20 मार्च 2010

प्रजातंत्र के पैरोकार थे इमाम हुसैन

मोहर्रम की दसवीं तारीख की इस्लामी कैलेंडर में बहुत अहमियत है। मोहर्रम की दसवीं तारीख से हजरत इमाम हुसैन (रजि.) की पाकीजा शहादत बावस्ता (संबद्ध) है। हजरत इमाम हुसैन यानी इस्लाम धर्म के प्रवर्तक पैगम्बर हजरत मोहम्मद (सल्ल.) के नवासे (दौहित्र/पुत्री के पुत्र) जो लगभग चौदह सौ बरस पहले कर्बला (अरब देश इराक का रेगिस्तानी इलाका) के मैदान में ईमान और इंसाफ की खातिर, हक (औचित्य) की जंग में प्यासे ही शहीद कर दिए गए।

छल-फरेब और कुटिलता-कपट का सहारा लेकर खलीफा (शासक) बन बैठे दुराचारी यजीद के चापलूस ने हजरत इमाम हुसैन को जब वो सजदे में थे (नमाज की एक प्रक्रिया जिसमें पेशानी या ललाट को अल्लाह की इबादत में धरती से लगाकर "सुब्हाना रब्बियल आला" अर्थात अल्लाह सर्वोत्तम-सर्वोच्च और गरिमापूर्ण है, कहा जाता है) तब शहीद किया। यजीद की शह पर किया गया यह निहायत कायरतापूर्ण-क्रूर-कृत्य था।

किस्सा-कोताह, ये कि मोहर्रम की दसवीं तारीख दरअसल वो तारीख है जो हजरत इमाम हुसैन की शहादत की पाकीजा रोशनी से मामूर (आलोकित) है। दुराचारी यजीद ने हजरत इमाम हुसैन को पहले तो प्रलोभन दिए फिर धमकियाँ दीं। लेकिन इमाम हुसैन न तो प्रलोभनों से डिगे, न धमकियों से डरे। जिसके दिल में ईमान का उजाला हो वो किसी प्रलोभन या लालच से क्यों डिगेगा? जिसके पास रूहानियत की रोशनी हो, वो अल्लाह के अलावा किसी से क्यों डरेगा? हजरत इमाम हुसैन दरअसल ईमान की ताकत से भरपूर थे और इंसाफ-इंसानियत के लिए मशहूर थे। सब्र और सादगी, सत्य और संयम हजरत इमाम हुसैन के पाकीजा किरदार के नुमायाँ पहलू थे। हर तरह से हजरत हुसैन खिलाफत के हकदार थे। लेकिन साजिश करके दुर्व्यसनी-दुर्र्बुद्धि यजीद ने खिलाफत हथिया ली और खुद खलीफा (शासक) हो गया। दहशत (आतंक) और दरिन्दगी (पाशविकता) का प्रतीक था यजीद जबकि बहबूदी (भलाई) और बंदगी (ईश्वर-स्मरण) के पर्याय थे हजरत इमाम हुसैन। एक वाक्य में कहें तो यजीद यानी विकार और इमाम हुसैन यानी सुसंस्कार।

कर्बला के मैदान में लगभग चौदह सौ साल पहले यजीद और हजरत इमाम हुसैन के बीच हुई जंग दरअसल विकार और सुसंस्कार के बीच जंग थी। यह अन्याय और न्याय के बीच जंग थी। यह भ्रष्टता और शिष्टता के बीच जंग थी। यह शैतानियत और इंसानियत के बीच जंग थी। भ्रष्टता और शैतानियत का प्रतिनिधित्व कर रहा था यजीद, जबकि शिष्टता और इंसानियत की नुमाइंदगी कर रहे थे इमाम हुसैन। न्याय और हक के लिए शहीद हो गए हजरत हुसैन। लेकिन यजीद यानी अन्याय के आगे न तो उन्होंने सिर झुकाया, न सलाम बजाया।

हजरत इमाम हुसैन की शहादत से यह पता चलता है कि जो हक और इंसाफ पर होता है, जो अदल (न्याय) और ईमान पर होता है, जो सुसंस्कारी और सदाचारी होता है उसके खिलाफ भ्रष्ट और अन्यायी लोग साजिशों के जाल बुनते हैं, बेईमानी और बदसलूकी करते हैं, बदनामी के बवंडर चलाते हैं, चाटुकारों और चापलूसों के जरिए शातिरपने की शतरंज बिछाकर छल-फरेब की चालें चलते हैं, लेकिन आखिरकार ईमानदार के सामने बेईमान का बंटाढार हो जाता है।

यहाँ यह जिक्र भी जरूरी है कि हजरत इमाम हुसैन तो रसूले-खुदा यानी हजरत मोहम्मद (सल्ल.) के नवासे थे, इसलिए करिश्माई कुव्वत से भी भरपूर थे। हजरत इमाम हुसैन अगर चाहते तो सिर्फ करिश्मा दिखाकर ही यजीद को और उसके फौजी लश्कर को नेस्तनाबूद (विनष्ट) कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया।

हक और इंसानियत पर कायम शख्स की तरह उन्होंने 'ईमान' और इंसानियत की आवाज को बुलंद किया और आने वाली पीढ़ियों को सिखाया कि 'अन्याय के आगे सिर झुकाकर सुविधाओं की जिंदगी गुजारने की बजाय न्याय के लिए लड़ते हुए मर जाना यानी शहीद हो जाना बेहतर है।' हजरत हुसैन की आवाज दरअसल उस दौर के प्रजातंत्र की आवाज थी। हजरत इमाम हुसैन 'विरासत' में नहीं, जम्हूरियत में यकीन रखते थे। एक वाक्य में कहें तो हजरत इमाम हुसैन विरासत के तरफदार नहीं, प्रजातंत्र के पैरोकार थे।;