01 अप्रैल 2010

रामायण जी का महात्मय


"सिया राम जय राम जय जय राम"

एक नियम है, मनुष्य संकल्प करता है परन्तु जब तक वह इन संकल्पों को कार्य का रूप न दे, क्रिया तब तक संकल्प सफलता की ओर अग्रसर नहीं होते। यदी कोई मनुष्य क्रिया का रूप देकर संकल्प करता है परन्तु उस पर प्रभु क़ी कृपा न हो तो भी संकल्प की सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। शुभ संकल्प, क्रिया और परमात्मा की कृपा, इन तीन वस्तुओं के मिलाप से भगवद कार्य की शुरुआत होती है, इन तीन वस्तुओं के संकल्प के पश्चात इश्वर कार्य का आरम्भ होता है।

वैसे तो राम क़ी कथा प्रत्येक व्यक्ति जानता है। एक सम्राट चक्रवर्ती अयोध्या के महाराज दशरथ थे जिनके चार पुत्र थे। जनकपुर में श्री राम जी का विवाह हुआ। तत्पश्चात राम को राजगद्दी मिली लेकिन उससे पहले राम को वनवास मिला। राम वियोग में दशरथ जी की मृत्यु हो गयी। राम, लक्ष्मण और सीता जी वन में गए। भारत जी चित्रकूट गए और उनकी पादुका ले आये। राम चित्रकूट में पंचवटी गए। सीता जी का उपहरण हुआ। सीता को खोजने के लिये राम ने वानर सेना भेजी। हनुमान सीता जी को खोज लाये। राम ने समुद्र के ऊपर बाँध बांधा। रामेश्वर भगवन क़ी करके लंका पर चढाई की। रावणादि रक्षसों का विनाश हुआ और पुष्पक विमान में बैठकर राम अयोध्या आये। राम जी का राज्याभिषेक हुआ, राम राज्य की स्थापना हुए और राम कथा पूरी हुए। इतनी-सी कथा गोस्वामी जी नए मानस में लिखी है। आधे मिनट में कही जाने वाली कथा के लिये इतना अधिक समय इतनी संपत्ति का खर्च, इतने सारे व्यापार-धन्दोइन को छोड़कर इसके पीछे इतना समय देते हैं। उस पर से मालूम होता है क़ी आधी मिनट में कही जाने वाली कथा रामायण नहीं है। पहले तो यह भ्रांति हट जानी चाहिए, अधिकतर तो ऐसा मन जाता था क़ी रामायण में क्या सुनना? जिन लोगों को रामचरितमानस का अनुभव नहीं है, वे लोग यह कहते हैं क़ी रामायण में क्या है? राम-रावन युद्ध है, इसमें क्या सुनना? परन्तु रामायण केवल कथा नहीं है। इतिहास नहीं है। और न ही एक सम्राट पुत्र का चरित्र है। रामायण सबसे प्रथम परात्पर ब्रह्म है। उनका एक दिव्या लीलामृत है। और साथ-साथ हम सबके जीवन में जो कठिनाइयां उत्पन्न होती हैं, उसका उत्तर रामायण है। प्रमाण सहित कह सकते हैं कि जीवन की ऐसी कोई समस्या नहीं है, भूतकाल में नहीं थी और भविष्य में नहीं होती जिनका उत्तर रामायण में न हो। कोई कहे क़ी रामायण की कथा गाते हैं इसलिये रामायण की प्रशंसा करते हैं। परन्तु प्रमाण देकर कह सकते हैं कि हम सबके जीवन में कोई प्रश्न आये तो उसका उत्तर रामायण में है। निष्ठा, प्रेम और सत्संग होंगे तो रामायण आपके प्रश्नों का उत्तर देगी।

रेलवे स्टेशन पर एक बुजुर्ग ट्रेन के इंतज़ार में रामचरितमानस का पाठ कर रहे थे। रामायण के प्रेमी थे। उन्होंने सोचा कि ट्रेन आने में तीस मिनट हैं तो चलो रामचरितमानस का पाठ ही कर लूं। तभी एक नवदम्पत्ति जो पढ़े-लिखे थे उस बुजुर्ग की टीका करने लगे। इन लोगों ने सालों से रामायण को पकड़ा हैं छोड़ते ही नहीं हैं। स्टेशन पर भी पढने बैठ गए, युवक ने बुजुर्ग से मजाक में कहा, "अब संसार में बड़ी-बड़ी गीता लिखी जाती है बड़े-बड़े उपन्यास लिखे जाते हैं और आपने अभी तक एक ही रामायण बरसों से पकड़ी हुई हैं। छोड़ते ही नहीं हैं, इसमें ऐसा क्या है? जिसको आप पढ़ रहे हैं।" प्रारम्भ में बुजुर्ग ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। उसने आग्रह किया, "जवाब दो। क्यों आप रामायण लेकर बैठे हैं? इस में क्या है?" बुजुर्ग ने कहा, "इसमें क्या है यह तो मैं भी मालूम नहीं कर सका तुझे सबूत नहीं दे सकता। परन्तु तू तो पढ़ा लिखा व्यक्ति है, तू तो बता कि इसमें क्या नहीं है? मैं तो चिन्तक नहीं हूँ। अभ्यास भी नहीं है, इसलिये नहीं बता सकता क़ी इसमें क्या है? तू तो पंडित है तो तू ही बता सकता है इसमें क्या नहीं है?" युवक ने कहा, "यह तो आपकी बौद्धिक दलीलें हैं। क्या इसमें सब कुछ लिखा है?" बुजुर्ग ने कहा, "भाई मेरा तो विश्वास है क़ी इसमें सभी कुछ है इनकी बातचीत के दौरान ट्रेन आ गयी। भीड़ अधिक थी ट्रेन चली गयी। थोड़ी देर बाद ट्रेन ने स्पीड पकड़ी। बुजुर्ग ने सीट मिलने के पश्चात रामचरितमानस का पाठ करना शुरू किया गाडी थोड़ी ही दूर गयी होगी क़ी उस युवक ने आवाज लगाई क़ी गाडी रोको। अन्य लोग पूछने लगे क़ी क्या हुआ? उसने कहा, "गाडी जल्दी रोगों। "ऐसा कह कर उसने जंजीर खींच दी। ट्रेन में बैठे लोग पूछने लगे क़ी गाडी क्यों रोग दी? आपको मालूम है क़ी यहाँ सूचना है क़ी बिना किसी कारणवश गाडी रुकवाने पर दंड, सजा मिल सकती है। आपने गाडी क्यों रोक दी? उसने कहा, "जल्दी में में गाडी में चढ़ गया और मेरी पत्नी रह गयी इसलिये मैंने गाडी रुकवाई है।" उस बुजुर्ग ने सुन कर उसका हाथ पकड़ा और पुछा, क़ी "भाई बुरा न माना तो कहूं। स्टेशन पर तू मेरी टीका कर रहा था क़ी रामायण में ऐसा क्या लिखा है कि पढ़ते ही रहते हो। अब तुझे कहता हूँ क़ी यदी तुने एक बार रामायण को पढ़ा होता तो तुने जो भूल आज की है वह न करता। क्यों? तू बैठ गया और तेरी पत्नी स्टेशन पर ही रह गयी। इसका भी उत्तर रामायण में है। कहीं पर लिखा है क़ी केवट नाम के भील ने राम के चारण छुए और फिर नौका में बिठाया। तब सीता जे पहले बैठी और फिर राम जी बैठे। रामायण में कहा है क़ी कोई भी वहां में बैठना हो तो पहले पत्नी को बैठाना चाहिए बाद में पुरुष को बैठना चाहिए। तूने रामायण पढ़ी होती तो यह भूल न करता।

