर ही मिला, उनके पैरों पर गिरकर अपनी करनी का परिचय दिया, उनसे क्षमा माँगकर प्रार्थना की कि उसे ख़तरे से बचा लें। बोधिसत्व ने उसे अभयदान दिया।

लखपति बोधिसत्व को देख प्रसन्न हुआ और बोला, ‘‘आपकी इच्छा के अनुसार अपनी बेटी का विवाह मैंने आपके पुत्र के साथ कर दिया है।''

बोधिसत्व ने प्रसन्नता दिखाने का अभिनय किया और कटाहक से भी पिता के समान वार्तालाप किया। इसके बाद उन्होंने लखपति की बेटी को बुलाकर पूछा, ‘‘बेटी, मेरा पुत्र तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार कर रहा है न?''

‘‘वैसे उनके अन्दर कोई कमी नहीं है, पर खाने की चीज़ों में उनको एक भी पसंद नहीं आती। कितने भी प्रकार के व्यंजन अच्छी तरह से बनवा दूँ, फिर भी उनमें कोई न कोई दोष ढूँढ लेते हैं! मेरी समझ में नहीं आता कि किस तरह से उनको खुश किया जा सकता है।'' कटाहक की पत्नी ने बताया।

‘‘हाँ, वह खाने के समय इसके पहले हमारे घर पर भी इसी तरह सब को तंग किया करता था। इसलिए इस बार जब वह खाने की शिकायत करने लग जाएगा, तब तुम यह श्लोक पढ़ो। मैं एक श्लोक तुम्हें लिखकर देता हूँ। उसे तुम कंठस्थ कर लो। फिर वह कभी खाते व़क्त शिकायत न करेगा।'' इन शब्दों के साथ बोधिसत्व ने उसे एक श्लोक लिखकर दिया।

इसके बाद बोधिसत्व थोड़े दिन वहाँ बिताकर काशी लौट गये। उनके जाने के बाद कटाहक की हिम्मत और बढ़ गई। वह पहले से कहीं ज़्यादा शिकायत करने लगा।

एक दिन कटाहक के मुँह से शिकायत सुनकर उसकी पत्नी ने यह श्लोक पढ़कर सुनायाः

‘‘बहूँपि सो विकत्थेच्य अं इं जनपदगतो,
अन्वागं त्वान धूसेच्य भुंज भोगे कटाहक।''

(कटाहक अनेक प्रकार से गालियाँ सुनकर दूसरी जगह जाकर अन्यों की निंदा करते समस्त प्रकार के सुख भोगता है।)

कटाहक की पत्नी इस श्लोक का भाव नहीं जानती थी। पर कटाहक ने समझ लिया कि उसके मालिक ने उसके नाम के साथ सारा रहस्य उसकी पत्नी को बता दिया है।

इसके बाद कटाहक ने फिर कभी खाना खाते व़क्त शिकायत नहीं की, बल्कि संतुष्ट होकर खाते हुए सुखपूर्वक दिन बिताने लगा।

विष्णु ने कहा और भृगु ने रचा

हमारे ग्रन्थ/भृगु संहिता जातक के भविष्य कथन को लेकर भृगु संहिता जितना चर्चित ग्रन्थ है, उतना ही विवादस्पद भी। कुछ दैवज्ञ तो इस तरह के किसी ग्रन्थ को ही नकार देते हैं। पौराणिक मान्यता के अनुसार, त्रिदेवों में कौन श्रेष्ठ है, इसकी परीक्षा के लिये जब महर्षि भृगु ने विश्वपालक  श्री विष्णु के वृक्षस्थल पर प्रहार किया, तो पास बैठी विष्णुपत्नी, धन्देवी महालक्ष्मी ने भृगु को शाप दे दिया कि अब वे किसी ब्रह्मण के घर निवास नहीं करेंगी।
परिणामस्वरूप सरस्वती पुत्र ब्रह्मण सदैव दरिद्र ही रहेंगे। अनुश्रुति है कि उस समय महर्षि भृगु की रचना 'ज्योतिश संहिता' अपनी पूर्णता के अंतिम चारण पर थी, इसलिए उन्होंने कह दिया, 'देवी लक्ष्मी, आपके कथन को यह ग्रन्थ निरर्थक कर देगा।' लेकिन महालक्ष्मी ने भृगु को सचेत किया कि इसके फलादेश की सत्यता आधी रह जायेगी। लक्ष्मी के इन वचनों ने भृगु के अहंकार को झकझोर दिया। वे लाक्स्मी को शाप दें। इससे पहले विष्णु ने भृगु से कहा, 'महर्षि आप शांत हो। आप एक अन्य संहिता ग्रन्थ की रचना करें। इस कार्य के लिये मैं आपको दिव्य दृष्ट देता हूँ। तब तक लाक्स्मी भी शांत हो गयी थी। उन्हें ज्ञात हो गया था कि महर्षि ने पदप्रहार अपमान  की दृष्टी से नहीं, परीक्षा के लिये किया था। विष्णु के कथानुसार, भृगु ने जिस संहिता ग्रन्थ की रचना की थी वही जगत में 'भृगुसंहिता' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जातक के भूत, भविष्य और वर्तमान की सम्पूर्ण जानकारी देने वाला यह ग्रन्थ भृगु और उनके पुत्र शुक्र के बीच हुए प्रश्नोत्तर के रूम में है।
एक किन्वंदाती के अनुसार लगभग  पांच सौ वर्ष पूर्व काठमांडू स्थितीत एक पुस्तकालय से इस संहिता के लगभग दो लाख पृष्ठों को एक ब्रह्मण हाथ से लिखकर होशियारपुर (पंजाब) के टूटो माजरा गाँव आया था। वैसे होशियारपुर के कुछ ज्योतिषी असली भृगुसंहिता के अपने पास होने का दावा करते हैं। मान्यता है कि इस ग्रन्थ में विश्व के प्रत्येक जातक की जन्मकुण्डली  है और यदि वह मिल जाती है, तो जातक के जीवन के तीनों कालों की जानकारी यथार्थ रूप में प्राप्त हो सकती है।
बाजार में 'भृगु संहिता' के नाम से जो ग्रन्थ उपलब्ध है, वह मूल संहिता ग्रन्थ की एक झलक मात्रा देते है। इसमें  में ग्रहों के योगों की संभावनाओं पर ही विशेषरूप से प्रकाश डाला गया है. इसमें कुण्डली संख्या पंद्रह सौ से दो हजार तक है. कहते हैं कि इस कुंडलियों पर चिंतन-मनन करने से दैवज्ञ भविष्य फल कथन करने में निष्णात तो हो ही जाता है.

