30 मार्च 2010

आदर-सत्कार


एक गाँव में पुरुषोत्तम शर्मा नाम के एक पंडित रहते थे। सब यही कहते थे कि उन्होंने शास्त्रों का गहरा अध्ययन किया है और वे उच्च श्रेणी के विद्वान हैं। दूर के गाँव में रहनेवाले रघुपति एक बार उनसे मिलने आये। वे भी पंडित थे।

मध्याह्न भोजन के बाद दोनों चबूतरे पर बैठकर शास्त्र संबंधी वार्तालाप करने लगे। उस समय एक लकड़हारा उधर से गुज़र रहा था। पुरुषोत्तम शर्मा को देखते ही उसने सिर से भार उतारा और दोनों हाथ जोड़कर विनयपूर्वक नमस्कार किया।

पुरुषोत्तम शर्मा ने भी हाथ जोड़कर उसे नमस्कार किया और पूछा, "कैसे हो रतन? सब ठीक-ठाक चल रहा है न?"

रघुपति को इस पर आश्चर्य हुआ और उन्होंने पुरुषोत्तम शर्मा से पूछा, "यह आप क्या कर रहे हैं, शर्माजी? आप भला उस लकड़हारे को नमस्कार क्यों करते हैं?"

पुरुषोत्तम शर्मा ने इस पर हँसते हुए कहा, "रतन आदर-सत्कार का महत्व जाननेवाला आदमी है। हमारे पेशे अलग-अलग हो सकते हैं, परंतु हम सब मनुष्य ही ठहरे। हमारे शास्त्र व पुराण भी हमें यही बताते हैं। हमारा जो आदर-सत्कार करता है, उसका आदर-सत्कार करना भी हमारा कर्तव्य है। इसी में है हमारा गौरव और मर्यादा भी।