10 अप्रैल 2010

रामायण – किष्किन्धाकाण्ड - बालि-वध

राम ने सुग्रीव को बालि-वध का आश्वासन दिया और सब किष्किन्धा की ओर चल दिये। राम हाथ में धनुष लिये आगे-आगे चल रहे थे। किष्किन्धा में पहुँच कर राम एक सघन कुँज में ठहर गये और सुग्रीव को बालि से युद्ध करने के लिये भेजा और कहा, "तुम निर्भय हो कर युद्ध करो।" राम के वचनों से उत्साहित हो कर सुग्रीव ने बालि को युद्ध करने के लिये ललकारा। सुग्रीव की इस ललकार को सुन कर बालि के क्रोध की सीमा न रही। वह क्रोध में भर कर बाहर आया और सुग्रीव पर टूट पड़ा। उन्मत्त हुये दोनों भाई एक दूसरे पर घूंसों और लातों से प्रहार करने लगे। श्री रामचनद्र जी ने बालि को मारने कि लिये अपना धनुष सँभाला परन्तु दोनों का आकार एवं आकृति एक समान होने के कारण वे सुग्रीव और बालि में भेद न कर सके। इसलिये बाण छोड़ने में संकोच करने लगे। उधर बालि की मार न सह सकने के कारण सुग्रीव ऋष्यमूक पर्वत की ओर भागा। राम लक्ष्मण तथा अन्य वानरों के साथ सुग्रीव के पास पहुँचे। राम को सम्मुख पा कर उसने उलाहना देते हुये कहा, "मल्लयुद्ध के लिये भेज कर आप खड़े-खड़े पिटने का तमाशा देखते रहे। क्या यही आपकी प्रतिज्ञा थी? यदि आपको मेरी सहायता नहीं करनी थी तो मुझसे पहले ही स्पष्ट कह देना चाहिये था। आपके भरोसे आज मैं मृत्यु के मुँह में फँस गया था। यदि मैं वहाँ से भाग न आता तो वह मुझे मार ही डालता।"

सुग्रीव के क्रुद्ध शब्द सुन कर रामचन्द्र ने बड़ी नम्रता से कहा, "सुग्रीव! क्रोध छोड़ कर पहले तुम मेरी बात सुनो। तुम दोनों भाइयों का रंग-रूप, आकार, गति और आकृतियाँ इस प्रकार की थीं कि मैं तुम दोनों में अन्तर नहीं कर सका। इसीलिये मैंने बाण नहीं छोड़ा। सम्भव था कि वह बाण उसके स्थान पर तुम्हें लग जाता और फिर मैं जीवन भर किसी को मुख दिखाने लायक नहीं रहता। इस बार मैं तुम्हारे ऊपर कोई चिह्न लगा दूँगा।" वे फिर लक्ष्मण से बोले, "हे वीर! उस पुष्पयुक्त लता को तोड़ कर सुग्रीव के गले में बाँध दो जिससे इन्हें पहचानने में मुझसे कोई भूल न हो।" लक्ष्मण ने ऐसा ही किया और सुग्रीव फिर युद्ध करने चला।

इस बार सुग्रीव ने दूने उत्साह से गर्जना करते हुये बालि को ललकारा जिसे सुन कर वह आँधी के वेग से बाहर की ओर दौड़ा। तभी उसकि पत्नी तारा ने बालि को रोकते हुये कहा, "हे वीरश्रेष्ठ! अभी आप बाहर मत जाइये। सुग्रीव एक बार मार खा कर भाग जाने के पश्चात् फिर युद्ध करने के लिये लौटा है। इससे मेरे मन में संशय हो रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि वह किसी के बल पर आपको ललकार रहा है। आज ही मुझे अंगद कुमार ने बताया था कि अयोध्या के अजेय राजकुमारों राम और लक्ष्मण के साथ उसकी मैत्री हो गई है। सम्भव है वे ही उसकी सहायता कर रहे हों। राम के पराक्रम के विषय में तो मैंने भी सुना है। वे शत्रुओं को देखते-देखते धराशायी कर देते हैं। यदि वे स्वयं सुग्रीव की सहायता कर रहे हैं तो उनसे लड़ कर आपका जीवित रहना कठिन है। इसलिये उचित है कि इस अवसर पर आप बैर छोड़ कर सुग्रीव से मित्रता कर लीजिये। उसे युवराज पद दे दीजिये। वह आपका छोटा भई है और इस संसार में भाई के समान हितू कोई दूसरा नहीं होता। उससे इस समय मैत्री करने में ही आपका कल्याण है।"