28 मई 2010

कहां से और कैसे प्राप्त होता है रुद्राक्ष

रुद्राक्ष  मूलतः एक जंगली फल है, इसकी पैदावार समुद्र तल से लगभग दो हजार मीटर तक की ऊंचाई वाले पर्वतीय व पठारी क्षेत्रों में होती है। रुद्राक्ष के मूल फल को प्रयोग में लाने के लिए पानी में गलाकर साफ करना पड़ता है। इस आलेख में भारत और विदेशों में पाए जाने वाले रुद्राक्षों की जानकारी दी जा रही है....

रुद्राक्ष के पेड़ घने एवं ऊंचे होते हैं। इनकी ऊंचाई ५० फुट से २०० फुट तक होती है। इनके पत्ते लगभग ३ से ६ इंच तक लंबे होते हैं। इनके फूल सफेद रंग के तथा फल गोलाकार हरी आभायुक्त नील वर्ण के आधे से एक इंच व्यास तक के होते हैं।

रुद्राक्ष के फल खाने में कुछ मीठे व कुछ कसैले, खटास भरे होते हैं। जंगल में पैदा होने वाले इस पेड़ पर फल कार्तिक मास के अंत में या मार्गशीर्ष में लगने लगते हैं। इसके फलों को अनेक पक्षी, विशेषकर नीलकंठ, बड़े चाव से खाते हैं।

रुद्राक्ष का वृक्ष बारहों मास हरा-भरा रहता है, इसमें हमेशा फूल और फल लगे रहते हैं। इसका फल ८-९ मास में सूखकर जब स्वतः पृथ्वी पर गिरता है, तब इसके ऊपर छिलके का आवरण चढ़ा रहता है, जिसे एक विशेष प्रक्रिया द्वारा पानी में गलाकर साफ किया जाता है और इससे मजबूत गुठली के रूप में रुद्राक्ष प्राप्त होता है। रुद्राक्ष के ऊपरी सतह पर प्राकृतिक रूप से संतरे के समान फांकें बनी होती हैं, जिन्हें आध्यात्मिक भाषा में मुख कहा जाता है।

कुछ रुद्राक्षों में प्राकृतिक रूप से छिद्र पाए जाते हैं, जो कि उत्तम कहलाते हैं। रुद्राक्षों का मूल्यांकन उनमें पाए जाने वाले छिद्र, मुख, आकार आदि के अनुरूप किया जाता है।

रुद्राक्ष की जाति के समान दूसरे फल हैं- भद्राक्ष एवं इंद्राक्ष। भद्राक्ष में रुद्राक्ष के समान मुखजनित धारियां नहीं होतीं और इंद्राक्ष वर्तमान में लुप्तप्राय हो चुका है और कहीं देखने को नहीं मिलता।

इसकी पैदावार हेतु उष्ण व सम शीतोष्ण जलवायु एवं २५ से ३० डिग्री सेल्सियस का तापमान अनुकूल माना गया है। इसी कारणवश रुद्राक्ष के वृक्ष समुद्र तल से २००० मीटर तक की ऊंचाई पर पर्वतीय व पठारी क्षेत्रों तथा नदी या समुद्र के तटीय क्षेत्रों में पाए जाते हैं।

भारत में रुद्राक्ष मुख्यतः हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों, बंगाल, असम, बिहार, मध्यप्रदेश एवं अरुणाचल प्रदेश के जंगलों, सिक्किम, उत्तरांचल में हरिद्वार, गढ़वाल एवं देहरादून के पर्वतीय क्षेत्रों तथा दक्षिण भारत के नीलगिरि, मैसूर और अन्नामलै क्षेत्र में पाए जाते हैं। उत्तरकाशी में गंगोत्री-यमुनोत्री क्षेत्र में भी रुद्राक्ष पाए जाते हैं। कर्नाटक में पाए जाने वाले रुद्राक्ष को मान्यता प्राप्त नहीं है, क्योंकि वानस्पतिक दृष्टिकोण से यहां पाए जाने वाले पेड़ रुद्राक्ष के वृक्ष की जाति से कुछ अलग होते हैं तथा उन पर लगने वाले फल पर मुख जनित धारियां नहीं पाई जाती हैं।

रामेश्वरम में एक मुखी से तीन मुखी तक के रुद्राक्ष पैदा होते हैं। यहां एक मुखी चंद्राकार (जो कि काजू के दाने के आकार का होता है) रुद्राक्ष बड़ी संख्या में प्राप्त होते हैं। गोलाकार एकमुखी रुद्राक्ष के अप्राप्य होने की वजह से वर्तमान बाजार में चंद्राकार (काजू दाना) एकमुखी रुद्राक्ष का प्रचलन सर्वाधिक है।

