अथर्ववेद में शुभ मुहूर्त में कार्य आरंभ करने का निर्देश है ताकि मानव जीवन के सभी पक्षों पर शुभता का अधिकाधिक प्रभाव पड़ सके। आचार्य वराहमिहिर भी इसकी अनुशंसा करते हैं।
मुहूर्त के संदर्भ में रामचरितमानस में एक स्थान पर उल्लेख है कि युद्ध के पश्चात् जब रावण मरणासन्न अवस्था में था तब श्रीराम ने लक्ष्मण को उससे तिथि व मुहूर्त ज्ञान की शिक्षा लेने भेजा था। इस कथा से भी मुहूर्त अर्थात शुभ पल के महत्व का पता चलता है। मुहूर्त का विचार आदि काल से ही होता आया है। हमारे शास्त्रों में भी ऐसे कई उदाहरण भरे पड़े हैं जिनसे इस तथ्य का पता चलता है। श्रीकृष्ण का कंस के वध हेतु उचित समय की प्रतीक्षा करना आदि इस तथ्य को पुष्ट करते हैं। आज के इस वैज्ञानिक युग में भी वैज्ञानिक किसी परीक्षण हेतु उचित समय का इंतजार करते हैं। राजनेता चुनाव के समय नामांकन के लिए मुहूर्त निकलवाते हैं। इन सारे तथ्यों से मुहूर्त की उपयोगिता का पता चलता है।
यहां एक तथ्य स्पष्ट कर देना उचित है कि लग्न की शुद्धि अति महत्वपूर्ण और आवश्यक है। इससे कार्य की सफलता की संभावना १००० गुणा बढ़ जाती है।
मुहूर्त विचार में तिथियों, नक्षत्रों, वारों आदि के फलों का मात्रावार विवरण सारणी में प्रस्तुत है।
अक्सर प्रश्न पूछा जाता है कि क्या शुभ मुहर्त में कार्यारंभ कर भाग्य बदला जा सकता है? यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि ऐसा संभव नहीं है। हम जानते हैं कि गुरु वशिष्ठ ने भगवान राम के राजतिलक के लिए शुभ मुहूर्त का चयन किया था, किंतु उनका राजतिलक नहीं हो पाया। तात्पर्य यह कि मनुष्य सिर्फ कर्म कर सकता है। सही समय पर कर्म करना या होना भी भाग्य की ही बात है। कार्य आरंभ हेतु मुहूर्त विश्लेषण आवश्यक जरूर है परंतु इसी पर निर्भर रहना गलत है। यदि किसी व्यक्ति को शल्य चिकित्सा करानी पड़े तो वह मुहूर्त का इंतजार नहीं करेगा क्योंकि मुहूर्त से ज्यादा उसे अपनी जान व धन इत्यादि की चिंताएं लगी रहेंगी। परंतु मुहूर्त के अनुसार कार्य करने से हानि की संभावना को तो कम किया ही जा सकता है।
तिथि फल - एक गुणा
नक्षत्र फल - चार गुणा
वार फल - आठ गुणा
करण फल - सोलह गुणा
योग फल - बत्तीस गुणा
तारा फल - एक सौ आठ गुणा
चंद्र फल - सौ गुणा
लग्न फल - एक हजार गुणा
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