12 जून 2010

भारतीय संस्कृति एवं सिनेमा में खल-नायक (रावण) की बदलती हुई अवधारणा

भारतीय संस्कृति एवं सिनेमा में रावण खलनायक, बुराई और बुरी शक्तियों का सबसे महत्तवपूर्ण प्रतीक है जबकि पशिचमी समाज एवं हालीवुड के सिनेमा में शैतान खलनायक, बुराई और बुरी शक्तियों का सबसे महत्तवपूर्ण प्रतीक है। बुराई और बुरी शक्तियों का प्रतीक होने के बावजूद रावण पश्चिमी सभ्यता के अर्थों में शैतान या शैतानी शक्ति नहीं है। पश्चिमी सभ्यता में शैतान न सिर्फ परमेश्वर का विरोधी है बल्कि वह अपने आप में परम स्वायत्ता है। पश्चिम में शैतान की अवधारणा के विपरीत भारतीय संस्कृति में रावण न सिर्फ ईश्वर की रचना है बल्कि वह भगवान शिव का महान भक्त और शैवागम का परम विद्वान भी है। रामायण की शब्दावली में उसे राक्षस कहा गया है। भारत की लोक संस्कृति में रावण सनातनी खलनायक माना जाता है। रावण आज एक व्यक्ति न रहकर प्रतीक बन गया है। भारतीय संस्कृति में वह छल, कपट और दुष्टता का प्रतीक पुरूष माना जाता है। इसके बावजूद भारतीय संस्कृति रावण को पश्चिमी अर्थों में शैतान या ईश्वर विरोधी स्वायत्ता शक्ति नहीं मानती। इसके विपरीत भारतीय संस्कृति रावण को ईश्वरीय योजना का महत्वपूर्ण अंग मानती है। भारतीय संस्कृति मानती है कि जहाँ भी जीवन है, वह अमृत के कारण है चाहे वह दशरथ पुत्र राम का जीवन हो या दशानन रावण का जीवन। यदि संसार सनातन दृष्टि से एक 'लीला' है तो रावण की भूमिका भी किसी महत् उद्देश्य से ही लिखी गई होगी । सामी दृष्टि में एक साथ दो साम्राज्य स्वीकार किये गये हैं - (1) ईश्वर का साम्राज, (2) शैतान का साम्राज। सनातनी परंपरा में एक ही साम्राज है धर्म का साम्राज । धर्म वह है जो धारण करता है, जीवन का आधार है, जो अस्तित्व और अमृत का आधार है। भारतीय संस्कृति मानती है कि रावण की नाभि में भी अमृत है। फलस्वरूप जब तक नाभि में तीर नहीं मारा जायेगा, तब तक 'रावण' नहीं मरेगा। नाभि में तीर लगते ही रावण के अंदर कैद अमृत सारे संसार में फैल जायेगा। तब रावण अपने आप 'मर' जायेगा। यह एक मिथक है। भारतीय संस्कृति का यह सनातन मिथक आज भी प्रासंगिक है।

हमें भी समझना होगा कि 21वीं सदी का रावण कौन है। वह रावण अमेरिका नहीं है, न विश्व मुद्रा कोष या विश्व बैंक ही है । यदि बहुराष्ट्रीय कंपनियों को हम रावण समझते हैं, तो यह भी हमारा भोलापन है। गाँधी रावण के असली स्वरूप को समझते थे। परमहंस रामकृष्ण, श्रीअरंविन्द इत्यादि भी रावणत्व को समझते थे। बुध्द भी इस सनातनी रावण को समझते थे परन्तु हजार बरस की गुलामी ने हमें मानसिक रूप से वहाँ ले जा कर छोड़ा है, जहाँ हम अपने पुरखों की पूजा तो करते हैं पर उनसे प्रेरणा नहीं ले सकते। हम उनसे अपनापन तो महसूसते हैं पर उनके प्रयोगों का महत्त्व नहीं समझते।

