जब तारा को बालि की मृत्यु का समाचार मिला तो वह अत्यन्त दुःखी हुई और रोती हुई उस स्थान पर आई जहाँ बालि का शव पड़ा था। तारा और अंगद दोनों को बिलख-बिलख कर रोते देख सुग्रीव को बहुत दुःख हुआ। उसके नेत्रों से अश्रु बहने लगे। उधर तारा बालि से लिपट कर विलाप कर रही थी, "हे नाथ! आपके जैसे पराक्रमी वीर की राम ने छिप कर हत्या कर के क्षत्रिय धर्म को कलंकित किया है। हे नाथ! आप मौन हो कर क्यों पड़े हैं? इधर देखिये, आपका लाडला पुत्र अंगद किस प्रकार से बिलख-बिलख रो रहा है। आप तो कभी उसे उदास भी नहीं देख सकते थे, आज ऐसे निर्मोही कैसे हो गये? हे स्वामी! आप मुझे और अंगद को किसके भरोसे छोड़े जा रहे हैं? यह कैसी विडम्बना है कि जिस स्थान पर आपने अब तक सैकड़ों वीरों को सुलाया है वही आज आपकी स्वयं की वीरशैया बन गई। मुझे अनाथ बना कर आप कहाँ जा रहे हैं। मैं दुःख के सागर में डूबी जा रही हूँ। हे नाथ! मेरी रक्षा करो। आज मेरे पास पुत्र, ऐश्वर्य सब कुछ होते हुये भी मैं विधवा के नाम से पुकारी जाकर संसार में तिरस्कृत जीवन व्यतीत करूँगी।" फिर अंगद से बोली, "हे पुत्र! यमलोक को जाते हुये अपने पिता का हाथ जोड़ कर अभिवादन करो। देखो स्वामी! आपका पुत्र हाथ जोड़ कर आपके सामने खड़ा है। उसे आशीर्वाद क्यों नहीं देते? आज आपने इस युद्धरूपी यज्ञ में मेरे बिना कैसे भाग लिया। बिना अर्द्धांगिनी के तो कोई यज्ञ पूरा नहीं होता।" इस प्रकार तारा नाना रूपों से विलाप करने लगी। बालि के वानर सरदारों ने बड़ी कठिनाई से उसे शव से अलग किया।
धनुष धारण किये राम को देख कर तारा उनके पास आकर बोली, "हे राघव! तुम वीर, तेजस्वी, धर्मात्मा और महान दानवीर हो। मैं तुमसे एक दान माँगती हूँ। जिस बाण से तुमने मेरे पति के प्राण लिये हैं उसी बाण से मेरे प्राण भी हर लो ताकि मैं मर कर अपने पति के पास पहुँच जाऊँ। मेरे पतिदेव स्वर्ग में मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। यदि तुम यह सोच रहे हो कि मैं स्त्री हूँ और स्त्री का वध करना पाप है, तो तुम इससे मत डरो। मैं बालि का ही अर्द्धांग हूँ। इसलिये शीघ्रता करो।"
तारा के मर्मस्पर्शी शब्दों को सुन कर रामचन्द्र बोले, "तारा! तेरा इस प्रकार शोक और विलाप करना व्यर्थ है। सारा संसार परमात्मा के द्वारा बनाये गये विधान के अनुसार चलता है। विधाता की ऐसी ही इच्छा थी, यह सोच कर तुम धैर्य धारण करो। अंगद की कोई चिन्ता मत करो। वह आज से इस राज्य का युवराज होगा। तुम्हारा पति वीर था, वह युद्ध करते हुये वीरगति को प्राप्त हुआ है; यह तुम्हारे लिये गौरव की बात है। रोना बन्द करो। रोने से दिवंगत आत्मा को कष्ट पहुँचता है।" इस प्रकार राम ने तारा को अनेक प्रकार से धैर्य बँधाया। फिर वे सुग्रीव से बोले, "हे वीर! तारा और अंगद को साथ ले जा कर अब तुम बालि के अन्तिम संस्कार की तैयारी करो। हे अंगद! तुम इस संस्कार के लिये घृत, चन्दन आदि ले आओ। और हे तारा! तुम भी शोक को त्याग कर बालि के लिये अर्थी की तैयारी कराओ।" इस प्रकार रामचन्द्र जी ने सब से कह सुन कर बालि के अन्तिम संस्कार की तैयारी कराई।
बालि की शवयात्रा में बड़े-बड़े योद्धा और किष्किन्धा निवासी अश्रुमोचन करते हुये बिलखते श्मशान घाट पहुँचे। स्त्रियों के करुणाजनक विलाप से सम्पूर्ण वातावरण तथा प्रकृति शोकाकुल प्रतीत हो रही थी। नदी के तट पर जब चिता बना कर बालि का शव उस पर रखा गया तो सम्पूर्ण वातावरण एक बार फिर करुण चीत्कार से गूँज उठा। बड़ी कठिनाई से शव को तारा से पृथक किया गया। वह चिता पर ही उससे लिपट कर विलाप किये जा रही थी। अन्त में अंगद ने चिता को अग्नि दी। जब बालि का शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया तो श्री रामचन्द्र जी ने लक्ष्मण, सुग्रीव, अंगद एवं अन्य प्रमुख वानरों के साथ मिल कर उसके लिये जलांजलि दी।
10 अप्रैल 2010
रामायण – किष्किन्धाकाण्ड - तारा का विलाप
Posted by Udit bhargava at 4/10/2010 05:38:00 pm
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