कम से कम व्यवहार के ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका उत्तर रामायण न दे। इसलिये यह खाली कथा कहने की, कहानी की, इतिहास की खबर है। परन्तु उसके एक-एक पत्र, एक-एक प्रसंग और एक-एक चौपाई के पीछे हम सबके जीवन में आने वाली घटनाओं पर तुलसीदास जे ने प्रतिबिम्ब डाला है। उसके दर्शन करने के लिये हम दस दिन इकट्ठे होते हैं, नहीं तो किसी को भी समय नहीं है। यह कथा हमारी है। बेशक घटना त्रेतायुग में घटी हो। उस समय कपडे अलग प्रकार के पहनते होंगे। भाषा अलग होगी, रीति-रिवाज आदि में फर्क होगा, बरसों बीत गए। इसलिये परिवर्तन तो बहुत ही आया होगा। परन्तु अन्दर क़ी ओर जीवन क़ी जो घटनाएं हैं वह आज भी हम सब पर लागू होती है। ऊपर के आवरण बदल गए हैं। अंदर से सब वैसे का वैसा ही है, और उससे भी रामायण आसान अर्थ में कहूं तो सबका जीवन दर्शन है। राम कथा द्वारा दस दिन तक हमें अपने जीवन का निरंतर विचार करना है क़ी रामायण के किसी पत्र में मुझे अपना स्वरुप मालुम होगा कि रामायण का यह पत्र हमको स्पर्श करता है। और रामायण का कोई पात्र जब हम बनते हैं तब इतना विचार करना है कि रामायण के किसी पात्र में मुझे अपना स्वरुप दिखाई पड़ता है? कहीं पर हम केवट होंते, कहीं पर भील होंगे, कहीं पर तो हमको ऐसा मालूम होगा कि रामायण का यह पत्र हमको स्पर्श करता हैं। और रामायण का कोई पात्र जब हम बनते हैं तब इतना विचार करना है क़ी रामायण के पात्रों को कठिनाइयां आई तब उन्होंने कैसा बर्ताव किया? और मैं कैसे बर्ताव कर रहा हूँ। इसका हे चिंतन करना चाहिए। इसलिये हमारे जीवन क़ी कथा के अर्थ में हम आज क़ी रामायण की शुरुआत करते हैं। रामचरितमानस में लिखा है कि रामकथा को समझना हो तो जीवन में तीन वस्तुओं की जरुरत पड़ती है। अगर तीन वस्तुएं हमारे जीवन में इकट्ठी न हों तब रामचरितमानस समझ में नहीं आएगा। पहले श्रद्धा, फिर सत्संग और बाद में परमात्मा पर प्रेम होना चाहिए। श्रद्धा, सत्संग और ईष्ट प्रेम ये तीनों वस्तुएं जो मिलें तो रामायण समझ में आती है। ऐसा रामायण में लिखा है। जो तीन वस्तुएं न हों तो किसी भी संजोग में रामायण समझ में नहीं आ सकेगी।
श्रद्धा सम बल रहित, नहीं संतान कर नाथ।
तीन कह मानस अगम अति, जिन्हीं न प्रिय रघुनाथ॥
इन दोहों में ऐसा कहा है कि जिन्हें राम प्रेम नहीं है। राम के प्रति भाव नहीं, सत्संग में प्रीति नहीं और श्रद्धा नहीं उन्हें रामचरितमानस समझ में नहीं आता।
तो हम श्रद्धा, सत्संग और राम प्रेम का निर्माण करके रामायण का पान करें। मैं हमेशा कहता हूं कि हम किसी भी मन्दिर में दर्शन करने जाते हैं, तब बूट बहार उतारते हैं, दो बूट-एक बुद्धि का और दूसरा अहंकार का। हमने बुद्धि और अहंदर के बूट पहने होंगे तो रामायण समझ में नहीं आएगी। बहार जाकर हम भले ही अहंकार को धारण करते हैं परन्तु इस दरबार में आने के बाद वक्ता या श्रोता को बुद्धि और अहंकार के बूट बाहर ही रखने चाहिए। वक्ता यदि बुद्धि का प्रयोग करके आएगा तो रामायण में कठिनाइयाँ उत्पन्न होंगी। रामायण में मना किया गया है। मन,वचन और कर्म से मनुष्य चतुरता को छोड़कर आये और मेरा या तुम्हारा अहंकार बाहर रह जाए तभी राम दरबार में प्रवेश करना चाहिए। रामचरितमानस को, भगवान् राम के जीवन को समझने के लिये और साथ-साथ अपना जीवन दर्शन करने के लिये हमें यह दो बूट बाहर रखने पड़ेंगे, तो रामायण तुलसीदास जी को जो सुख दे गई, स्वांत सुखाय रघुनात गाथा। वैसे हमको भी स्वांत सुख दे सकेगा।
आप यहाँ बिलकुल खाली होकर आओ। बस हमें भगवद्चरित्र सुनना है। मैं यहाँ आऊं तब सभी वस्तुएं छोड़कर आऊं, ऋतु आती है तब कोयल आती है तब कोयल अपने आप ही बोलने लगती है। उसने पहले से तैयारी नहीं की होती है। कोयल ने एक महीने पहले रियाज नहीं किया है क़ी अब बसंत ऋतु आने वाली है। अब मैं अपनी आवाज ठीक कर लूं मुझे कुहू-कुहू करनी पड़ेगी। मेघ क़ी गर्जना से मोर भी कोई तैयारी नहीं करते हैं क़ी अब मुझे बोलना है, बसंत मेघ आये तो अपने आप ही आवाज निकलने लगती है। स्वांत सुख प्राप्त करने के लिये रामायण में तुलसी जी ने लिखा है स्वांत सुख के लिये वैसे ही बुलाना भी चाहिए और स्वांत सुख के लिये सुनवाना भी चाहिए दूसरा कोई हेतु नहीं है।
इस अर्थ में हम रामायण के शुरुआत कर रहे हैं। राम कथा हमार जीवन दर्शन है। तुलसीदास जी ने रामायण को रामचरितमानस नाम दिया, रामायण नाम नहीं दिया, रामायण बहुत प्रचलित है। इसलिए हम बोलते हैं, परन्तु इस ग्रन्थ का नाम रामचरितमानस रखा है, एक सरोवर क़ी उपमा रामायण को दी है। आप जानते हो क़ी मानसरोवर नाम का एक सरोवर हिमालय में है और दूसरा सरोवर तुलसीदास जी ने स्थापित किया है। जिसका नाम मानस सरोवर है, परन्तु दोनों में फर्क है।
प्रथम अंतर यदि समय, संपत्ति और शारीरिक तंदरुस्ती हो तो प्रथम मान सरोवर पर पहुंचा जा सकता है। अन्यथा नहीं। तुलसीदास जी ने चलता-फिरता मान सरोवर उत्पन्न किया जो हमारे घर में आता है। ऐसा यह मानस सरोवर है।
द्वितीय अंतर हिमालय वाले मानसरोवर में खाली पानी पड़ा है। जबकि तुलसीदास जी के मानस सरोवर में एक सिद्ध संत क़ी वाणी है। हिमालय के मान सरोवर में नहाने के पश्चात हमारे शरीर का मैल दूर होता है। जबकि मानस सरोवर शरीर के मैल के साथ मन का मैल, कलियुग का मैल और अन्य मैल दूर करता है। मानस में लिखा है-
रघुवंश भूषन चरित यह नर कहही सुनही गावही।
कलिमल मनोमल धोई बीनू श्रम राम धाम सीधा वही॥
गोस्वामी जी कहते हैं रघुवंश के इस दिव्य चरित्र को जो गायेगा या सुनेगा तो वह कलियुग के मैल और मन के मैल से मुक्त होकर रामधाम की तरफ गति करेगा।
तृतीय अंतर हिमालय के मान सरोवर के किनारे मोती के दाने चुगने के लिये हंस आते हैं ऐसी लोकोक्ति है। यह कितने लोगों ने देखा होगा किसी को पता नहीं है। परन्तु इस मानस सरोवर में हंस के स्थान पर परम हंस इकट्ठे होते हैं। उन हंसो को कितनों ने देखा होगा यह पता नहीं। न ही देखा है। रामायण के आस-पास परम हंस इकट्ठे होते हैं। यह तो निर्विवाद है, मानस में लिखा है जीवन मुक्त ब्रहम पर चरित सुनही तजी ध्यान। चौबीस घंटे समाधि में रहने वाले महात्मा भगवान् राम क़ी कथा सुनने के लिये ध्यान छोड़कर आते हैं। इसलिये मानस सरोवर के किनारे परम हंस इकट्ठे होते हैं।
हिमालय के मान सरोवर में पाँव फिसले पर आदमी डूब जाता है। परन्तु इस मानस सरोवर में जो डूबता है, उसका बेडा पार हो जाता है।
तुलसीदास जी कहते हैं क़ी कठिनाइयाँ तो हैं, हमारे यहाँ ऐसा नियम है ही। वो तो अब बदल गया होगा, बाकी जहाँ तालाब हो उसके आस-पास जंगल बहुत हो। बीच में तालाब हो, उस जंगल को पार करके तालाब की तरफ जाना पड़ता है। तो रामायण तालाब है। रामायण का सरोवर यहाँ आया है इसमें भी कठिनाइयाँ को पार करके आना पड़ेगा, और ये कठिनाइयाँ जंगल तो नहीं है अपितु घर के काम, सांसारिक कठिनाइयाँ अनेक प्रक्रतियां ये सब बीच में आने वाले जंगल हैं। इसमें से हमको जाना है, वहां तक पहुंचना है। समय निकलना पडेगा, फिर स्नान के लिये जा सकेंगे। शायद कोई पहुँच जाए तो भी कई बार ऐसा बनता है क़ी सरोवर के किनारे गया हुआ आदमी सर्दी से पीड़ित होता है। स्नान कर नहीं सकता। वहां चला तो जाए परन्तु खाली लौट आये। ऐसा तुलसीदास जी ने लिखा है। कई आदमी सरोवर तक पहुँच जाते हैं, पर जीवन में जड़ता होगी। जड़ता क़ी सर्दी आदमी को लागू हो गयी हो तो वह शायद सरोवर के किनारे जाएगा परन्तु स्नान नहीं कर सकता।
मेरे कहने का अर्थ काफी कठिनाइयओं के बाद सरोवर के पास पहुँचता है और फिर उसमें से हमें कुछ न कुछ सरोवर करना है, तो इस चलते-फिरते मान सरोवर के चार घाट हैं। जिस तरह के चार घाट हैं उसी तरह रामचरितमानस के भी चार घाट हैं। एक घाट पर भगवान् शिव जी पार्वती को कथा कहते हैं। दूसरे घाट पर याज्ञवल्क्य महाराज भारद्वाज जी को कथा कहते हैं। तीसरे घाट पर काकभुशंडि महाराज गरुड़ जी को कथा कहते हैं। अंतिम चौथे घाट पर स्वामी तुलसीदास जी अपने मन की कथा कहते हैं। रामचरितमानस में भगवान् शंकर जितना बोले हैं उनके वे सब सूत्र अलग रखने में आये, छोटी-सी पुस्तिका तैयार करने में आये तो बेदांत के शिखर की पुस्तक तैयार होती है। कारण यह है कि शंकर जी ज्ञान के घाट पर बैठकर कथा कहते हैं इसलिये उसमें से अति तत्त्व ज्ञान और वेदान्त दिखलाई पड़ता है। जबकि याज्ञवल्क्य महाराज कर्म के घाट पर बैठकर कथा कहते हैं, इसलिये उसमें से कर्म के सिद्धांत बहते हैं। काकभुशंडि महाराज भक्ति की भूमिका पर बोलते हैं, इसलिये उसमें भक्ति भाव और प्रेम भरा हुआ है। और तुलसीदास जी केवल शरणागति के घाट पर बैठकर कथा कहते हैं। यह चार किनारे हैं। ज्ञान, कर्म, भक्ति और शरणागति। जिनको ज्ञान में रस हो उन्हें इतना आनंद रामायण दे सकती है। जिनके कर्म में रस हो उन्हें भी रामायण आनंद दे सकती सकती है। जिनके भक्ति में रस हो उसे भी रामायण आनंद दे सकती है। तुलसीदास जी कहते हैं कि कलियुग में इन तीनों में उत्तम केवल शरणागति है। इसलिये जिनकी शरणागति में निष्ठा हो उसे भी रामायण उतना ही आनंद देगी। इस प्रकार का यह सरोवर है। चार घाट वाले रामचरितमानस का आध्यात्मिक दृष्टी से जब-जब प्रसंग आएगा तब-तब उनका चिंतन किया जाएगा। परन्तु व्यवहारिक दृष्टी से भी संसार में पिता को किस प्रकार रहना और पुत्र को किस तरह रहना चाहिए इसका स्पष्ट उदहारण रामायण में है। आज समाज में पिता-पुत्र के सम्बन्ध बिगड़ते हैं। हमारे समाज में युवक लोग माता-पिता की बात को अस्वीकार करते हैं या फिर माता-पिता के विचार युवकों को पसंद नहीं हैं। युवकों का बर्ताव माता-पिता को पसंद नहीं हैं। ऐसे जीवन में एक बार रामायण जरूर पढनी चाहिए। भाई-भाई के सम्बन्ध कैसे हों, भाइयों के बीच कैसा भाव और प्रेम होना चाहिए। ये भी रामायण में स्पष्ट लिखा है। और इन सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है क़ी दाम्पत्य जीवन कैसा होना चाहिए जो आज के युग के लिये जरूरी है। इसका सुन्दर दृष्टांत रामायण ने दिया है। आज ज्यादा से जादा चिंतित स्थिति दाम्पत्य जीवन की है। कितने आदमियों का दाम्पत्य जीवन सुखी है? पति-पत्नी बहार से जितने सुखी हैं, क्या अंदर से भी उतने ही सुखी हैं। पुराण में कहा गया है क़ी जब कलियुग का समय पूरा होगा तब कल्कि का अवतार होगा। दसवां अवतार। परन्तु कई लोग कहते हैं क़ी कलियुग पूरा हो गया है। अभी तक को अवतार क्यों नहीं हुआ है। तब हम एक ही बात कह सकते हैं क़ी भगवान् अवतार लेने के लिये कब से आकास में आये हैं। अवतार लेने के लिये बिलकुल तैयार हैं, पर उन्हें जन्म लेने के लिये योग्य माता-पिता दिखाए नहीं देते। इसलिये वह वहीं पर स्थित हैं। उन्हें अब योग्य माता-पिता दिखाई देंगे, दशरथ-कौशल्या, वासुदेव, देवकी जैसे दम्पत्तियों का दर्शन होगा तब परमात्मा का विचार करना चाहिए। हमारा दाम्पत्य इश्वर को निमंत्रण दे सके वैसा है। राम राजभवन में रहे या चित्रकूट की चोटी सी झोपडी में रहे उनके दाम्पत्य जीवन के लिये आप पूरा चरित्र पढ़िए। कितना अद्भुत है। रामचरितमानस में महत्त्व की बात यह है क़ी दाम्पत्य जीवन कैसा होना चाहिए? पति-पत्नी को कैसे जीना चाहिए?
रामचरितमानस में लिखा है क़ी सर्वप्रथम रामायण शिवजी ने बनाई। सर्वप्रथम शंकर जी ने अपने मन में रामायण तैयार की। हमारे धर्मग्रंथों में  ऐसा वर्णन है क़ी इसमें सौ करोड़ मंत्र थे। सत करोड़ रामायण बोली। देवों, मनुष्यों और राक्षसों को समाचार मिले क़ी भगवान् शिवजी ने सौ करोड़ मन्त्रों वाली रामायण तैयार की है, तो वे कैलाश पर एकत्रित हुए। शंकर जी की स्तुति की। भगवान् आप तो अखंड आनंद ब्रहम हैं। आपकी सौ करोड़ मन्त्रों की रामायण है तो हम सबमें विभाजित कर दो। भगवान् शिवजी को दया आ गई और उन्होंने तैंतीस करोड़ मंत्र देवताओं को तैंतीस करोड़ मनुष्यों को और तैंतीस करोड़ दानवों को दे दिए। शिवजी के पास एक करोड़ मंत्र रह गए। देवताओं ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि आप तो ब्रहम हैं। एक करोड़ मंत्र रखने की क्या जरूरत है? शंकर जी ने उन तीनों को तैंतीस लाख तैंतीस लाख मंत्र दे दिए। शिवजी के पास एक लाख मंत्र रह गए। मानवों ने फिर प्रार्थना की। शिवजी ने तैंतीस-तैंतीस हज़ार तीनों में विभाजित कर दिए। शिवजी के पास एक हज़ार मंत्र रह गए उनके एखने पर उन्होंने फिर तैंतीस सौ-तैंतीस सौ मंत्र तीनों वर्गों में बांट दिये। शिवजी के पास सौ मंत्र रह गए। देवताओं ने कहा कि महाराज सौ मन्त्रों क़ी क्या जरुरत है? हममें बाँट दीजिये। तब उन्होंने तैंतीस-तैंतीस मन्त्रों का विभाजन तीनों में कर दिया। अब एक मंत्र शिवकी के पास रहा। तीनों ने कहा क़ी इस मंत्र को भी हममे बाँट दीजिये। शिवकी ने कहा सब मंत्र अलग-अलग थी इसलिये उनका विभाजन हो सका अब एक मंत्र का तीनों में विभाजन कैसे हो? उन्होंने कहा क़ी यह जैसे भी हो इसको हम सबमें बाँट दो। संस्कृत को अनुष्टुप छ्न्द था। सब जानते हैं कि अनुष्टुप ३२ अक्षरों का होता है। उन्होंने दस-दस अक्षर उन तीनों में बाँट दिए। शिवजी के पास अब दो अक्षर रहे उन्होंने कहा क़ी यह दो अक्षर भी बाँट दो। शिवजी ने कहा कि सारी रामायण आपको मुबारक हो लेकिन मैं ये दो नहीं दूंगा। उन्होंने कहा क़ी 'रा' और 'म' ये दो अक्षर हैं जो सम्पूर्ण रामायण का निचोड़ है। सम्पूर्ण रामायण का अर्थ शब्द राम है। तुलसी दास जी कहते हैं क़ी शिवजी ने वे दो शब्द अपने हृदय में रख लिये हैं। रामायण का अर्थ ही यह है कि रामायण पूरी होने के बाद मनुष्य रामपरायण बनता है कि राम हमारे जीवन में बसे।
सर्वप्रथम शिवजी ने इस तरह रामायण तैयार किया। इस तरह बाँट भी दिया। फिर पुस्तक के आकार में आदि कवि  वाल्मीकि ने संस्कृत में रामायण लिखी जिसे दुनिया ने स्वीकारा है। यह हमारा आदिकाव्य माना जाता है। फिर अनेक महात्माओं ने रामायण पर लिखा है। आज से चार सौ साल पहले तुलसीदास ने अस्सी साल की उम्र में रामायण लिखा। तुलसीदास संस्कृत के महान विद्वान् थे फिर भी उन्हें लगा क़ी समय ऐसा आयेगा क़ी लोग संस्कृत बराबर नहीं समझ सकेंगे, और मुझे रामायण सामान्य आदमी तक पहुंचानी है। संस्कृत में तो केवल विद्वान् लोग ही समझ सकेंगे। यदी राम राज महल छोड़कर भीलों के छोटे-से-छोटे घर में गए हों तो रामयण भी पंडित का घर छोड़कर छोटे-से-छोटे घर में पहुंचनी चाहिए। अतः संस्कृत छोड़कर उन्होंने ग्राम्य भाषा में रामायण लिखने का संकल्प किया। एक ऐसा मत तुलसी जी के जीवन चरित्र में आता है क़ी शुरुआत में उन्होंने संस्कृत में लिखने का निर्णय लिया। रोज संस्कृत में लिखते और रात को आराम करके सुबह उठते तो देखते हैं क़ी पिछला लिखा हुआ सब गायब है। थोड़े दिनों तक तो ऐसा ही चलता रहा। तुलसीदास जी नाराज हो गए क़ी मेरा सार परिश्रम निष्फल हो रहा है। तब भगवान् शंकर ने कहा क़ी गोस्वामी जी आप संस्कृत को छोड़कर हिंदी भासा में ग्रन्थ लिखे। चौपईयाँ भी लिखीं। काव्य शास्त्र में चौपाईयों की रचना एकदम सामान्य कहलाती है। चौपाएयाँ बनाना कवी के लिये आसान काम है। परन्तु तुलसीदास जी के चौपाई लिखने के बाण उनकी चौपाई दुनिया की महारानी बन गयी। यह इसका प्रमाण है क़ी संत के हाथ में जो वास्तु आये तब उनको कितना गौरव मिलता है। सात कांडों में यह कथा लिखी गयी है। बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किधाकाण्ड, सुंदरकाण्ड, लंकाकाण्ड और उत्तरकाण्ड।