भगवान बुध्द, आचार्य नागार्जुन, गुरू गोरखनाथ, आचार्य रामानुज, माहात्मा कबीर, गुरूनानक, संत रैदास, संत मीराबाई, समर्थ रामदास, परमहंस रामकृष्ण, एवं महात्मा गाँधी जैसे महापुरूष कलियुगी सनातनता के प्रेरणा पुंज हैं। इनके आलोक में हमें नहीं लगता कि पश्चिम से हमें ज्ञान, विज्ञान या आधुनिकता सीखने की जरूरत है। सनातन परंपरा पुरानी कब पड़ती है ? सनातन परंपरा को पुनर्नवा यूँ ही नहीं कहा गया है। इसमें सतत अंकुरन होते रहता है। हमेशा पुनर्रचना होते रहती है। यह पुनर्रचना समाज में, प्रतीकों में, शास्त्रों में और कलाओं में भी होता है। रावण की अवधारणा तो नहीं बदलती लेकिन रावण का स्वरूप एवं आवरण बदलते रहती है। रावण् को समझने के लिए मिथकों की परंपरा को समझना आवश्यक है। यह याद रखना आवश्यक है कि रामायण और महाभारत प्रतीक शास्त्र हैं, ये ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं हैं। सनातन परंपरा में कालजयी शास्त्रों की ही रचना होती है। शास्त्रों की भाषा प्रतीकों की कूट भाषा होती है। इसको पढ़ने की कला और तकनीक गुरू-शिष्य परंपरा को संस्थानिक आधार देता है। इसी परंपरा और इसी आधार के संदर्भ में रावण को समझा जा सकता है। पश्चिमी शैतान की अवधारणा से तुलना करके नहीं समझा जा सकता।

हम रावण से क्यों हारते हैं ? रावण कौन है ? वह कैसे मरेगा ? ये सनातन प्रश्न है। प्रश्न हमे याद हैं परन्तु इसके सनातन उत्तर हम भूल चुके हैं। इसका ऐतिहासिक उत्तर भी हम नहीं देते। हम मानते हैं कि रावण्ा अब भी शुक्रनीति पढ़ता है जबकि बृहस्पति राजधर्मसूत्र हमारे लिए पुरातात्विक महत्त्व की चीज है। हम मानते हैं कि चाणक्य के अर्थशास्त्र से हमारा काम चल जाएगा, अब भी चल जाएगा पर हम यह जानने की कोशिश नहीं करते कि रावण आजकल कौन-सा शास्त्र पढ़ता है और क्या सचमुच बृहस्पति के राजधर्मसूत्र की तुलना में चाणक्य का अर्थशास्त्र हमारे युग के ज्यादा अनुकूल है? एक तरफ हम मानते हैं कि राम ने विभीषण, हनुमान, सुग्रीव आदि के बल पर, उनकी सहायता से रावण को हराया था, दूसरी तरफ हम स्वदेशी की बात करते हैं। क्या विभीषण स्वदेशी था? स्वदेशी में 'स्व' प्रमुख है या 'देश'? राष्ट्र का अर्थ क्या सचमुच 'नेशन' होता है या 'सिविलाइजेशन' होता है ? इन मूल प्रश्नों का उत्तर कैसे दिया जाता है हमारे यहाँ, और कैसे दिया जाता है रावण के यहाँ ? इसको सभ्यताओं के समाजशास्त्र के तहत ही समझा जा सकता है। दुर्भाग्य से महात्मा गाँधी के बाद इस देश में सभ्यता समीक्षा की परंपरा मृतप्राय है।

