29 मार्च 2010

रामायण – सुन्दरकाण्ड - लंका दहन

जब भीड़ भयभीत होकर वहाँ से छँट गई तो हनुमान सोचने लगे कि मैंने अशोकवाटिका को नष्ट कर दिया, राक्षसों की काफी बड़ी सेना का सँहार कर दिया तो फिर लंका का दुर्ग ही क्यों छोड़ा जाय। इसे भी क्यों न ध्वस्त कर दूँ। यह सोचकर वे जलती हुई पूँछ के साथ लंका की ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं पर चढ़ गयेऔर घूम-घूम कर उनमें आग लगाने लगे। तभी उनकी दृष्टि मंत्री प्रहस्त के भवन पर पड़ी। वे कूद कर उस पर चढ़ गये। उसे जलाने के पश्चात् उन्होंने एक के बाद एक करके महापार्श्व, वज्रदंष्ट्र, शुक्र, सारण, मेघनाद, जम्बुवाली, शोणिताक्ष, कुम्भकर्ण, नरान्तक, यज्ञ‌-शत्रु, ब्रह्मशत्रु आदि प्रमुख राक्षसों के भवनों को अग्नि की भेंट चढ़ा दिया। इनसे निवृत होकर वे स्वयं रावण के प्रासाद पर कूद पड़े। उसके प्रमुख भवन को जलाने के पश्चात् वे बड़े उच्च स्वर से गर्जना करने लगे। उसी समय प्रलयंकर आँधी चल पड़ी जिसने आग की लपटों को दूर-दूर तक फैला कर भवनों के अधजले भागों को भी जला डाला। लंका की इस भयंकर दुर्दशा से सारे नगर में हृदय-विदारक हाहाकार मच गया। बड़ी-बड़ी अट्टालिकाए भारी विस्फोट करती हुई धराशायी होने लगीं। स्वर्ण निर्मित लंकापुरी के जल जाने से उसका स्वर्ण पिघल-पिघल कर सड़कों पर बहने लगा। सहस्त्रों राक्षस और उनकी पत्नियाँ हाहाकार करती हुई इधर-उधर दौड़ने लगीं। आकाशमण्डल अग्नि के प्रकाश से जगमगा उठा। उसमें लाल तथा कृष्णवर्ण का धुआँ भर गया जिसमें से फुलझड़ियों की भाँति चिनगारियाँ छूटने लगीं। इस भयंकर ज्वाला में सहस्त्रों राक्षस जल गये और उनके जले-अधजले शरीरों से भयंकर दुर्गन्ध फैलने लगी। सम्पूर्ण लंकापुरी में केवल एक भवन ऐसा था जो अग्नि के प्रकोप से सुरक्षित था और वह था नीतिवान विभीषण का प्रासाद।

लंका को भस्मीभूत करने के पश्चात् जब हनुमान का मन स्वस्थ हुआ तो वे पुनः अशोकवाटिका में सीता के पास पहुँचे। उन्हें सादर प्रणाम करके बोले, "हे माता! अब मैं यहाँ से श्री रामचन्द्र जी के पास लौट रहा हूँ। रावण को और लंकावासियों को मैंने राघव की शक्ति का थोड़ा सा आभास करा दिया है। अब आप निर्भय होकर रहें। अब शीघ्र ही रामचन्द्र जी वानर सेना के साथ लंका पर आक्रमण करेंगे और रावण को मार कर आपको अपने साथ ले जायेंगे। अब मुझे आज्ञा दें ताकि मैं लौट कर आपका शुभ संदेश श्री रामचन्द्र जी को सुनाऊँ जिससे वे आपको छुड़ाने की व्यवस्था करें।" यह कह कर और सीता जी को धैर्य बँधाकर हनुमान अपने कटक की ओर चल पड़े।

जनकनन्दिनी से विदा लेकर तीव्रवेग से विशाल सागर को पार करते हुये हनुमान वापस सागर के उस तट पर पहुँचे जहाँ असंख्य वानर जाम्बवन्त के और अंगद के साथ उनकी प्रतीक्षा में आँखें बिछाये बैठे थे। अपने साथियों को देख कर हनुमान ने आकाश में ही भयंकर गर्जना की जिसे सुन कर जाम्बवन्त ने प्रसन्न होकर कहा, "मित्रों! हनुमान की इस गर्जना से प्रतीत होता है कि वे अपने उद्देश्य में सफल होकर लौटे हैं। इसलिये हमें खड़े होकर हर्षध्वनि के साथ उनका स्वागत करना चाहिये। उन्होंने हमें यह सौभाग्य प्रदान किया है कि हम लौट कर रामचन्द्र जी और वानरराज सुग्रीव को अपना मुख दिखा सकें।" इतने में ही हनुमान ने वहाँ पहुँच कर सबका अभिवादन किया और लंका का समाचार कह सुनाया।

जब सब वानरों ने सीता से हुई भेंट का समाचार सुना तो उनके हृदय प्रसन्नता से बल्लियों उछलने लगे और वे श्री रामचन्द्र तथा पवनसुत की जयजयकार से वातावरण को गुँजाने लगे। इसके पश्चात् वे लोग हनुमान को आगे करके सुग्रीव के निवास स्थान प्रस्रवण पर्वत की ओर चले। मार्ग में वे मधुवन नामक वाटिका में पहुँचे जिसकी रक्षा का भार सुग्रीव के मामा दधिमुख पर था। इस वाटिका के फल अत्यन्त स्वादिष्ट थे और उनका उपयोग केवल राजपरिवार के लिये सीमित था। अंगद ने सब वानरों को आज्ञा दी कि वे जी भर कर इन स्वादिष्ट फलों का उपयोग करें। आज्ञा पाते ही सब वानर उन फलों पर इस प्रकार टूट पड़े जैसे लूट का माल हो। अपनी क्षुधा निवारण कर फिर कुछ देर आराम कर वे सब सुग्रीव के पास पहुँचे और उनसे सारा वृतान्त कहा।