रामनवमी के दिन तुलसी दास जी ने लिखना प्रारंभ किया और यह ग्रन्थ कब समाप्त हुआ इसकी तिथि तुलसीदास जी ने नहीं बताई है। एक मत कि पूरा ग्रन्थ लिख जाने के बाद तुलसी ने ने निर्णय किया कि इस ग्रन्थ को शिवजी को अर्पण कर दूं और तब काशी में भगवान् विश्वनाथ के चरणों में अर्पण करने का उन्होंने निश्चय किया। विद्वान् ने विरोध किया कि इस हिंदी भाषा में लिखे गए ग्रन्थ को हम स्वीकार नहीं करेंगे। संस्कृत में हो तो हम इसे शास्त्र की तरह प्रधानता देंगे। यह तो एकदम ग्रामीण भाषा में लिखा गया है। लोक कथा जैसा ही लगता है। आपने कितनी सीधी भाषा में इसे लिखा है। इसे हम स्वीकार नहीं करेंगे। वाद-विवाद चर्चा आदि होने के पश्चात यह निर्णय लिया गया कि भगवान् विश्वनाथ के चरणों में सबसे नीचे तुलसी जी का रामचरितमानस रखा जाए उसके ऊपर पुराण और उसके ऊपर उपनिषद उसके ऊपर संहिता और इन सब के ऊपर चारों वेद रखने में आये और दरवाजे बंद कर दिए जाएँ। यदि दूसरे दिन सब ग्रंथों के ऊपर रामचरितमानस हो तो हम इसे स्वीकृति देंगे। पंडितों का एस तरह का आग्रह तुलसीदास जी के लिये सबसे बड़ी परीक्षा थी। उन्होंने यह सब स्वीकार कर लिया। रामचरितमानस सबसे नीचे और उसके ऊपर भारतीय संस्कृति के सभी ग्रन्थ रखे गए सारी रात तुलसी जे ने सजल नेत्रों से राम भजन किया। इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब दुसरे दिन विद्वान् लोग मन्दिर गए तो सबसे ऊपर रामचरितमानस था और उसके प्रथम पृष्ठ पर भगवान् शिवजी ने सही की थी। सत्यं शिवम् सुन्दरं। इतने शब्द रामचरितमानस को भगवान् शिव ने दिए। विद्वान् दंग रह गए इस दृश्य को देख करके तुलसी जी के चरणों में गिर पड़े। इस तरह तुलसी दास जी के ग्रन्थ को भगवान् शिव ने स्वीकृति दे दी। इस ग्रन्थ का विस्तार हुआ प्रचार हुआ। इतना बड़ा प्रमाण मिल जाने पर भी कुछ ईर्ष्यालु लोगों ने इसको नहीं माना। ईर्ष्या वाले पंडितों ने निर्णय किया कि तुलसी जी के पास एक ही प्रति हस्तलिखित है। अतः इसे चोरी करके जला दिया जाए। जिससे इसका प्रचार बंद हो जाए। परन्तु जब-जब चोर तुलसी जी क़ी कुतिया में रामचरितमानस चुराने गए तब-तब वे भाग गए। पंडितों ने चोरों से पूछा कि तुलसी जे के पास कोई शास्त्र नहीं है, आँखें बंद करके राम भजन करते हैं, और सो जाने के बाद भी आप रामचरितमानस क्यों नहीं चुरा सके। तब चोरों ने कहा कि हम जब-जब गए तब-तब एक कपिल महाकाल वानर उनके द्वार पर बैठा चौकसी कर रहा है, और यह चौकसी हनुमान महाराज करते थे। इस तरह तुलसी जी का रामचरितमानस चुराया नहीं जा सका और उन्हें उनकी शरण में जाना  पडा। इस तरह रामायण का प्रचार और भी तीव्र गति से होने लगा। तुलसी जी के शिष्य गोपाल नन्द से किसी ने पूछा कि आप तुलसी जी के साथ रह रहे हैं तो इस रामायण में को अभूतपूर्व घटना घटी? तब गोपाल नन्द जी ने अपने महात्म्य में लिखा है कि एक घटना घटी है। उस समय काशी का राजा और द्रविड़ का राजा  दोनों सेना सहित एक जगह इकट्ठे हुए। दोनों देश के राजा विहार के लिये निकले। दोनों की रानियाँ साथ थीं, जो गर्भवती थीं। जब वे दोनों अलग होते हैं तब ये कहते हैं कि यदि मेरे घर पुत्र हुआ आपकी पुत्री हुए या मेरे पुत्री हुई या आपके पुत्र हुआ तो हम दोनों समधी बन जायेंगे। हम आज से ही उनकी सगाई कर देते हैं। यदि दोनों के पुत्र और पुत्री हुए तो बात अलग है । इस तरह संकल्प कर के दोनों अलग हुए। समयोपरान दोनों के लडकियां हुए। उस समय ऐसा था कि लड़कियों का पैदा होना अशुभ मान जाता था। लडकी पैदा हो तो उसे दूध पीते करते थे। उसे मार डालते थे। अभी भी पुत्र उत्पन्न होता है तो थाली बजाते हैं। पुत्री के उत्पन्न होते ही सब सूना-सूना सा लगता है। द्रविड़ देश के रजा के यहाँ लडकी हुए। परन्तु उसकी रानी को हुआ क़ी लोग मुझे अपशकुन वाली मानेंगे कि लडकी का जन्म हुआ। अतः उसने यह बात जाहिर नहीं  की। उसने दासी को भी सावधान कर दिया। उससे कहा कि मेरे पुत्र हुआ है। द्रविड़ राजा ने काशी नरेश को खबर भिजवाई। काशी नरेश के यहाँ लडकी हुई थी। यह सुन कर द्रविड़ रजा नरेश बहुत खुश हुआ। उसने अपने लड़के को देखने की इच्छा प्रकट की। पर राने ने कहा कि ज्योतिषी ने कहा कि पुत्र की शादी से पहले यदि पिता ने मुंह देखा तो मर जाएगा। इस तरह वर्षो बीत गए। शादी क़ी तैयारियां होनी शुरू हो गयी। यहाँ से बरात लेकर काशी नरेश के यहाँ राजकुमार को जाना था। वैसे वह थी तो राजकन्या। राजकुमार तो था नहीं। राजकुमार जैसी पोशाक पहन कर मुंह न दिखाई दे, इस प्रकार चेहरा ढक के अपनी लडकी राजकुमार है ऐसा मानकर रानी उसे ब्याहने ले गयी। लग्नमंडप  में राजकुमार बनी राजकन्या बैठी थी कन्यादान के समय चार फेरे लेने की तैयारी थी। अठारह साल तक उसे छिपा कर रखा। ईश्वर की प्रेरणा से उसे अपनी भूल समझ में आए। यदि दोनी की शादी हो गयी तो इनका दाम्पत्य जीवन किस काम का? यह संसार में न घटने वाले घटना कहलाई जायेगी। राजा को एक अरफ ले जाकर राने ने क्षमा माँगी और कहा कि मुझे लोग अपशगुन वाली न समझें इसलिये मैंने पुत्र उत्पन्नं की घोषणा कर दी। अथारण साल तक आपसे छिपा कर रखा। रजा बोले, "अरे! देवी तुमने मुहे पहले यह बात क्यों नहीं बताए? हम राजपुरुष हैं हम लोगों को कैसे मुंह दिखाएंगे? काशी नरेश को क्या कहेंगे?" काशी नरेश समझ गया कि कुछ गड़बड़ी है? द्रविड़ ने नरेश से मिले और पूछा कि क्या बात है। उन्होंने सारे स्थिति बताई और कहा कि मेरी रानी ने यह कपट किया है। अब क्या करुं? मुझे पता भी नहीं था। काशी के राजा भी कठिनाए में पड़ गए। उन्होंने सोचा कि लोगों को पता चल जाएगो तो वे सोचेंगे कि रजा भी ऐसा करते हैं? दोनों ने निर्णय लिया कि हम छोड़ दें? समाज में मुंह नहीं दिखा सकेंगे फिर बाद में जो हो सो देखा जाएगा। शादी रूक गयी। किसी को पता नहीं कि क्या कठिनाइयाँ आईं? दोनों नरेश आत्महत्या करने बहार निकलते हैं। उस समय तुलसीदास जी हाथ में रामचरितमानस लेकर उनके पास से निकलते हैं। उस समय तुलसीदास जी भारत में प्रसिद्ध थे।दोनों राजाओं की नजर उन पर पडी और उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। तुलसी जी ने पूछा, "सम्राटों, क्यों अकेले? न सेना, न संरक्षक, न घोडा-रथ? पैदल क्यों जा रहे हो? क्या है? उन्होंने कहा, "प्रभु हमारे जीवन में एक कठिनाई आई है।" "क्या?" तुलसी जी ने कहा। द्रविड़ नरेश ने कहा, "मेरे यहाँ पुत्री उत्पन्न हुई मेरी रानी ने कपट करके कहा कि पुत्र हुआ है। आज इस कन्या का कन्या के साथ विवाह हो रहा है। मंडप में रानी ने मुझे सब कुछ बताया। पहले मुझे मालूम नहीं था लेकिन अब यह झूठ कब तक छिपा रहेगा? और समाज को क्य मुंह दिखलायेंगे? इसलिये हम दोनों आत्महत्या करने जा रहे हैं।" तुलसी जी हंस पड़े। एक तो भूल कर चुके और दूसरी भूल करने जा रहे हो। जरा यह तो सोचो कि कितने पुण्यों के बाद भगवान् मनुष्य देह देता है। तुलसी जी ने अपनी चौपाई कही।
बड़े भाग मनुष्य तनु पावा। सुर दुर्गन सदग्रंथ निगाबा ॥
साधन धाम मोक्ष कर द्वारा। पाई न जेही परलोक सवारा ॥
कई पुण्यों के एकठे होने के पश्चात मानव देह मिलता है और आज आप आत्महत्या करना चाहते हो। उन्होंने कहा कि "संसार से हम क्या मुंह छिपाएंगे।" तुलसी जी ने कहा, "भूल की है तो संसार को कह दो मैंने भूल की। यह कौन-सी बड़ी बात है? एक भूल कह दो तो दूसरी करने से बच जाओगे।" तुलसी जी ने कहा, "भाई मेरे पास कोई चमत्कार नहीं है। मेरे पास तो केवल रामनाम की महिमा है, पर एक काम करो। द्रविड़ देश के राजा की पुत्री को बड के नीचे बिठाओ। मैं उससे नौ दिनों तक रामायण कहूं और राजा की पुत्री उसे सुने। पूर्णहुती के बाद शायद प्रभु कोई कृपा कारें। एक बार अपनी लडकी को श्रोता बनाओ।" दोनों राजा वापस गए। शादी को बंद कर दिया। मूहर्त ठीक नहीं है ऐसा कहकर उन्होंने बात टाल दी। एक गाँव के बाहर बड के पेड़ के नीचे तुलसी दास जी बैठ गए। द्रविड़ देश दे राजा की लडकी मुख्य श्रोता के रूप में सामने बैठी नौ दिन रामचरितमानस का तुलसी जी ने अखण्ड पारायण किया। रामकथा कही। एकाग्रचित होकर उस कन्या ने तुलसी जे की कथा सुनी नवें दिन जब कथा पूरी हुए तो ठाकुर जी का जल लेकर रामायण की चौपाई द्वारा उस कन्या को आशीर्वाद देते हुए पानी का छींटा दिया। पानी की बूंदे उस कन्या पर पड़ते ही उसके शरीर में परिवतन हुआ और पुरुषत्व का निर्माण हुआ। संत क्या नहीं कर सकते? कन्या में से वह पुरुष बनी और काशी देश के राजा की लडकी के साथ उसका विवाह हुआ। तुलसी जी उनको आशीर्वाद देते हुए चले गए। जब हम यह घटना कहते हैं तो लोग पूछते हैं कि कथा तो वही है। हम कहते हैं कि हाँ। वे पूछते हैं कि आज हो सकता है? रामायण तो वही है जो तुलसी जी के पास है। हमने कहा, "जरूर हो सकता है। 105 प्रतिशत। पर शर्त यह है कि कहने वाला तुलसी दास जैसा होना चाहिए, और सुनने वाला द्रविड़ नरेश की राजकन्या जैसा होना चाहिए। यदि ये दो वस्तुएं इकट्ठी न हों तो घटना न होगी। इन दोनों के मिलाप से घटना घटेगी। एक बार मनुष्य रामायण सुने तो मानव में सचमुच ही नरत्व का निर्माण होगा। आज का मनुष्य नर होते हुए भी रोता है सिर दीवार से मारता है। रामायण सुनने के बाद उसकी हिम्मत पैदा हो जायेगी। उसमें सचमुच पुरुष्ट पैदा हो जाएगा। खुमारी का निर्माण होगा। निर्मस्यता दूर होगी और दिव्यता पैदा होगी। ऐसा इस कथा में शक्ति है।"

'बोलो श्रीरामचंद्र जी की जय-

सत सृष्टी तांडव रचयिता, नटराज राज नमो नमः ।
आघ गुरु शंकर पिता, नटराज राज नमो नमः ।
शिरज्ञान गंगा चन्द्रमा, ब्रहम ज्योति ललाट मां ।
इष्ट नाग माला, कंठ मां, नटराज राज नमो नमः ।
ॐ श्री राम जय राम जय जय राम ।
ॐ श्री राम जय राम जय जय राम ।