कभी हमारे यहाँ गुरूकुल होता था और रावण के यहाँ केवल गुरू थे, शुक्राचार्य। आज रावण के यहाँ गुरूकुल है और हमारे यहाँ गुरू तो होते हैं, उनका वंश नहीं चलता। हमारे यहाँ केवल गृहस्थों के वंश चलते हैं, जैविक वंश चलते हैं, जबकि रावण के यहाँ गुरूकुलों में बौध्दिक और आध्यात्मिक वंश चलता है। एक युग के केंद्र में सामान्यत: एक ही गुरू या एक ही राष्ट्र -राज्य या एक ही गुरूकुल होता है। जब तक भारत में नालंदा बौध्द गुरूकुल नहीं हुआ था वह सनातन परंपरा का संयुक्त केंद्र था। फिर नालंदा बौध्द गुरूकुल हो गया। दुर्भाग्य से भारत के तत्कालीन हिन्दू मानस ने बौध्द आविष्कारों और बौध्द पध्दत्ति के साथ अपने को उस तरह नहीं जोड़ा जिस तरह वे तक्षशिला के गुरूकुल के साथ जुड़ा महसूस करते थे। श्री गोपीनाथ कविराज ने लिखा है कि ईसाई द्वितीय शतक से लेकर द्वादश शतक तक भारत में बौध्दमत का प्रमुख स्थान रहा है। इसके बावजूद बौध्द - दर्शन एवं धर्म का परिचय प्राय: लोगों को नहीं है। पूर्वकाल में भी इसका ज्ञान सब लोगों को नहीं था। साधारण जनता की बात तो दूर रही, बड़े - बड़े पण्डित भी इससे वंचित थे। इसलिए प्राचीन समय में कोई - कोई आचार्य बौध्दमत के पूर्वपक्ष - स्थापना के प्रसंग में निरसनीय मत के सम्यक्ज्ञान से अभिज्ञ न थे। इसका प्रधान कारण हिन्दू समाज में बौध्दों के प्रामाणिक ग्रन्थों के पठन - पाठन का अभाव था। ग्रन्थों के उपलब्ध होने पर भी व्यक्तिगत कुसस्कारों तथा दूसरे मत या सम्प्रदाय के प्रति उपेक्षा भाव के कारण सहृदय आलोचना का अभाव था। बौध्द धर्म में जीवन के आदर्श के संबंध में प्राचीन काल से ही दो मत रहे हैं - प्रथम - मलिन वासना के क्षय का सिध्दान्त है। इसका स्वाभाविक फल मुक्ति या निर्वाण है। दूसरा - वासना का शोधन है। इससे शुध्द - वासना का आविर्भाव होता है और देह - शुध्दि होती है। देह - शुध्दि के द्वारा विश्व - कल्याण या लोक - कल्याण का सम्पादन किया जा सकता है। अंत में शुध्द वासना भी नहीं रहती और पूर्णत्व या बुध्दत्व प्राप्त होता है। पहली दृष्टि स्थविरवादियों एवं दूसरी दृष्टि महायानियों का है। स्थविरवादी परंपरा जैन परंपरा एवं निर्गुण भक्ति साधना की परंपरा के ज्यादा नजदीक है जबकि महायानी परंपरा वृहतर हिन्दू समाज की मुख्यधारा का सहधर्मी रहा है। फलस्वरूप यह आश्चर्यजनक बात लगती है कि तत्कालीन हिन्दू समाज के प्रभु वर्ग ने नालंद गुरूकुल को, तक्षशिला के नष्ट होने पर भी, अपनी आस्था और प्रेरणा का स्रोत नहीं बनाया। मौर्य साम्राज्य से लेकर शुंग वंश के शासन काल तक भारतीय संस्कृति में बौध्द, जैन एवं हिन्दू सम्प्रदायों के बीच राज्य संस्था को एवं समाज व्यवस्था को चलाने की दृष्टि से काफी प्रतियोंगिता रही है। मौर्य साम्राज्य के निर्माण से पहले तक इनके अनुयायियों में वर्गगत, समूहगत या समुदायगत विभाजन रूढ़ नहीं हुआ था। मुनि, भिक्षु या ऋषि या सन्यासी तो सम्प्रदायों में विभक्त थे किन्तु आमजन गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए स्थानीय मुनि, भिक्षु या सन्यासी, ऋषि के पास अपनी ईच्छा, पंसद या आवश्यकतानुसार आया - जाया करते थे। सम्प्रदायों के बीच स्थानीय समुदाय या स्थानीय व्यवस्था को प्रभावित करने की दृष्टि से प्रतियोगिता अवश्य थी। इनमें सौध्दांतिक एकता तो आजतक बनी हुई है लेकिन व्यावहारिक रूप से इनके अनुयायियों के बीच भी साम्प्रदायिक विभजन का आरंभ चन्द्रगुप्त मौर्य के समय से ही प्रारंभ हुआ। आचार्य चाणक्य की इच्छा के विरूध्द सम्राट चन्द्रगुप्त खुद जैन मुनि हो गए। वाचिक परंपरा के अनुसार सम्राट बिन्दुसार हिन्दू परंपरा के रक्षक बने रहे लेकिन आचार्य