काशी राज्य पर ब्रह्मदत्त का शासन था। उन दिनों में वहाँ बोधिसत्व ने एक ब्राह्मण के घर जन्म लिया। वह नाटा था, इसलिए सब लोग उसे बौना कहकर पुकारते थे। वह बचपन में ही तक्षशिला चला गया, वहाँ पर एक गुरु के यहाँ धनुर्विद्या सीखी और उसमें प्रवीण बन गया। इसके बाद बौने के मन में धनुर्विद्या के द्वारा ही अपनी जीविका कमाने का विचार पैदा हुआ। इसी विचार से वह अनेक राजाओं के दरबार में गया, लेकिन वह बौना था, इस कारण किसी राजा ने भी उसको अपने दरबार में नौकरी नहीं दी।
आख़िर जब वह एक गाँव में जुलाहों की गली से गुज़र रहा था, तब एक करघे पर कपड़ा बुनते हुए एक आजानुबाहु व्यक्ति दिखाई दिया। बौने ने उसके समीप जाकर पूछा, ‘‘भाई, तुम्हारा नाम क्या है?'' ‘‘मेरा नाम भीमसेन है।'' जुलाहे ने उत्तर दिया। बौने ने सोचा कि यह लम्बा-चौड़ा आदमी यदि मेरे साथ आ जाये तो मेरा काम बन जायेगा।
‘‘तुम देखने में इतने लंबे-चौड़े हो, तुम्हारा नाम भी भीमसेन है, तुम्हें आख़िर कपड़ा बुनने की क्या ज़रूरत है?'' बौने ने पूछा। कपड़ा बुनने के सिवा मैं कोई काम-वाम नहीं जानता!'' भीमसेन ने कहा। ‘‘तुम्हें दोनों हाथों से कमाने का मैं उपाय बताऊँगा, क्या तुम मेरे साथ चलोगे?'' बौने ने पूछा।
भीमसेन ने खुशी से उसकी बात मान ली और बौने के साथ चल पड़ा। दोनों कुछ दिन की कठिन यात्रा के बाद राजधानी काशी नगर में पहुँचे। ‘‘तुम राजदरबार में जाकर राजा से कह दो कि तुम धनुर्विद्या में प्रवीण हो, और उनसे नौकरी के लिए प्रार्थना करो।
वे तुम्हारी कद और भारी देह को देखकर तुम्हें नौकरी ज़रूर दे देंगे।'' बौने ने समझाया। ‘‘भाई, मैं तो धनुर्विद्या बिलकुल नहीं जानता, राजा से झूठ कैसे बतला दूँ?'' भीमसेन ने कहा!
‘‘तुम नहीं जानते तो कोई बात नहीं, मैं अच्छी तरह से जानता हूँ। मैं धनुर्विद्या में प्रवीण हूँ। मैंने गुरुकुल में यह विद्या सीखी है। मुझको तुम अपना सेवक बना लो, समय पर मैं तुम्हारी सहायता किया करूँगा ! इससे तुम्हें लाभ ही लाभ है। समाज में तुम्हें प्रतिष्ठा मिलेगी। अच्छा वेतन मिलेगा। तुम्हें कुछ करना नहीं पड़ेगा।'' बौने ने भीमसेन को हिम्मत बंधाई।
इसपर भीमसेन ने काशी राजा के दरबार में जाकर अपने को धनुर्विद्या में प्रवीण बताया और बड़ी आसानी से नौकरी प्राप्त की! उसका वेतन एक पखवारे के लिए एक हज़ार मुद्राएँ निश्चित हुआ। बौना उसके अधीन एक सेवक के रूप में नियुक्त कर लिया गया। इस नई व्यवस्था से भीमसेन बहुत प्रसन्न था। उसके दिन आराम से कट रहे थे।
इसी बीच काशी की प्रजा पर एक भारी विपदा आ गई। काशी नगर के समीप के जंगल में कहीं से एक बाघ आ गया और उसने उस रास्ते से आने-जानेवाले लोगों को मारना शुरू कर दिया। यह समाचार मिलते ही काशी नरेश ने भीमसेन को बुलवाकर आदेश दिया, ‘‘सुनो, अमुक जंगल में एक बाघ है। तुम अभी जाकर उसका वध कर डालो।''
भीमसेन ने राजा का आदेश तो मान लिया। परन्तु डर से काँपने लगा। उसने सोचा, ‘मैं न तो धनुर्विद्या जानता हूँ और न कृपाण विद्या। और आमने-सामने भी बाघ से लड़ना मुझसे नहीं होगा।' अन्त में बौने के पास आकर सब कुछ बताते हुए बोला, ‘‘सुनो भाई, उस नरभक्षी को मारने का उपाय बताकर इस विपदा से मेरी रक्षा करो।''
‘‘मेरी बात सुन लो। तुम अकेले बाघ का वध नहीं कर सकते। नगर के बाहर जाते ही तुम गाँवों के लगभग दो हज़ार लोगों को इकट्ठा करके बाघ के समीप जाओ। बाघ का गर्जन सुनते ही तुम किसी झाड़ी में छिप जाना। तुम्हारे साथ जानेवाली जनता बाघ को मार डालेगी।
