05 अप्रैल 2010

अध्यात्म

प्रेम के तीन रूप

प्रेम तीन तरह का होता है - जो आकर्षण से पैदा हो, जो घनिष्ठता से उत्पन्न हो और तीसरा, ईश्वर के प्रति प्रेम। आप समझ रहे हैं मैं क्या कह रहा हूं?

आकर्षण से पैदा प्रेम अधिक समय तक नहीं टिकता है क्योंकि यह अनजानेपन और आकर्षण के कारण होता है। पर एक बार पहचान होने पर शीघ्र ही आकर्षण समाप्त हो जाता है और मन ऊबने लगता है, जैसा कि प्रायः प्रेम-विवाह में देखने में आता है। इस प्रकार का प्रेम घटता जाता है और साथ में लाता है भय, शंका, असुरक्षा और दुःख।

घनिष्ठता से उत्पन्न प्रेम बढ़ता है, तुम आत्मीयता महसूस करते हो, जैसे कि एक पुराने घनिष्ठ मित्र के साथ, बजाय किसी नये व्यक्ति के साथ। पर इस प्रेम में कोई रोमांच नहीं, कोई उत्साह या आवेश नहीं।

ईश्वर के प्रति प्रेम इन सब के ऊपर है। ईश्वरीय प्रेम सदा नवीन रहता है। जितना तुम समीप आते हो, उतना अधिक आकर्षण और गहराई पाते हो। इस प्रेम में सुख, उत्साह और आत्मीयता सभी है। इस प्रेम में कभी नीरसता नहीं आती, यह सब को उत्साहित और सजग रखता है।

सांसारिक प्रेम महासागर की तरह हो सकता है, पर महासागर का भी एक तल है।

ईश्वरीय प्रेम आकाश की तरह है- असीम, अनंत।

महासागर के तल से ऊपर उड़ जाओ विशाल नभ तक !

प्रिय बनो
तुम्हें ज्ञान को कायम रखने की चिंता करने की जरूरत नहीं। जब ज्ञान विवेक बनकर तुममें समा जाएगा, वह तुम्हें कभी नहीं छोड़ेगा। विवेक हृदय में समा जाता है। ईश्वर को अपना वैलेन्टाइन, अपना प्रियतम बना लो। जीवन का यही आखिरी कार्य है और प्रथम भी।

अपने हृदय को एक सुरक्षित स्थान में रखो, यह बहुत ही कोमल है। घटनाएं तथा छोटी-छोटी बातें इस पर गहरा प्रभाव डालती हैं। अपने हृदय को सुरक्षित और मन को स्वस्थ और पवित्र रखने के लिए तुम्हें ईश्वर से बेहतर और कोई स्थान नहीं मिलेगा। जब तुम अपना हृदय ईश्वर को दे दोगे, तो समय और घटनाएं तुम्हें छू नहीं सकती, उनका कोई निशान भी तुम पर नहीं पड़ेगा।

एक मूल्यवान रत्न को सोने या चांदी में जड़ा जाता है ताकि वह गिर न जाए और उसे पहना जा सके; वैसे ही विवेक और ज्ञान हमारे हृदय को ईश्वर में जड़कर रखते हैं।

ईश्वर को अपना पिय्रतम बनाओ।

बस, रहो .... और जानो कि तुम प्रिय हो।

यही है, ÷÷प्रिय तम''।

प्रेम तो तुम्हारा अस्तित्व ही है
मान लो कोई तुम्हारे प्रति बहुत प्रेम दिखाता है। तुम क्या करते हो?

1. तुम्हें समझ में नहीं आता कि उत्तर में कैसा व्यवहार करें।
2. तुम आभार और बंधन महसूस करते हो।
3. तुम संकुचित होते हो या शर्माकर दूर हो जाते हो।
4. तुम मूर्ख और अनाड़ी महसूस करते हो।
5. तुम प्रत्युत्तर देने की चेष्टा करते हो, हालांकि वह सच्चे मन से नहीं होता।
6. उस प्रेम की अभिव्यक्ति पर संदेह करते हो या अपनी योग्यता पर।
7. तुम्हें भय होता है कि तुम सम्मान खो दोगे क्योंकि सम्मान में एक दूरी होती है और प्रेम दूरी रहने नहीं देता।
8. तुम्हारा अहं दृढ़ होता है और वह तुम्हें न तो प्रेम को स्वीकार करने देता है, न ही प्रत्युत्तर देने देता है।
9. और कुछ? .......................(रिक्त स्थान स्वयं भर लो)

प्रेम पाने की योग्यता प्रेम देने की क्षमता से आती है। तुम जितने अधिक केंद्रित हो और, अनुभव से, जानते हो कि तुम ही प्रेम हो, उतना ही अधिक तुम आत्मीयता महसूस करोगे, चाहे जितना भी अधिक प्रेम, किसी भी रूप में, तुम्हारे प्रति दर्शाया जाए। तुम्हारे अंतःकरण में तुम यह जान लोगेः

प्रेम कोई भावना नहीं!
प्रेम तो तुम्हारा अस्तित्व ही है।
इन्हें भी देखें :-