04 अप्रैल 2010

अराजकता


ब्रह्मदत्त काशी राज्य के शासक थे। उन दिनों में उत्तर पांचाल देश पर पांचाल नामक राजा राज्य करते थे। उनकी राजधानी कांपिल्य नगरी थी। राजा पांचाल भोग-लालसी और चरित्रहीन थे। साथ ही शासन के मामलों में रुचि नहीं लेते थे। ‘यथा राजा तथा प्रजा' की कहावत के अनुसार राजा की देखादेखी मंत्री भी अनैतिक व्यवहार करने लगे। जनता पर करों का बोझ बढ़ता गया और देश में अराजकता सर उठाने लगी।

जनता का जीवन डाँवाडोल हो गया। दिन में राजभटों के अत्याचार और रात को चोरों के आतंक बढ़ने लगे। इसलिए नगरवासी अपने घरों पर ताले लगाकर दरवाजों पर कांटों के झाड़ रखे अपनी पत्नी व बच्चों को लेकर जंगल में चले जाते और इस तरह अपने प्राणों की रक्षा करने लगे। वे सारा दिन जंगल में बिताकर आधी रात के वक्त अपने घर लौट आते थे।

उन्हीं दिनों में बोधिसत्व ने नगर के बाहर तिंदक वृक्ष के अधिष्ठाता देवता के रूप में जन्म लिया। राजा हर साल उस पेड़ की पूजा करते और एक हज़ार मुद्राएँ इसके पीछे खर्च करते थे।

तिंदक देव सोचने लगे, ‘ओह, ये राजा ऐसी श्रद्धा और भक्ति के साथ मेरी आराधना करते हैं। ये राजा अपनी अदूरदर्शिता और अविवेक के कारण अपने देश में नाहक अराजकता मोल रहे हैं। इनको सही उपदेश मेरे सिवाय और को नहीं दे सकता।'

एक दिन सपने में राजा को दर्शन देकर तिंदक देव बोले, ‘‘राजन, मैं तिंदक देव हूँ! मैं आप को उपदेश देने आया हूँ।''

‘‘कैसा उपदेश?'' राजा ने विनयपूर्वक पूछा।

‘‘राजन, आप शासन के कार्यों में दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। इस कारण आप का राज्य सर्वनाश को प्राप्त होनेवाला है! जो राजा शासन में दिलचस्पी नहीं लेते, वे इस लोक में अपने राज्य से वंचित हो जाते हैं और परलोक में नरक भोगते हैं।''


हे देव! आप बताइये, मुझे क्या करना होगा?'' राजा ने पूछा।

‘‘अभी देरी नहीं हुई है। आप राज्य के कार्यों में खुद दिलचस्पी लेकर अराजकता को दूर कीजिए और अपने राज्य की रक्षा कीजिए।'' यों समझाकर तिंदक देव अदृश्य हो गये।

इस पर राजा के मन में ज्ञानोदय हुआ। उन्होंने अपने राज्य की हालत खुद देखने का निश्चय किया। दूसरे दिन सवेरे अपने मंत्रियों को बुलाकर राजकाजों की देखभाल करने की सलाह दी और आप एक पुरोहित को साथ ले पूर्वी द्वार से छद्म वेष में निकल पड़े।

नगर के बाहर एक घर के सामने उन्हें एक वृद्ध दिखाई दिया। उसने दरवाजे पर ताला लगाया, घर के चारों तरफ़ कंटीले झाड़ फैला दिये। तब अपनी पत्नी व बच्चों के साथ जंगल में भाग गये। अंधेरा फैलने पर वह अपने घर लौट आया, किवाड़ खोलने को हुआ, तब उसके पैर में एक कांटा गड़ गया। उसी व़क्त वह जमीन पर लुढ़क पड़ा, पैर से कांटा निकालते हुए राजा की निंदा करने लगा, ‘‘जैसे मेरे तलवे में कांटा गड़ गया है, इसी प्रकार युद्ध के समय पांचाल राजा के बदन में तीर चुभ जाये!''

राजपुरोहित ने उस वृद्ध के समीप जाकर पूछा, ‘‘महाशय, आप तो वृद्ध है! आप की दृष्टि मंद है। इस कारण कांटों पर पैर रखा तो इसमें राजा का दोष क्या है?''

