09 अप्रैल 2010

रामायण – सुन्दरकाण्ड - हनुमान जी अशोक वाटिका में

जब हनुमान लंका नगरी के समस्त भवनों और अट्टालिकाओं में सीता की खोज कर के असफल हो चुके तो वे लंका के उपवन, वाटिकाओं, सरोवरों, झीलों, सुरम्य तरणतालों आदि क्षेत्रों का भ्रमण कर के सीता का पता लगाने का प्रयास करने लगे। इस प्रकार भटकते-भटकते वे अशोकवाटिका तक जा पहुँचे। जो चारों ओर से ऊँचे परकोटों से घिरी हुई थी। अन्दर जाने का कोई सुरक्षित मार्ग न देख कर वे एक ऊँचे वृक्ष पर चढ़ गये उस पर से छलाँग लगा कर परकोटे के अन्दर कूद पड़े। अशोकवाटिका में सुन्दर प्राकृतिक वृक्ष तथा वल्लरियाँ तो थीं ही, सोने-चाँदी से निर्मित नाना प्रकार के ऐसे वृक्ष भी वहाँ खड़े किये गये थे जो वास्तविक एवं प्राकृतिक वृक्षों जैसे प्रतीत होते थे। पक्षियों के कलरव एवं मृगछौनों की अठखेलियों से वाटिका अत्यन्त रमणीक बन गई थी. वहाँ ऐसे सुन्दर सरोवर और तड़ाग भी थे जिनका जल अत्यन्त निर्मल था तथा सीढ़ियाँ स्वर्ण-रत्न जटित थीं। एक ओर हनुमान ने स्वर्ण का एक वृक्ष देखा जिसके नीचे चारों ओर स्वर्ण की यज्ञ-वेदियाँ बनी हुईं थीं। उन्होंने सोचा, यदि रावण ने जानकी जी को इस वाटिका में रखा होगा तो प्रातःकाल सन्ध्या-उपासना के लिये यहाँ अवश्य आती होंगीं क्योंकि आर्य परिवार की होने के कारण वे धार्मिक कृत्यों का परित्याग कदापि नहीं कर सकतीं। यह सोच कर हनुमान उस वृक्ष पर चढ़ कर बैठ गये और रात्रि के बीतने तथा प्रातःकाल होने की प्रतीक्षा करने लगे। साथ ही वृक्ष पर चढ़े हुये वे इधर-उधर अन्वेषणात्मक दृष्टि भी घुमाने लगे। उन्होंने देखा, रावण की अशोकवाटिका के सामने इन्द्र का नन्दनवन और कुबेर का चैत्ररथवन भी श्रीहीन से प्रतीत होते हैं। कभी-कभी दर्शक को ऐसा भ्रम होता था कि यह अशोकवाटिका का नहीं कुबेर का विश्वविख्यात गंधमादन पर्वत है जिसमें वसन्त की मनोमुग्धकारी समीर सुगन्धित पुष्पों के मकरन्द को ले कर सम्पूर्ण वातावरण को आप्लावित कर रही है।

इस देवोपम वाटिका में हनुमान ने कैलाश पर्वत जैसा एक उच्च स्वर्ण एवं रत्नजटित प्रासाद देखा। उस महल के समीप एक विशाल वृक्ष के नीचे एक सुन्दर किन्तु कृशकाय स्त्री बैठी थी। उसके वस्त्र मलिन, फटे और पुराने थे। उसे चारों ओर से कुछ कुरूप राक्षसनियों ने घेर रखा था। वह बार-बार ठंडी और गहरी साँस भर रही थी जैसे वह भयंकर विपदा की मारी दुखियारी हो। शरीर पर कोई आभूषण नहीं था। सिर के केश रूखे और सूखे थे जो एक वेणी के रूप में लिपटे हुये उसके आगे लटक रहे थे। शरीर कोमल होते हुये भी कान्तिहीन हो गया था। उसकी यह दीन मलिन दशा देख कर और निशाचरियों के पहरे में बन्दी पा कर हनुमान ने अनुमान लगाया, सम्भवतः यही रामचन्द्र जी की प्राणवल्लभा जनकनन्दिनी सीता हैं। उन्हें इस बात का विश्वास होने लगा कि विनष्ट श्रद्धा के सदृश, टूटी हुई आशा सी, मिथ्यावाद के फलस्वरूप नष्ट हुई कीर्ति के समान जो यह देवी राक्षसी समूह से घिरी बैठी हैं, वास्तव में वहीं विदेहकुमारी हैं। इन्हीं के वियोग में दशरथनन्दन राम व्याकुल हो रहे हैं। यह तपस्विनी ही उनके हृदय में अक्षुण्ण रूप से निवास करती हैं। इन्हीं सीता को पुनः प्राप्त करने के लिये रामचन्द्र जी ने बालि का वध कर के सुग्रीव को उनका खोया हुआ राज्य दिलाया है। इन्हीं को खोज पाने के लिये मैंने विशाल सागर को पार कर के लंका के भवन अट्टालिकाओं की खाक छानी है। इस अद्भुत सुन्दरी को प्राप्त करने के लिये रघुनाथ जी सागर पर्वतों सहित यदि सम्पूर्ण धरातल को भी उलट दें तो भी कम है। ऐसी पतिपरायणा साध्वी देवी के सम्मुख तीनों लोकों का राज्य और चौदह भुवन की सम्पदा भी तुच्छ है। आज यह महान पतिव्रता राक्षसराज रावण के पंजों में फँस कर असह्य कष्ट भोग रही है। मुझे अब इस बात में तनिक भी सन्देह नहीं है कि यह वही सीता है जो अपने देवता तुल्य पति के प्रेम के कारण अयोध्या के सुख-वैभव का परित्याग कर के रामचन्द्र के साथ वन के कष्टों को हँस-हँस कर झेलने के लिये चली आई थीं और जिसे नाना प्रकार के दुःखों को उठा कर भी कभी वन में आने का पश्चाताप नहीं हुआ। वही सीता आज इस राक्षसी घेरे में फँस कर अपने प्राणनाथ के वियोग में सूख-सूख कर काँटा हो गई हैं, किन्तु उन्होंने अपने सतीत्व पर किसी प्रकार की आँच नहीं आने दिया। इसमें सन्देह नहीं, यदि इन्होंने रावण के कुत्सित प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया होता तो आज इनकी यह दशा नहीं होती। राम के प्रति इनके मन में कितना अटल स्नेह है, यह इसी बात से सिद्ध होता है कि ये न तो अशोकवाटिका की सुरम्य शोभा को निहार रही हैं और न इन्हें घेर कर बैठी हुई निशाचरियों को। उनकी एकटक दृष्टि पृथ्वी में राम की छवि को निहार रही हों।

सीता की यह दीन दशा देख कर भावुक पवनसुत के नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित हो चली। वे सुध-बुध भूल कर निरन्तर आँसू बहाने लगे। कभी वे सीता जी की दीन दशा को देखते थे और कभी रामचन्द्र जी के उदास दुःखी मुखण्डल का स्मरण करते थे। इसी विचारधारा में डूबते-उतराते रात्रि का अवसान होने और प्राची का मुखमण्डल उषा की लालिमा से सुशोभित होने लगी। तभी हनुमान को ध्यान आया कि रात्रि समाप्तप्राय हो रही है। वे चैतन्य हो कर ऐसी युक्ति पर विचार करने लगे जिससे वे सीता से मिल कर उनसे वार्तालाप करके उन तक श्री रामचन्द्र जी का सन्देश पहुँचा सकें।