इस प्रकार चार सौ कोस के विशाल सागर को पार कर वे उसके तट पर पहुँचे। वहाँ उन्होंने पर्वत के शिखर पर बसी हुई भव्य लंकापुरी को देखा। लंका को देखते ही मार्ग की सम्पूर्ण क्लान्ति मिट गई और वे तीव्र वेग से लंकापुरी की ओर चले। उन्होंने देखा, लंका के चारों ओर कमलों से सुशोभित जलपूरित खाई खुदी हुई है। नगर पर नाना रंगों की पताकाएँ फहरा रही हैं। विशाल अट्टालिकाएँ आकाश का स्पर्श कर रही हैं। चारों ओर स्वर्णकोट से घिरी लंका में स्थान-स्थान पर वीर एवं पराक्रमी राक्षस पहरा दे रहे हैं। नगर में प्रवेश करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को तीक्ष्ण दृष्टि से परखते हैं और यह पता लगाने की चेष्टा करते हैं कि वह शत्रु का गुप्तचर तो नहीं है।
हनुमान सोचने लगे कि इन दुष्टों की क्रूर दृष्टि से बच कर नगर में प्रवेश कर पाना सरल नहीं है, और नगर में प्रवेश किये बिना सीता जी का पता कैस लग सकेगा? इसलिये वे ऐसी युक्ति पर विचार करने लगे जिसके सहारे वे उनकी आँखों में धूल झोंक कर लंका में प्रवेश ही न कर सकें अपितु प्रत्येक स्थान तक निरापद पहुँच कर सीता की खोज कर सकें। पकड़े जाने पर मृत्यु तो निश्चित है ही, रघुनाथ जी का कार्य भी अपूर्ण रह जायेगा। इसके अतिरिक्त पहरेदार मुझे बड़ी सरलता से पहचान लेंगे क्योंकि राक्षसों की और मेरी आकृति में भारी अन्तर है। फिर इनकी दृष्टि से तो वायु भी बच कर नहीं निकल पाती। अन्त में उन्होंने निश्चय किया कि रात्रि के अन्धकार में नगर में प्रवेश करने का प्रयास किया जाये। यह सोच कर वे वृक्षों की आड़ में छिप कर बैठ गये और रात्रि की प्रतीक्षा करने लगे।
जब अन्धकार हो गया तो हनुमान कोट को फाँद कर लंका में प्रविष्ट हुये। स्वर्ण निर्मित विशाल भवनों में दीपक जगमगा रहे थे। कहीं नृत्य हो रहा था और कहीं सुरा पी कर मस्त हुये राक्षस अनर्गल प्रलाप कर रहे थे। कुछ लोग कहीं वेदपाठ और स्वाध्याय भी कर रहे थे। उन्होंने नगर के सब भवनों तथा एकान्त स्थानों को छान डाला, परन्तु कहीं सीता दिखाई नहीं दीं। अन्त में उन्होंने सब ओर से निराश हो कर रावण के उस राजप्रासाद में प्रवेश किया जिसमें लंका के मन्त्री, सचिव एवं प्रमुख सभासद निवास करते थे। उन सब का भली-भाँति निरीक्षण करने के पश्चात् वे उस बृहत्शाला की ओर चले जिसे रावण अत्यन्त प्रिय मानता था और जिसकी दिव्य रचना की ख्याति देश-देशान्तरों तक फैली हुई थी। उस शाला की सीढ़ियाँ रत्नफटित थीं। स्वर्ण निर्मित वातायन और खिड़कियाँ दीपों के प्रकाश से जगमगा रही थीं। स्थान-स्थान पर हाथी दाँत का काम किया हुआ था। छतें और स्तम्भ मणियों तथा रत्नों से जड़े हुये थे। इन्द्र भवन से भी अधिक सुसज्जित इस भव्य शाला को देख कर हनुमान चकित रह गये। उन्होंने एक ओर स्फटिक के सुन्दर पलंग पर रावण को मदिरा के मद में पड़े देखा। उसके नेत्र अर्द्धनिमीलित हो रहे थे। चारों ओर अनेक अनिंद्य सुन्दरियाँ उसे घेरे हुये उसका मनोरंजन कर रही थीं। अनेक रमणियों के वस्त्राभूषण अस्त-व्यस्त हो रहे थे। वे भी सुरा के प्रभाव से अछूती नहीं थीं। वहाँ भी सीता को न पा कर पवनसुत बाहर निकल आये।
