04 अप्रैल 2010

अमृत की खोज में


ब्रह्मदत्त जिस समय काशी राज्य पर शासन कर रहे थे, उस समय उनके सामंत राजा चिरायु के यहाँ नागार्जुन नाम से बोधिसत्व मुख्य मंत्री का भार संभालते थे।

नागार्जुन दयालु और दानी के रूप में लोकप्रिय थे। साथ ही रसायन शास्त्र और औषध विज्ञान के पारंगत विद्वान थे। उन्होंने एक रसायन-प्रयोग के द्वारा एक रहस्य-योग का आविष्कार किया और उसके जरिये राजा तथा अपने को भी बुढ़ापे और मरण से दूर रखा।

एक बार अचानक नागार्जुन का सबसे प्यारा पुत्र सोमदेव स्वर्गवासी हुआ, इस पर नागार्जुन को अपार दुख हुआ। नागार्जुन सहज ही दयालु थे। इसलिए वे सोचने लगे, ‘आइंदा इस संसार में किसी की मृत्यु न हो! कोई भी मानव दुख का शिकार न बने, इस वास्ते कोई न कोई उपाय करना होगा।'

आख़िर नागार्जुन ने यह निश्चय किया, ‘‘रसायनों का प्रयोग अधिक खर्चीला है। इसलिए सर्व साधारण जनता के लिए भी खरीदने लायक़ जड़ी-बूटियों द्वारा अमृत तैयार करना होगा। तभी सभी लोग दुख-दर्द से दूर होकर सुखी रह सकते हैं।''

अपने इस निर्णय के अनुसार कई तरह की औषधियों के संयोग से नागार्जुन अमृत तैयार करने में लग गये। अपने सारे शास्त्र विज्ञान का उपयोग करके उन्होंने अनेक अनुसंधान किये। बहुत हद तक सारी प्रक्रियाएँ पूरी हो गईं। उनका अनुसंधान अब अंतिम चरण में पहुँचा। अब केवल अमृत-कल्प नामक जड़ी-बूटी को मिलाने से उनका प्रयोग संपूर्ण होनेवाला था।

इस बीच यह समाचार इंद्र के कानों तक पहुँचा। उसी वक्त देवराज इन्द्र ने अश्विनी देवताओं को बुलाकर आदेश दिया, ‘‘तुम लोग तुरंत पृथ्वी लोक में चले जाओ और नागार्जुन के ‘‘अमृत योग'' को पूर्ण होने से रोक दो। तुम लोग बिना संकोच उन पर साम, दाम, भेद और दण्डोपायों का प्रयोग करो। बाकी काम मैं देख लूँगा।''

अश्विनी देवता वेष बदल कर भूलोक में पहुँचे। नागार्जुन से मिलकर कुशल प्रश्न पूछे। तदनंतर बोले, ‘‘मंत्रीवर, राज्यों के उलट-फेर करने की युक्तियाँ जाननेवाले आप महानुभाव से कोई बात छिपी नहीं है। लेकिन इस व़क्त आप ब्रह्मा के संकल्प को रोकने का साहस कर रहे हैं। मानव जाति की ‘धर्म गति' बनी मृत्यु को आप ‘अमृत सिद्धि' के द्वारा अवरुद्ध कर दें तो सृष्टि का शासन ही डगमगा जाएगा न? अगर मानव नहीं मरता है तो, उनके वास्ते कितने लोक चाहिए? अलावा इसके जो कार्य देवताओं के द्वारा संपन्न होना है, उसे मानव मात्र बने आप संपन्न करने का प्रयत्न करें तो क्या देवता और मानवों के बीच कोई अंतर रह जाएगा? आपका पुत्र भूलोक को भले ही त्याग चुका हो, पर वह स्वर्ग में सुखी है!''

इन बातों से नागार्जुन का मन संतुष्ट नहीं हुआ। वे इस विचार में डूब गये कि वह जो कार्य कर रहे हैं, वह उचित है या नहीं?