चाणक्य का उन्होंने तिरस्कार किया। सम्राट अशोक ने कलिंग युध्द के पश्चात् बौध्द धर्म में दीक्षा लेकर मोगलीपुत्ता तिष्य के मार्गदर्शन में बौध्द धर्म के प्रचार - प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। सम्राट अशोक के उत्ताराधिकारी बौध्द बने रहे। अंतिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ की हत्या उनके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने की। शुंग वंश के शासनकाल में हिन्दू शास्त्रों के नये संस्करण बनें और बौध्दमत की साम्प्रदायिक उपेक्षा शुरू हुई। पुष्यमित्र शुंग के प्रेरणास्रोत महर्षि पतंजलि माने जाते हैं। आचार्य नागार्जुन से आचार्य शंकर तक का काल परस्पर सम्मान से लेकर परस्पर उपेक्षा के मध्य साम्प्रदायिक संगठन एवं सैध्दांतिक एकता तथा सामाजिक समरसता का काल रहा है। आचार्य वाचस्पति मिश्र के काल से भगवान बुध्द के प्रति व्यक्तिगत सम्मान तो बना रहा लेकिन उनके मत, उनकी पध्दति, उनके तकनीक तथा उनके नाम पर चलने वाले सम्प्रदायों के बारे में नासमझी और कुप्रचार बलवती होती गई। अंग्रेजी राज में इस नासमझी एवं कुप्रचार को आकादमिक संपोषण एवं सैध्दांतिक आधार दिया गया। 1958 में बाबा साहब डा. भीमराव अंबेडकर द्वारा अपने अनुयायियों सहित बौध्द धर्म की दीक्षा लेने के बाद से निहित स्वार्थी समूहों ने दोनों सम्प्रदायों के बीच की खाई और चौड़ी करने की कोशिश शुरू किया। आंनद कुमारस्वामी, जे. कृष्णमूर्ति, ओशो रजनीश, दलाई लामा, भरतसिंह उपाध्याय एवं सत्यनारायण गोयनका जैसे व्यक्तियों के प्रभाव में बौध्द परंपरा एवं हिन्दू परंपरा के बीच की एकता अब पुन: मजबूत हुई है। भारतीय संस्कृति में नालंदा और तक्षशिला को समान आदर से याद किया जाता है। परंतु वाचिक परंपरा में अब भी यह तथ्य रेखांकित किया जाता है कि सिकन्दर के भारत में आक्रमण से पूर्व एवं मौर्य साम्राज्य स्थापित होने से पहले आचार्य चाणक्य तक्षशिला गुरूकुल को मगध में स्थानांतरित या पुनर्जीवित करना चाहते थे, नालंदा गुरूकुल को मजबूत करना या अपनाना उनका उद्देश्य नहीं था। चाणक्य ने नंद साम्राज्य के बदले मौर्य साम्राज्य की नींव डाली। पर गुरूकुल स्थानांतरित नहीं हुआ। साम्रज्य बनाना आसान होता है गुरूकुल बनाना मुश्किल काम है। इतिहास लिखना आसान होता है, पुराण लिखना मुश्किल काम है। तक्षशिला गुरूकुल तो नष्ट हो गया पर वहाँ की किताबें कहाँ गई? इस प्रश्न का उत्तर खोजना काफी दिलचस्प हो सकता है।
एक मान्यता यह है कि अपने विश्व विजय के दौरान अपने बचपन के गुरू अरस्तु की प्रेरणा से प्रेरित सिकंदर पर्शिया (फारस) एवं उत्तर-पश्चिमी भारत के अपने सैनिक एवं राजनैतिक अभियान के दौरान अन्य चीजों के अलावे किताबों के संग्रह के प्रति भी काफी सचेत था। कुछ पुस्तकें तो सिकंदर के अभियान के तहत यूनान पहुँच गईं, जो बचा ली गईं उन पुस्तकों को तक्षशिला के पंडितों ने भारत के अन्य प्रदेशों में सुरक्षित रूप से संरक्षित कर लिया। परंतु संस्थागत सहयोग न मिलने के कारण उनका अपेक्षित उपयोग नहीं हो पाया। दूसरी ओर नालंदा का गुरूकुल अपने बौध्द स्वरूप में मुस्लिम आक्रमण शुरू होने से पहले तक न सिर्फ अस्तित्व में रहा बल्कि अपनी सीमा के अंदर काफी सक्रिय भी रहा। 'मुस्लिम आक्रमण के बाद नालंदा का बौध्द विहार एवं गुरूकुल तो नष्ट कर दिया गया परन्तु इस परंपरा के सौभाग्य से नालंदा विश्वविद्यालय की ज्यादातर पुस्तकें सही समय पर तिब्बत में स्थानांतरित कर दी गईं और संस्थागत सहयोग मिलने के कारण अपने तिब्बती स्वरूप एवं संस्करण में आज भी जीवंत बनी हुई है (डी। डी. कोशांबी एवं इंग्लस - हारवर्ड ओरियंटल सीरिज)।

