हाज़िर हैं हम हाज़िर हैं
मुसाफ़िराने हज चल पड़े हैं। उनके लबों पर ख़ुदा का ज़िक्र है, उसके घर में हाज़िरी देने की गवाही है। वे चल पड़े हैं, अल्लाह के उस घर की जानिब, जिसे 'काबा' कहा जाता है। हज यात्री अब इस घर का दीदार करेंगे, उसके चारों तरफ़ तवाफ़ (परिक्रमा) करेंगे और आइंदा माह यानी दिसंबर के पहले हफ़्ते में ख़ुदा की इस अज़ीम इबादत को अदा करेंगे।
काबा शरीफ़ मक्का में है। इसके लिए मुसाफ़िरों ने यहीं से तैयारी कर ली है। असल में हज आम इबादतों से कुछ अलग तरह की इबादत है। यह ऐसी इबादत है जिसमें काफ़ी चलना-फिरना पड़ता है। सऊदी अरब के पवित्र शहर मक्का और उसके आसपास स्थित अलग-अलग जगहों पर हज की इबादतें अदा की जाती हैं। इनके लिए पहले से तैयारी करना ज़रूरी होता है, ताकि हज ठीक से किया जा सके। इसीलिए हज पर जाने वालों के लिए तरबियती कैंप यानी प्रशिक्षण शिविर लगाए जाते हैं।
हज दरअसल इरादा करके 'काबा' की ज़ियारत यानी दर्शन करने और उन इबादतों को एक विशेष तरीक़े से अदा करने को कहा जाता है। इनके बारे में किताबों में बताया गया है। हज के लिए विशेष लिबास पहना जाता है, जिसे एहराम कहते हैं। यह एक फ़क़ीराना लिबास है। ऐसा लिबास जो हर तरह के भेदभाव मिटा देता है। छोटे-बड़े का, अमीर-ग़रीब, गोरे-काले का। इस दरवेशाना लिबास को धारण करते ही तमाम इंसान बराबर हो जाते हैं और हर तरह की ऊँच-नीच ख़त्म हो जाती है।
तब सारे के सारे एक साथ अल्लाह के सामने हाज़िर होकर उसकी बड़ाई और अपनी कमतरी का इक़रार करते हैं। हज के इरादे से मक्का में दाख़िल होते समय इस लिबास का धारण करना ज़रूरी है। वहाँ पहुँचकर 'काबा' के दर्शन करने के बाद इसे उतार दिया जाता है। 'उमरा' या 'हज' करते समय इसे फिर पहन लिया जाता है।
इसी तरह हज पर रवाना होने वाले हर मुसाफ़िर की ज़बान पर कुछ विशेष शब्द होते हैं। इन शब्दों के माध्यम से इंसान रब्बे-कायनात के समक्ष अपनी हाज़िरी और उसकी बड़ाई बयान करता है।
अरबी में कहे जाने वाले इन शब्दों का अर्थ है : 'हाज़िर हूँ अल्लाह, मैं हाज़िर हूँ। हाज़िर हूँ। तेरा कोई शरीक नहीं, हाज़िर हूँ। तमाम तारीफ़ात अल्लाह ही के लिए है और नेमतें भी तेरी हैं। मुल्क भी तेरा है और तेरा कोई शरीक नहीं है।'
ये ऐसे शब्द हैं जो पूरी हज यात्रा के दौरान हज यात्रियों की ज़बान पर रहते हैं। इसका अर्थ यह है कि इस पूरे मुक़द्दस (पवित्र) सफ़र में उसे हर घड़ी एक बात विशेष रूप से याद रखना है। यह कि वह कायनात के सृष्टा, उस दयालु-करीम के समक्ष हाज़िर है, जिसका कोई संगी-साथी नहीं है। इसके अलावा यह भी कि मुल्को-माल सब अल्लाह तआला का है। इसलिए हमें इस दुनिया में फ़क़ीरों की तरह रहना चाहिए। उसने हमें तरह-तरह की नेमतें बख़्शी हैं, जिनका हम लुत्फ़ उठाते हैं।
इस महा समागम में हर साल लाखों लोग शरीक होते हैं। दुनिया के तमाम देशों से एक अल्लाह को मानने वाले वहाँ जमा हो जाते हैं और सब मिलकर हज के विशेष दिनों में कुछ विशेष इबादतों के ज़रिए अपनी श्रद्धा के फूल पेश करते हैं। सऊदी सरकार इन पवित्र यात्रियों के लिए विशेष व्यवस्थाएँ करती हैं। हर साल इन यात्रियों की तादाद बढ़ती जा रही है। इस साल भी वहाँ 30 लाख से ज़्यादा लोगों के जमा होने की संभावना है।
20 मार्च 2010
मुसाफ़िराने चल पड़े हज!
Posted by Udit bhargava at 3/20/2010 06:10:00 pm
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