प्रहस्त की मृत्यु के समाचार से रावण बहुत दुःखी हुआ। उसके मन में भय उत्पन्न होने लगा। वह मन्त्रियों से बोला, "जिस प्रहस्त को मैं अपनी दाहिनी भुजा समझता था, वह भी युद्ध में मारा जायेगा, यह मैंने सोचा भी नहीं था। उसके भरोसे पर मैं तीनों लोकों पर विजय प्राप्त करने के स्वप्न देखा करता था। अब मैं समझता हूँ कि मुझे परमवीर कुम्भकर्ण को जगाकर रणभूमि में भेजना होगा। केवल वही ऐसा पराक्रमी है जो देखते-देखते शत्रु की सम्पूर्ण सेना का संहार कर सकता है।"
रावण की आज्ञा पाकर उसके मन्त्री ब्रह्मा के शाप से सोये हुये कुम्भकर्ण के पास जाकर उसे जगाने लगे। जब वह चीखने-चिल्लाने और झकझोरने से भी न उठा तो वे लाठियों और मूसलों से मार-मार उसे उठाने लगे। साथ ही ढोल, नगाड़े तथा तुरहियों को बजाकर भारी शोर करने लगे, किन्तु उसकी नींद न खुली। अन्त में तोपों को दागकर, उसकी नाक में डोरी डालकर बड़ी कठिनाई से उसे जगाया गया। जब उसकी नींद टूटी तो माँस-मदिरा का असाधारण कलेवा करके वह बोला, "तुम लोगों ने मुझे कच्ची नींद से क्यों जगा दिया? सब कुशल तो है?"
कुम्भकर्ण का प्रश्न सुनकर मन्त्री यूपाक्ष ने हाथ जोड़कर निवेदन किया, "हे राक्षस शिरोमणि! लंका पर वानरों ने आक्रमण कर दिया है। अब तक हमारे बहुत से पराक्रमी वीरों तथा असंख्य राक्षस सैनिकों का संहार हो चुकार है। मारे जाने वालों में खर-दूषण, प्रहस्त आदि महारथी सम्मिलित हैं। लंका भी जला दी गई है। ये सब वानर अयोध्या के राजकुमार राम की ओर से युद्ध कर रहे हैं। इस भयंकर परिस्थिति के कारण ही महाराज ने आपको जगाने की आज्ञा दी है। अब आप जाकर उन्हें धैर्य बँधायें।" यह समाचार सुनकर कुम्भकर्ण नित्यकर्म से निवृत होकर राजसभा में रावण के पास पहुँचा। उसके चरणस्पर्श करके बोले, "महाराज! आपने मुझे किसलिये स्मरण किया है?"
कुम्भकर्ण को देखकर रावण प्रसन्न हुआ। वह बोला, "भाई तुम बहुत दिनों से सो रहे थे, इसलिये तुम्हें यहाँ के विषय में कोई जानकारी नहीं है। अयोध्या के राजकुमार राम और लक्ष्मण वानरों की सेना को लेकर लंका का विनाश कर रहे हैं। उन्होंने समुद्र पर पुल बाँधकर उसे पार कर लिया है। इस समय लंका के चारों ओर वानर ही वानर दिखाई देते हैं। प्रहस्त, खर, दूषण आदि असंख्य वीर राक्षस सेना के साथ मारे जा चुके हैं। लंका में भय से त्राहि-त्राहि मच रही है। इस डूबती हुई नौका को पार करने के लिये मैंने तुम्हें जगाया है। तुम पर मुझे पूर्ण विश्वास है। तुमने देवासुर संग्राम में देवताओं को खदेड़ कर जो अद्भुत वीरता दिखाई थी, वह मुझे आज भी स्मरण है। इसलिये तुम वानर सेना सहित दोनों भाइयों का संहार करके लंका को बचाओ।" इसके अतिरिक्त रावण ने शूर्पणखा की दुर्दशा, सीता हरण, विभीषण के निष्कासन आदि की बातें भी उसे विस्तारपूर्वक बताईं।
यह सुनकर कुम्भकर्ण ने पहले तो रावण को राजनीति सम्बंधी बातें बताईं, फिर वह बोले, "भैया! आप भाभी मन्दोदरी और भैया विभीषण द्वारा दी हुई सम्मति के अनुसार कार्य करते तो आज लंका की यह दुर्दशा न होती। आपने मूर्ख मन्त्रियों के कहने में आकर स्वयं दुर्दिन को आमन्त्रण दिया है। परन्तु अब जो हो गया सो हो गया। उस पर पश्चाताप करने से क्या लाभ? अब आप के अनुचित कर्मों के फलस्वरूप उत्पन्न भय को मैं दूर करूँगा। मैं उन दोनों भाइयों का वध करूँगा और दुःखी राक्षसों के आँसू पोछूँगा। आप शोक न करें। मैं शीघ्र ही राम-लक्ष्मण का सिर आपके चरणों में रखूँगा।"
17 मार्च 2010
रामायण – लंकाकाण्ड - रावण कुम्भकर्ण संवाद
Posted by Udit bhargava at 3/17/2010 05:40:00 am
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