तारा के इस प्रकार समझाने से चिढ़ कर बालि ने उसे झिड़क कर कहा, "यह अनर्गल प्रलाप बन्द कर। स्त्री जाति स्वभाव से ही कायर होती है। मैं सुग्रीव की ललकार को सुन कर कायरों की भाँति घर में छिप कर नहीं बैठ सकता और न ललकारने वाले से भयभीत हो कर उसके सम्मुख मैत्री का हाथ ही बढ़ा सकता हूँ। रामचन्द्र जी को मैं जानता हूँ। वे धर्मात्मा हैं। मेरा उनसे कोई बैर भी नहीं है फिर वे मुझ पर आक्रमण ही क्यों करेंगे? आज मैं अवश्य सुग्रीव का वध करूँगा।" यह कह कर बालि सुग्रीव के पास पहुँच कर उससे युद्ध करने लगा। दोनों एक दूसरे पर घूंसों और लातों से प्रहार करने लगे। जब राम ने देखा कि सुग्रीव दुर्बल पड़ता जा रहा है तभी उन्होंने एक विषैले बाण को धनुष पर चढ़ा कर बालि को लक्ष्य करके छोड़ दिया। बाण कड़कता हुआ बालि के वक्ष में जाकर लगा जिससे वह बेसुध हो कर पृथ्वी पर गिर पड़ा। बालि को पृथ्वी पर गिरते देख राम और लक्ष्मण उसके पास जा कर खड़े हो गये।

जब बालि की चेतना लौटी और उसने दोनों भाइयों को अपने सम्मुख खड़े देखा तो वह नम्रता के साथ कठोर शब्दों में बोला, "हे राघव! आपने छिप कर जो मुझ पर आक्रमण किया, उसमें कौन सी वीरता थी? यद्यपि तारा ने सुग्रीव की और आपकी मैत्री के विषय में मुझे बताया था, परन्तु मैंने आपकी वीरता, शौर्य, पराक्रम, धर्मपरायणता, न्यायशीलता आदि गुणों को ध्यान में रखते हुये उसकी बात नहीं मानी थी और कहा था कि न्यायशील राम कभी अन्याय नहीं करेंगे। मेरा तो आपके साथ कोई बैर भी नहीं है। फिर आपने यह क्षत्रियों को लजाने वाला कार्य क्यों किया? आप नरेश हैं। राजा के गुण साम, दाम, दण्ड, भेद, दान, क्षमा, सत्य, धैर्य और विक्रम होते हैं। कोई राजा किसी निरपराध को दण्ड नहीं देता। फिर आपने मेरा वध क्यों किया है? जिसने आपकी स्त्री का हरण किया उससे आपने कुछ नहीं कहा किन्तु मुझ असावधान पर छिप कर वार किया। यदि मुझसे युद्ध करना था तो सामने आकर मुझसे युद्ध करते। आपके इस व्यवहार से मैं अत्यन्त दुःखी हूँ।"

बालि के इन कठोर वचनों को सुन कर रामचन्द्र ने कहा, "हे बालि! मैंने तुम्हारा वध अकारण या व्यक्तिगत बैरभाव के कारण से नहीं किया है। सम्भवतःतुम यह नहीं जानते कि यह सम्पूर्ण भूमि इक्ष्वाकुओं की है। वे ही इसके एकमात्र स्वामी हैं और इसीलिये उन्हें समस्त पापियों को दण्ड देने का अधिकार है। इक्ष्वाकु कुल के धर्मात्मा नरेश भरत इस समय सारे देश पर शासन कर रहे हैं। उनकी आज्ञा से हम सारे देश का भ्रमण करते हुये साधुओं की रक्षा तथा दुष्टों का दमन कर रहे हैं। तुम कामवश कुमार्गगामी हो गये थे। धर्म-शास्त्र के अनुसार छोटा भाई, पुत्र और शिष्य तीनों पुत्र के समान होते हैं। तुमने इस धर्ममार्ग को छोड़ कर अपने छोटे भाई की स्त्री का हरण किया जो धर्मानुसार तुम्हारी पुत्रवधू हुई। यह एक महापाप है। तुम्हें इसी महापाप का दण्ड दिया गया है। ऐसा करना मेरा कर्तव्य था। अपनी बहन और अनुज वधू को भोगने वाला व्यक्ति मार डालने योग्य होता है। इस प्रकार मैंने तुम्हें तुम्हारे पिछले पापों का दण्ड दे कर आगे के लिये तुम्हें निष्पाप कर दिया है। अब तुम निष्पाप हो कर स्वर्ग जाओगे। मैं तुम्हें इस विषय में एक घटना सुनाता हूँ।

"मेरे पूर्व पुरुषों में मान्धाता नामक एक राजा थे। एक श्रमण ने इसी प्रकार का दुष्कर्म किया था जैसा तुमने किया है। राजा ने उसे भी कठोर दण्ड दिया था। अतएव तुम्हारा पश्चाताप करना ही व्यर्थ है। मैंने देश के राजा की आज्ञा का पालन किया है। मैं भी स्वतन्त्र नहीं हूँ। इसीलिये मैं तुम्हें दण्ड देने के लिये बाध्य था।"

राम का तर्क सुन बालि ने हाथ जोड़कर कहा, "हे राघव! आपका कथन सत्य है। मुझे अपनी मृत्यु पर दुःख नहीं है। मुझे केवल अपने पुत्र अंगद की किशोरावस्था पर चिन्ता है। वह मेरी एकमात्र सन्तान है। उसे मैं आपकी शरण में सौंपता हूँ। आप इसे सुग्रीव की भाँति ही अभय दें, यही आपसे मेरी प्रार्थना है।" इतना कह कर बालि चुप हो गया और उसके प्राण पखेरू उड़ गये।