जब सब लोग बालि के अन्तिम संस्कार से निवृत हो गये तो हनुमान ने रामचन्द्र जी से निवेदन किया, "हे प्रभो! आपकी कृपा से सुग्रीव अब निष्कंटक और निश्चिन्त हुये। आप कृपया उनका राजतिलक कर अंगद को युवराज पर प्रदान करें। हनुमान की प्रार्थना सुन कर राम बोले, "हे पवनसुत! तुमने ठीक कहा, परन्तु मैं किष्किन्धा नगर में जा कर सुग्रीव का राज्याभिषेक नहीं कर सकता क्योंकि पिता की आज्ञा से मैं वनवास का जीवन व्यतीत कर रहा हूँ और वनवासी रहते हुये मैं किसी नगर में प्रवेश नहीं कर सकता। अतएव तुम लोग सुग्रीव के साथ नगर में जा कर राज्याभिषेक की प्रक्रिया पूर्ण करो। और हे सुग्रीव! तुम नीतिवान और लोकव्यवहार कुशल हो, इसलिये अपने भतीजे अंगद को युवराज का पद प्रदान करो। वह तुम्हारे ज्येष्ठ भ्राता का पुत्र ही नहीं है, पराक्रमी और वीर भी है। कुछ दिन तुम लोग राज्य में रह कर शासन व्यवस्था को सुव्यवस्थित करो और प्रजा की भलाई में मन लगाओ। यह श्रावण का महीना और वर्षा की ऋतु है। इसमें सीता की खोज नहीं हो सकती। वर्षा की समाप्ति पर जानकी की खोज कराना। मैं इस अवधि में लक्ष्मण सहित इसी पर्वत पर निवास करूँगा।"
राम से विदा हो कर सुग्रीव दल-बल सहित किष्किन्धा जा कर राजसिंहासन पर बैठ राजकाज चलाने लगा। प्रजाजनों को उसने सब प्रकार से सन्तुष्ट करने की चेष्टा की। उधर राम लक्ष्मण के साथ प्रस्रवण पर्वत पर निवास करने लगे। एक सुरक्षित कन्दरा को कुटिया का रूप दे कर वे लक्ष्मण से बोले, "हे भाई! हम वर्षा ऋतु यहीं व्यतीत करेंगे। यह पर्वत वृक्षादि से सुशोभित हो कर अत्यन्त रमणीक प्रतीत होता है। इस गुफा के निकट ही सरिता के बहने के कारण यह स्थान हमारे लिये और भी सुविधाजनक रहेगा। यहाँ से किष्किन्धा भी अधिक दूर नहीं है, किन्तु इस शान्तिप्रद वातावरण में भी जानकी का वियोग मुझे दुःखी कर रहा है। उसके बिना मेरे हृदय में भयंकर पीड़ा होती है।" इतना कह कर वे शोक में डूब गये।
अपने अग्रज को शोकातुर देख कर लक्ष्मण बोले, "हे भैया! इस प्रकार शोक करने से क्या लाभ है? शोक से तो उत्साह नष्ट होता है। और उत्साहहीन हो जाने पर रावण से हम कैसे प्रतिशोध ले सकेंगे? इसलिये आप धैर्य धारण कीजिये। हम रावण को मार कर भाभी को अवश्य मुक्त करायेंगे। केवल कुछ दिनों की बात और है।"
लक्ष्मण के वचनों से राम ने अपने हृदय को स्थिर किया और वे प्रकृति की शोभा निहारने लगे। थोड़ी देर तक वे वर्षाकालीन प्राकृतिक दृश्यों का अवलोकन करते रहे। फिर लक्ष्मण से बोले, "हे लक्ष्मण! देखो इस ऋतु में प्रकृति कितनी सुन्दर प्रतीत होती है। ये दीर्घ आकार वाले बड़े-बड़े मेघ पर्वतों का रूप धारण किये आकाश में दौड़ रहे हैं। सागर का जल पान कर आकाश जो अमृत की वर्षा करेगा, उससे नाना प्रकार की औषधियाँ, वनस्पति, अन्न आदि उत्पन्न हो कर भूतलवासियों का कल्याण करेंगे। इधर इन बादलों को देखो, एक के ऊपर एक खड़े हुये ये ऐसे प्रतीत होते हैं मानो प्रकृति ने सूर्य तक पहुँचने के लिये इन कृष्ण-श्वेत सीढ़ियों का निर्माण किया है। शीतल, मंद, सुगन्धित समीर हृदय को किस प्रकार प्रफुल्लित करने का प्रयत्न कर रही हैं, परन्तु विरहीजनों के लिये यह भी कम दुःखदायी नहीं है। उधर पर्वत पर से जो जलधारा बह रही है, उसे देख कर मुझे ऐसा आभास होता है कि सीता भी मेरे वियोग में इसी प्रकार अश्रुधारा बहा रही होगी। अरे, ये पर्वत तो देखो जैसे कोई ब्रह्मचारी बैठे हों और ये काले-काले बादल