इतिहास चक्र की विडंबना देखिये कि एथेंस में किताबें पहुँची पर विश्व विजय का स्वप्न देखने वाला सिकंदर वापस नहीं पहुँचा। रास्ते में ही उसकी मृत्यु हो गयी। राजा मर गया, पर सेनापति (सेल्युकस) जिंदा रहा। सेनापति बदलते रहे। सेनाएँ बदलती रहीं। साम्राज्य बनते और बिगड़ते रहे। अरस्तु के बाद रावण के यहाँ गुरू का महत्त्व गौण हो गया और गुरूकुल चलता रहा। गुरूकुल रूपि संस्था का महत्त्व बढ़ गया। संस्थाएँ सनातनता का बोध कराने लगीं, गुरू क्षणभंगुर चमत्कार के वाचक हो गए और रावण जीतता रहा। हम सभी सनातन परंपरा के भग्नावशेष हारते रहे। ऐथेंस के बाद रोम, फ्लोरेंस, कैंब्रिज/ऑक्सफोर्ड - अब हार्वर्ड बिजनेस स्कूल ... रावण् की आत्मा - अमृत-कलश - गुरूकुल - शब्द ब्रह्य का रूपांतरण एवं स्थानांतरण होता रहा - पुनर्नवता बनी रही और वे उसी सनातन धर्म से जीतते रहे जिससे कभी हम जीतते थे। यह मत भूलिये वे हमारे सौतेले भाई हैं। खून का रिश्ता है हमारे बीच। एक ही पिता (कश्यप) की संतानें हैं हम सब। केवल माताएँ (दिति, दनु, अदिति) अलग हैं। विरासत में साझा अधिकार था हमारा। हमने दावा छोड़ दिया, उन्होंने नहीं छोड़ा। हमने निहत्थे, युध्द न करने के शपथ से बंधे कृष्ण को पूजा की वस्तु बना लिया और दुर्योधन से प्रेरणा ले कर यादवी सेना (संगठन) बनाने की जुगत करते रहे। आंदोलन पर आंदोलन करते रहे। अब कृष्ण भी क्या करें ? जो लोग व्याकरण भूल कर शब्दों और वाक्यों को मारने के लिए सेना और संगठन बनाते चलते हैं, उनके द्वारा पूजे जाने पर कृष्ण की क्या हालत होती होगी?

