हनुमान के मुख से लंका का यह विशद वर्णन सुन कर रामचन्द्र बोले, "हे हनुमान! तुमने अपने कौशल और पराक्रम से मेरा काफी काम सरल कर दिया है। तुम लोगों की सहायता से मैं शीघ्र ही उसका विध्वंस कर सकूँगा। मेरी यह अटल प्रतिज्ञा है कि मैं अब थोड़े ही दिनों में राक्षस सेना सहित लंकापति रावण का विनाश करूँगा। और हे सुग्रीव! तुम शीघ्र ही वानर सेना को चलने का आदेश दो। अधिक विलम्ब न हो।"
रामचन्द्र जी का निर्देश पाते ही सुग्रीव ने मुख्य यूथपतियों तथा सेनापतियों को बुला कर आज्ञा दी, "हे वीर योद्धाओं! अब बिना अनुचित विलम्ब किये प्रस्थान की तैयारी करो ताकि शीघ्र रावण का वध कर के जनकदुलारी सीता को मुक्त कराकर उन्हें प्रभु से मिलाया जा सके।"
सुग्रीव की आज्ञा पाते ही सारी वानर सेना भारी गर्जना करती हुई अपने-अपने आवासों से बाहर निकली और वन का एक निर्जन प्रदेश सैनिक छावनी में परिवर्तित हो गया। लाखों और करोड़ों वानर आगे-आगे श्री रामचन्द्र, लक्ष्मण और सुग्रीव को ले कर जयजयकार करते हुये सागर तट की ओर चल पड़े। 'श्री रामचन्द्र की जय' और 'रावण की क्षय' की घोषणाओं से दसों दिशाएँ गूँजने लगीं। कुछ वानर बारी-बारी से दोनों भाइयों को अपनी पीठ पर चढ़ाये लिये जा रहे थे। उनको अपनी-अपनी पीठ पर चढ़ाने के लिये वे एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करने लगे। उनके चलने से सारा वातावरण धूलि-धूसरित हो रहा था। आकाश में चमकता हुआ सूर्य भी उस धूल से आच्छादित होकर फीका पड़ गया। जब वह सेना नदी नालों को पार करती तो उनके प्रवाह भी उसके कारण परिवर्तित हो जाते थे। चारों ओर वानर ही वानर दिखाई देते थे। वे मार्ग में कहीं विश्राम लेने के लिये भी एक क्षण को नहीं ठहरते थे। उनके मन मस्तिष्क पर केवल रावण छाया हुआ था। वे सोचते थे कि कब लंका पहुँचें और कब राक्षसों का संहार करें। इस प्रकार राक्षसों के संहार की कल्पना में लीन यह विशाल वानर सेना समुद्र तट पर जा पहुँची। अब वे उस क्षण की कल्पना करने लगे जब वे समुद्र पार करके दुष्ट रावण की लंका में प्रवेश करके अपने अद्भुत पराक्रम का प्रदर्शन करेंगे।
सागर के तट पर एक स्वच्छ शिला पर बैठ राम सुग्रीव से बोले, "हे सुग्रीव! वनों, पर्वतों की बाधाओं को पार करके हम सागर के तट तक तो पहुँच गये, अब हमारे सामने फिर वही प्रश्न है कि इस विशाल सागर को कैसे पार किया जाय। अपनी सेना की छावनी यहीं डाल कर हमें इस समुद्र को पार करने का उपाय सोचना चाहिये। इधर जब तक हम इसका उपाय ढूँढें, तुम अपने गुप्तचरों को सावधान कर दो कि वे शत्रु की गतिविधियों के प्रति सचेष्ट रहें। कोई वानर अपने छावनी से अकारण बाहर भी न जाये क्योंकि इस क्षेत्रमें लंकेश के गुप्तचर अवश्य सक्रिय होंगे।
रामचन्द्र जी के निर्देशअनुसार समुद्र तट पर छावनी डाल दी गई। समुद्र की उत्ताल तरंगें आकाश का चुम्बन करे अपने विराट रूप का प्रदर्शन कर रहा था। सारा वातावरण जलमय प्रतीत होता था। आकाश में चमकने वाला नक्षत्र समुदाय सागर में प्रतिबिंबित होकर समुद्र को ही आकाश का प्रतिरूप बना रहा था। वानर समुदाय समुद्र की छवि को आश्चर्य, कौतुक और आशंका से देख रहा था।
28 मार्च 2010
रामायण – लंकाकाण्ड - वानर सेना का प्रस्थान
Posted by Udit bhargava at 3/28/2010 05:01:00 am
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