इनकी मृगछालाएँ हों। पहाड़ी नाले इनके यज्ञोपवीत हों और बादलों की गम्भीर गर्जना ही वेदमंत्रों का पाठ हो। कभी ऐसा प्रतीत होता है कि ये बादल गरज नहीं रहे हैं अपितु बिजली के कोड़ों से प्रताड़ित हो कर पीड़ा से कराहते हुये आर्तनाद कर रहे हैं। काले बादलों में चमकती हुई बिजली ऐसी प्रतीत हो रही है मानो राक्षसराज रावण की गोद में मूर्छित पड़ी जानकी हो। हे लक्ष्मण! जब भी मैं वर्षा के दृश्यों को देख कर अपने मन को बहलाने की चेष्टा करता हूँ तभी मुझे सीता का स्मरण हो आता है। यह देखो, काले मेघों ने दसों दिशाओं को अपनी काली चादर से इस प्रकार आवृत कर लिया है जैसे मेरे हृदय की समस्त भावनाओं को जानकी के वियोग ने आच्छादित कर लिया है।
"यह वह ऋतु है जब राजा लोग अपने शत्रु पर आक्रमण नहीं करते, गृहस्थ लोग घर से परदेस नहीं जाते। घर उनके लिये अत्यन्त प्रिय हो जाता है। राजहंस भी अपने मानसरोवर की ओर चल पड़ते हैं। चकवे अपनी प्रिय चकवियों के साथ मिलने को आतुर हो जाते हैं और उनसे मिल कर अपूर्व प्राप्त करते हैं। परन्तु मैं ही एक ऐसा अभागा हूँ जिसकी चकवी रूपी सीता अपने चकवे से दूर है। मोर अपनी प्रियाओं के साथ नृत्य कर रहे हैं। बगुलों की पंक्तियों से शोभायमान काले-काले, जल से भरे, मेघ मोनो किसी लम्बी यात्रा पर जा रहे हैं, इसलिये वे पर्वतों के शिखरों पर विश्राम करते हुये चल रहे हैं। पृथ्वी पर नई-नई घास उग आई है और उस पर बिखरी हुई लाल-लाल बीरबहूटियाँ ऐसी प्रतीत होती हैं मानो कोई नवयौवना कामिनी हरे परिधान पर लाल बूटे वाली बेल लगाये लेटी हो। सारी पृथ्वी इस वर्षा के कारण हरी-भरी हो रही हैं। सरिताएँ कलकल नाद करती हुईं बह रही हैं। वानर वृक्षों पर अठखेलियाँ कर रहे हैं। इस सुखद वातावरण में केवल विरहीजन अपनी प्रियाओं के वियोग में तड़प रहे हैं। उन्हें इस वर्षा की सुखद फुहार में भी शान्ति नहीं मिलती। देखो, ये पक्षी कैसे प्रसन्न होकर वर्षा की मंद-मंद फुहारों में स्नान कर रहे हैं। उधर वह पक्षी पत्तों में अटकी हुई वर्षा की बूँद को चाट रहा है। सूखी मिट्टी में सोये हुये मेंढक मेघों की गर्जना से जाग कर ऊपर आ गये हैं और टर्र-टर्र की गर्जना करते हुये बादलों की गर्जना से स्पर्द्धा करने लगे हैं। जल की वेगवती धाराओं से निर्मल हुई पहाड़ों की चोटियों से पृथ्वी की ओर दौड़ती हुई सरिताओं की पंक्तियाँ इस प्रकार बिखर कर बह रही हैं जैसे किसी के धवल कण्ठ से मोतियों की माला टूट कर बिखर रही हो। लो, अब पक्षी घोंसलों में छिपने लगे हैं, कमल सकुचाने लगे हैं और मालती खिलने लगी है, इससे प्रतीत होता है कि अब शीघ्र ही पृथ्वी पर सन्ध्या की लालिमा बिखर जायेगी।"
फिर राम ने एक गहरा निःश्वास छोड़ कर कहा, "बालि के मरने से सुग्रीव ने अपना राज्य पा लिया। अब वह अपनी बिछुड़ी हई पत्नी को पुनः पाकर इस वर्षा का आनन्द उठा रहा होगा। पता नहीं, मैं अपनी बिछुड़ी हुई सीता के कब दर्शन करूँगा। अब तो श्रावण मास का अन्त हो चला है। शीघ्र ही शरद ऋतु का प्रारम्भ होता। दुर्गम मार्ग फिर आवागमन के लिये खुल जायेंगे। मुझे विश्वास है, शरद ऋतु आते ही सुग्रीव अपने गुप्तचरों से अवश्य सीता की खोज करायेगा।" यह सोचते हुये राम गम्भीर कल्पना सागर में गोते लगाने लगे।
10 अप्रैल 2010
रामायण – किष्किन्धाकाण्ड - सुग्रीव का अभिषेक
Posted by Udit bhargava at 4/10/2010 05:37:00 pm
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