हिमाचल प्रदेश के परवानू में राजकीय पुष्प उद्यान में करीब ९-१० वर्ष पहले जो रुद्राक्ष का पेड़ नेपाल से लाया गया था, वह अब पूर्ण रूप से विकसित होकर करीब २५-२७ फुट ऊंचा हो गया है और फल देने लगा है।

नेपाल में सबसे बड़े आकार का रुद्राक्ष पैदा होता है तथा यहां के रुद्राक्ष अच्छी किस्म के होते हैं। नेपाल में रुद्राक्ष हिमालय के पहाड़ों पर पाए जाते हैं। इसके अतिरिक्त नेपाल में रुद्राक्ष के पेड़ धरान, ढीगला आदि स्थानों में भी हैं।

संसार में सर्वोत्तम किस्म का एकमुखी बड़े आकार का गोलाकार रुद्राक्ष नेपाल में ही होता है और इसका मूल्य लाखों में होता है। राज्य के नियमानुसार यहां जितने भी एक मुखी रुद्राक्ष उत्पन्न होते हैं, वे सब नेपाल नरेश कोष (शाही खजाने) में जमा करवाने पड़ते हैं, उनके बाजार में बिकने पर प्रतिबंध है। नेपाल का एकमुखी गोलाकार रुद्राक्ष अति दुर्लभ है।

संसार में सर्वाधिक (करीब ७० प्रतिशत) रुद्राक्ष के वृक्ष इंडोनेशिया में पाए जाते हैं। जबकि नेपाल और भारत में लगभग २५ प्रतिशत तथा शेष स्थानों में ५ प्रतिशत होते हैं। संसार में रुद्राक्ष सबसे अधिक भारत में बिकते हैं जिनमें से ६०-७० प्रतिशत केवल हरिद्वार में बिकते हैं।

भारत और नेपाल में पाए जाने वाले रुद्राक्ष आकार में बड़े होते हैं जबकि मलयेशिया और इंडोनेशिया में पाए जाने वाले रुद्राक्ष मटर के दाने के आकार के होते हैं। इनके वृक्ष बौने, पत्ते हरे तथा फल भूरे होते हैं जो आगे सूखकर भूरे, लाल, काले आदि रंगों में बदल जाते हैं। बिना धारी वाला सबसे बड़े आकार का रुद्राक्ष जावा में पाया गया था।

टोने-टोटके - कुछ उपाय - 4 ( Tonae-Totke - Some Tips - 4 )

छोटे-छोटे उपाय हर घर में लोग जानते हैं, पर उनकी विधिवत्‌
जानकारी के अभाव में वे उनके लाभ से वंचित रह जाते हैं। इस लोकप्रिय
स्तंभ में उपयोगी टोटकों की विधिवत्‌ जानकारी दी जा रही है...

परीक्षा में सफलता हेतु : परीक्षा में सफलता हेतु गणेश रुद्राक्ष धारण करें। बुधवार को गणेश जी के मंदिर में जाकर दर्शन करें और मूंग के लड्डुओं का भोग लगाकर सफलता की प्रार्थना करें।

पदोन्नति हेतु : शुक्ल पक्ष के सोमवार को सिद्ध योग में तीन गोमती चक्र चांदी के तार में एक साथ बांधें और उन्हें हर समय अपने साथ रखें, पदोन्नति के साथ-साथ व्यवसाय में भी लाभ होगा।

मुकदमे में विजय हेतु : पांच गोमती चक्र जेब में रखकर कोर्ट में जाया करें, मुकदमे में निर्णय आपके पक्ष में होगा।

पढ़ाई में एकाग्रता हेतु : शुक्ल पक्ष के पहले रविवार को इमली के २२ पत्ते ले आएं और उनमें से ११ पत्ते सूर्य देव को ¬ सूर्याय नमः कहते हुए अर्पित करें। शेष ११ पत्तों को अपनी किताबों में रख लें, पढ़ाई में रुचि बढ़ेगी।

कार्य में सफलता के लिए : अमावस्या के दिन पीले कपड़े का त्रिकोना झंडा बना कर विष्णु भगवान के मंदिर के ऊपर लगवा दें, कार्य सिद्ध होगा।

व्यवसाय बाधा से मुक्ति हेतु : यदि कारोबार में हानि हो रही हो अथवा ग्राहकों का आना कम हो गया हो, तो समझें कि किसी ने आपके कारोबार को बांध दिया है। इस बाधा से मुक्ति के लिए दुकान या कारखाने के पूजन स्थल में शुक्ल पक्ष के शुक्रवार को अमृत सिद्ध या सिद्ध योग में श्री धनदा यंत्र स्थापित करें। फिर नियमित रूप से केवल धूप देकर उनके दर्शन करें, कारोबार में लाभ होने लगेगा।

गृह कलह से मुक्ति हेतु : परिवार में पैसे की वजह से कलह रहता हो, तो दक्षिणावर्ती शंख में पांच कौड़ियां रखकर उसे चावल से भरी चांदी की कटोरी पर घर में स्थापित करें। यह प्रयोग शुक्ल पक्ष के प्रथम शुक्रवार को या दीपावली के अवसर पर करें, लाभ अवश्य होगा।

क्रोध पर नियंत्रण हेतु : यदि घर के किसी व्यक्ति को बात-बात पर गुस्सा आता हो, तो दक्षिणावर्ती शंख को साफ कर उसमें जल भरकर उसे पिला दें। यदि परिवार में पुरुष सदस्यों के कारण आपस में तनाव रहता हो, तो पूर्णिमा के दिन कदंब वृक्ष की सात अखंड पत्तों वाली डाली लाकर घर में रखें। अगली पूर्णिमा को पुरानी डाली कदंब वृक्ष के पास छोड़ आएं और नई डाली लाकर रखें। यह क्रिया इसी तरह करते रहें, तनाव कम होगा।

