29 मार्च 2010

रामायण – सुन्दरकाण्ड - हनुमान सीता भेंट

अब हनुमान इस बात पर विचार करने लगे कि मैं सीता के सामने किस प्रकार प्रकट हो कर उन्हें रामचन्द्र जी की अँगूठी दे कर धैर्य बँधाऊँ। इन दुष्ट राक्षसनियों के रहते मैं अपने मनोरथ में सफल नहीं हो सकता। फिर रात्रि भी लगभग समाप्त होती जा रही है। यदि इसी सोच-विचार में सूर्य निकल आया तो मैं कुछ भी नहीं कर सकूँगा। जो कुछ मुझे करना है उसका उपाय मुझे शीघ्र ही सोच डालना चाहिये। यदि किसी कारणवश मैं सीता से न मिल सका तो मेरा सारा प्रयत्न निष्फल हो जायेगा। रामचन्द्र और सुग्रीव को सीता के यहाँ उपस्थित होने का समाचार देने से भी कोई लाभ नहीं होगा, क्योंकि इनकी दुःखद दशा को देखते हुये यह नहीं कहा जा सकता कि ये किस समय निराश हो कर अपने प्राण त्याग दें। इसलिये उचित यह होगा कि इन सनसे दृष्टि बचा कर मैं जानकी से वार्तालाप करने का प्रयास करूँ, चाहे वह वार्तालाप संकेतों में ही क्यों न हो। इस प्रकार निश्चय करके हनुमान मन्द-मन्द मृदु स्वर में आर्य भाषा में, जो राक्षस समुदाय के लिये एक अपरिचित भाषा थी, बोलने लगे -

"इक्ष्वाकुओं के कुल में परमप्रतापी, तेजस्वी, यशस्वी एवं धन-धान्य समृद्ध विशाल पृथ्वी के स्वामी चक्रवर्ती महाराज दशरथ हुये हैं। उनके ज्येष्ठ पुत्र उनसे भी अधिक तेजस्वी, परमपराक्रमी, धर्मपरायण, सर्वगुणसम्पन्न, अतीव दयानिधि श्री रामचन्द्र जी अपने पिता द्वारा की गई प्रतिज्ञा का पालन करने के लिये अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ जो उतने ही वीर, पराक्रमी और भ्रातृभक्त हैं, चौदह वर्ष की वनवास की अवधि समाप्त करने के लिये अनेक वनों में भ्रमण करते हुये चित्रकूट में आकर निवास करने लगे। उनके साथ उनकी परमप्रिय पत्नी महाराज जनक की लाड़ली सीता जी भी थीं। वनों में ऋषि-मुनियों को सताने वाले राक्षसों का उन्होंने सँहार किया। लक्ष्मण ने जब दुराचारिणी शूर्पणखा के नाक-कान काट लिये तो उसका प्रतिशोध लेने के लिये उसके भाई खर-दूषण उनसे युद्ध करने के लिये आये जिनको रामचन्द्र जी ने मार गिराया और उस जनस्थान को राक्षसविहीन कर दिया। जब लंकापति रावण को खर-दूषण की मृत्यु का समाचार मिला तो वह अपने मित्र मारीच को ले कर छल से जानकी का हरण करने के लिये पहुँचा। मायावी मारीच ने एक स्वर्ण मृग का रूप धारण किया, जिसे देख कर जानकी जी मुग्ध हो गईं। उन्होंने राघवेन्द्र को प्रेरित कर के उस माया मृग को पकड़ कर या मार कर लाने के लिये भेजा। दुष्ट मारीच ने मरते-मरते राम के स्वर में 'हा सीते! हा लक्ष्मण!' कहा था। जानकी जी भ्रम में पड़ गईं और लक्ष्मण को राम की सुधि लेने के लिये भेजा। लक्ष्मण के जाते ही रावण ने छल से सीता का अपहरण कर लिया। लौट कर राम ने जब सीता को न पाया तो वे वन-वन घूम कर सीता की खोज करने लगे। मार्ग में वानरराज सुग्रीव से उनकी मित्रता हुई। मुग्रीव ने अपने लाखों वानरों को दसों दिशाओं में जानकी जी को खोजने के लिये भेजा. मुझे भी आपको खोजने का काम सौंपा गया। मैं चार सौ कोस चौड़े सागर को पार कर के यहाँ पहुँचा हूँ। श्री रामचन्द्र जी ने जानकी जी के रूप-रंग, आकृति, गुणों आदि का जैसे वर्णन किया था, उस शुभ गुणों वाली देवी को आज मैंने देख लिया है।" यह कर कर हनुमान चुप हो गये।