इसी बीच राजा चिरायु के पुत्र जयसेन का युवराजा के रूप में अभिषेक करने की तैयारियाँ पूरी हो गईं। एक शुभ मुहूर्त में सारा दरबार सभासदों से खचाखच भर गया।

इस बीच वृद्ध ब्राह्मण के रूप में पृथ्वी पर पहुँचकर इन्द्र जयसेन के पास गये और गुप्त रूप से यों बोले, ‘‘बेटा, क्या तुम यह बात नहीं जानते कि तुम्हारे पिता बुढ़ापे और मरण से परे हैं? इसलिए तुम्हें सदा के लिए युवराजा बनकर ही रहना पड़ेगा, लेकिन तुम्हें कभी राज्य प्राप्त न होगा!''

यह समाचार सुनकर जयसेन चिंता में डूब गया। इस पर वृद्ध ब्राह्मण ने समझाया, ‘‘बेटा, इस बात को लेकर तुम चिंता न करो। तुम्हारी मनोकामना की पूर्ति के लिए एक सरल उपाय है। नागार्जुन का यह नियम है कि भोजन के पूर्व उससे जो कोई कुछ माँगे, उसे देने की उसकी परिपाटी है। कल तुम व़क्त पर पहुँचकर बिना झिझक के यह माँगो कि मुझे आपका सिर चाहिए। फिर देखा जाएगा कि क्या होता है?''


राज्य के लोभ में फंसे जयसेन ने भोजन के समय से पहले ही नागार्जुन के पास पहुँचकर वृद्ध के कहे अनुसार उनका सिर माँगा। इस पर नागार्जुन ने थोड़ा भी संकोच किये बिना अपनी तलवार जयसेन के हाथ देकर कहा, ‘‘बेटा, डरो मत। मेरा सिर काट कर ले लो।''

पर रसायन के प्रभाव से नागार्जुन का सिर वज्र तुल्य हो गया था, इस कारण जयसेन के द्वारा कई बार काटने पर भी नागार्जुन का सिर नहीं कटा।

यह समाचार पाकर राजा वहाँ पर दौड़े आये, अपने पुत्र के इस कार्य पर दुखी हो उसे रोकना चाहा। तब नागार्जुन बोले, ‘‘महाराज, युवराजा ने जो कामना व्यक्त की, उसके आगे-पीछे की बातें मैं अच्छी तरह से जानता हूँ। जयसेन सिर्फ़ निमित्त मात्र है। इसलिए मैंने उसको रोकना नहीं चाहा। पिछले जन्म में मैंने निनानवें दफ़े इनकार किये बिना अपना सिर काट कर दिया है। यह सौवीं दफ़ा है। इस बार पीछे हटने के अपयश से मुझे बचाने की जिम्मेवारी आपकी है!'' इन शब्दों के साथ भक्तिपूर्वक आख़िरी बार नागार्जुन ने राजा के साथ आलिंगन किया।

इसके बाद अपनी जड़ी-बूटियों वाली थैली में से एक जड़ी-बूटी निकाली, उसका रस निचोड़ दिया और उसे तलवार पर मलकर जयसेन से बोले, ‘‘बेटा, अब मेरा सिर काट डालो!''

जयसेन ने ज्यों ही तलवार चलाई, त्यों ही गाजर-मूली की तरह नागार्जुन का सिर कट कर नीचे गिर पड़ा।

उस दृश्य को देख सहन न कर सकने के कारण राजा भी अपने प्राण त्याग करने को तैयार हो गये।

इस पर नीचे गिरे नागार्जुन के सिर से ये बातें सुनाई दीं, ‘‘राजन, आप कृपया चिंता न करें! मैं अपने सभी जन्मों में आपके साथ रहूँगा।''

इसके बाद राजा पूर्ण रूप से विरागी बन गये। तत्काल ही वे अपने पुत्र का राज्याभिषेक करके तपस्या करने जंगलों में चले गये।

इस प्रकार जयसेन को राज्य प्राप्त हुआ और इन्द्र का व्यूह भी सफल हुआ।