‘‘राजा के अत्याचारी होने के कारण ही अधिकारी दुष्ट हो गये है! जनता दिन में राजभटों के व रात को चोरों के अत्याचारों से तंग आ गई और घर के चारों तरफ़ कंटीले झाड़ फैलाकर अपने परिवार के साथ जंगल में भाग रही है। वरना मेरे पैर में कांटे के गड़ने की नौबत ही क्यों आती?'' वृद्ध ने कहा।


इसके बाद राजा और पुरोहित किस दूसरे गाँव में पहुँचे। वहाँ पर उन्हें एक औरत दिखाई दी। उसके दो विवाह योग्य कन्याएँ थीं। उन्हें वह जंगल में ले जाना नहीं चाहती थी, इसलिए घर के अंदर छिपाकर घर के लिए आवश्यक लकड़ियाँ वगैरह खुद लाया करती थी। उस व़क्त वह पत्ते तोड़ने के लिए पेड़ पर चढ़ गई, पैर फिसलने से नीचे गिरकर राजा को गालियाँ सुनाने लगी, ‘‘इस देश का राजा मर जाये! इसके ज़िंदा रहते कन्याओं की शादी भी नहीं हो सकती।''

ये बातें सुन पुरोहित उस औरत के समीप पहुँचा और पूछा, ‘‘अरी मूर्ख! क्या तुम समझती हो कि राज्य भर की कन्याओं के लिए पतियों का प्रबंध करना राजा की जिम्मेदारी है?''

‘‘इस देश में दिन में राजभटों का और रात को चोरों का डर बना रहता है; ऐसी हालत में कन्याओं के लिए पति कैसे मिलेंगे?'' उस औरत ने जवाब दिया।

इसके बाद राजा और पुरोहित आगे बढ़े। एक जगह उन्हें खेत जोतते एक किसान दिखाई दिया। उसके खेत जोतते व़क्त हल के फाल के चुभने पर एक बैल नीचे गिर गया। इस पर वह किसान गुस्से में आकर बोला, ‘‘पांचाल देश का राजा कलेजे में भाला चुभने से इसी तरह गिर जाये! हमारी सारी तक़लीफ़ें दूर हो जायेंगी!''

पुरोहित ने किसान से पूछा, ‘‘भाई, तुम्हारी असावधानी से बैल नीचे गिर जाय तो इसमें राजा का क्या दोष है?''


‘‘राजा का दोष नहीं है तो किसका दोष है? राजा अगर अत्याचारी हो जाते हैं, तो हम जैसे कमज़ोर लोग कैसे ज़िंदा रह सकते हैं? दिन में राजभटों का डर और रात को चोरों का आतंक बना रहता है! मेरी औरत मेरे वास्ते जो खाना लाई थी, उसे दुष्ट लोग खा गये। मैं इस इंतज़ार में था कि मेरी औरत दुबारा खाना बनाकर कब ले आयेगी? इसलिए मेरे अंदर असावधानी आ गई और मेरा बैल चोट खाकर नीचे गिर गया है।'' किसान ने जवाब दिया।

वहाँ से निकलकर राजा और पुरोहित राजधानी की ओर चल पड़े। रास्ते में उन्हें एक दृश्य दिखाई दिया। एक तालाब के जल में जीवित रहनेवाले मेंढकों को कोए नोच-नोचकर खा रहे थे। इस पर उन मेंढ़कों में से एक कह रहा था, ‘‘ये कौए जैसे हमें ज़िंदा रहते नोच-नोचकर खा रहे हैं, वैसे ही पांचाल राजा और उसकी संतान को दुश्मन नोचकर खा जाये।''

‘‘अरे मूर्ख मेंढ़क! तुम लोगों को नोचकर खानेवाले कौओं की निंदा न करके राजा को शाप दे रहे हो?'' पुरोहित ने मेंढ़क से पूछा।

‘‘राजा को संतुष्ट करने के लिए पुरोहित यही पूछेगा! इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। लेकिन देश में काकश्राद्ध तक न होने की वज़ह ही तो कौओं की ज़िंदा मेंढ़कों को नोचकर खाने की हालत हो गई है। ऐसे देश के राजा के मरने पर देश का कैसा हित हो सकता है?'' मेंढ़क बोला।

यह सुनकर राजा अपने पुरोहित से बोले, ‘‘आखिर मेंढ़क भी मुझे शाप दे रहे हैं। अब राजधानी लौटकर अराजकता को दूर भगा देंगे।''

इसके बाद राजा ने शासन के कार्यों में दिलचस्पी ली। राज्य की व्यवस्था की त्रुटियों को दूर किया। जनता को शांति और सुख देते हुए बहुत समय तक राज्य किया।