॥ इति श्री रामचरितमानस महात्म्य समाप्त ॥

श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी



{------------श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी -------------}
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श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव
गरीबों की कश्ती लगादे किनारे...
सिवा तेरे गिरिधर कौन हमारे...(२)
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तेरा नामी है मुश्किल में पावा
यादों में तेरी मैं बन गया सुदामा, दरस दिखादे यशोदा के पायरे ।
चरन में रख ले नन्द दुलारे,
चरन में रख ले नन्द दुलारे ।
श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव
श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव
श्री राम जय राम जय जय राम
श्री राम जय राम जय जय राम
मंगल भवन अमंगल हारि, द्रवऊ सोसु दशरथ अजर बिहारी ।
जय - जय हनुमान गोसाई
कृपा करो देवकी नाई....(२)
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साधु संत के तुम रखवाले, असुर निकंदन राम दुलारे,
असुर निकंदन राम दुलारे,
श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव
श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव
गरीबों की कुश्ती लगा दे किनारे...
सिवा तेरे गिरिधर कौन हमारे....(२)
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श्री राम जय राम जय जय राम
श्री राम जय राम जय जय राम

मुरली बजा दे मुरली वाले...(२)
शरण में रख ले नन्द दुलारे,
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श्री राम जय राम जय जय राम,
श्री राम जय राम जय जय राम,

श्री राम जय राम जय जय राम ।

रामबाण क़ी महिमा

राम बाण लगे वह तो जाने,
प्रभु के बाण लगे वही जाने ।

अरे मूर्ख तू मन में क्या बने?
रामबाण लगे तभी तू जाने,

ध्रुव को लगा प्रहलाद को लगा ।
वे तो बैठे हरि के ठिकाने ॥१॥

गर्भवास में शुक्रदेव को लगा
ये तो वेद वचन प्रमाने ॥२॥

मोरध्वज राजा का मन हर लिया ।
हरि तोआये उसी के ठीकाने ॥३॥

आरी चलाई पुत्र के सिर पर।
पत्नी पुत्र तर गये प्रभु के धामें ॥४॥

मीराबाई पर क्रोध किया था।
राणा चले तलवार चलाने ॥५॥

विष का प्याला गिरधर पिया ।
यह तो बना अमृत के साने ॥६॥

नरसिंह मेहता क़ी हुन्डी स्वीकारी ।
ऋण को उतारा समय के सहारे ॥७॥

आगे संत अनेक पधारे ।
ऐसा धन्नो भगत उचारे ॥८॥

रामबाण लगे वही तो जानी ।

श्री सीताराम



{-------------"सीताराम, सीताराम, सीताराम कहिये"-----------}
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सीताराम, सीताराम, सीताराम कहिये ।
जाही विधि राखै राम, ताही विधि रहिये ॥
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मुख में हो राम नाम, राम सेवा हाथ में ।
तू अकेला नहीं प्यारे, राम तेरे साथ में ॥
विधि का विधान जान, हानि लाभ सहिये ।
जाही विधि...
सीताराम, सीताराम, सीताराम कहिये ।
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किया अभिमान तो फिर मान नहीं पायेगा ।
होगा प्यारे वही जो श्रीरामजी को भाएगा ॥
फल आशा त्याग, शुभकाम करते रहिये । जाही विधि...
सीताराम, सीताराम, सीताराम कहिये ।
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जिंदगी की डोर सौंप, हाथ दीनानाथ के ।
महलों में राखे, चाहे झोपडी में बास दे ॥
धन्यवाद निर्विवाद राम राम कहिये । जाहि विधि...
सीताराम, सीताराम, सीताराम कहिये ।
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आशा एक रामजी से, दूजी आशा छोड़ दे ।
नाता एक रामजी से, दूजा नाता तोड़ दे ।
साधू संग, राम रंग, अंग अंग रंगिये ।
काम रस त्याग प्यारे, राम रस पगिये । जाही विधि...
.
सीताराम, सीताराम, सीताराम कहिये ।
जाही विधि राखै राम, ताही विधि रहिये ॥

श्री गायत्री स्तुति



हे देवी सावित्री! हे त्रिपदे! हे अजरअमर ! माँ गायत्री! इस संसार सागर में से मुझे मुक्ति दो। सूर्य सामान तेजस्वी और सूर्य को उत्पन्न करने वाली हे अमले! हे गायत्री आपको में प्रणाम करता हूँ। ब्रहमविद्या तथा महाविद्या स्वरुप हे वेदमाता गायत्री! आपको में प्रणाम करता हूँ। अनंत कोटि ब्रह्माण्ड में व्याप्त परम ब्रह्मचारिणी, सदा आनंद स्वरुप है। महामाया ईश्वरी! आपको में प्रणाम करता हूँ। आप ब्रहम को आप विष्णु हो आप साक्षात रूद्र और इन्द्रदेव हो। आप मित्रहो। आप वरुण हो। अप अग्नि और अश्विनी कुमार हो। आप भाग स्वरुप भी हो। पूषा, अर्पमामरूत्वान, ऋषियों, मुनियों, पिता नाग, यज्ञ गन्धर्व, अप्सराएं, राक्षस, भूत, पिशाच भी आप ही हो, और ऋग्वेद यजुर्वेद, सामवेद तथा अर्थवेद भी आप ही हो। आप ही सर्वशास्त्र, संहिता, पुराण और तंत्र हो। हे माँ गायत्री! पंचमहाभूत, जगत के सभी तत्त्व, ब्राह्मी, सरस्वती, संध्या, तुरीय चार स्वरुप आप हो। ततसद ब्रह्म्स्वरूप और सदसदात्म भी आप हो। हे परे से भी परे, हे अम्बिके, हे माँ गायत्री आपको मैं प्रणाम करता हूँ।

श्री विष्णु स्तुति


जो परे से भी परे और प्रकृति से भी परे है जो अनादी, एक ही होते हुए देहरूपी गुफा में अनेक स्वरुप में रहते हों जिनमें सभी तत्वों का निवास है जो चराचर जगत में सर्वत्र हैं। ऐसे जगत के एक नाथ भगवान् श्री विष्णु को मैं नमन करता हूँ। हे गोविन्द! मेरे दोनों पांवों का रक्षण करो। हे त्रिविक्रम! मेरी दोनों जंघाओं का रक्षण करो। हे केशव! मेरे दोनों उरु का और हे जनार्दन! मेरी कमर का रक्षण करो। हे अच्युत! मेरी नाभि का और हे वामन-स्वरुप! मेरे गुहा भाग का रक्षण करो। हे पद्मनाभ! आप मेरे पेट का और हे माधव! आप मेरी पीठ का रक्षण करो। विष्णु भगवान् आप मेरी बायीं और हे मधुसूदन! आप मेरी दायीं ओर का रक्षण करो हे वासुदेव! आप मेरे दोनों हाथों का और हे दामोदर, आप मेरे ह्रदय का रक्षण करो। हे नारायण आप मेरी दोनों आँखों का और हे गरुडध्वज आप मेरे ललाट का रक्षण करो। हे केशव आप मेरे दोनों गालों का और हे वैकुण्ठ! आप मेरा सर्व दिशाओं से रक्षण करो। हे श्रीमात्साम्वक आप मेरे सर्व अंगों का रक्षण करो। पूर्व दिशा में हे पुण्डरीकाक्ष, अग्नि में श्रीधर, दक्षिण में नृसिंह, नेत्रित्व में माधव, पश्चिम में भगवान् पुरुषोतम और वायव में हे जनार्दन! आप मेरा रक्षण करो। उत्तर में हे गदाधर और ईशान में हे केशव आप मेरा रक्षण करो। आकाश में गदा और पाताल में सुदर्शनचक्र मेरा रक्षण करो।

रामायण – किष्किन्धाकाण्ड - जाम्बवन्त द्वारा हनुमान को प्रेरणा

विशाल सागर की अपार लम्बाई देख कर सभी वानर शोकाकुल हो एक दूसरे का मुँह ताकने लगे। अंगद, नल, नील तथा अन्य किसी भी सेनापति को समुद्र पार कर के जाने का साहस नहीं हुआ। उन सबको निराश और दुःखी देख कर वृद्ध जाम्बन्त ने कहा, "हे पवनसुत! तुम इस समय चुपचाप क्यों बैठे हो? तुम तो वानरराज सुग्रीव के समान पराक्रमी हो। तेज और बल में तो राम और लक्ष्मण की भी बराबरी कर सकते हो। तुम्हारा वेग और विक्रम पक्षिराज गरुड़ से किसी भी भाँति कम नहीं है जो समुद्र में से बड़े-बड़े सर्पों को निकाल लाता है। इतना अतुल बल और साहस रखते हुये भी तुम समुद्र लाँघ कर जानकी जी तक पहुँचने के लिये तैयार क्यों नहीं होते? तुम्हें तो समुद्र या लंका में मृत्यु का भी भय नहीं है क्योंकि तुम्हें देवराज इन्द्र से यह वर प्राप्त है कि मृत्यु तुम्हारी इच्छा के आधीन होगी। जब तुम चाहोगे, तभी तुम्हारी मृत्यु होगी अन्यथा नहीं। तुम केशरी के क्षेत्रज्ञ और वायुदेव के औरस पुत्र हो, इसीलिये उन्हीं के सदृश तेजस्वी और अबाध गति वाले हो। हम लोगों में तुम ही सबसे अधिक साहसी और शक्तिशाली हो। इसलिये उठो और इस महासागर को लाँघ जाओ। तुम्हीं इन निराश वानरों की चिन्ता को दूर कर सकते हो। मैं जानता हूँ, इस कार्य को केवल तुम और अंगद दो ही व्यक्ति कर सकते हो, पर अंगद अभी बालक है। यदि वह चूक गया और उसकी मृत्यु हो गई तो सब लोग सुग्रीव पर कलंक लगायेंगे और कहेंगे कि अपने राज्य को निष्कंटक बनाने के लिये उसने अपने भतीजे को मरवा डाला। यदि मैं वृद्धावस्था के कारण दुर्बल न हो गया होता तो सबसे पहले मैं समुद्र लाँघता। इसलिये हे वीर! अपनी शक्ति को समझो और समुद्र लाँघने को तत्पर हो जाओ।"

जाम्बवन्त के प्रेरक वचनों को सुन कर हनुमान को अपनी क्षमता और बल पर पूरा विश्वास हो गया। अपनी भुजाओं को तान कर हनुमान ने अपने सशक्त रूप का प्रदर्शन किया और गुरुजनों से बोले, "आपके आशीर्वाद से मैं मेघ से उत्पन्न हुई बिजली की भाँति पलक मारते निराधार आकाश में उड़ जाउँगा। मुझे विश्वास हो गया है कि मैं लंका में जा कर अवश्य विदेहकुमारी के दर्शन करूँगा।" यह कह कर उन्होंने बड़े जोर से गर्जना की जिससे समस्त वानरों के हृदय हर्ष से प्रफुल्लित हो गये। सबसे विदा ले कर हनुमान महेन्द्र पर्वत पर चढ़ गये और मन ही मन समुद्र की गहराई का अनुमान लगाने लगे।


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रामायण – किष्किन्धाकाण्ड - जाम्बवन्त द्वारा हनुमान को प्रेरणा
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रामायण – किष्किन्धाकाण्ड - पम्पासर में राम हनुमान

श्री देवी स्तुति


ॐ चंडिका को नमन करता हूँ। हे महारुद्र स्वरुप वाली, महाभयंकर पराक्रमी देव। आपको में नमस्कार कटा हूँ। हे महाबलवान शत्रु को भयभीत करने वाली महा उत्साही देवी! आप मेरा रक्षण करो। पूर्व दिशा में ऐन्द्री आग्नेय में अग्नि देवता और दक्षिण दिशा में वाराही मेरा रक्षण करो। नैऋत्व में से खड्गधारिणी देवी! मेरी रक्षा करो। पश्चिम में से वारूणी और उत्तर में कौबेरी, वायव्य में मृगवाहिनी तथा ईशान में से त्रिशूला देवी मेरी रक्षा करो। आकाश में से ब्रह्माणी और पाताल में से वैष्णवी मेरा रक्षण करो। दस दिशानों में से शववाहिनी चामुंडा देवी मेरी रक्षा करो तथा मेरे अगले भाग में जाया तथा पीठ के भाग का विजय देवी रक्षण करो। मेरी बायीं तरफ का अजिता और दायीं तरफ का अपराजिता देवी रक्षण करें। मेरे सत्व, राजस, तामस तीन गुणों का नारायणी, मरी आयुष का वाराही, मेरे धर्म, यश, कीर्ति और लक्ष्मी का वैष्णवी, मेरे गोत्र का इन्द्राणी और हे चंडिका देवी! मेरे पशुओं का आप रक्षण करो। हे भैरवी आप मेरी पत्नी का, महालक्ष्मी आप मेरे पुता का रक्षण करो। हे कल्याणी मेरे मार्ग का और हे विजय देवी! आप मेरी चारों ओर से रक्षण करो।

श्री सूर्य देव क़ी स्तुति


हाथो में वाजुबंध, कानों में कुंडल, माथे पर मुकुट तथा गले में हार धारण किये सुवर्ण सामान तेजस्वी कान्ति वाले, हाथ में शंख और चक्र धारण करने वाले, सूर्य मंडल के मध्य में पघासन लगाकर बैठे हुए हे सूर्य नारायण भगवान्! मैं आपका लगातार ध्यान रखता हूँ। जिनका एक पहिये वाला रथ सोने से जडित हैं और जिसके हाथ में पुष्प शोभित होते हैं, ऐसे दिन के करने वाले हे सूर्य नाराय भगवन! मेरे पर प्रसन्न होईये।
मित्र को नमस्कार हो। रवि को नमस्कार हो। सूर्य को नमस्कार। भानु को नमस्कार हो। आकाश को नमस्कार हो पूषा को नमस्कार हो। हिरण्यगर्भ को नमस्कार हो। मरीचि को नमस्कार हो। सविता को नमस्कार हो। भास्कर को नमस्कार हो। अर्क को नमस्कार हो। जगत के एक नेत्र रूप, जगत क़ी उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का रूप, ऋक, यजुस, साम ये तीन वेदरूप तथा सत्व, जजस और तमस तीनों गुणों को धारण करने वाले ब्रह्मा, विष्णु और महेश रूप हे सूर्य नारायण भगवान्! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। हजारों किरणों वाले, हजारों शाखायुक्त स्वरुप हजारों योगों से उत्पन्न हुई वस्तुएं भोगने वाले और हजारों युगों को धारण करने वाले हे सूर्य भगवान्! में आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ।