राम के वियोग में तड़पती हुई सीता के कानों में जब हनुमान द्वारा सुनाई गई यह अमृत कथा पहुँची तो वे विस्मय से चौंक उठीं। इस राक्षस पुरी में राम की पावन कथा सुनाने वाला कौन आ गया? उन्होंने अपने मुखमण्डाल पर छाई हुई केश-राशि को हटा कर चारों ओर देखा, परन्तु उस कथा को सुनाने वाले व्यक्ति को वे नहीं देख सकीं। उन्हें यह तो आभास हो रहा था कि यह स्वर उन्होंने उसी वृक्ष पर से सुना है जिसके नीचे वे खड़ी थीं। उन्होंने फिर ध्यान से ऊपर की ओर देखा। बड़े ध्यान से देखने पर उन्हें वृक्ष की घनी पत्तियों में छिपी हनुमान की तेजस्वी आकृति दिखाई दी। उन्होंने कहा, "भाई! तुम कौन हो? नीचे उतर कर मेरे सम्मुख क्यों नहीं आते?"

सीता का निर्देश पाकर हनुमान वृक्ष से धीरे-धीरे नीचे उतरे और उनके सामने आ हाथ जोड़ कर बोले, "हे देवि! आप कौन हैं जो मुझसे वार्तालाप करना चाहती हैं? आपका कोमल शरीर सुन्दर वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होने योग्य होते हुये भी आप इस प्रकार का नीरस जीवन व्यतीत कर रही हैं। आपके अश्रु भरे नेत्रों से ज्ञात होता है कि आप अत्यन्त दुःखी हैं। आपको देख कर ऐसा प्रतीत होता है किस आप आकाशमण्डल से गिरी हुई रोहिणी हैं। आपके शोक का क्या कारण है? कहीं आपका कोई प्रियजन स्वर्ग तो नहीं सिधार गया? कहीं आप जनकनन्दिनी सीता तो नहीं हैं जिन्हें लंकापति रावण जनस्थान से चुरा लाया है? जिस प्रकार आप बार-बार ठण्डी साँसें लेकर 'हा राम! हा राम!' पुकारती हैं, उससे ऐसा अनुमान लगता है कि आप विदेहकुमारी जानकी ही हैं। ठीक-ठीक बताइये, क्या मेरा यह अनुमान सही है?"

हनुमान का प्रश्न सुन कर सीता बोली, "हे वानरराज! तुम्हारा अनुमान अक्षरशः सही है। मैं जनकपुरी के महाराज जनक की पुत्री, अयोध्या के चक्रवर्ती महाराज दशरथ की पुत्रवधू तथा परमतेजस्वी धर्मात्मा श्री रामचन्द्र जी की पत्नी हूँ। जब श्री रामचन्द्र जी अपने पिता की आज्ञा से वन में निवास करने के लिये आये तो मैं भी उनके साथ वन में आ गई थी। वन से ही यह दुष्ट पापी रावण छलपूर्वक मेरा अपहरण करके मुझे यहाँ ले आया। वह मुझे निरन्तर यातनाएँ दे रहा है। आज भी वह मुझे दो मास की अवधि देकर गया है। यदि दो मास के अन्दर मेरे स्वामी ने मेरा उद्धार नहीं किया तो मैं अवश्य प्राण त्याग दूँगी। यही मेरे शोक का कारण है। अब तुम मुझे कुछ अपने विषय में बताओ।"