हज इस्लाम के पाँच बुनियादी स्तंभों में से एक है। यह अनिवार्य इबादत उन तमाम मुसलमानों पर फ़र्ज़ है, जो इसकी हैसियत रखते हैं। ग़रीब और कमज़ोर बंदों पर यह फ़र्ज़ नहीं लेकिन सवाब और इनाम के लिए वे इसे करें तो इसका प्रतिफल बहुत है। शब्द हज का अर्थ पवित्र स्थल के दर्शन का इरादा करना है।
इस्लामिक मान्यताओं के अनुसार हज यानी काबा शरीफ़ के दर्शन करना, एक निश्चित समयावधि में कुछ मख्सूस मुक़ामात पर हज के क्रियाकलाप उन तरीक़ों से संपन्न करना जैसे कि हज़रत मुहम्मद ने किए थे। भारत से हर साल एक लाख के क़रीब श्रद्धालु हज के लिए सऊदी अरब के शहर मक्का शरीफ़ जाते हैं और हज अदा करते हैं।
हज का आग़ाज़ : हज की इब्तिदा हजारों साल पहले हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के ज़माने से हुई है। इसीलिए इसे सुन्नते इब्राहीमी भी कहा जाता है। पहले भी इसका ज़िक्र आ चुका है कि हज़रत इब्राहीम को ईसाई, मुसलमान और यहूदी समान रूप से अल्लाह का नबी मानते हैं। सो अल्लाह के विशेष दूत हज़रत इब्राहीम ऐसी प्रतिष्ठित शख़्सियत हुए, दुनिया की बड़ी आबादी जिनका सम्मान करती है।
इस प्रतिष्ठा में इज़ाफ़ा इससे भी होता है कि इनके वंश में कई नबी पैदा हुए। इन्हीं हज़रत इब्राहीम को अल्लाह तआला कितना प्रिय रखते थे कि क़ुरआन में उन्हें ख़लीलुल्लाह यानी अल्लाह का दोस्त कहा गया है। हज से हज़रत इब्राहीम को ख़ास निस्बत है।
एक तो यह कि वर्तमान में हज का जो स्वरूप है उसकी इब्तिदा हज़रत इब्राहीम से ही हुई। इसके बहुत से क्रियाकलाप हज़रत इब्राहीम की यादगार हैं। उनके साथ उस समय रब के आदेश से जो कुछ घटा, उसकी याद दिलाती हुई कई चीज़ें हज में हर साल दोहराई जाती हैं।
काबा शरीफ़ का पुनर्निर्माण भी अल्लाह पाक के हुक्म से हज़रत इब्राहीम ने ही किया। सऊदी अरब के शहर मक्का में स्थित काबा शरीफ़ को बैतुल्लाह यानी अल्लाह का घर भी कहा जाता है। कुरआन में इसकी बाबद आया है कि 'निस्संदेह इबादत के लिए पहला घर जो ' मानव के लिए' बनाया गया वही है जो मक्का में है, बरकत वाला और सर्वथा मार्गदर्शन, संसार वालों के लिए।'
नमाज़ के वक़्त सारी दुनिया के मुसलमान इसी की तरफ मुँह करके नमाज़ अदा करते हैं। हज में बुनियादी अहमियत इसी ख़ाना-ए-ख़ुदा (अल्लाह के घर) की ज़ियारत (दर्शन) और इसके तवाफ़ (परिक्रमा) की है। हज की ज़्यादातर इबादतें इसी ख़ाना-ए-काबा के आसपास संपन्न होती हैं।
इस्लामी साल के आख़िरी माह ज़िलहहिज्ज की 8, 9 व 10 तारीख़ को हज किया जाता है। साल के दीगर दिनों में हज नहीं किया जा सकता। ठीक उसी तरह जैसे इस्लाम की दीगर अनिवार्य इबादतें कहीं भी की जा सकती हैं, लेकिन हज काबे के आसपास मक्का के चुनिंदा मुक़ामात पर किया जा सकता है। 8 ज़िलहिज्ज से हज की इबादतें शुरू होती हैं। 9 ज़िलहिज्ज को मक्का से 9 मील दूर पूरब में स्थित मैदान-ए-अराफ़ात में जाकर कुछ मख़्सूस इबादतें करना अनिवार्य है। 10 ज़िलहिज्ज को कुर्बानी की जाती है।
