सीता के मुख से ऐसे कठोर एवं अपमानजनक शब्द सुन कर लंकापति रावण के नेत्र क्रोध से लाल हो गये, उसकी भृकुटि चढ़ गई। वह अपने होंठ चबाता हुआ बोला, "हे सीते! मैंने तेरे साथ जितने मधुर शब्दों का प्रयोग करके तुझे समझाने का प्रयत्न किया तूने उतने ही कठोर शब्दों में मेरे हृदय को छलनी करने की चेष्टा की है। मैं तेरे सौन्दर्य, लावण्य एवं यौवन से प्रभावित हो कर जितनी कोमलता दिखा रहा हूँ उतना ही अधिक तू कठोर शब्दों का प्रयोग कर के मेरा अपमान कर रही है। मैं तुझे अभी मृत्यु के घाट उतार देता, परन्तु तेरा सुकुमार यौवन देख कर मुझे तुझ पर दया आ रही है। मैं नहीं चाहता कि तेरी जिस सुन्दर ग्रीवा में अपनी भुजा लपेट कर मैं तुझ से प्रणय-क्रीड़ा करना चाहता हूँ उसी ग्रीवा पर कठोर कृपाण चलाऊँ। इसलिये मैं तुझे दो मास का समय विचार करने के लिये और देता हूँ। यदि इस अवधि में तूने अपने विचारों में परिवर्तन कर के मेरी शैया की शोभा नहीं बढ़ाई तो मेरे रसोइये तेरे टुकड़े-टुकड़े कर के तेरा पका हुआ माँस मेरे प्रातःकाल के भोजन में मेरे सामने परोस देंगे।"
रावण के ये वचन सुन कर जानकी ने छेड़ी हुई नागिन की भाँति फुँफकारते हुये कहा, "अरे दुष्ट! तूने महान तेजस्वी, अद्भुत पराक्रमी रघुनाथ जी की पत्नी के लिये ऐसे पापमय वचन कहे हैं, इसका परिणाम तुझे अवश्य भुगतना पड़ेगा। अब तू उनके हाथों से कदापि नहीं बच सकेगा। संसार में ऐसा व्यक्ति अब तक उत्पन्न नहीं हुआ कि जो किसी रघुवंशी की भार्या को पापमय दृष्टि से देखने के पश्चात् जीवित रह जाय। इसलिये अब तू समझ ले कि तेरी मृत्यु निश्चित है और तेरा पाप का घड़ा भरने वाला है। अरे वेदों और शास्त्रों के ज्ञाता होने का दम भरने वाले नीच! जिस जिह्वा से तूने चक्रवर्ती राजा दशरथ की पुत्रवधू के लिये ऐसे शब्द कहे हैं, वह गल कर गिर क्यों नहीं गई? यह तेरा सौभाग्य है कि मैं पतिव्रता स्त्री हूँ और पति की आज्ञा के बिना कोई कार्य नहीं करती, अन्यथा मैं तुझे अभी इसी समय अपने तेज से जला कर भस्म कर देती, साथ ही तेरी लंका और तेरे परिवार को भी धूल में मिला देती। क्या करूँ, मेरे पति ने वन में आते समय मुझे ऐसा करने की अनुमति नहीं दी थी। यह भी मैं तुझे बता दूँ कि संसार की कोई शक्ति मुझे राघव से पृथक नहीं कर सकती। तूने मेरा जो अपहरण किया है, वह विधाता का विधान ही है क्योंकि वह इसी प्रकार रामचन्द्र जी के हाथों तेरी मृत्यु कराना चाहता है। तू कितना वीर और पराक्रमी है इसका पता तो मुझे उसी दिन चल गया था, जब तेरे पास इतनी विशाल सेना, बल और तेज होते हुये भी तू मुझे चोरों की भाँति मेरे पति की अनुपस्थिति में चुरा लाया था। क्या इससे तेरी कायरता का पता नहीं चलता। जा, चलाजा मेरे सामने से। कहीं मैं मर्यादा छोड़ कर तुझे भस्म न कर दूँ। जा, मैं अभी तुझे क्षमा करती हूँ।"
सीता के मुख से ऐसे अप्रत्याशित एवं अपमानजनक वचन सुन कर रावण का सम्पूर्ण शरीर क्रोध से थर-थर काँपने लगा। उसके नेत्रों से अंगारे बरसाने लगे। वह दहाड़ता हुआ बोला, "हे निर्बुद्धि मूर्खे! हे अंधविश्वासिनी! तुझे अपने वनवासी राम पर ऐसा विश्वास है। तुझे मालूम नहीं, वह दीन, असहाय की भाँति वन-वन में रोता-बिलखता फिर रहा है। तेरे अपमानजनक शब्दों को मैं अब सहन नहीं कर सकता। मैं इसी खड्ग से अभी तेरे टुकड़े-टुकड़े कर दूँगा। अब मेरे हाथों से तिरी मृत्यु निश्चित है। अब तुझे कोई नहीं बचा सकता। परन्तु क्या करूँ, तेरी कोमल किशलय जैसी देह को देख कर मुझे फिर तुझ पर दया आ रही है। प्रणय-क्रीड़ा करने के लिये बने इन अंगों को नष्ट करने के लिये मेरे हाथ नहीं उठ रहे हैं।" फिर वह राक्षसनियों को सम्बोधित करते हुये बोला, "जिस प्रकार भी हो, सीता को मेरे वश में होने के लिये विवश करो। यदि वह प्रेम से न माने तो इसे मनचाहा दण्ड दो ताकि यह हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाती तुई मुझसे प्रार्थाना करे और मुझे अपना पति स्वीकार करे।"
इस प्रकार गर्जना करता हुआ रावण उन्हें समझा रहा था कि तभी एक अत्यन्त विकरालरूपा निशाचरी दौड़ती हुई आई और रावण के शरीर से लिपट कर बोली, "हे प्राणवल्लभ! आप इस कुरूप सीता के लिये क्यों इतने व्याकुल होते हैं? भला इसके फीके पतले अधरों, अनाकर्षक कान्ति और छोटे भद्दे आकार में क्या आकर्षण है? आप चल कर मेरे साथ विहार कीजिये। इस अभागी को मरने दीजिये। इसके ऐसे भाग्य कहाँ जो आप जैसे अपूर्व बलिष्ठ, अद्भुत पराक्रमी, तीनों लोकों के विजेता के साथ रमण-सुख प्राप्त कर सके। नाथ! जो स्त्री आपको नहीं चाहती, उसके पीछे उन्मत्त की भाँति दौड़ने से क्या लाभ? इससे तो व्यर्थ ही मन को दुःख होता है।" उस कुरूपा विलासिनी के ये शब्द सुन कर रावण उसके साथ अपने भव्य प्रासाद की ओर चल पड़ा।
07 अप्रैल 2010
रामायण – सुन्दरकाण्ड - रावण-सीता संवाद (2)
Posted by Udit bhargava at 4/07/2010 04:51:00 am
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