04 अप्रैल 2010

चेतावनी


एक बार काशी राज्य के एक गॉंव में एक ब्राह्मण रहता था। वह भिक्षाटन से अपनी जीविका चलाता था।

एक बार किसी गॉंव में से भिक्षाटन करके वह लौट रहा था। मार्ग में उसे ये शब्द सुनाई पड़े, ‘‘हे ब्राह्मण! यदि आज शाम तक अपने घर नहीं पहुँचे तो तुम्हारी मौत निश्र्चित है। और यदि पहुँच गये तो तुम्हारी पत्नी की मौत निश्र्चित है।''

ब्राह्मण ने डरते हुए इधर-उधर देखा, परन्तु वहॉं कोई नहीं था। तब उसने सोचा कि या तो यह देव वाणी है या किसी यक्ष की चेतावनी है।

यह सोचकर और भी डर गया कि घर जाने पर पत्नी के प्राण चले जायेंगे। वह इसी भय, शंका और दुविधा की अवस्था में चलता-चलता नगर पहुँच गया।

उन्हीं दिनों बोधिसत्व अपने एक जन्म में सेनक नामक एक साधु थे । ये स्थान-स्थान पर लोगों को एकत्र कर उपदेश दिया करते थे। एक दिन वे नगर के एक स्थान पर प्रवचन दे रहे थे।

ब्राह्मण उसी मार्ग से गुजर रहा था। वह भी साधु का उपदेश सुनने लगा। अपने प्राणों के भय से, वह, परेशान होने के कारण, साधु का प्रवचन ध्यान से नहीं सुन सका। किन्तु वह बराबर साधु की ओर एकटक देखता रहा।

उपदेश खत्म होने पर श्रोताओं ने साधु को साधुवाद दिया और उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करके जाने लगे। किन्तु वह ब्राह्मण बुत की तरह वहीं खड़ा रहा।

जब बोधिसत्व की नज़र ब्राह्मण पर पड़ी तो उन्होंने संकेत से उसे अपने पास बुलाया।

ब्राह्मण ने उन्हें सिर झुका कर प्रणाम किया। ब्राह्मण के चेहरे पर भय और शंका बिलकुल साफ दिखाई रही थी। बोधिसत्व समझ गये कि इसे कोई भारी कष्ट है। उसके मदद करने के लिडए उन्होंने करुणा भरे शब्दों में उससे पूछा, ‘‘वत्स! बताओ, तुम्हें क्या कष्ट है?''

ब्राह्मण ने आँखों में आँसू भर के जंगल के मार्ग में जो घटना घटी थी, सब सुना दी।

पूरी घटना ध्यान से सुनने के बाद बोधिसत्व ने प्रश्न किया, ‘‘वह अशरीरी वाणी जब सुनाई पड़ी तो उसके पूर्व तुम क्या कर रहे थे?''

‘‘उसके पहले एक पेड़ के नीचे बैठकर अपनी थैली में से खाना निकाल कर खा रहा था।'' ‘‘खाना खाने के बाद तुमने पानी कैसे पीया? तुम्हारे पास जल का कोई पात्र तो नहीं है।'' बोधिसत्व ने फिर सवाल किया।

‘‘उस जंगल में पास ही एक झरना था। खाना खाकर उसी झरने पर जाकर मैंने पानी पीया।'' ब्राह्मण ने उत्तर दिया।

‘‘क्या थैली में जितना खाना था, तुमने सब खा लिया या उसमें कुछ खाना बचा रहा?'' बोधिसत्व ने पूरी जानकारी लेनी चाही। ब्राह्मण ने पूरी बात बताते हुए कहा, ‘‘थैली में रखे भोजन का मैंने आधा हिस्सा ही खाया था। आधा भोजन तो अभी भी उसी में पड़ा है।''