श्री कृष्ण स्तुति


अजन्मे तेरे पाँव क़ी, मणिधारी प्रभु तेरे घुटने क़ी, यज्ञपुरुष तेरे जंघाओं क़ी भगवान् अच्युत तेरी कटी क़ी, हयग्रीव तेरे उदार की, भगवन केशव तेरे ह्रदय की, सूर्य भगवन तेरे कंठ क़ी, विष्णु भगवान् तेरी भुजाओं क़ी और हे ईश्वर! तेरे मस्तक ही रक्षा करे। चक्र धारण करने वाले तेरे अग्रभाग में गदाधारी भगवान् तेरे पृष्ठभाग में, धनुष और खादाग्धारी तेरे दोनों और कोनों में शंख्धारी भगवान् तेरी रक्षा करें। भगवान् उपेन्द्र तेरे ऊपर के भाग में और हलधर तेरे चारों और रहे। हृषिकेश तेरी इन्द्रियों का रक्षण करे। नारायण तेरे चित्त का और भगवान् योगेश्वर तेरे मन का रक्षण करे। पृश्नगर्भ तेरी बुद्धि का, परमात्मा तेरी आत्मा का, गोविन्द तेरे क्रीडा समय और माधव तेरे सोने के समय रक्षण करे। वैकुण्ठ भगवान् तेरे चलते समय, लक्ष्मीपति तेरे बैठते समय और यज्ञमुक भगवान् तेरे भोजन के समय तेरा रक्षण करें। भूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष, डाकिनी, विनायक, कोहरा, खेती, ज्येष्ठा, पूतना तेरे उन्माद और अपस्माण से रक्षण करे।

श्री राम क़ी स्तुति



जिनके हाथ घुटने तक लम्बे हैं जिसने धनुष बाण हाथ में धारण किया हुआ है। जो पद्मासन बनाकर बैठे हैं, जिसने पीताम्बर धारण किया है। कमल के समूह से भी अधिक जिसके नेत्र हैं जो प्रसन्न हैं। बायीं तरफ विराजमान सीता के कमल मुख पर जिसके नेत्र हैं, जिसकी कान्ति मेध सामान है। अनेक प्रकार के अलंकारों से सुशोभित अधिक जटारूपी आभूषण को जिसने धारण किया हुआ है उस राम का में ध्यान करता हूँ।

हे कौशल्या पुत्र ! मेरी आँखों की रक्षा करो, हे विश्वमित्र के प्रिय, मेरे दोनों कानों क़ी रक्षा करो। यज्ञ क़ी रक्षा करने वाले मेरी नासिका क़ी रक्षण करो और लक्ष्मण जी जिसे प्रिय हैं ऐसे हे रामचंद्र जी मेरे मुख क़ी रक्षा करो।
हे विद्या के भंडारी! मेरी जीभ क़ी रक्षा करो। हे! भारत जी द्वारा नमस्कार किये गए रामचंद्र जी मेरे कंठ क़ी रक्षा करो और शिव के धनुष को तोड़ने वाले रामचंद्र जी मेरी भुजाओं क़ी रक्षा करो।

हे सीता पति मेरे हाटों ही रक्षा करो। हे परशुराम को जीतने वाले रामचंद्र मेरे हृदय क़ी रक्षा करो। खर दैत्य को मारने वाले रामचन्द्र मेरे मध्य भाग की रक्षा करो। जाम्बुवान के आशय रूप मेरी नाभि क़ी रक्षा करो।

हे सुग्रीव के ईश्वर रामचंद्र! मेरी कमर क़ी रक्षा करो। हे बज्रंबली हहुमन के प्रभु रामचंद्र जे मेरी जांघो क़ी रक्षा करो राक्षस कुल का नाश करने वाले रघुकुल में उत्तम रामचंद्र जी! दोनों जांघो क़ी रक्षा करो।

हे समुद्र पर सेतु बांधे वाले रामचंद्र मेरे घुटनों क़ी रक्षा करो। हे रावन का नाश करने वाले रामचंद्र मेरी जांघ क़ी रक्षा करो। विभीषण को संपत्ति देने वाले रामचंद्र मेरे शरीर क़ी रक्षा करो।

श्री शिव क़ी स्तुति



एकांतवास जिनको अत्यंत प्रिय है। ऐसे हे भोले शम्भू। शुक्ष्म रूप से हमेशा अपने भक्तो के पास रहे हुए और अभक्तों से दूर रहे हुए ऐसे प्रभु आपको मैं प्रणाम करता हूँ। कामदेव का नाश करने वाले हे भोलेशंकर! अत्यंत शूक्ष्म रूप से तथा अत्यंत वृहत स्वरुप से रहे हुए आपको मैं अनेक बार नमस्कार करता हूँ। हे तीन नेत्रों वाले! आप अत्यंत वृद्ध स्वरुप वाले भी हो। आप अत्यंत युवक रूप वाले भी हो। ऐसे आपको मेरा प्रणाम हो। सृष्टी की उत्पत्ति कर्ता तथा विनाश कर्ता आपको असंख्य प्रणाम हो। अखंड चैतन्य स्वरुप वाले आप हो। उसी प्रकार ब्रह्म स्वरुप भी आपका ही है। अनेक स्वरूपों वाले हे शम्भो ! मेरा आपको प्रणाम हो। अभेद स्वरुप तथा परब्रह्म स्वरुप में पहले आपको मेरा प्रणाम हो। हे! शम्भो! यह सारा संसार आपने उत्पन्न किया है। ऐसे रजोगुण वाले ब्रहम स्वरुप को में वंदन कर्ता हूँ। जगत के प्रलय में भी आप ही कारन भूत हो। आपके तमोगुण वाले शंकर स्वरुप को में वंदन करताहूँ और इस सृष्टी का कल्याण करने वाले सत्त्व गुण रुपी विष्णु स्वरुप को में वंदन करता हूँ। सत्त्वादी गुणों से रहित अर्थात निर्गुण और माया से अलिपते तेज स्वरुप में शिव रूप यानी मोक्ष रूप में रहे आपको में प्रणाम करता हूँ।

में राणद्वेष युक्त अल्प्बुधि वाला हूँ। परन्तु आपकी भक्ति करने से मुझे आपका स्तवन करने क़ी शक्ति मिलती है। उससे ही मैं आपके गुणगान गा सकता हूँ। अतः हे शम्भो! हे शंकर ! आप मेरा कल्याण करो। मेरा उद्धार करो।

श्री गणपति क़ी स्तुति


ॐ नमस्ते गणपतये । त्वमेव प्रत्यक्षं तत्त्वमसि । त्वमेव केवलं कर्तासी । त्वमेव केवलं धर्तासि । त्वमेव केवलं हर्तासि । त्वमेव सर्व खल्विदंब्रह्मासि । त्वं साक्षादात्मासि नित्यम ॥ १ ॥
ऋतुं वच्मि । सत्यं वच्मि ॥
अवत्वं माम् । अव वक्तारम् । अव श्रोतारम । अव दातारम । अव धातारम् । अवानूचानमव शिष्यंम् । अव पश्चात्तात् । अव पुरस्तात् । अवोत्तरात्तात् । अव दक्षिणयात्तात् । अव चौध्वार्त्तात् । अवधरात्तात् । सर्वतो माँ पाहि पाहि समंतातं ॥ ३ ॥
त्वं वांगमयस्त्वं चिन्मय: । त्वमानंदमयस्त्वं ब्रह्ममय: । त्वं सच्चिदानन्दाद्वितीयोसि । त्वं प्रत्यक्षं ब्रहमासि । त्वं ज्ञानमयो विग्यन्मयोसी ॥ ४ ॥
सर्व जगदिदम त्वत्तस्तिष्टति । सर्व जगदिदम त्वयि लयमेष्यति । सर्व जगदिदं त्वयि लयमेष्यति । सर्व जगदिदं त्वयि अत्येति । त्वं भूमिरारोsनलोsनिलो नम: । त्वं चत्वारि वाकपदानि ॥ ५ ॥
ॐ नमस्गण्पतयेते ।

हे ओमकार स्वरुप गणेश जी ! आपको मेरा नमस्कार हो। आप प्रत्यक्ष ब्रह्म है। इस सृष्टी को धारण करने वाले आप हो उसका रक्षण करने वाले आप हो और आप उसका संहार भी करते हो। यह सर्व जो ब्रह्म स्वरुप में रहा है वह अप ही हो। में तो सृष्टी के नियमानुसार वाणी उच्चारण करता हूँ। में सच ही बोलता हूँ क़ी आप मेरा रक्षण करो आपको ऐसा वर्णन करने वाले मेरा आप रक्षण करो। में आपके निमित्त के लिये दान करने वाले मेरा आप रक्षण करो। में आपके शिष्य सामान हूँ, अतः आप मेरा रक्षण करो। सभी विध्नों में आप मेरा पश्चिम दिशा से रक्षण करो। पूर्व दिशा में से मेरा रक्षण करो। पाताल की दिशा में से रक्षण करो। आप प्रत्येक वास्तु में से मेरा रक्षण करो। आप चारो तरफ से मेरा रक्षण करो। आप वाणी रूप हो, जीवरूप हो, आनंदमय हो, ब्रह्म, रूप हो, ज्ञानमय हो और विज्ञानमय भी हो। यह सारा संसार आपके द्वार उत्पन्न हुआ है। और आपके द्वारा चलता है। यह सर्व जगत आपमें ही लय होता है। आपके द्वारा उत्पन्न हुआ है। और आपके द्वारा चलता है। यह सर्व जगत आपमें ही लय होता है। आपके द्वारा ही फिर शुरू होता है। आप पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाशरूप हो। परा, पश्यन्ति, मध्यमा और वैखरी ये चार वाणी के आप उदगाता हो। ऐसे आप गणपति को मेरा नमस्कार हो
इन्हें भी देखें :-
श्री नवग्रह स्तुति
श्री दशावतार स्तुति

मीरा और मोहन

किसी प्रेम को, आस्था को या समर्पण को जानना है, तो मीरा को जानना होगा। मीरा को जानना मोहन को पाने के बराबर है। कारण इसका यह भी है कि एक स्तर पर आकर उनका आपस का भेद ही ख़त्म हो जाता है..

कृष्ण को जानना हो, तो मीरा को सेतु बनाओ, क्योंकि मीरा के अलावा दूसरा कोई सेतु नहीं जो कृष्ण की थाह पा सके। भक्त हर युग में हुए, मगर मीरा जैसा भक्त किसी युग में दूसरा नहीं हुआ। मीरा की कृष्ण भक्ति के आगे दुनिया की हर भक्ति फीकी दिखाई पड़ती है। मीरा कृष्ण जी की मूर्ति के सामने खड़ी होकर कहती हैं- ‘मैं तो सिर्फ़ इस योग्य हूं कि तुम्हारे गीत गा सकूं। इसके अलावा मुझमें दूसरा कोई गुण नहीं है।

‘जहां बैठाने तित ही बैठूं, बेचे तो बिक जाऊं।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, बार-बार बलि जाऊं।’


अर्थात- अब तो मेरा जीवन उसी की आज्ञा के जैसा चलता है। जहां बिठा देता है, वहीं बैठ जाती हूं। उठने को कहता है, तो उठ जाती हूं। मेरे तो प्रभु कृष्ण कन्हैया हैं, जिन पर जीवन बलिहारी है। परमात्मा के प्रति मीरा की दीवानगी इस हद तक थी कि उन्हें दुनिया में कृष्ण के अलावा कुछ दिखाई ही नहीं देता था। वह कहती हैं, संतों के संग बैठ बैठ कर वह जो लोक लाज का व्यर्थ आडम्बर था, बोझ था वह सारा मैंने उतार दिया है। संत के संग बैठ कर भी अगर लोग लाज न खोई, तो संत से क्या सीखा?

कौन थीं मीरा?
मीरा कृष्ण की दीवानी थी, ऐसा सारा संसार जानता है। मगर उनकी पृष्ठभूमि को जानना भी बहुत Êारूरी है। मीरा का जन्म राठौर परिवार के रत्न सिंह और वीर कुंवरी के घर 1512 में मेड़ता में हुआ था। मीरा के दादा का नाम राव द्दा जी था, जो अत्यंत धनाडच्य थे। मीरा की माता वीर कुंवरी झाला राजपूत सुल्तान सिंह की बेटी थी। रत्न सिंह ने कुड़की गांव को अपना केंद्र बनाया था। मीरा ने गुरु गजाधर से शिक्षा ग्रहण की। उन्हें अपनी आजीविका के लिए सात हज़ार बीघा जमीन दे रखी थी और उन्हें व्यास की पद्वी से विभूषित किया था। मीरा की एक बाल सखी थी ललिता, जो वास्तव से उसकी दासी थी।

एक बार मीरा महल के ऊपर खड़ी थी। नीचे से एक बारात जा रही थी। बाल सुलभ मीरा ने मां से पूछा कि यह क्या हो रहा है? मां ने बताया कि बारात जा रही है। मीरा के यह पूछने पर कि बारात क्या होती है? मां ने कहा कि वर पक्ष के लोग कन्या के घर पर उसे विवाह कर लातें है और विवाह में वर का किसी कन्या के साथ विवाह होता है। उसने मां से पूछा कि मेरा वर कौन होगा? इतने में कुल पुरोहित श्रीकृष्ण की एक मूर्ति लेकर आए और मां ने मज़ाक में कह दिया कि यह है तेरा वर। और मीरा ने श्रीकृष्ण को अपना वर मान लिया।

जब मीरा की शादी हुई
मीरा जब शादी के योग्य हुईं, तो माता-पिता ने उनका रिश्ता राजकुंवर भोजराज से कर दिया। भोजराज चितौड़ नरेश राणा सांगा के पुत्र थे। मीरा ने इसे अपनी दूसरी शादी करार दिया। राजघराने की बहू बनने के बाद भी वह हर व़क्त श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहने लगीं। मीरा की एक देवरानी थी अजब कुंवरी, जो बाल विधवा थी। उसने मीरा की भावनाओं को समझ लिया तथा उसे सखी जैसा प्यार देने लगी। दूसरी तरफ़ उसकी ननद ऊदो ने बड़ी कोशिश की कि मीरा कृष्ण भक्ति छोड़ दें, मगर असफल रहीं।