मकान खाली कराने हेतु : शनिवार की शाम को भोजपत्र पर लाल चंदन से किरायेदार का नाम लिखकर शहद में डुबो दें। संभव हो, तो यह क्रिया शनिश्चरी अमावस्या को करें। कुछ ही दिनों में किरायेदार घर खाली कर देगा। ध्यान रहे, यह क्रिया करते समय कोई टोके नहीं।

बिक्री बढ़ाने हेतु : ग्यारह गोमती चक्र और तीन लघु नारियलों की यथाविधि पूजा कर उन्हें पीले वस्त्र में बांधकर बुधवार या शुक्रवार को अपने दरवाजे पर लटकाएं तथा हर पूर्णिमा को धूप दीप जलाएं। यह क्रिया निष्ठापूर्वक नियमित रूप से करें, ग्राहकों की संख्या में वृद्धि होगी और बिक्री बढ़ेगी।

आयुर्वेदिक चूर्ण

हम इससे पहले आयुर्वेदिक दवाओं में गोलियों, वटियों भस्म व पिष्टी की जानकारी आपको दे चुके हैं। आयुर्वेद के कुछ चूर्ण, जो दैनिक जीवन में बहुत उपयोगी हैं, की जानकारी दी जा रही है-

अश्वगन्धादि चूर्ण : धातु पौष्टिक, नेत्रों की कमजोरी, प्रमेह, शक्तिवर्द्धक, वीर्य वर्द्धक, पौष्टिक तथा बाजीकर, शरीर की झुर्रियों को दूर करता है। मात्रा 5 से 10 ग्राम प्रातः व सायं दूध के साथ।

अविपित्तकर चूर्ण : अम्लपित्त की सर्वोत्तम दवा। छाती और गले की जलन, खट्टी डकारें, कब्जियत आदि पित्त रोगों के सभी उपद्रव इसमें शांत होते हैं। मात्रा 3 से 6 ग्राम भोजन के साथ।

अष्टांग लवण चूर्ण : स्वादिष्ट तथा रुचिवर्द्धक। मंदाग्नि, अरुचि, भूख न लगना आदि पर विशेष लाभकारी। मात्रा 3 से 5 ग्राम भोजन के पश्चात या पूर्व। थोड़ा-थोड़ा खाना चाहिए।

आमलकी रसायन चूर्ण : पौष्टिक, पित्त नाशक व रसायन है। नियमित सेवन से शरीर व इन्द्रियां दृढ़ होती हैं। मात्रा 3 ग्राम प्रातः व सायं दूध के साथ।

आमलक्यादि चूर्ण : सभी ज्वरों में उपयोगी, दस्तावर, अग्निवर्द्धक, रुचिकर एवं पाचक। मात्रा 1 से 3 गोली सुबह व शाम पानी से।

एलादि चूर्ण : उल्टी होना, हाथ, पांव और आंखों में जलन होना, अरुचि व मंदाग्नि में लाभदायक तथा प्यास नाशक है। मात्रा 1 से 3 ग्राम शहद से।

गंगाधर (वृहत) चूर्ण : अतिसार, पतले दस्त, संग्रहणी, पेचिश के दस्त आदि में। मात्रा 1 से 3 ग्राम चावल का पानी या शहद से दिन में तीन बार।

जातिफलादि चूर्ण : अतिसार, संग्रहणी, पेट में मरोड़, अरुचि, अपचन, मंदाग्नि, वात-कफ तथा सर्दी (जुकाम) को नष्ट करता है। मात्रा 1.5 से 3 ग्राम शहद से।

दाडिमाष्टक चूर्ण : स्वादिष्ट एवं रुचिवर्द्धक। अजीर्ण, अग्निमांद्य, अरुचि गुल्म, संग्रहणी, व गले के रोगों में। मात्रा 3 से 5 ग्राम भोजन के बाद।

चातुर्जात चूर्ण : अग्निवर्द्धक, दीपक, पाचक एवं विषनाशक। मात्रा 1/2 से 1 ग्राम दिन में तीन बार शहद से।

चातुर्भद्र चूर्ण : बालकों के सामान्य रोग, ज्वर, अपचन, उल्टी, अग्निमांद्य आदि पर गुणकारी। मात्रा 1 से 4 रत्ती दिन में तीन बार शहद से।

चोपचिन्यादि चूर्ण : उपदंश, प्रमेह, वातव्याधि, व्रण आदि पर। मात्रा 1 से 3 ग्राम प्रातः व सायं जल अथवा शहद से।

तालीसादि चूर्ण : जीर्ण, ज्वर, श्वास, खांसी, वमन, पांडू, तिल्ली, अरुचि, आफरा, अतिसार, संग्रहणी आदि विकारों में लाभकारी। मात्रा 3 से 5 ग्राम शहद के साथ सुबह-शाम।

दशन संस्कार चूर्ण : दांत और मुंह के रोगों को नष्ट करता है। मंजन करना चाहिए।

नारायण चूर्ण : उदर रोग, अफरा, गुल्म, सूजन, कब्जियत, मंदाग्नि, बवासीर आदि रोगों में तथा पेट साफ करने के लिए उपयोगी। मात्रा 2 से 4 ग्राम गर्म जल से।

पुष्यानुग चूर्ण : स्त्रियों के प्रदर रोग की उत्तम दवा। सभी प्रकार के प्रदर, योनी रोग, रक्तातिसार, रजोदोष, बवासीर आदि में लाभकारी। मात्रा 2 से 3 ग्राम सुबह-शाम शहद अथवा चावल के पानी में।