बोधिसत्व ने विस्तार से जानने के लिए पुनः पूछा, ‘‘तुम जब अपनी प्यास बुझाने के लिए झरने पर गये थे तो भोजन की थैली साथ ले गये या पेड़ के नीचे ही छोड़ कर गये थे?'' ‘‘पेड़ के नीचे ही छोड़ दिया था,'' ब्राह्मण ने उत्तर दिया।

‘‘क्या थैली का मुँह बन्द करके गये थे या खुला छोड़ कर? यदि खुला छोड़ कर गये तो कब बन्द किया था उसे?'' बोधिसत्व ने पूछा।

ब्राह्मण बहुत सोचने के बाद याद करता हुआ बोला, ‘‘हाँ हाँ याद आया। पानी पीकर आने के बाद ही मैंने थैली का मुँह बन्द किया था।''

‘‘अच्छा, अब यह बताओ कि जब तुमने थैली का मुँह बन्द किया, तब थैली के अन्दर झाँक कर देखा था?'' ब्राह्मण फिर सोचने लगा। सोचकर बोला, ‘‘नहीं श्रीमान्। ऐसा तो नहीं किया था।''

‘‘थैली बाँधने के बाद पेड़ के नीचे कुछ देर आराम किया या तुरंत वहाँ से रवाना हो गये?'' ‘‘नहीं महात्मन्! मैं थैली बाँध कर तुरंत वहाँ से चल पड़ा।'' ‘‘और कितनी दूर चलने के बाद वह वाणी सुनाई दी? उठकर चलते ही या कुछ दूर जाने के बाद?''

उठकर चलते ही।''


बोधिसत्व चुप हो गये और आँखें बन्द कर लीं और बहुत देर तक ध्यान में रहे। ध्यान में उन्होंने सारी घटना पर फिर से विचार किया और यह जानने का प्रयास करते रहे कि किस समय क्या-क्या सम्भावना हो सकती है और चेतावनी देनेवाली वाणी से किस घटना का सम्बन्ध अधिक निकट का हो सकता है।

अपने ध्यान में पूरी घटना की बड़ी बारीकी के साथ जाँच करने के बाद बोधिसत्व ने समझाते हुए ब्राह्मण से कहना शुरू किया, ‘‘पेड़ के नीचे से जब तुम चले, तभी कोई घटना घटी, जिसे किसी ने देखा। हो सकता है कि जब तुम थैली का मुँह खुला छोड़ कर पानी पीने गये थे, उस समय तुम्हारी थैली में सर्प चला गया हो। वापस आने पर थैली में झाँके बिना थैली का मुँह बन्द कर दिया। इससे सर्प थैली के अन्दर बन्द हो गया। जिसने भी इस घटना को देखा, उसने यह सोचा कि शाम तक यदि घर तुम नहीं पहुँचे तो बचा हुआ भोजन खाने के लिए थैली में हाथ डालोगे। इससे सर्प डँस लेगा और तुम्हारी मौत हो जायेगी। यदि तुम घर पहुँच गये तो तुम्हारी पत्नी ही थैली को खोलेगी और सर्प उसे डँस लेगा। इस प्रकार हर हालत में किसी एक की, जो भी थैली को खोलेगा, मृत्यु निश्चित होगी।''

इतना कहते हुए बोधिसत्व ने अपने आसन के पास ब्राह्मण को थैली रखने के लिए कहा। उसी समय भीड़ में से एक संपेरा आया और उसने थैली का मुँह खोल दिया। थैली का मुँह खुलते ही थैली के अन्दर से एक नाग फुत्कारता हुआ बाहर आ गया। संपेरे ने उसे पकड़ लिया।

ब्राह्मण यह सब देखकर दंग था। वह साधु की तेज़ बुद्धि पर चकित था। उसके चेहरे पर से डर और शंका की छाया हट चुकी थी।

बोधिसत्व मुस्कुराते हुए ब्राह्मण से बोले, ‘‘अब आप निर्भय और निश्चिन्त होकर घर जाइए।''

ब्राह्मण बोधिसत्व के प्रति कृतज्ञता का भाव लिए अपने घर की ओर चल पड़ा।