रावण के स्वयं के और अन्य निकट सम्बंधियों के निवास स्थानों की खोज से असफल हो कर हनुमान ने रावण की पटरानी मन्दोदरी के भवन में प्रवेश किया। मन्दोदरी के शयनागार में जा कर देखा, मन्दोदरी एक स्फटिक से श्वेत पलंग पर सो रही थी. पलंग के चारों ओर रंग-बिरंगी सुवासित पुष्पमालायें लटक रही थीं। उसके अद्भुत रूप, लावण्य, सौन्दर्य एवं यौवन को देख कर हनुमान के मन में विचार आया, सम्भवतः यही जनकनन्दिनी सीता हैं, परन्तु उसी क्षण उनके मन में एक और विचार उठा कि ये सीता नहीं हो सकतीं क्योंकि रामचन्द्र जी के वियोग में पतिव्रता सीता न तो सो सकती हैं और न इस प्रकार आभूषण आदि पहन कर श्रृंगार ही कर सकती हैं। अतएव यह स्त्री अनुपम लावण्यमयी होते हुये भी सीता कदापि नहीं है। यह सोच कर वे उदास हो गये और मन्दोदरी के कक्ष से बाहर निक आये।
सहसा वे सोचने लगे कि आज मैंने पराई स्त्रियों को अस्त-व्यस्त वेष में सोते हुये देख कर भारी पाप किया है। वे इस पर पश्चाताप करने लगे। कुछ देर बाद यह सोच कर उन्होंने अपने मन को शान्ति दी कि उन्हें देख कर मेरे मन में कोई विकार उत्पन्न नहीं हुआ इसलिये यह पाप नहीं है। फिर जिस उद्देश्य के लिये मुझे भेजा गया है, उसकी पूर्ति के लिये मुझे अनिवार्य रूप से स्त्रियों का अवलोकन करना पड़ेगा। इसके बिना मैं अपना कार्य कैसे पूरा कर सकूँगा। फिर वे सोचने लगे मुझे सीता जी कहीं नहीं मिलीं। रावण ने उन्हें मार तो नहीं डाला? यदि ऐसा है तो मेरा सारा परिश्रम व्यर्थ गया। नहीं, मुझे यह नहीं सोचना चाहिये। जब तक मैं लंका का कोना-कोना न छान मारूँ, तब तक मुझे निराश नहीं होना चाहिये। यह सोच कर अब उन्होंने ऐसे-ऐसे स्थानों की खोज आरम्भ की, जहाँ तनिक भी असावधानी उन्हें यमलोक तक पहुँचा सकती थी। उन स्थानों में उन्होंने रावण द्वारा हरी गई अनुपम सुन्दर नागकन्याओं एवं किन्नरियों को भी देखा, परन्तु सीता कहीं नहीं मिलीं। सब ओर से निराश हो कर उन्होंने सोचा, मैं बिना सीता जी का समाचार लिये लौट कर किसी को मुख नहीं दिखा सकता। इसलिये यहीं रह कर उनकी खोज करता रहूँगा, अथवा अपने प्राण दे दूँगा। यह सोच कर भी उन्होंने सीता को खोजने का कार्य बन्द नहीं किया।
29 मार्च 2010
रामायण – सुन्दरकाण्ड - लंका में सीता की खोज
Posted by Udit bhargava at 3/29/2010 06:38:00 pm
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