पुष्पावरोधग्न चूर्ण : स्त्रियों को मासिक धर्म न होना या कष्ट होना तथा रुके हुए मासिक धर्म को खोलता है। मात्रा 6 से 12 ग्राम दिन में तीन समय गर्म जल के साथ।

पंचकोल चूर्ण : अरुचि, अफरा, शूल, गुल्म रोग आदि में। अग्निवर्द्धक व दीपन पाचन। मात्रा 1 से 3 ग्राम।

पंचसम चूर्ण : कब्जियत को दूर कर पेट को साफ करता है तथा पाचन शक्ति और भूख बढ़ाता है। आम शूल व उदर शूल नाशक है। हल्का दस्तावर है। आम वृद्धि, अतिसार, अजीर्ण, अफरा, आदि नाशक है। मात्रा 5 से 10 ग्राम सोते समय पानी से।

यवानिखांडव चूर्ण : रोचक, पाचक व स्वादिष्ट। अरुचि, मंदाग्नि, वमन, अतिसार, संग्रहणी आदि उदर रोगों पर गुणकारी। मात्रा 3 से 6 ग्राम।

लवणभास्कर चूर्ण : यह स्वादिष्ट व पाचक है तथा आमाशय शोधक है। अजीर्ण, अरुचि, पेट के रोग, मंदाग्नि, खट्टी डकार आना, भूख कम लगना। आदि अनेक रोगों में लाभकारी। कब्जियत मिटाता है और पतले दस्तों को बंद करता है। बवासीर, सूजन, शूल, श्वास, आमवात आदि में उपयोगी। मात्रा 3 से 6 ग्राम मठा (छाछ) या पानी से भोजन के पूर्व या पश्चात लें।

लवांगादि चूर्ण : वात, पित्त व कफ नाशक, कंठ रोग, वमन, अग्निमांद्य, अरुचि में लाभदायक। स्त्रियों को गर्भावस्था में होने वाले विकार, जैसे जी मिचलाना, उल्टी, अरुचि आदि में फायदा करता है। हृदय रोग, खांसी, हिचकी, पीनस, अतिसार, श्वास, प्रमेह, संग्रहणी, आदि में लाभदायक। मात्रा 3 ग्राम सुबह-शाम शहद से।

व्योषादि चूर्ण : श्वास, खांसी, जुकाम, नजला, पीनस में लाभदायक तथा आवाज साफ करता है। मात्रा 3 से 5 ग्राम सायंकाल गुनगुने पानी से।

शतावरी चूर्ण : धातु क्षीणता, स्वप्न दोष व वीर्यविकार में, रस रक्त आदि सात धातुओं की वृद्धि होती है। शक्ति वर्द्धक, पौष्टिक, बाजीकर तथा वीर्य वर्द्धक है। मात्रा 5 ग्राम प्रातः व सायं दूध के साथ।

स्वादिष्ट विरेचन चूर्ण (सुख विरेचन चूर्ण) : हल्का दस्तावर है। बिना कतलीफ के पेट साफ करता है। खून साफ करता है तथा नियमित व्यवहार से बवासीर में लाभकारी। मात्रा 3 से 6 ग्राम रात्रि सोते समय गर्म जल अथवा दूध से।

सारस्वत चूर्ण : दिमाग के दोषों को दूर करता है। बुद्धि व स्मृति बढ़ाता है। अनिद्रा या कम निद्रा में लाभदायक। विद्यार्थियों एवं दिमागी काम करने वालों के लिए उत्तम। मात्रा 1 से 3 ग्राम प्रातः -सायं मधु या दूध से।

सितोपलादि चूर्ण : पुराना बुखार, भूख न लगना, श्वास, खांसी, शारीरिक क्षीणता, अरुचि जीभ की शून्यता, हाथ-पैर की जलन, नाक व मुंह से खून आना, क्षय आदि रोगों की प्रसिद्ध दवा। मात्रा 1 से 3 गोली सुबह-शाम शहाद से।

सुदर्शन (महा) चूर्ण : सब तरह का बुखार, इकतरा, दुजारी, तिजारी, मलेरिया, जीर्ण ज्वर, यकृत व प्लीहा के दोष से उत्पन्न होने वाले जीर्ण ज्वर, धातुगत ज्वर आदि में विशेष लाभकारी। कलेजे की जलन, प्यास, खांसी तथा पीठ, कमर, जांघ व पसवाडे के दर्द को दूर करता है। मात्रा 3 से 5 ग्राम सुबह-शाम पानी के साथ।

सुलेमानी नमक चूर्ण : भूख बढ़ाता है और खाना हजम होता है। पेट का दर्द, जी मिचलाना, खट्टी डकार का आना, दस्त साफ न आना आदि अनेक प्रकार के रोग नष्ट करता है। पेट की वायु शुद्ध करता है। मात्रा 3 से 5 ग्राम घी में मिलाकर भोजन के पहले अथवा सुबह-शाम गर्म जल से भोजन के बाद।

सैंधवादि चूर्ण : अग्निवर्द्धक, दीपन व पाचन। मात्रा 2 से 3 ग्राम प्रातः व सायंकाल पानी अथवा छाछ से।

हिंग्वाष्टक चूर्ण : पेट की वायु को साफ करता है तथा अग्निवर्द्धक व पाचक है। अजीर्ण, मरोड़, ऐंठन, पेट में गुड़गुड़ाहट, पेट का फूलना, पेट का दर्द, भूख न लगना, वायु रुकना, दस्त साफ न होना, अपच के दस्त आदि में पेट के रोग नष्ट होते हैं तथा पाचन शक्ति ठीक काम करती है। मात्रा 3 से 5 ग्राम घी में मिलाकर भोजन के पहले अथवा सुबह-शाम गर्म जल से भोजन के बाद।

