अनेक परिवारों में भोजन के पूर्व भगवान को भोग लगाने की परंपरा है। शास्त्र कहते हैं धान-दोष (अन्न का कुप्रभाव) दूर करने के लिए भोजन करने से पूर्व उसे परमात्मा को समर्पित करना चाहिए। सीधे भोजन न किया जाए उसे भोग बनाया जाए। भोजन भगवान को अर्पित होने के बाद प्रसाद बन जाता है। जीभ के भोजन को तो देव-अर्पित किया जाता है लेकिन जब हमें अपने कर्म का भोजन यानी प्रशंसा परोसी जाती है तब हम भगवान को भोग लगाना भूल जाते हैं। अपने प्रति हुई प्रशंसा का भोग भी परमात्मा को लगाना चाहिए। एक भक्त की घटना है। उसे समाज से प्रशंसा मिली तो उसने भगवान को परोस दी। भगवान भी ठिठोली के भाव में आ गए और पूछा इस भोजन को मुझे कुपथ्य मानकर परोस रहे हो या सुपथ्य मानकर? भक्त का जवाब था मेरे लिए तो कुपथ्य (परहेज) ही है, प्रशंसा पचाना विष से भी अधिक कठिन है लेकिन आप तो वष्रो से प्रशंसा ही सुन रहे हैं आप आसानी से पचा जाएंगे। मैं यदि सीधे प्रशंसा का भोजन कर लूंगा तो अहंकार की बीमारी से घिर जाऊंगा। आप पचाने में समर्थ हैं।हमारे समझने की बात यह है कि जीवन में विजय और सफलता मिले तो पहले प्रभु के सामने परोसें उसके बाद जो प्रसादी हमें मिलेगी उससे अहंकार के अपच होने की संभावना खत्म हो जाएगी। यहां यह भी समझ लें कि हमारे यहां प्रसादी के भी कुछ कायदे हैं। सबसे पहले भगवान को चढ़ाएं फिर समाज को बांटें उसके बाद स्वयं लें। शास्त्रों में तो यहां तक कहा है कि प्रसाद के मामले में हाथ में जितना लगा रह जाए उतने को ही अपना हिस्सा मानो। भोजन के संदर्भ हो सकता है यह कठिन लगे लेकिन प्रशंसा के भोजन में भोग लगाकर, प्रसाद बनाकर, बंटवारा कर, स्वयं प्राप्त करें।
25 अप्रैल 2010
प्रशंसा का भोग पहले भगवान को लगाएं
अनेक परिवारों में भोजन के पूर्व भगवान को भोग लगाने की परंपरा है। शास्त्र कहते हैं धान-दोष (अन्न का कुप्रभाव) दूर करने के लिए भोजन करने से पूर्व उसे परमात्मा को समर्पित करना चाहिए। सीधे भोजन न किया जाए उसे भोग बनाया जाए। भोजन भगवान को अर्पित होने के बाद प्रसाद बन जाता है। जीभ के भोजन को तो देव-अर्पित किया जाता है लेकिन जब हमें अपने कर्म का भोजन यानी प्रशंसा परोसी जाती है तब हम भगवान को भोग लगाना भूल जाते हैं। अपने प्रति हुई प्रशंसा का भोग भी परमात्मा को लगाना चाहिए। एक भक्त की घटना है। उसे समाज से प्रशंसा मिली तो उसने भगवान को परोस दी। भगवान भी ठिठोली के भाव में आ गए और पूछा इस भोजन को मुझे कुपथ्य मानकर परोस रहे हो या सुपथ्य मानकर? भक्त का जवाब था मेरे लिए तो कुपथ्य (परहेज) ही है, प्रशंसा पचाना विष से भी अधिक कठिन है लेकिन आप तो वष्रो से प्रशंसा ही सुन रहे हैं आप आसानी से पचा जाएंगे। मैं यदि सीधे प्रशंसा का भोजन कर लूंगा तो अहंकार की बीमारी से घिर जाऊंगा। आप पचाने में समर्थ हैं।हमारे समझने की बात यह है कि जीवन में विजय और सफलता मिले तो पहले प्रभु के सामने परोसें उसके बाद जो प्रसादी हमें मिलेगी उससे अहंकार के अपच होने की संभावना खत्म हो जाएगी। यहां यह भी समझ लें कि हमारे यहां प्रसादी के भी कुछ कायदे हैं। सबसे पहले भगवान को चढ़ाएं फिर समाज को बांटें उसके बाद स्वयं लें। शास्त्रों में तो यहां तक कहा है कि प्रसाद के मामले में हाथ में जितना लगा रह जाए उतने को ही अपना हिस्सा मानो। भोजन के संदर्भ हो सकता है यह कठिन लगे लेकिन प्रशंसा के भोजन में भोग लगाकर, प्रसाद बनाकर, बंटवारा कर, स्वयं प्राप्त करें।
Posted by Udit bhargava at 4/25/2010 08:54:00 am
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