राजकुंवर भोजराज की असमयिक मृत्यु हो गई। प्रथा के अनुसार पति की मृत्यु पर पत्नी को सती हो जाना था, मगर मीरा ने सती होने से इंकार कर दिया। सभी लोग चाहते थे कि मीरा सती हो जाए, मगर भोजराज का छोटा भाई मीरा के पक्ष में खड़ा हो गया और वह सती होने से बच गईं।

जब मीरा पर अत्याचार हुए
उसी समय बाबर ने भारत पर आक्रमण कर दिया। राणा सांगा और बाबर में भीष्ण युद्ध हुआ, तो मीरा के पिता रत्न सिंह और भाई जलमल तथा अन्य रिश्तेदार राणा सांगा के साथ खड़े हो गए। मगर युद्ध में मारे गए, जिससे मीरा बहुत आहत हुईं। राणा सांगा भी मारा गया, तो चित्तौड़ की गद्दी पर राणा रत्न सिंह और उसके बाद विक्रम सिंह बैठे। विक्रम सिंह की बुरी नज़र मीरा पर पड़ गई। उसने मीरा को प्राप्त करने का हर संभव प्रयास किया, मगर उसके इंकार करने पर वह मीरा से बदला लेने की सोचने लगा।

जन्माष्टमी के दिन राजा विक्रम सिंह ने मीरा को एक उपहार पेटिका भेजी, जिसमें काला भयंकर सांप था। मीरा ने पेटिका खोली, तो उस सांप को देखते ही पकड़ लिया। उसे कुछ नहीं हुआ। इतना ही नहीं, एक बार मीरा को धोखे से श्रीकृष्ण का चरणामृत कहकर विष भेजा गया। मीरा विष पीकर भी Êिांदा रहीं। तब क्रोधित विक्रम सिंह ने मीरा पर तलवार से हमला किया, तो उसे एक साथ चार-चार मीरा नज़र आने लगीं। आख़िरकार मीरा अपने ताया के पास मेड़ता चली गईं, ताकि उसके अत्याचारों से बच सके। वह मथुरा वृंदावन भी गईं। और वहां के रणछोड़ जी के मंदिर में अपने बनाए भजन गाया करती थीं।

मीरा समुद्र की लहरों में समा गईं
उधर राणा विक्रम अभी भी मीरा के पीछे पड़ा था। उसने पुरोहितों को मीरा के पास भेजा कि राणा बदल गया है। उसने यह भी कहलवा दिया कि अगर वह न लौटीं, तो वह आमरण अनशन करेगा। मीरा ने समझ लिया कि अब प्रभु मिलन का समय आ गया है। वह समुद्र की लहरों की ओर बढ़ने लगीं और इस तरह 1573 में वह समुद्र की लहरों में समा गईं।

नमस्कार : भारतीय संस्कृति और सभ्यता का परिचायक

स्वामी विदेहयोगी हैं कि नमस्कार का धार्मिक व आध्यात्मिक महत्व भी है। नमस्कार कहीं क्रिया में होता है तो कहीं किसी को सम्मान देने में प्रयोग होता है। नमन अर्थात अहम को त्याग कर दूसरों को सम्मान देना। जब अहम की भावना नहीं होगी, तो वहां परोपकार की भावना विकसित होगी। दूसरों का भला सोचना और करना ही धर्म है। जब अहम का त्याग करेंगे तो मानसिक रूप से संतुष्टि भी मिलेगी..

नमस्कार मात्र एक शब्द नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति व सभ्यता का परिचायक भी है। नमस्कार रूपी शब्द बचपन से लेकर जीवनर्पयत हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा है। नमस्कार दो शब्दों नमन व कार से मिलकर बना है। नमन अर्थात सत्कार या आदर और कार का मतलब करने वाला। बड़ों का आदर सत्कार करना, घर आए मेहमान का आदर व अभिवादन करना शिष्टाचार दर्शाता है। भारत में प्राचीन काल से ही दूसरों के अभिवादन के लिए नमस्कार या नमस्ते अथवा प्रणाम करने की परंपरा चली आ रही है। आज इस परंपरा अथवा अभिवादन के तरीके से विश्व के दूसरे देश भी अवगत हैं।

अर्थ एक-भाव अनेक
भारतीय संस्कृति में सामान्यत: नमस्कार, नमस्ते और प्रणाम तीनों दूसरों के अभिवादन से जुड़े हैं, लेकिन इनमें अंतर भी है। स्वामी विदेह योगी के मुताबिक नमस्कार का अर्थ हुआ नमन करने वाला। वहीं नमस्ते नमन व ते शब्द से मिलकर बना है अर्थात मैं तुम्हारा सत्कार करता हूं। प्रणाम प्र व नम शब्द से मिलकर बना है, प्र यानी अच्छी प्रकार या अच्छे भाव से आपको नमन करता हूं। प्राचीन काल में नमस्ते कह कर ही अभिवादन किया जाता था। कालांतर में नमस्कार भी कहा जाने लगा।

सेहत के लिए हितकर
नमस्कार या नमस्ते अथवा प्रणाम केवल अभिवादन करने के तरीके मात्र नहीं हैं, बल्कि स्वस्थ रहने का कारण भी निहित है। आयुर्वेदाचार्य डा. मोहित गुप्ता के मुताबिक नमस्कार का अर्थ है अहम का परित्याग कर हस्तबध नमन करना। तमाम भावों को दूर कर दूसरों को नमन करने से तरलता और सहजता महसूस होती है, जिससे मानसिक तनाव दूर होगा और रक्त प्रवाह सामान्य रहेगा। रक्त प्रवाह ठीक रहने से दिल भी स्वस्थ रहेगा। कई मर्तबा बुरे व्यक्ति को सामने देख हृदय गति बढ़ जाती है, लेकिन जब उस व्यक्ति का भी सहज भाव से अभिवादन किया जाएगा तो हृदय गति फिर सामान्य हो जाती है।

पूरे शरीर पर पड़ता है असर
स्वामी विदेह योगी के मुताबिक नमस्ते या नमस्कार अथवा प्रणाम हाथ जोड़ कर किया जाता है। जिससे दोनों हाथों का आपस में स्पर्श व दबाव बनेगा, एक्युप्रेशर चिकित्सा में दबाव ही महत्वपूर्ण माना गया है। हथेलियों का दबाव बनने से पूरे शरीर पर प्रैशर पड़ता है, जिससे रक्त की गति सही होती है। लिहाजा यह पूरे शरीर के लिए हितकर है।

समाज में है विशेष स्थान
केयू में समाजशास्त्र विभाग के लेक्चरर डा. प्रेम कुमार के मुताबिक नमस्कार या नमस्ते से दूसरों के प्रति सम्मान की भावना दिखती है। समाज में एक दूसरे के प्रति आदर भाव की भावना जरूरी है। यदि एक दूसरे का सम्मान नहीं होगा तो वैमनस्य बढ़ेगा, जिसका समाज पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। डा. कुमार के मुताबिक सोसाइटी बदलती रहती है, इसके तौर तरीकों में भी बदलाव होता है, लेकिन कुछ बातें ऐसी होती हैं, जो बदलती नहीं। नमस्कार अथवा नमस्ते हिंदू समुदाय की पहचान हैं।

भावनाओं को व्यक्त करता है
एलएनजेपी अस्पताल के मनोरोग विभाग के प्रभारी डा. नरेंद्र परुथी के मुताबिक बचपन से ही माता पिता बच्चों को दूसरों का आदर करना सिखाते हैं। हर समाज में अलग-अलग तरीकों से अभिवादन किया जाता है। हमारे समाज में नमस्कार या नमस्ते अथवा चरण स्पर्श करने के लिए बच्चों को प्रेरित किया जाता है। यह आदत बाद में हमारे इमोशन से जुड़ जाती हैं। जिसे हम सम्मान देना चाहते हैं, उसे नमस्कार या फिर अन्य तरीके से उसका अभिवादन करते हैं। इससे पता चलता है कि सामने वाला आपसे कितना जुड़ाव रखता है। मसलन कई देशों में हाथ मिलाने के ढंग से दिखता है कि वह किस कदर आपका सम्मान करता है।

सतीत्व से इंद्र फिर बने स्वर्ग के राजा

स्वामी इंद्र की पत्नि का नाम शचि है। वह पुलोमा ऋषि की पुत्री हैं। अत: पौलोमी तथा पुलोमजा के नाम से भी जानी जाती हैं। शचि वास्तव में दानव कुल की पुत्री हैं, परंतु अत्यधिक धार्मिक एवं भगवत भक्त थीं।

भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए बचपन से ही उन्होंने कठिन तपस्या की। परिणाम स्वरूप भगवान शंकर ने उन्हें साक्षात दर्शन दिए। उन्ही की कृपा से वह देवराज इंद्र की पत्नी बनीं।

यद्यपि इंद्र स्वर्ग के भोग-विलासों में लिप्त रहते थे, परंतु देवी शचि ने कभी ऐसे ऐश्वर्य की इच्छा नहीं की। वह पति के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित थीं। उनके पतिव्रत धर्म के प्रभाव से वह ऋषिका के पद पर पहुंच गईं। प्राचीन काल में जब स्वयंवर होते थे, तो सबसे पहले देवी शचि का ही आह्वान किया जाता था।

उनकी पूजा-अर्चना करके ही स्वयंवर की रस्म प्रारंभ होती थी। ऐसा माना जाता था कि देवी शचि की आराधना करने से स्वयंवर में किसी प्रकार की बाधा नहीं आती। एक बार देवराज इंद्र से बड़ी भूल हो गई। उन्होंने भगवान के भक्त वृतासुर का वध कर डाला। चारों ओर उनकी निंदा होने लगी।

वृतासुर असुर तो था, परंतु धर्म परायण था। सुमार्ग पर चलने वाला था। देवराज की निंदा बढ़ने लगी। इस डर से वह चुप-चाप स्वर्ग छोड़कर भाग खड़े हुए तथा हिमालय पर्वत स्थित मानसरोवर में जाकर छिप गए। स्वर्ग में कोई शासक न रहा, तो पृथ्वी पर अत्याचार व अनाचार बढ़ने लगे।

नदियां सूख गईं। फसलें नष्ट हो गईं। चारों ओर हाहाकार मच गया। तब देवताओं ने विचार करके एक धर्मात्मा व तपस्वी व्यक्ति नहुष को पृथ्वी से बुलाकर देवराज इंद्र की गद्दी पर बिठा दिया। नहुष सौ अश्वमेघ यज्ञ कर चुके थे। अत: वह इंद्र पद के अधिकारी भी थे।

कुछ समय तक महाराज नहुष ने तीनों लोकों का शासन बड़े व्यवस्थित ढंग से किया। सर्वत्र उनके क्रिया-कलापों की प्रशंसा होने लगी। परंतु धीरे-धीरे स्वर्ग की विलासिता, एक से एक सुंदर अप्सराओं, भिन्न-भिन्न प्रकार के सुख-साधनों तथा सवरेपरि सत्ता के मद ने उनके मस्तिष्क को दूषित करना प्रारंभ कर दिया।

नहुष को मालूम हुआ कि देवी शचि स्वर्ग की सभी स्त्रियों में से अधिक सुंदर है। उनका मन शचि को पाने के लिए बेचैन हो उठा। जब शचि को इस बात का पता चला, तो वह चुपचाप स्वर्ग छोड़कर देवताओं के गुरु बृहस्पति के आश्रम चली गईं तथा देवगुरु को सारा वृतांत कह सुनाया।

देवगुरु बृहस्पति ने उन्हें सहायता का आश्वासन देकर आश्रम में छिपा लिया।शीघ्र ही नहुष को शचि के बृहस्पति के आवास पर छिपे होने का समाचार मिल गया। वह क्रोध में अंधा हो गया। उसने बृहस्पति को मारकर शचि को अपने अधिकार में लेने का निर्णय कर लिया। तब समस्त देवताओं ने उसे समझाया कि उन्हें ऐसा करना शोभा नहीं देता। इससे चारों ओर उनका अपयश होगा। पुण्य के प्रताप से जो इंद्रपद प्राप्त हुआ है, वह इस कार्य से उसे खो सकते हैं।

देवताओं ने उसे आश्वासन दिया कि वे स्वयं शचि को मना कर लाएंगे। और वे ले भी आए। नहुष ने अपना प्रस्ताव शचि के सामने रखा। शचि ने इसके लिए कुछ समय मांगा। इतने में शचि ने देवताओं के साथ मिलकर देवराज को ढूंढ़ लिया। बृहस्पति ने देवराज को अश्वमेघ यज्ञ द्वारा देवी भगवती की आराधना करके वरदान पाने की सलाह की।

यज्ञ समाप्त होने पर देवराज वृतासुर की हत्या के पाप से मुक्त हो गए तथा भगवती ने उन्हें पुन: इंद्र पद प्राप्ति का वरदान दे दिया। देवराज ने शचि को वापस स्वर्ग जाकर साहस से अपने धर्म का पालन करने का आदेश दिया। शचि को देख नहुष प्रसन्न हो गया।

शचि बोलीं- ‘महाराज, मैं चाहती हूं कि आप जब मेरे पास आएं, तो कुछ नवीन ढंग से आएं। आपके रथ में परम्परागत ढंग से घोड़े इत्यादि न हों।’ नहुष ने प्रसन्न होकर शचि की शर्त स्वीकार कर ली। निश्चित दिन नहुष ने एक अत्यंत सुंदर रथ तैयार करवाया। तथा उसमें ऋषियों तथा महर्षियों को जोत दिया। वे नहुष के रथ को खींचकर शचि के महल की ओर ले जाने लगे, परंतु नहुष तो शचि से मिलने के लिए अत्यंत उतावला हो रहे थे।

उसने रथ को शीघ्रता से खींचने का आदेश दिया। बेचारे वृद्ध ऋषि जैसे-तैसे रथ को और तेज ले जाने लगे नहुष को फिर भी संतोष नहीं हुआ। उसने कोड़ों से ऋषियों को पीटना शुरू कर दिया। इससे अगस्त्य ऋषि को अत्यंत क्रोध आ गया। उन्होंने नहुष को श्राप दे दिया- ‘दुष्ट, तू अजगर बनकर पृथ्वी पर गिर जा और लंबे समय तक अपने दुष्कर्मो का फल भोग।’