त्रिकटु चूर्ण : खांसी, कफ, वायु, शूल नाशक, व अग्निदीपक। मात्रा 1/2 से 1 ग्राम प्रातः-सायंकाल शहद से।

त्रिफला चूर्ण : कब्ज, पांडू, कामला, सूजन, रक्त विकार, नेत्रविकार आदि रोगों को दूर करता है तथा रसायन है। पुरानी कब्जियत दूर करता है। इसके पानी से आंखें धोने से नेत्र ज्योति बढ़ती है। मात्रा 1 से 3 ग्राम घी व शहद से तथा कब्जियत के लिए 5 से 10 ग्राम रात्रि को जल के साथ।

श्रृंग्यादि चूर्ण : बालकों के श्वास, खांसी, अतिसार, ज्वर में। मात्रा 2 से 4 रत्ती प्रातः-सायंकाल शहद से।

अजमोदादि चूर्ण : जोड़ों का दुःखना, सूजन, अतिसार, आमवात, कमर, पीठ का दर्द व वात व्याधि नाशक व अग्निदीपक। मात्रा 3 से 5 ग्राम प्रातः-सायं गर्म जल से अथवा रास्नादि काढ़े से।

अग्निमुख चूर्ण (निर्लवण) : उदावर्त, अजीर्ण, उदर रोग, शूल, गुल्म व श्वास में लाभप्रद। अग्निदीपक तथा पाचक। मात्रा 3 ग्राम प्रातः-सायं उष्ण जल से।

माजून मुलैयन : हाजमा करके दस्त साफ लाने के लिए प्रसिद्ध माजून है। बवासीर के मरीजों के लिए श्रेष्ठ दस्तावर दवा। मात्रा रात को सोते समय 10 ग्राम माजून दूध के साथ।

आयुर्वेद हमेशा आगे रहेगा

भारत में आयुर्वेद की प्राचीन यशस्वी परंपरा रही हैं। भारत की कई बड़ी कंपनियाँ इसी परंपरा को आगे बढ़ा रहीं हैं। इस श्रृंखला में वैद्यनाथ और डाबर दो प्रमुख नाम हैं। धन्वंतरि जयंती पर आयुर्वेद की महत्ता प्रतिपादित करते हुए प्रस्तुत है इन कंपनियों की जानकारी देती यह विशेष रिपोर्ट:

वैद्यनाथ आयुर्वेद देशी दवा की वह कंपनी है जो अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई की अग्नि से तपते हुए निकली है। उस लड़ाई में वैद्यनाथ ने 'अंग्रेजी दवाई भारत छोड़ो' की आहुति दी थी। वैद्यनाथ आयुर्वेद के अध्यक्ष व प्रबंधन विशेषज्ञ अजय शर्मा कहते हैं, 'हमारी वह लड़ाई अभी तक जारी है। यही वजह है कि आज अगर आयुर्वेद की कोई कंपनी इस पद्धति का पर्याय बनी हुई है तो वह वैद्यनाथ है।'

1942 में भारत छो़ड़ो आंदोलन के समय वैद्यनाथ ने एक नारा दिया था - 'देश की मिट्टी, देश की हवा, देश का पानी, देश की दवा।' अंग्रेजी हुकूमत व दवा के खिलाफ जो लड़ाई तब शुरू हुई वह अभी खत्म नहीं हुई है। अंततः दुनिया मानेगी कि आयुर्वेद ही मानव का कल्याण करने में सक्षम है।

वैद्यनाथ आज भी सिद्धांतों पर अटल है। हमने कभी अपनी दवा को ब्रांड नहीं बनाया। कई पड़ाव आए लेकिन वैद्यनाथ आयुर्वेद की मूल विशेषता में कोई घालमेल नहीं होने दिया गया।' वैद्यनाथ अभी पूरी दुनिया में फैला है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अमेरिका में इस कंपनी के 33 डीलर हैं। वहाँ डलास में वैद्यनाथ का मुख्यालय है।

यह कंपनी यूरोपीय देश इटली, जर्मनी व बेल्जियम आदि में भी निर्यात कर रही है। लंदन से केमिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर लौटे अपने पिता रामावतार शर्मा से जब उनके बेटे अजय शर्मा ने कमान संभाली तो इसके प्रचार-प्रसार को पंख लग गए। वे कहते हैं- 'इस कंपनी के च्यवनप्राश, दशमूलारिष्ट, महानारायण तेल, चंद्र प्रभावटी, महायोगराज गूगल आदि दवाओं की एक खास विश्वसनीयता है। वैद्यनाथ की खास दवाएँ, कासामृत, बीटा एक्स, कब्जहर तो लोगों की जुबान पर है।'

वर्ष 1918 मे स्थापित यह कंपनी अभी 700 आयुर्वेदिक उत्पादों का निर्माता बन गई है। इसके पास अत्याधुनिक फैक्टरियाँ हैं और वहाँ पूरी तरह वैज्ञानिक पद्धतियों से काम होता है। दवा की गुणवत्ता ही इस कंपनी की पहचान है। कंपनी के पास भारत सरकार द्वारा स्वीकृत शोध केंद्र है जहाँ योग्य वैज्ञानिकों की टीम है। आयुर्वेद में वैद्यनाथ की विश्वसनीयता का यह पैमाना है कि यहाँ से आयुर्वेद पर छपने वाली पुस्तक आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेजों के पाठ्यक्रम में शामिल की जाती हैं।