ऐसा नहीं था कि तक्षशिला के ध्वंस के बाद हमारे यहाँ गुरूकुल नहीं था। पर हमने नालंदा को बौध्द संस्था मानकर उसे असनातन मान लिया। बुध्द को वैष्णवों ने नौवां (नवम् ) अवतार मानकर पूजना शुरू कर दिया, पर बौध्द संस्थाएँ सामाजिक प्रेरणा के बदले सामाजिक उपहास की चीज बनी रहीं। धीरे-धीरे समाज दो भागों में बंट गया। समाज के जिस हिस्से को बौध्द संस्थाओं से प्रेरणा मिलती रही वे इस्लाम के आक्रमण तक उर्ध्ववान बनी रहीं। पर इस्लाम के आने के बाद बौध्द संस्थाएँ दोहरे दबाव में दम तोड़ने लगीं।

मध्यकाल में भक्ति आंदोलन ने सनातन धर्म एवं संस्कृति को पुनर्जीवन दिया। वैदिक एवं श्रमण, हिन्दू एवं बौध्द परंपराओं का द्वन्द्व समाप्त किया गया। कुछ संत तो हिन्दू - मुस्लिम एकता के लिए भी प्रयासरत हुए। लेकिन सनातन भारतीय सभ्यता को संरक्षित - संवर्धित करने के लिए सम्प्रदाय निरपेक्ष गुरूकुल चाहिए था। भक्ति संत भारतीय संस्कृति की रक्षा करने में तो सफल रहे परन्तु उनकी साम्प्रदायिक उपासना पध्दति सभ्यता मूलक विमर्श चलाने में सक्षम नहीं रह पायी। सभ्यता की रक्षा केवल व्यक्तिगत प्रतिबध्दता एवं साम्प्रदायिक उपासना के बल पर नहीं की जा सकती। इसके लिए केवल लोक संस्कृति को बचाना काफी नहीं है। सभ्यता के संरक्षण - संवर्धन के लिए शास्त्र चाहिए, गुरूकुल चाहिए, प्रशिक्षित विशेषज्ञ चाहिए। सभ्यता के संरक्षण - संवर्धन के लिए सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण तीनों का संतुलन चाहिए । ज्ञानमार्ग, भक्तिमार्ग और कर्ममार्ग तीनों का संतुलन वाहिए। एक 'व्यवस्था ' चाहिए। ' व्यवस्था ' और ' गुरूकुल ' के अभाव में सभ्यतायें कमजोर होकर मरने लगती हैं। संतुलन के अभाव में व्यक्ति ' रावण ' बन जाता है। रावण असंतुलित व्यक्ति है। उसके अलग - अलग गुण श्लाघनीय हैं लेकिन उसके पूरे व्यक्तित्व में असंतुलन है। रावण की दुष्टता का आधार उसका स्वभाव नही अधूरापन और असंतुलन है। जैसा कि महात्मा गाँधी ने अपनी महान कृति हिन्द स्वराज में कहा है आधुनिक सभ्यता एक शैतानी सभ्यता है। आधुनिकता एक रोग है, एक कमजोरी है। इस आधुनिकता ने पारंपरिक रावण को समझने की शक्ति हमसे छीन ली है। हम रावण को अपने अंदर नहीं देखकर अपने विरोधियों में ढूंढ़ने लगे हैं। यह असनातनी दृष्टि है। सनातनी दृष्टि में रावण हमारे समाज के अंदर है। वह हमारा सगा है। वह हमारी मध्यवर्गीय चेतना के अंदर है। हमें रावण ने जीता नहीं है, हमने उसे अतिथि का सम्मान दिया है। उसकी लंका की चमक-दमक ने हमें लालची बनाया है। हम भी अपने समाज को लंका बनाना चाहते हैं। हम भी लंकेश बनना चाहते हैं। यह चाहत स्वाभाविक नहीं है। यह हार्वर्ड बिजनेस स्कूल द्वारा फैलाया गया भ्रमजाल है। यही रावण की शक्ति का आधार है। यही उसकी नाभी का अमृत है। जब तक यह चाहत हममें कायम है रावण नहीं मरेगा। एनरॉन को मार लो या केंटुकी चिकेन को, कोकाकोला को मार लो या पेप्सी कोला को या मैकडोनाल्ड को मार लो। रावण तब तक जिन्दा रहेगा जब तक हार्वर्ड बिजनेस स्कूल जिन्दा है। उसका भ्रमजाल जिन्दा है, इस भ्रमजाल के शिकार लोग जिन्दा हैं, हमारे बीच जिन्दा हैं। उसको मारना संभव है। उसके लिए संकल्प लेना होगा। प्रायश्चित करना होगा। अपनी खोयी विरासत को पाने के लिए नयी स्मृति, नया व्याकरण और नया गुरूकुल चलाना होगा। महात्मा गाँधी द्वारा लिखित हिन्द स्वराज का पाठ उपरोक्त दृष्टि से सही चेतना के निर्माण और उपयुक्त प्रेरणा के विकास में हमारा सबसे स्वाभाविक संबल साबित हो सकता है।

जिन्दगी का दिव्य स्वरूप और हिन्द स्वराज ( Divine nature of life and Hind Swaraj )

1। पश्चिम की सांस्कृतिक आलोचना ने भारतीय साहित्य एवं संस्कृति के बारे में समीक्षा दृष्टि के देशी स्रोत सुखा दिए हैं। रस, ध्वनि, वक्रोक्ति, औचित्य ,गुण, सौन्दर्य दर्शन , व्याकरण दर्शन का पूरा प्रवाह इस मरूस्थल ने पी लिया है। वह भी महात्मा गांधी , टैगोर, रामचन्द्र शुक्ल, निराला, प्रसाद, हजारी प्रसाद द्विवेदी, अज्ञेय, मुक्तिबोध, विजयदेव नारायण साही, निर्मलवर्मा आदि के प्रयासों के बावजूद!

तकनीक के विकास ने मानव के अंतर्जगत को खोखला कर दिया है और बाहरी जगत पर चेतना का नहीं, देहवादी उपभोक्तावाद का कब्जा है। सिनेमा, थिएटर,रेडियो, दूरदर्शन अब क्लासरूम नहीं रहे, न इनमें साहित्य को स्थान है और न कला, शास्त्रीय संगीत को। संस्कृति उद्योग का जोर 'प्रभाव' पर है। प्रभाव का केवल स्टाइल पर । स्टाइल में कथ्य गायब है- केवल क्षणभंगुर चमत्कार है। इस चमत्कारिक स्टाइल से अतृप्ति का तनाव उपजता है। संतोष, तृप्ति या मूल्यवान स्मृति का जन्म नहीं होता। इस चेतना से महात्मा गांधी की कृति हिन्द स्वराज नहीं पढ़ा जा सकता। हिन्द स्वराज पढ़ने के लिए आम आदमी के सामान्य जिन्दगी में संगीत और उत्सव को खोज पाने की दृष्टि चाहिए। सनसनी की खोज में रहने की आदत से अतृप्ति और बदहवासी मिलती है। इस आदत से लाचार लोगों को हिन्द स्वराज पढ़ने में ऊब महसूस होती है, समझ में आना तो दूर की बात है। हिन्द स्वराज में जिन्दगी के दिव्य स्वरूप का कथ्य है, सनसनी फैलाने वाले उद्योग का स्टाइल नहीं है।