बाघ के मरने तक तुम झाड़ी में छिपे रहो, तब एक बेल को तोड़कर झाड़ी से बाहर निकलो। इसके बाद बाघ को मरा हुआ देख तुम गुस्से में आ जाओ। लोगों को डांटने के स्वर में बोलो, ‘‘बाघ का वध करने के लिए तो तुम सब लोगों की ज़रूरत ही क्या थी? मैं अकेला ही पर्याप्त था। फिर चिल्ला-चिल्लाकर कहो, ‘इस बाघ को मारनेवाले आगे आ जाओ, राजा से कहकर मैं उसका सर कटवा डालूँगा।' इस पर लोग डरकर यह कहने लग जायेंगे कि ‘‘हमने नहीं मारा, हमने नहीं मारा।''
तब तुम राजा के पास लौटकर यह बतला दो कि तुमने ही बाघ का वध किया है! लोगों में से कोई भी व्यक्ति यह कहने का साहस न करेगा कि तुम्हारी बात झूठ है।'' यों बौने ने भीमसेन को उपाय बताया। भीमसेन ने बौने के निर्देश का अक्षरशः पालन किया। गाँववाले जब बाघ को मार चुके तब भीमसेन हाथ में एक लता लेकर बाहर आया और यह कहते हुए उनपर नाराज हो गया कि मैं बाघ को इस बेल से बांधने के लिए लता लाने झाड़ी में गया तो इस बीच तुम लोगों ने उसे जान से क्यों मार डाला? बाघ का वध करनेवाले का सर उड़ा दिया जाएगा!''
गाँववाले भयभीत हो वहाँ से चुपके से खिसक गये। इसके बाद भीमसेन राजधानी में पहुँचा। राजा के दर्शन करके बोला, ‘‘महाराज, आपके आदेशानुसार मैंने बाघ का वध कर डाला है। आइंदा उस रास्ते से गुजरनेवालों को किसी प्रकार का डर न होगा।'' राजा भीमसेन के पराक्रम पर बहुत प्रसन्न हुए। भीमसेन का यश चारों तरफ़ फैल गया। सब उसकी प्रशंसा करने लगे।
अपनी प्रशंसा सुनते- सुनते भीमसेन सोचने लगा कि वह सचमुच एक महान वीर हो गया है। इस ख़्याल से वह अपने सेवक के रूप में रहनेवाले बौने का अनादर करने लगा। इस बात को बौने ने भाँप लिया, किंतु उसने इस पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया।
उन्हीं दिनों अचानक एक शत्रुराजा ने काशी पर हमला कर दिया और उसके सैनिकों ने नगर को चारों तरफ़ से घेर लिया। तब काशी नरेश के पास यह संदेशा भेजा, ‘‘आप हमारी अधीनता स्वीकार करेंगे या युद्ध करेंगे?'' राजा ने भीमसेन को बुलवाकर आज्ञा दी, ‘‘तुम आवश्यक सेनाओं को ले जाकर शत्रु को पराजित करके लौट आओ।'' इसके बाद उसे कवच पहनाकर एक हाथी पर चढ़ाया गया और उसके हाथ में धनुष-बाण देकर युद्धभूमि में भेज दिया गया।
बौना जानता था कि भीमसेन को ख़तरे का सामना करना पड़ेगा। इसलिए वह भी धनुष-बाण धारण करके भीमसेन के पीछे हाथी पर सवार हो गया। हाथी के चारों तरफ़ घुड़सवार और पैदल सेना थी। सब युद्ध क्षेत्र की ओर चल पड़े। युद्ध भूमि में शत्रु-सेना को पंक्ति बद्ध खड़े देख भीमसेन भय से कंपित हो उठा। उसकी देह से पसीना छूटने लगा, उसके हाथ-पैर ठण्ढे होने लगे। उसने हाथी से कूदकर भागने की कोशिश की। अगर वक्त पर उसको संभालकर बौने ने हाथी से बांध न दिया होता तो वह घोड़े के नीचे दबकर मर गया होता।
अब लाचार होकर बौने ने स्वयं सेना का नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया। वह हाथी को हांककर शत्रु-सेना के बीच घुस पड़ा, और उन पर बाणों की वर्षा करते हुए सीधे शत्रु राजा के समीप पहुँच गया। उसकी धाक् के सामने शत्रु सेना टिक न सकी और तितर-बितर हो गई। थोड़ी ही देर में शत्रु राजा पराजित होकर बौने के हाथ में बन्दी बन गया।
युद्धक्षेत्र से बौने के लौटते ही राजा को पता चला कि सच्चा धनुर्धारी कौन है? राजा ने बौने को सेनापति के पद पर नियुक्त किया। बौने ने भीमसेन को अनेक उपहार देकर भेज दिया।
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