इसके 'आयुर्वेदिक सार संग्रह' में आयुर्वेदिक उत्पादों की सारी विधियाँ संकलित हैं। यह भारत सरकार द्वारा स्वीकृत फर्माकोपिया (दवा फॉरमुलेशन का संकलन) का हिस्सा है। पूरे देश में वैद्यनाथ आयुर्वेद के कॉलेज, अस्पताल व डिस्पेंसरियाँ हैं। अजय शर्मा कहते हैं- 'वैद्यनाथ की पुर्णाहुति तब होगी जब आम लोगों की अंग्रेजी दवाओं पर निर्भरता से मुक्ति मिल जाएगी। भारतीय चिकित्साशास्त्र की यह पद्धति सभी स्वास्थ्य चुनौतियों का हल करने में सच में सक्षम है।

नहीं थमेगी डाबर की उड़ान
आयुर्वेद की बात करें और डाबर इंडिया का नाम न लें तो ऐसा ही लगेगा जैसे हम अभी क्रिकेट की बात धोनी के बगैर कर रहे हैं। धोनी अगर अभी नंबर वन ब्रांड बन गए हैं तो आयुर्वेद के क्षेत्र में डाबर इंडिया का भी यही स्थान है। धोनी आज डाबर च्यवनप्राश का प्रचार जरूर कर रहे हैं लेकिन डाबर को अपने क्षेत्र में अव्वल होने का खिताब उनसे बहुत पहले मिल चुका है।

धोनी ही क्यों, बिग बी तक डाबर के प्रचार की कमान संभाल चुके हैं पर डाबर की विश्वसनीयता इन सितारों के बिना भी उतनी ही है। जाहिर है, सीरीफोर्ट में 7 अक्टूबर को ऑल इंडिया आयुर्वेद कांग्रेस के दौरान लगी प्रदर्शनी में इसी कंपनी ने ब्रांड के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज की। कंपनी को इस मुकाम तक पहुँचाने में कंपनी के उपाध्यक्ष अमित बर्मन की बड़ी भूमिका रही है।

कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से एमबीए की डिग्री हासिल कर डाबर इंडिया लिमिटेड की कमान संभालने वाले कंपनी के उपाध्यक्ष अमित बर्मन एक पायलट भी हैं। उन्हें हवा में उड़ना बहुत अच्छा लगता है। अगर यह कहें कि अमित बर्मन की उड़ने की इसी ललक ने डाबर इंडिया लिमिटेड को आयुर्वेद की बुलंदियों पर पहुँचा दिया है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। कहते हैं अमित बर्मन कंपनी के 'पायलट' हैं तो इसकी उड़ने की सीमा आकाश ही है। कोलकाता के बर्मन परिवार की कंपनी डाबर इंडिया लिमिटेड ने अब पूरी दुनिया में अपना परचम लहरा दिया है। आयुर्वेदिक व प्राकृतिक चिकित्सा के क्षेत्र में 125 साल की हो गई इस कंपनी का अब कोई सानी नहीं है।

डाबर इंडिया के 250 से अधिक उत्पादों की बाजार में तूती बोल रही है। दवाई से लेकर फूड तक में हर जगह डाबर मौजूद दिखता है। डाबर के उत्पाद पूरी दुनिया के 60 से अधिक देशों में उपलब्ध हैं। सिर्फ विदेश में ही इसका कारोबार 500 करोड़ रुपए का है।

1884 में बर्मन परिवार ने जब एक छोटी आयुर्वेदिक दवा कंपनी के रूप में शुरुआत की थी तो 125 साल बाद यह नंबर वन कंपनी बन जाएगी किसी ने सोचा नहीं होगा। आज वह देश का हर्बल और नेचुरल प्रॉडक्ट की सबसे बड़ी पेशेवर कंपनी बन गई है।

आयुर्वेद अनुसार भोजन के तीन प्रकार

हर व्यक्ति का खान-पान उसके संस्कार और संस्कृति के अनुसार होता है। खान-पान में युगों से जो पदार्थ प्रयोग किए जाते रहे हैं, आज भी उन्हीं पदार्थों का इस्तेमाल किया जाता है। यह अवश्य है कि इन विभिन्न खाद्य पदार्थों में कुछ ऐसे हैं जो बहुत फायदेमंद होते हैं, तो कुछ ऐसे जो बेहद नुकसानदायक होते हैं। इसी आधार पर प्राचीनकाल में वैद्यों ने आहार को मुख्य रूप से तीन प्रकारों में बाँटा था-

सात्विक भोजन
यह ताजा, रसयुक्त, हल्की चिकनाईयुक्त और पौष्टिक होना चाहिए। इसमें अन्ना, दूध, मक्खन, घी, मट्ठा, दही, हरी-पत्तेदार सब्जियाँ, फल-मेवा आदि शामिल हैं। सात्विक भोजन शीघ्र पचने वाला होता है। इन्हीं के साथ नींबू, नारंगी और मिश्री का शरबत, लस्सी जैसे तरल पदार्थ बहुत लाभप्रद हैं। इनसे चित्त एकाग्र तथा पित्त शांत रहता है। भोजन में ये पदार्थ शामिल होने पर विभिन्न रोग एवं स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से काफी बचाव रहता है।

राजसी भोजन
इसमें सभी प्रकार के पकवान, व्यंजन, मिठाइयाँ, अधिक मिर्च-मसालेदार वस्तुएँ, नाश्ते में शामिल आधुनिक सभी पदार्थ, शक्तिवर्धक दवाएँ, चाय, कॉफी, कोको, सोडा, पान, तंबाकू, मदिरा एवं व्यसन की सभी वस्तुएँ शामिल हैं। राजसी भोज्य पदार्थों के गलत या अधिक इस्तेमाल से कब, क्या तकलीफें हो जाएँ या कोई बीमारी हो जाए, कहा नहीं जा सकता।

