28 मार्च 2010

उष्ट्रासन

इस आसन की अंतिम अवस्था में पहुँचने के बाद हमारे शरीर की आकृति कुछ-कुछ ऊँट के समान प्रतीत होती है, इसी कारण इसे उष्ट्रासन कहते हैं।

विधि : वज्रासन की स्थिति में बैठ जाते हैं, उसके बाद घुटनों के ऊपर खड़े होकर एड़ी-पंजे मिले हुए तथा पैरों के अँगूठे की आकृति अंदर की ओर रखते हैं। अब दोनों हाथों को सामने से ऊपर की ओर ले जाते हैं। दोनों हाथ को कान से मिलाकर रखते हैं। ऐसी स्थिति में दोनों हाथों के मध्‍य सिर रहता है।

उसके बाद स‍िर से जंघाओं का भाग पीछे की ओर उलटते हुए हाथ के पंजों से एड़ियों को पकड़ें या पगथलियों पर हथेलियाँ रखें। उसके बाद गर्दन को ढीला छोड़ते हुए कमर को ऊपर की ओर ले जाएँ तथा सिर पीछे की ओर लटका रहे, अर्थात झुका रहेगा। वापस आते समय दोनों हाथों को घुमाते हुए वापस आ जाते हैं तथा वज्रासन खोल देते हैं।

सावधानियाँ : जोर से या झटके से इस आसन को न करें। पीछे झुकते समय जंघा सीधी रखें। अंतिम स्थिति में गर्दन से लेकर घुटने तक का भाग सीधा रहेगा। वापस आते समय झटका देकर न आएँ। जिन लोगों को हर्निया की शिकायत हो, उन्हें यह आसन नहीं करना चाहिए।

लाभ : इस आसन से घुटने, ब्लडर, किडनी, छोटी आँत, लीवर, छाती, लंग्स एवं गर्दन तक का भाग एक साथ प्रभावित होता है, जिससे क‍ि उपर्युक्त अंग समूह का व्यायाम होकर उनका निरोगीपन बना रहता है। श्वास, उदर, पिंडलियों, पैरों, कंधे, कुहनियों और मेरुदंड संबंधी रोग में लाभ मिलता है।

उदर संबंधी रोग, जैसे कॉस्ट्रयूपेशन, इनडाइजेशन, एसिडिटी रोग निवारण में इस आसन से सहायता मिलती है। गले संबंधी रोगों में भी यह आसन लाभदायक है।