महर्षि अगस्त्य के श्राप देते ही नहुष अपने पापों के कारण अजगर की योनी में पृथ्वी पर गिर पड़ा। नहुष के हटते ही देवराज इंद्र पुन: प्रकट हो गए तथा शचि के साथ स्वर्ग के सिंहासन पर बैठकर आनन्दपूर्वक रहने लगे। इस प्रकार देवी शचि ने साहस व चतुराई से अपने पतिव्रता धर्म की रक्षा करते हुए इंद्र को पुन: स्वर्ग का अधिपति बनवा दिया।

भारत में ईसाई विवाह

भारतीय ईसाइयों में विवाह की बहुत सी रीतियाँ हिन्दुओं के वैवाहिक रीतियों के समान है। हिन्दुओं के समान ही ईसाईयों में भी यह मान्यता है कि विवाह दैवीय इच्छा द्वारा र्निधारित होता है। परन्तु हिन्दुओं की तरह ईसाइयों में विवाह एक धार्मिक कत्तव्य नहीं माना जाता। इसका एक धार्मिक आयाम अवश्य है परन्तु प्राथमिक रूप से भारतीय ईसाइयों मे विवाह एक सामाजिक संस्था है।

जीवन साथी का चुनाव या तो माता-पिता करते है या बच्चे स्वयं करते हैं। जीवन साथी का चुनाव करते समय निकट संबंधियों का निषेध करते हुए युवक एवं युवती की पारिवारिक स्थिति, उनके चरित्र, शिक्षा, स्वास्थ्य इत्यादि पर धयान दिया जाता है। हिन्दुओं और ईसाईयों में विवाह के अधिकांश नियम मिलते जुलते हैं। सगाई की रस्म के बाद वैवाहिक रस्मों में निम्नलिखित चरण हैं:

(क) चरित्र प्रमाण-पत्र पेश किया जाता है।
(ख) विवाह की नियत-तिथि से तीन सप्ताह पहले चर्च में आवेदन पत्र प्रस्तावित किया जाता है।
(ग) चर्च के पादरी प्रस्तावित विवाह के बारे में लोगों की राय आमंत्रित करते हैं, अगर किसी को आपत्ति नहीं होती तो विवाह की एक तिथि नियत की जाती है, और
(घ) विवाह की अंगूठी का (दूसरी अंगूठी, सगाई की अंगूठी से भिन्न) चर्च में अदला-बदली होती है तथा दंपती दो गवाहों की उपस्थिति में ईसा मसीह को साक्षी मानते हुए एक-दूसरे को पति-पत्नी के रूप में स्वीकार करने की घोषणा करते हैं।

विवाह की रस्म चर्च (गिरिजाघर) में पूरी की जाती है। विवाह के बाद अन्य समुदायों की तरह ईसाईयों में भी सामुदायिक भोज देने का रिवाज है। ईसाई लोग बहुविवाह की इजाजत नहीं देते। चर्च भी हिन्दू परंपरा की तरह तलाक की स्वीकृति नहीं देता परन्तु ईसाईयों में तलाक होते हैं। भारत के ईसाई चर्च की प्रथाओं के साथ-साथ भारतीय संविधान के नियमों को भी मानते हैं।

चर्च की परंपराओं के अनुसार ईसाई विवाह में न 'महर' की स्वीकृति है न 'दहेज' की परन्तु वर-मूल्य (डाउरी) प्रथा हिन्दू प्रभाव से बढ़ रहा है। विञ्वा तथा तलाकशुदा स्त्री का पुनर्विवाह न सिर्फ स्वीकृत है बल्कि इसको प्रोत्साहन दिया जाता है।

31 मार्च 2010

श्री गोवर्धन महाराज जी क़ी आरती



आरती

आरती श्री गोवर्धन महाराज जी क़ी
श्री गोवार्धर महाराज महाराज
तेरे माथे मुकुट विराजे रहो।
टोपे पान चढे दूध क़ी धार, ओ धार। तेरे माथे...
तेरे कानन में कुंडल सोहे,
तेरे गले वैजयंती माल। तेरे माथे...
तेरी सात कोस क़ी परिकम्मा,
तेरी दे रहे नर और नार। तेरे माथे...
तेरे मानसी गंगा बहे सदा
तेरी माया अपरम्पार। तेरे माथे...
ब्रज मंडल जब डूबत देखा,
ग्वाल बाल जब व्याकुल देखे,
लिया नख पर गिर्वर्धार। तेरे माथे...
वृन्दावन क़ी कुञ्ज गलिन में,
वो तो खेल रहे नंदलाल तेरे माथे...
चन्द्रसखी भजवाल कृष्ण छवि,
तेरे चरणों पै बलिहारी। तेरे माथे...

नवदुर्गा जी क़ी आरती




आरती

आरती जगदम्बे जी क़ी
ओ आंबे, तू है जगदम्बे काली, जय दुर्गे खप्पर वाली।
तेरे ही गुण गावें भारती ओ मैया हम सब उतारें तेरी आरती॥
तेरे भक्त जनों पर मैया भीड़ पड़ी है भारी,
दानव दल पर टूट पदों माँ, करके सिंह सवारी,
सौ सौ सिंहों से है बलशाली, ओ मैया.... ।
माँ-बेटे का है इस जब में बड़ा ही निर्मल नाता,
पूत-कपूत सुने हैं पर ना माता सुनी कुमाता
सब पे करुना दर्शाने वाली, सबको हरषाने वाली,
नैया भंवर से उबारती, ओ मैया... ।
नहीं मांगते धन और दौलत, ना चांदी न सोना,
हम तो मांगे माँ तेरे चरणों में एक छोटा सा कोना,
सबकी बिगड़ी बनाने वाली, लाज बचाने वाली,
सतियों के सत को संवारती, ओ मैया... ।

शाकुम्भरी देवी जी क़ी आरती



आरती

शाकुम्भरी देवी जी क़ी आरती
हरि ॐ शाकुम्भरी अम्बा जी क़ी आरती कीजो
ऐसो अद्भुत रूप हृदय धर लीजो,
शताक्षी दयालु क़ी आरती कीजो॥
तुम परिपूर्ण आदि भवानी माँ,
सब घाट तुम आप भाखानी माँ॥ श्री शाकुम्भर...
तुम हो शाकुम्भर, तुम ही हो शताक्षी माँ,
शिव मूर्ती माया प्रकाशी माँ॥ श्री शाकुम्भर...
नित जो नर नारी तेरी आरती गावे माँ,
इच्छा पूरण कीजो, शाकुम्भरी दर्शन पावे माँ॥ श्री शाकुम्भर...
जो नर आरती पढ़े पढावे माँ
जो नर आरती सुने सुनावे माँ
बसे बैकुंठ शाकुम्भर दर्शन पावे॥ श्री शाकुम्भर...

भूत का पिंड छूट गया



वाणी और वर्मा के कोई संतान न थी। पर वे इतने भले थे कि सारे गाँव के लोग उनके भलेपन की सदा चर्चा किया करते थे।

एक दिन रात को मूसलधार वर्षा हो रही थी। वर्मा और वाणी खाने के लिए बैठने ही वाले थे कि बाहर से किसी ने जोर से दर्वाजे पर दस्तक दी। किवाड़ खोलकर देखा तो वर्षा में भीगा एक युवा दंपति उन्हें दिख़ाई दिया।

‘‘शहर में जाते हम वर्षा में फंस गये। क्या आज की रात आप के घर में आश्रय मिल सकता है?'' उस दंपति ने पूछा।

‘‘अन्दर आ जाइये।'' इन शब्दों के साथ वाणी ने उनका स्वागत किया, खाना खिलाकर उनके सोने का प्रबंध किया।

उनके भोजन करने के बाद थोड़ा ही खाना बचा था। वाणी ने उसे अपने पति को खाने को कहा। क्योंकि फिर से खाना बनाने के लिए लकड़ियाँ न थीं, भीग गई थीं।

वर्मा ने हठ किया, ‘‘हम दोनों आधा-आधा खा लेंगे।'' इसके बाद दोनों ने बात करते थोड़ा-थोड़ा खा लिया और सो गये।

सवेरे किसी के रोने की आवाज़ सुनकर वे चौंककर उठ बैठे। घर के किवाड़ खुले थे। ड्योढ़ी पर रात को आई हुई औरत फूट-फूटकर रो रही थी। इस पर वाणी और वर्मा अचरज में आ गये और उसके रोने का कारण पूछा।

‘‘मैं क्या बताऊँ? मेरी गृहस्थी डूब गई। रात को मैं इस घर में न आती तो अच्छा होता। मेरे पति आप दोनों का सरल प्रेम देख बोले, ‘‘क्या तुमने कभी इस गृहिणी जैसा मेरे साथ प्यार किया है? जो पत्नी अपने पति के साथ प्यार नहीं कर सकती, वह पत्नी ही क्यों?''

इसके बाद मेरे समझाने पर भी चले गये। वे बड़े ही हठी हैं, फिर लौटकर आनेवाले नहीं हैं।'' सिसकियाँ लेते बोली। उसका नाम चन्द्रमती था।

वर्मा ने बड़ी उद्विग्नता के साथ चन्द्रमती के पति की खोज़ की। पर कहीं उसका पता न चला।

‘‘मैं जानती हूँ, वे लौटकर नहीं आयेंगे। मेरा अपना तो कोई नहीं है। किसी कुएँ में कूदकर जान दे दूँगी।'' यों कहते चन्द्रमती फिर रो पड़ी।

उसकी हालतपर उस दंपति का दिल पिघल उठा। उन लोगों ने समझाया, ‘‘तुम बिलकुल चिंता न करो। अपने पति के लौटने तक तुम हमारे ही घर रहो।'' उस दिन से चन्द्रमती उस परिवार की एक सदस्या के रूप में रहने लगी। वह देखने में नरम स्वभाव की सी लगी। रात को वही रसोई बनाती थी।

एक महीना बीत गया। वर्मा का बचपन का दोस्त मुरारी चार-पाँच दिन वर्मा के घर बिताने के ख़्याल से आया। वह दो-चार महीनों में एक बार अवश्य आया करता था। पिछली बार जब आया था, चन्द्रमती न थी। उसने वर्मा के द्वारा चन्द्रमती की सारी कहानी जान ली। उस दिन रात को चन्द्रमती ने ही सब को खाना परोसा। भोजन के बाद मुरारी दालान में खाट लगाकर लेट गया।

मगर बड़ी देर तक मुरारी को नींद नहीं आई। आधी रात के व़क्त कोई आहट पाकर उसकी आँख खुल गई। चन्द्रमती हाथ में दिया लेकर धीरे से रसोई घर के किवाड़ खोल रही थी। रसोई घर के उस पार की खिड़की पर किसी के द्वारा दस्तक देने की आवाज़ सुनाई दी।

मुरारी को चन्द्रमती का व्यवहार और खिड़की पर से आहट सुनकर संदेह हुआ। चन्द्रमती के रसोई घर में पहुँचते ही मुरारी झट से उठ बैठा। छोटी खिड़की में से रसोई घर के अन्दर झांका। चन्द्रमती एक पात्र में चावल, दाल, सब्जी और दही रखकर खिड़की में से भीतर पहुँचे हाथों में थमा रही थी।

खिड़की के उस पार का व्यक्ति कह रहा था, ‘‘और कितने दिन यों आधी रात को भोजन करना होगा? किसी उपाय से तिजोरी का धन हड़पकर जल्दी आ जाओ।'' वह व्यक्ति अंधेरे में था, इसलिए मुरारी को दिखाई नहीं दिया।

‘‘इन लोगों का विश्वास अभी अभी मुझ पर जम रहा है। जल्दी ही चाभियों का गुच्छा मेरे हाथ में आ जाएगा। तुम थोड़ा सब्र करो।'' चन्द्रमती ने कहा।

‘‘अरी चोर की बच्ची! बाहर से भोली बनकर मेरे दोस्त की उदारता को आसरा बनाकर अपने मर्द के साथ मिल कर यह नाटक रच रही हो! हाँ, देखती रह जाओ, मैं तुम्हारा नाटक बंद करवा देता हूँ।'' यों मुरारी ने अपने मन में सोचा। तब जाकर वह लेट गया। फिर उसने निश्चय किया कि चन्द्रमती का यह समाचार वाणी-वर्मा को सुनाकर उनके मन को दुखाये बिना उनके घर से भूत का पिंड़ छुड़ा देना है।

दूसरे दिन सवेरे मुरारी ऊँची आवाज़ में वर्मा से कहने लगा, ‘‘बाप रे बाप! रात को मैं पल भर भी सो नहीं पाया। लगता है कि इस घर में कोई भूत घुस आया है। मैंने पूरब की ओर जो खाट लगाई थी, उसे पश्चिम की ओर खींच ले गया है। खिड़की में पीने के जल का जो बर्तन रखा था, वह ख़ाट के नीचे पहुँच गया है। मैं तो हिम्मतवर हूँ, दूसरा होता तो मर जाता।''

वाणी और वर्मा ये बातें सुन घबरा गये और बोले, ‘‘तब क्या ओझा को बुलवा लें?''