इनसे हालाँकि पूरी तरह बचना तो किसी के लिए भी संभव नहीं, किंतु इनका जितना कम से कम प्रयोग किया जाए, यह किसी भी उम्र और स्थिति के व्यक्ति के लिए लाभदायक रहेगा। वर्तमान में होनेवाली अनेक बीमारियों का कारण इसी तरह का खानपान है, इसलिए बीमार होने से पहले इनसे बचा जाए, वही बेहतर है।

तामसी भोजन
इसमें प्रमुख मांसाहार माना जाता है, लेकिन बासी एवं विषम आहार भी इसमें शामिल हैं। तामसी भोजन व्यक्ति को क्रोधी एवं आलसी बनाता है, साथ ही कई प्रकार से तन और मन दोनों के लिए प्रतिकूल होता है।

खान-पान की खास बातें

* जब जल्दी में हों, तनाव में हों, अशांत हों, क्रोध में हों तो ऐसी स्थिति में भोजन न किया जाए, यही बेहतर है।

* आयुर्वेद के अनुसार जो मनुष्य खाना खाता है, शरीर के प्रति उसका कर्तव्य है कि वह व्यायाम अवश्य करें।

* बुजुर्गों के लिए टहलना ही पाचन के लिए पर्याप्त व्यायाम है।

* भोजन ऋतु, स्थान और समय के अनुसार ही करें। बार-बार न खाएँ। यदि समय अधिक निकल जाए तो भोजन न करना ज्यादा अच्छा है।

* भोजन के साथ पानी न पीएँ। आधे घंटे पहले और एक घंटे बाद पीएँ।

* भूख को टालना ठीक नहीं। यह शरीर के लिए नुकसानदायक है।

* दिनभर में इतना काम अवश्य करें कि शाम को थकावट महसूस हो। इससे भूख लगेगी और नींद भी अच्छी आएगी।

25 मई 2010

महाभारत - युधिष्ठिर का जुये में हारना

हस्तिनापुर लौटते समय शकुनि ने दुर्योधन से कहा, "भाँजे! इन्द्रप्रस्थ के सभा भवन में तुम्हारा जो अपमान हुआ है उससे मुझे अत्यन्त दुःख हुआ है। तुम यदि अपने इस अपमान का प्रतिशोध लेना चाहते हो तो अपने पिता धृतराष्ट्र से अनुमति ले कर युधिष्ठिर को द्यूत-क्रीड़ा (जुआ खेलने) के लिये आमन्त्रित कर लो। युधिष्ठिर द्यूत-क्रीड़ा का प्रेमी है, अतएव वह तुम्हारे निमन्त्रण पर वह अवश्य ही आयेगा और तुम तो जानते ही हो कि पासे के खेल में मुझ पर विजय पाने वाला त्रिलोक में भी कोई नहीं है। पासे के दाँव में हम पाण्डवों का सब कुछ जीत कर उन्हें पुनः दरिद्र बना देंगे।"

हस्तिनापुर पहुँच कर दुर्योधन सीधे अपने पिता धृतराष्ट्र के पास गया और उन्हें अपने अपमानों के विषय में विस्तारपूर्वक बताकर अपनी तथा मामा शकुनि की योजना के विषय में भी बताया और युधिष्ठिर को द्यूत-क्रीड़ा के लिये आमन्त्रित करने की अनुमति माँगी। थोड़ा-बहुत आनाकनी करने के पश्चात् धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को अपनी अनुमति दे दी। युधिष्ठिर को उनके भाइयों तथा द्रौपदी के साथ हस्तिनापुर बुलवा लिया गया। अवसर पाकर दुर्योधन ने युधिष्ठिर के साथ द्यूत-क्रीड़ा का प्रस्ताव रखा जिसे युधिष्ठिर ने स्वीकार कर लिया।

पासे का खेल आरम्भ हुआ। दुर्योधन की ओर से मामा शकुनि पासे फेंकने लगे। युधिष्ठिर जो कुछ भी दाँव पर लगाते थे उसे हार जाते थे। अपना समस्त राज्य तक को हार जाने के बाद युधिष्ठिर ने अपने भाइयों को भी दाँव पर लगा दिया और शकुनि धूर्तता करके इस दाँव को भी जीत गया। यह देख कर भीष्म, द्रोण, विदुर आदि ने इस जुए का बन्द कराने का प्रयास किया किन्तु असफल रहे। अब युधिष्ठिर ने स्वयं अपने आप को दाँव पर लगा दिया और शकुनि की धूर्तता से फिर हार गये।

राज-पाट तथा भाइयों सहित स्वयं को भी हार जाने पर युधिष्ठिर कान्तिहीन होकर उठने लगे तो शकुनि ने कहा, "युधिष्ठिर! अभी भी तुम अपना सब कुछ वापस जीत सकते हो। अभी द्रौपदी तुम्हारे पास दाँव में लगाने के लिये शेष है। यदि तुम द्रौपदी को दाँव में लगा कर जीत गये तो मैं तुम्हारा हारा हुआ सब कुछ तुम्हें लौटा दूँगा।" सभी तरह से निराश युधिष्ठिर ने अब द्रौपदी को भी दाँव में लगा दिया और हमेशा की तरह हार गये। अपनी इस विजय को देख कर दुर्योधन उन्मत्त हो उठा और विदुर से बोला, "द्रौपदी अब हमारी दासी है, आप उसे तत्काल यहाँ ले आइये।"