तैयारियाँ : हज के सफ़र पर पूरी तैयारी से जाना ज़रूरी है। इसके लिए सफ़र ख़र्च ले जाने का हुक्म क़ुरआन में आया है। यह शर्त भी है कि मुखिया हज पर जाने से पहले घर वालों के लिए मुनासिब इंतज़ाम करके जाएँ, ऐसा न हो कि उसके जाने के बाद घर वाले परेशान होते रहें। इस पवित्र सफ़र के लिए रास्ते का अमन भी शर्त है। अर्थात राह में लूटमार का जान जाने का डर न हो।
इसके साथ ही हज में की जाने वाली इबादतों और मख़्सूस दुआओं की भी पूरी जानकारी होना चाहिए ताकि अल्लाह के घर में पहुँचकर उसे मनाने और ख़ुद के गुनाह बख़्शवाने में कोई कमी न रह जाए। इसी के मद्देनज़र आजकल हज यात्रियों के लिए ख़ास ट्रेनिंग का इंतज़ाम भी किया जाता है।
हाज़िर हूँ, मेरे अल्लाह : हज के लिए एक लिबास मख़्सूस है, जिसे एहराम कहा जाता है। यह लिबास मर्दों के लिए दो बिना सिली सफ़ेद चादरें हैं। एक तहमद की तरह बाँधी जाती है, दूसरी को दाईं बगल के नीचे से निकालकर बाँए कंधे पर डाला जाता है। यह वस्त्र मक्का में दाख़िल होने से पहले धारण करना जरूरी है। दुनिया के किसी भी हिस्से से आने वाला हज यात्री एक तयशुदा दूरी से यह वस्त्र धारण करके मक्का की तरफ चलता है।
उस समय हाजी की ज़बान पर कुछ ख़ास क़िस्म के बोल होते हैं। वह खुदा के इस अजीम, पवित्र और अमन देने वाले घर में दाख़िल होने से पहले ही उस रब की, उसके घर की मुहब्बत में डूबकर पुकार उठता है - 'हाज़िर हूँ, मेरे अल्लाह! मैं हाज़िर हूँ, तेरा कोई शरीक नहीं, मैं हाज़िर हूँ, बेशक तारीफ़ सब तेरे ही लिए है, नेमतें सब तेरी हैं, सारी बादशाही तेरी है, तेरा कोई शरीक नहीं है'।
एहराम की हालत में कई जायज़ चीज़ें इंसान के लिए हराम हो जाती हैं। इसीलिए इसे एहराम कहा जाता है। एहराम में मर्दों के लिए सिला हुआ कपड़ा पहनना, सर और चेहरा ढँकना. टख़ने ढाँकने वाला जूता या मोज़ा पहनना, नाख़ून काटना, बदन के किसी भी हिस्से के बाल काटना या उखाड़ना, तेल लगाना, कंघी करना, ख़ुशबू लगाना, कोमोत्तेजक क्रियाएँ या बातें करना, शिकार करना वग़ैरह हराम हो जाते हैं।
एहराम की हालत में किसी जीव का वध करना तो दूर, किसी जानवर का शिकार करना बल्कि शिकारी को शिकार का पता बताना भी मना है। औरतों का एहराम अलग होता है। वे सिले हुए कपड़े और मोज़े पहन सकती हैं और सर ढँक लेती हैं। अलबत्ता चेहरे पर कपड़ा डालना, हाथ में दस्ताने पहनना वगैरह मना है।
भेदभाव खत्म : एहराम धारण करते ही सब लोग एक फ़क़ीराना वेशभूषा में आ जाते हैं। अब यहाँ ऊँच-नीच, छोटे-बड़े, काले-गोरे का भेद मिट गया है। सब एक पूज्य के सामने नतमस्तक होने, अपनी कमतरी और उसकी बढ़ाई करने के लिए हाज़िर हुए हैं।
20 मार्च 2010
सुन्नते-इब्राहीमी: हज की इब्तिदा
Posted by Udit bhargava at 3/20/2010 06:27:00 pm
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