2. 13 नवम्बर से 22 नवम्बर 1909 के बीच हिन्द स्वराज की रचना महात्मा गांधी ने की थी। बीस अध्यायों में विभक्त यह पुस्तिका गांधी जी के दर्शन का बीज -पाठ है। लगभग 39 साल तक महात्मा गांधी अपने जीवन एवं कर्म को इसी दर्शन के अनुसार जीते रहे। समय के साथ इसमें उनका विश्वास और गहरा होता चला गया। इस पुस्तक में गांधी जी के संपूर्ण सरोकारों की अभिव्यक्ति हो गई है। 20 मार्च 1910 को हिन्द स्वराज के अंग्रेजी अनुवाद की भूमिका में उन्होंने माना कि मूल गुजराती पाठ में कुछ खामियां रह गई थीं। परन्तु वक्त के साथ गांधी जी का इसमे विश्वास इतना बढ़ गया था कि उन्हे हिन्द स्वराज के मूल पाठ को संशोधित करने की भी जरूरत नहीं महसूस हुई। वे अन्त तक हिन्द स्वराज के मूल पाठ को एक बुनियादी ग्रंथ मानते रहे। एक ऐसा ग्रंथ जो आधुनिक औद्योगिक सभ्यता को संहारकारी मानकर एक वैकल्पिक सभ्यता की रूपरेखा और उसकी वांछनीयता प्रस्तुत करता है। विरोधियों के अनुसार 'हिन्द स्वराज एक मूर्ख की रचना है। इसमें व्यक्त विश्व-दृष्टि न केवल अव्यावहारिक है, बल्कि किसी भी आधुनिक समाज और राष्ट्र के लिए विनाशकारी भी है।'
1945 में पहली और आखिरी बार देश में हिन्द स्वराज के बरते जाने का प्रस्ताव आया और एक ही झटके में ठुकरा दिया गया। उनके पुराने और अंतरंग सहयोगी भी हिन्द स्वराज को गांधी की आंख से नहीं देख सके।

इक्कीसवीं सदी की बदहाली ऐसी है कि आज विकल्प की बात गांधी जी के समय से भी ज्यादा आकर्षक लगती है। पर हिन्द स्वराज में विकल्प का जो तर्क है अथवा जिस आमूल चूल परिवर्तन की अनिवार्य शर्त है उसमें यह ग्रंथ बहुत लोगों को आज भी अव्यवहारिक और काल बाह्य लगता है । वर्तमान आधुनिक चेतना के पास वैकल्पिक भाषा और भावबोध का न साहस है न सामर्थ्य।
हिन्द स्वराज में एक वैचारिक समग्रता है। आधुनिक सभ्यता अब तक अपनी जड़ें काफी गहराई तक जमा चुकी है। इससे मोहभंग होने के बाद भी लोग अपनी आधुनिक चेतना में हिन्द स्वराज को सिर्फ आंशिक तरीके से हीं समझ या मान सकने के स्थिति में हैं। समग्रता में हिन्द स्वराज को स्वीकारने के लिए पारम्परिक दृष्टि एवं चेतना चाहिए वर्ना जिन्दगी का दिव्य स्वरूप कायम नहीं रह पाएगा।

विष्णु और शिव में भेद

शिव और विष्णु में कोई भेद नहीं है। वे दोनों तो परस्पर एक-दूसरे के पूरक तत्व हैं। पुराणों के अनुसार जब-जब शिव या विष्णु पर कोई विपत्ति आई है, उन्होंने एक-दूसरे की मदद करने में देर नहीं लगाई है। श्रीरामचरितमानस में भी विष्णु ने कहा है- शिव का द्रोही तो हमारा दास कभी हो ही नहीं सकता और न ही वह मेरी कृपा हासिल कर सकता है।

इसी प्रकार रामेश्वरम में विष्णु के अवतार श्रीरामचंद्र ने शिवलिंग की स्थापना कर शिव के प्रति अपनी अनन्य भक्ति का परिचय दिया। एक और प्रसंग भी मिलता है कि जब शिव की पूजा करते वक्त विष्णु को पुष्प न मिलने पर उन्होंने अपने कमल समान नेत्र चढ़ाकर अपनी पूजा को पूर्ण किया था।

