ब्रह्मदत्त जिस समय काशी राज्य पर शासन करते थे, उसी समय बोधिसत्व मगध के राज-परिवार में सेवक के रूप में काम करते थे।
कभी मगध और अंगदेश के बीच चंपा नदी बहती थी। उस नदी के गर्भ में नाग राज्य थाऔर चंपेय उस राज्य के राजा थे।
मगध और अंग राज्य के बीच अक्सर युद्ध हुआ करते थे। एक बार अंग देश के राजा से मगध के राजा हार गये। वे अपने घोड़े पर युद्ध भूमि से भागते हुए चंपा नदी के समीप पहुँचे। उस समय उनके मन में यह विचार आया कि अपने शत्रु के हाथों मरने की बजाय आत्महत्या कर लेना कहीं उत्तम है। इसी विचार से वे अपने घोड़े के साथ नदी में कूद पड़े। पर आश्चर्य की बात कि घोड़्रा मगध राजा के साथ नदी के गर्भ में स्थित नागराजा के दरबार में जा उतरा।
नागराजा ने अपने सिंहासन से उठकर आदरपूर्वक मगध राजा का स्वागत किया और उनके इस तरह आने का कारण पूछा। मगध राजा ने अपना सारा वृत्तान्त नागराजा को सुना दिया।
इसके बाद नागराजा ने अपने अतिथि को वचन दिया, ‘‘अब चिन्ता न कीजिए। मैं आप को वचन देता हूँ कि अंगराजा के साथ अगले युद्ध में आपकी विजय दिलाने में मैं हर प्रकार से सहायता करूँगा।''
अपने वचन के अनुसार नागराजा ने युद्ध में मगध के राजा की मदद की। परिणाम स्वरूप अंगराजा मगध राजा के हाथों मारे गये। इसके बाद मगध के राजा दोनों राज्यों के राजा बनकर अत्यन्त वैभवपूर्वक राज्य करने लगे।
उस समय से मगध राजा और नागराजा के बीच अगाध मैत्री स्थापित हो गयी। मगध के राजा प्रतिवर्ष एक बार सपरिवार चंपा नदी के तट पर जाया करते थे। उस दिन नाग राजा नदी में से अपार वैभव के साथ बाहर निकल आते और मगध राजा को अमूल्य उपहार भेंट करते।
मगध राजा के परिवार में एक सेवक के रूप में रहने वाला बोधिसत्व प्रतिवर्ष नागराजा के वैभव को देखता था और उस वैभव के लिए कामना करता था। इसलिए उसकी मृत्यु के समय नाग राजा का वैभव उसके दिल में बैठ गया। इस कारण नागराजा की मृत्यु के सातवें दिन बोधिसत्व ने नागराजा के रूप में जन्म लिया।
लेकिन पिछले जन्म में वे पुण्यात्मा थे। इस कारण उन्हें अपने इस सर्प शरीर को देखते ही उससे घृणा पैदा हो गयी। नागराजा के वैभव की कामना करने के कारण उन्हें पश्चाताप भी हुआ। इसलिए वे सोचने लगे कि क्यों नहीं वे आत्महत्या करके इस जन्म का अन्त कर लें। उसी समय सुमना नामक एक नागकन्या ने अपनी सखियों के साथ आकर उन्हें प्रणाम किया।
सुमना को देखते ही नागराजा उसकी ओर आकृष्ट हुए और उनके मन में जीने की इच्छा जागृत हुई और उन्होंने अपनी आत्महत्या का प्रयत्न छोड़ दिया और उसको अपनी पत्नी बनाकर नागलोक पर शासन करने लगे।
कुछ दिन तक राज्य करने के बाद उनके मन में उपवास, जप आदि करके पुण्य कमाने की इच्छा हुई । इसलिए उन्होंने नागलोक को छोड़ कर मानवलोक में जाने का निश्चय किया।
उपवास के दिनों में वे अपने महल को छोड़ एक मार्ग के किनारे स्थित चींटियों की बाँबी पर गेंडुली मारकर लेट जाते और सोचते, ‘‘मुझे कोई चील उठा ले जाए, कोई संपेरा पकड़ ले।''
पर उनकी इच्छा के अनुसार नहीं हुआ। उस रास्ते से जानेवाले लोग बाँबी से लिपटे नाग को देवता मानकर फूल और चन्दन के साथ उनकी पूजा करने लगे। धीरे-धीरे चतुर्दिक नाग देवता की महिमा का प्रचार हुआ। दूर-दूर के गाँवों से लोग आकर नाग देवता की पूजा करने लगे। आखिर नागदेवता के प्रति लोगों में ऐसी श्रद्धा और भक्ति पैदा हुई कि समीप के गाँव के लोगों ने नागराजा की बाँबी के पास एक मन्दिर बना दिया। प्रतिदिन असंख्य लोग वहाँ आकर मनौतियाँ करने लगे।
नागराजा अपने उपवास के दिन बाँबी पर बिताकर हर महीने कृष्ण पक्ष के प्रथमा के दिन अपने घर लौट जाते थे।
एक दिन सुमना ने उनसे निवेदन किया, ‘‘स्वामि, आप अक्सर मानवलोक में जाया करते हैं। इसका कारण मैं नहीं जानती, पर मैंने सुना है कि वह लोक अत्यन्त खतरों से भरा हुआ है। अगर आप किसी खतरे में फँस जायें तो मुझे इसका पता कैसे लग सकता है?''