‘‘आप घबराइये नहीं। मैं सब प्रकार के भूतों को भगा सकता हूँ।'' मुरारी ने उन्हें हिम्मत बंधवाई। दूसरे दिन वह बाजार से पायल ख़रीद लाया और रात को जब-तब आवाज़ करने लगा। इसके बाद उसने तकिये को चारपाई पर सीध में लगाया, उस पर दुपट्टा डाल कर पिछवाड़े में गया, रसोई घर की खिड़की पर दस्तक दी।

बड़ी देर बाद हिम्मत कर चन्द्रमती आई, पात्र में सारी चीज़ें लगाकर उसने मुरारी के हाथों में वह पात्र थमा दिया। मुरारी झट से घर के अंदर आया। उस पात्र को चन्द्रमती की चारपाई पर रखकर मुरारी ने चारपाई को दूसरी ओर खींचा, तब चुपचाप आकर अपनी खाट पर लेट गया।

चन्द्रमती थोड़ी देर तक पात्र की प्रतीक्षा में खड़ी रही, खिड़की के समीप बाहर अपने पति का पता न पाकर रसोई घर के किवाड़ बंद किये, अपने कमरे में पहुँचकर चीख़ उठी।

उस चिल्लाहट से वर्मा और वाणी चौंककर जाग चन्द्रमती की खाट के पास दौड़े आये। वहाँ पर मुरारी भी इस तरह आ पहुँचा, मानो उसी व़क्त उठा हो।


चन्द्रमती सहमती आवाज़ में बोली, ‘‘भूत की बात सच है। मुझे भी पायलों की आवाज़ सुनाई दी है। उस ओर की खाट इस ओर आ लगी है। इसलिए घबड़ाकर उठ बैठी हूँ। देखिये, रसोई घर का पात्र मेरी खाट पर आ गया है।''

मुरारी ने ढाढ़स बंधाकर कहा, ‘‘आप लोग डरियेगा नहीं, मैं भूत की ख़बर लूँगा।'' इसके बाद वह दो दिन तक रात में पायलों की आवाज़ करता ही रहा। इसलिए अपने पति के द्वारा रसोई घर की खिड़की पर दस्तक देने पर भी चन्द्रमती अपने कमरे से बाहर आने में डर गई।

तीसरे दिन रात को मुरारी बाहर ताक में बैठा रहा। चन्द्रमती के पति को पिछवाड़े के रास्ते में जाते देख वह भी उसी रास्ते जानेवाले जैसा अभिनय करते गुनगुनाने लगा, ‘‘क्या वह मेरी बहन के प्रति ऐसा द्रोह करेगा? मैं भी देख लूँगा।''

चन्द्रमती का पति बाहर खड़ा रहा। उसने शंका भरी आवाज़ में पूछा, ‘‘अजी, बात क्या है? क्या हुआ है?''

‘‘और क्या होना है जी! इस घर के मालिक मेरे बहनोई साहब हैं, मेरी बहन के कोई संतान नहीं है। इस घर में कोई औरत आकर जम गई है जिसे उसके पति ने त्याग दिया है। अब मेरे बहनोई कहते हैं कि वे उस औरत के साथ शादी करेंगे। वह औरत भी इसके लिए तैयार है।'' यों कहते तेजी के साथ चला गया, फिर दूसरे रास्ते से आकर अपनी ख़ाट पर सो गया। मुरारी की बात पर चन्द्रमती के पति का विश्वास जम गया। क्योंकि वह उधर तीन दिन से खिड़की के पास खाना देने नहीं आई थी।

फिर क्या था, दूसरे दिन सवेरे चन्द्रमती के पति ने प्रवेश करके वर्मा से कहा, ‘‘मैं मूर्खता वश अपनी पत्नी को यहाँ पर छोड़ गया था। अब कृपया उसे मेरे साथ भिजवा दीजिए।''

भूत के भय से कांपनेवाली चन्द्रमती अपने पति के साथ खुशी-खुशी चली गई। उसके जाने पर वाणी और वर्मा यह सोचकर दुखी हो रहे थे कि चन्द्रमती के चले जाने पर उनका घर एक दम सूना-सा लगता है। तब मुरारी ने कहा, ‘‘तुम लोगों को यह सोचकर खुश होना चाहिए कि तुम्हें भूत से पिंड छूट गया है। उल्टे दुखी हो रहे हो?'' इसके बाद मुरारी ने उन्हें सारी सच्ची कहानी सुनाई और उनसे विदा लेकर चला गया।

गधा हमेशा गधा ही रहता है

जीवनसिंह एक धनी व्यापारी था। वह अक्सर निकट के शहर से अपनी दुकान के लिए सौदा लाने जाया करता था। वह अपने साथ अपने गधे को भी ले जाता था। एक दिन वह अपने गधे के साथ शहर से वापस लौट रहा था। वह शहर में बहुत देर तक घूमता रहा, इसलिए वह थक गया था। अतः एक छायेदार पेड़ के नीचे वह विश्राम करने लगा और शीघ्र ही उसे नींद आ गई।

अचानक कुछ छोटे बच्चों के ऊँचे स्वर में मन्त्रोच्चारण से उसकी नींद टूट गई। एक मुल्ला अपने घर पर कुछ बच्चों को पढ़ा रहा था। उसने मुल्ला को चिल्लाकर यह कहते सुना, ‘‘तुम पर चीखने-चिल्लाने का कोई लाभ नहीं । तुम सब गधे हो। मैं तुम्हें इनसान बनाने की कोशिश कर रहा हूँ। लेकिन लगता है तुमने मेरी बात को न समझने के लिए कसम खा ली है।''

जीवनसिंह ने देखा कि बच्चे चुपचाप बाहर निकल रहे हैं। उसे अपने बचपन की याद आ गई जब उसने किसी स्कूल का मुँह नहीं देखा। उसका स्कूल उसके पिता की दुकान थी, वहीं उसने लिखना, पढ़ना, बोलना और हिसाब-किताब की जटिलता सीखी थी। इससे भी अधिक उपयोगी उसके पिता ने यह सिखाया था कि ग्रहकों के साथ कैसा बरताव करना चाहिये। उसने जीवन में पहली बार सोचा कि यहाँ एक ऐसा आदमी है जो गधों को इनसान बनाने की कोशिश कर रहा है। और उसके पास एक गधा है जो भार ढोने के अलावा और किसी लायक नहीं है। शायद उस काम के लिए गधे को बुद्धि की ज़रूरत नहीं होती।

मुल्ला को बड़ी हँसी आई जब जीवनसिंह ने पेड़ के नीचे सोते हुए जो कुछ सुना, उसे बताते हुए मुल्ला से अपने गधे को इनसान बनाने के लिए अनुरोध किया। मुल्ला ने देखा कि व्यापारी बड़ी सच्चाई से कह रहा है। ‘‘ठीक है'', उसने कहा, ‘‘गधे को यहाँ छोड़ जाओ और तीन महीनों तक उसे खिलाने के लिए काफी धन दे जाओ। उसके बाद उसे तुम ले जा सकते हो।''

जीवनसिंह ने बचा हुआ धन उसे दे दिया, गधे पर से सामान उतारा और अपनी पीठ पर लाद लिया और उसे धन्यवाद देकर वह घर की ओर चल पड़ा। चालाक मुल्ला गधे को तब तक अपने उपयोग के लिए रखना चाहता था जब तक व्यापारी उसे लेने के लिए न आ जाये। आखिर खिलाने के लिए उसे कौन-सा अपना धन खर्च करना था।

तीन महीनों के बाद जीवनसिंह ठीक समय पर यह आशा लिये आ गया कि एक मज़बूत नवयुवक उसे उसका इन्तज़ार करता हुआ मिलेगा। मुल्ला ने मुस्कुराते हुए उसका स्वागत किया, ‘‘तुम्हारा गधा मेरी अपेक्षाओं से कहीं आगे निकला। कुरान की सतरें याद करते समय धीरे-धीरे वह एक ख़ूबसूरत नौजवान में बदल गया। अगले गाँव का मुखिया मर गया था और गाँव वाले उसके स्थान पर रखने के लिए किसी व्यक्ति की तलाश कर रहे थे। वे लोग मुझसे मेरी सलाह मांगने आये। मैंने गधे से आदमी बने युवक की सिफारिश की। गाँव के वयोवृद्ध मेरे एहसानमन्द हो गये। वे युवक को ले गये।''

जीवनसिंह बहुत प्रसन्न हो गया। फिर भी, वह अचानक अपने गधे की कमी महसूस करने लगा। उसने अनुभव किया कि ऐसे बुद्धिमान नवयुवक की सेवा उसे ही मिल पाती तो उसे कितनी खुशी होती! उसने फिर पड़ोसी गाँव में जाकर उससे मिलने का निश्चय किया। वह सीधे मुखिया के घर पर पहुँचा।

मुखिया उस समय वरिष्ठ लोगों से विचार-विमर्श कर रहा था। जीवनसिंह ने देखा कि मुखिया वैसा सुन्दर और युवा नहीं है जैसा कि मुल्ला ने कहा था। लेकिन जिस तरह उसने गाँव की समस्याओं को सुलझाया उससे वह निश्चित रूप से बुद्धिमान लगा। जब विचार-विमर्श ख़त्म हो गया, जीवनसिंह ने पास जाकर अभिवादन किया। ‘‘अरे यार, क्या तुमने मुझे पहचाना नहीं? मैं तुम्हारा मालिक हूँ। मैंने तुम्हें तालीम याफ्ता मुल्ला के पास छोड़ दिया था।''

मुखिया ने, सौभाग्यवश, इस अनजान आदमी के व्यवहार का बुरा न माना। बल्कि शिष्टतापूर्वक कहा, ‘‘महोदय, मैं इस गाँव का मुखिया हूँ। मैं नहीं समझता तुम क्या कह रहे हो और कैसे तुम मेरे मालिक थे।'' उसने देखा कि गाँव के सभी वयोवृद्ध जन एक दूसरे को और उत्सुकता से आगन्तुक को कैसे देख रहे हैं।

जीवनसिंह ने तब तीन महीने पहले मुल्ला के साथ हुई भेंट के बारे में उसे बताया। यह सुनकर मुखिया ठठाकर हँसा कि कभी वह व्यापारी का गधा था। उसने बुरा न माना, बल्कि उस सीधे सादे आदमी के लिए इस मज़ाक को और आगे बढ़ा दिया। ‘‘मेरे अच्छे दोस्त'', उसने जीवनसिंह के हाथ को अपने हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘मुल्ला को समझने में गलती हो गई। वास्तव में तुम्हारा गधा फकीर हो गया है जो अनेक धर्मों का मुखिया है। तुम उसी से जाकर मिलो।''

व्यापारी अब फकीर की तलाश करने निकला। वह दिन भर गलियों, हाटों, मस्जिदों, दरगाहों पर भटकता रहा, लेकिन फकीर कहीं नहीं मिला। शाम हो रही थी। आखिर वह थकामांदा पानी पीने के लिए-नदी किनारे पहुँचा। वहाँ उसने एक फकीर को देखा। वह नदी किनारे प्रार्थना कर रहा था। प्रार्थना खत्म होने के बाद जीवनसिंह उससे मिला। ‘‘क्या तुम्हें याद है कि पड़ोसी गाँव के मुल्ला ने तुम्हें कुरान की आयतें सिखाई थीं और फकीर में बदल दिया था। इससे पूर्व तुम मेरे गधे थे और मैं तुम्हारा मालिक था।''

‘‘क्या मैं गधा था? मैं क्या सुन रहा हूँ! मैं किसी मुल्ला को नहीं जानता । मैंने कुरान की आयतें मदरसा में सीखीं। जो भी हो, तुम्हारा दिमाग तो ठीक है न?'' फकीर ने चिल्ला कर पूछा। ‘‘मैं समझता हूँ कि तुम्हें मतिभ्रम का रोग हो गया है। मेरे पास जादू की कुछ शक्तियॉं हैं जिनसे मैं तुम्हें ठीक कर सकता हूँ, लेकिन इससे पहले तुम्हें अपने गधे के बारे में सब कुछ बताना होगा!''

जीवनसिंह, जिसे डर था कि फकीर अब मार बैठेगा, यह देख कर शान्त खड़ा था कि फकीर नरम पड़ गया है। इसलिए उसने विस्तारपूर्वक सब कुछ बता दिया, जिससे जादू का प्रभाव ठीक ठीक पड़ सके। उसे आशा के विपरीत आशा होने लगी कि फकीर का जादू अन्त में उसी का गधे में बदल देगा और अपने पहले मालिक को पहचान लेगा।

फकीर आँखें बन्द कर तब तक बैठ चुका था। जीवनसिंह भी साँस रोक कर उसके सामने बैठ गया। फकीर ने धीरे-धीरे आँखें खोलीं और कहा, ‘‘मेरे अच्छे दोस्त, जब कोई बहादुरी का काम करता है, तब हम उसे शेर कहते हैं । जब कोई चालाकी करता है तब हम उसे दुष्ट कहते हैं। हम उसे लोमड़ी भी कह सकते हैं। हम जब अपनी भावनाओं को इस तरह प्रकट करते हैं तब लोग बेहतर समझते हैं। वैसे ही जब मुल्ला ने देखा कि बच्चे उसकी तालीम को देर से समझते हैं, तब उसने उन्हें गधा कहना ज्यादा पसन्द किया, यद्यपि वह अपने दिल में यही ख्वाहिश करता रहा कि कैसे वह इन छोटे ‘गधों' को बुद्धिमान मनुष्य बना दे। कहने के ढंग में मुल्ला की गलती नहीं है और न तुम्हारी गलती है कि क्यों तुमने मुल्ला से अपने गधे को इनसान में बदलने की उम्मीद की। लेकिन जब तुम मुल्ला के पास अपने गधे को लेकर गये, तब उसने तुम्हारी बेवकूफी से फायदा उठाया। याद रखो, गधा हमेशा गधा ही रहता है। गधे को इनसान नहीं बना सकते। लेकिन तुम जैसे इनसान को गधा ज़रूर बनाया जा सकता है जो मुल्ला ने कर दिखाया। मुल्ला के पास वापस जाओ और तुम्हें उसके घर के पिछवाड़े में तुम्हारा गधा बँधा हुआ मिल जायेगा! मेरी दुआ तेरे साथ है।''

‘‘धन्यवाद, हे परम आदरणीय महाराज!'' जीवनसिंह ने खड़ा होते हुए कहा। ‘‘आज मैंने जीवन में पहला पाठ सीखा है। मैं सीधा मुल्ला के पास जाकर अपना गधा माँगूंगा। मैं अपने गधे को कभी अलग नहीं कर सकता भले ही वह बेदिमाग हो।''

जैसा कि फकीर ने अनुमान लगाया था, गधा मुल्ला के घर के पिछवाड़े में मिल गया। मुल्ला वहाँ पर नहीं था, इसलिए जीवनसिंह अपने गधे को साथ ले कर वहाँ से अपने घर की ओर चल पड़ा। व्यापारी उस दिन गधे पर सवार नहीं हुआ, जैसा कि हमेशा किया करता था, यद्यपि उसके पास उस दिन कोई बोझ नहीं था।