08 जून 2010

महाभारत - द्रौपदी की लाज रक्षा

दुःशासन द्रौपदी के वस्त्र को खींचने के अपने प्रयास में लगा ही हुआ था। द्रौपदी ने जब वहाँ उपस्थित सभासदों को मौन देखा तो वह द्वारिकावासी श्री कृष्ण को टेरती हुई बोली, "हे गोविन्द! हे मुरारे! हे कृष्ण! मुझे इस संसार में अब तुम्हारे अतिरिक्त और कोई मेरी लाज बचाने वाला दृष्टिगत नहीं हो रहा है। अब तुम्हीं इस कृष्णा की लाज रखो।"
भक्तवत्सल श्री कृष्ण ने द्रौपदी की पुकार सुन ली। वे समस्त कार्य त्याग कर तत्काल अदृश्यरूप में वहाँ पधारे और आकाश में स्थिर होकर द्रौपदी की साड़ी को बढ़ाने लगे। दुःशासन द्रौपदी की साड़ी को खींचते जाता था और साड़ी थी कि समाप्त होने का नाम ही नहीं लेती थी। साड़ी को खींचते-खीचते दुःशासन शिथिल होकर पसीने-पसीने हो गया किन्तु अपने कार्य में सफल न हो सका। अन्त में लज्जित होकर उस चुपचाप बैठ जाना पड़ा। अब साड़ी के उस पर्वत के समान ऊँचे ढेर को देख कर वहाँ बैठे समस्त सभाजन द्रौपदी के पातिव्रत की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करने लगे और दुःशासन को धिक्कारने लगे। द्रौपदी के इस अपमान को देख कर भीमसेन का सारा शरीर क्रोध से जला जा रहा था। उन्होंने घोषणा की, "जिस दुष्ट के हाथों ने द्रौपदी के केश खींचे हैं, यदि मैं उन हाथों को अपनी गदा से नष्ट न कर दूँ तो मुझे सद्गति ही न मिले। यदि मैं उसकी छाती को चीर कर उसका रक्तपान न कर सकूँ तो मैं कोटि जन्मों तक नरक की वेदना भुगतता रहूँ। मैं अपने भ्राता धर्मराज युधिष्ठिर के वश में हूँ अन्यथा इस समस्त कौरवों को मच्छर की भाँति मसल कर नष्ट कर दूँ। यदि आज मै स्वामी होता तो द्रौपदी को स्पर्श करने वाले को तत्काल यमलोक पहुँचा देता।"

भीमसेन के वचनों को सुन कर भी अन्य पाण्डवों तथा सभासदों को मौन देख कर दुर्योधन और अधिक उत्साहित होकर बोला, "द्रौपदी! मैं तुम्हें अपनी महारानी बना रहा हूँ। आओ, तुम मेरी बाँयीं जंघा पर बैठ जाओ। इन पुंसत्वहीन पाण्डवों का साथ छोड़ दो।" यह सुनते ही भीम अपनी दुर्योधन के साथ युद्ध करने के लिये उठ खड़े हुये, किन्तु अर्जुन ने उनका हाथ पकड़कर उन्हें रोक लिया। इस पर भीम पुनः दुर्योधन से बोले, "दुरात्मा! मैं भरी सभा में शपथ ले कर कहता हूँ कि युद्ध में तेरी जाँघ को चीर कर न रख दूँ तो मेरा नाम भीम नहीं।"

इसी समय सभा में भयंकर अपशकुन होता दिखाई पड़ा। गीदड़-कुत्तों के रुदन से पूरा वातावरण भर उठा। इस उत्पात को देखकर धृतराष्ट्र और अधिक मौन न रह सके और बोले उठे, "दुर्योधन! तू दुर्बुद्धि हो गया है। आखिर कुछ भी हो, द्रौपदी मेरी पुत्र वधू है। उसे तू भरी सभा में निर्वसना कर रहा है।" इसके पश्चात् उन्होंने द्रौपदी से कहा, "पुत्री! तुम सचमुच पतिव्रता हो। तुम इस समय मुझसे जो वर चाहो माँग सकती हो।" द्रौपदी बोलीं, "यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझे यह वर दें कि मेरे पति दासता से मुक्ति पा जायें।" धृतराष्ट्र ने कहा, "देवि! मैं तुम्हें यह वर दे रहा हूँ। पाण्डवगण अब दासता मुक्त हैं। पुत्री! तुम कुछ और माँगना चाहो तो वह भी माँग लो।" इस पर द्रौपदी ने कहा, "हे तात! आप मेरे पतियों के दिव्य रथ एवं शस्त्रास्त्र लौटा दें।" धृतराष्ट्र ने कहा, "तथास्तु"। पाण्डवों के दिव्य रथ तथा अस्त्र-शस्त्र लौटा दिये गये। धृतराष्ट्र ने कहा, "पुत्री! कुछ और माँगो।" इस पर द्रौपदी बोली, "बस तात्! क्षत्राणी केवल दो वर ही माँग सकती है। इससे अधिक माँगना लोभ माना जायेगा।"