इस पर नागराजा सुमना को एक सरोवर के पास ले गये और समझाया- ‘‘इस जल को देखो। यदि मुझे कोई चोट आ जाए तो यह जल गंदला हो जाएगा। अगर कोई गरुड़ मुझको उठा ले जाए तो यह जल सूख जाएगा। मांत्रिक मुझे पकड़ ले जाए तो यह रक्तवर्ण हो जाएगा।''
काशी नगर का एक ब्राह्मण युवक तक्षशिला में वशीकरण विद्या का अभ्यास करके उस रास्ते से अपने देश को लौट रहा था। अचानक बाँबी पर लिपटे नागराजा पर उसकी दृष्टि पड़्री। उस युवक ने मंत्र फूँककर साँप को पकड़ लिया और उसको एक टोकरी में रखकर एक गाँव में ले गया और वहाँ नाग का खेल दिखाने लगा।
उस खेल को देख ग्रामवासी बहुत प्रस हुए और ब्राह्मण युवक को धन तथा क़ीमती उपहार दिए। ब्राह्मण युवक अपने मन में सोचने लगा- ‘‘इस छोटे से देहात में इतनी सारी सम्पत्ति हाथ लगी तो किसी शहर में साँप का खेल दिखाने पर न मालूम और कितना धन मिलेगा!''
इसके बाद वह नाग को लेकर काशी नगर पहुँचा। पूरे महीने तक नागराजा ने उपवास किया और ब्राह्मण युवक से प्राप्त मेंढ़कों को उसने छुआ तक नहीं। नागराजा ने समझ लिया कि जब तक मैं आहार लूँगा, तब तक मुझको इस टोकरी की क़ैद से मुक्ति नहीं मिलेगी।
ब्राह्मण युवक ने काशी नगर के समीप के अनेक गाँवों में नाग का खेल दिखाया और वहाँ की जनता से अपार धन प्राप्त किया।
नाग के मनोरंजक खेलों का समाचार शीघ्र ही काशी के राजा के कानों में भी पड़ा। उन्होंने ब्राह्मण युवक को बुलवाकर अपने महल में नाग के खेलों का प्रबन्ध करवाया।
इस बीच नागलोक में सुमना एक महीने तक अपने पति को घर न लौटते देख डर गयी और उसने सोचा कि उन पर कुछ विपत्ति आ गयी होगी। इसकी सचाई का पता लगाने के लिए वह सरोवर के पास पहुँची। सरोवर का जल रक्तवर्ण हो गया था।
सुमना समझ गयी कि किसी संपेरे ने उसके पति को पकड़ लिया है। वह अपने पति की खोज करते हुए शीघ्र ही काशी नगर पहुँची।
सुमना जब काशी पहुँची, उस वक्त वहाँ पर साँप का खेल चल रहा था। राजा और असंख्य प्रजा वहाँ पर खेल को देख रहे थे। अपनी पत्नी को देखते ही नागराजा लजा कर झट से टोकरी के अन्दर चले गये।
सुमना मानव का रूप धरकर राजा के समीप गयी और उसने हाथ जोड़कर निवेदन किया- ‘‘महाराज, कृपया मुझे पति की भीख दीजिए।''
इतने में नागराजा टोकरी में से बाहर आये और एक सुन्दर युवक का रूप धर लिया।
काशी राजा उस नागदंपति पर बहुत प्रस हुए। उन्होंने उन्हें एक सप्ताह तक अपने यहाँ अतिथि के रूप में रखा। इसके बाद नागराजा के निमंत्रण पर वे भी उनके साथ सपरिवार नागलोक में गए।
नागलोक के ऐश्र्वर्य, सौन्दर्य एवं वैभव को देख काशीराजा के आश्चर्य की कोई सीमा न रही। साथ ही उनके मन में इस ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिए एक क्षण के लिए कामना भी जगी।
उन्होंने नागराजा से पूछा- ‘‘ऐसे वैभव और ऐश्वर्य से भरपूर नाग लोक को छोड़कर आप नाग के रूप में चींटियों की बाँबी से लिपटकर क्यों लेटे रहते हैं? क्या मैं कारण जान सकता हूँ?''
‘‘राजन! चाहे यहाँ पर कितना भी वैभव क्यों न हो, जन्म से मुक्ति पाने की सुविधा आपके मानव जगत में ही है। मनुष्य का अंतिम लक्ष्य मुक्ति प्राप्त करना है। इसीलिए मैं अक्सर मानव लोक में आया करता हूँ। नागलोक के ये सारे वैभव मुझे क्षणिक प्रतीत होते हैं।'' नागराज ने उत्तर दिया।
काशी नरेश यह सुनकर बहुत आनन्दित हुए और अपने मनुष्य जन्म पर उन्हें गर्व भी हुआ। वे जब अपने नगर को लौट रहे थे, नागराजा ने उन्हें अनेक अमूल्य उपहार दिए।
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