20 मार्च 2010

इस्लाम धर्म - मुसलमानों के कर्तव्य और शरियत

इस्लाम के ५ स्तंभ

इस्लाम के दो प्रमुख वर्ग हैं, शिया और सुन्नी. दोनों के अपने अपने इस्लामी नियम हैं लेकिन बुनयादी सिद्धांत मिलते जुलते हैं। सुन्नी इस्लाम में हर मुसलमान के ५ आवश्यक कर्तव्य होते हैं जिन्हें इस्लाम के ५ स्तंभ भी कहा जाता है। शिया इस्लाम में थोड़े अलग सिद्धांतों को स्तंभ कहा जाता है। सुन्नी इस्लाम के ५ स्तंभ हैं-

शहादाह- इस का शाब्दिक अर्थ है गवाही देना। इस्लाम में इसका अर्थ मे इस अरबी घोषणा से हैः
अरबी:ﻻ ﺍﻟﻪ ﺍﻻﺍ ﷲ ﻣﺤﻤﺪﺍ ﻟﺮﺳﻮﻝﺍ ﷲ
हिंदी: ईश्वर के सिवा और कोई पूजनीय (पूजा के योग्य) नहीं और मुहम्मद ईश्वर के रसूल हैं।

इस घोषणा से हर मुसलमान ईश्वर की एकेश्वरवादिता और मुहम्मद साहब के रसूल होने के अपने यक़ीन की गवाही देता है। यह इस्लाम का सबसे अहम सिद्धांत है। हर मुसलमान के लिये अनिवार्य है कि वह इसे स्वींकारे। एक गैर मुस्लिम को इस्लाम कबूल करने के लिये केवल इसे स्वींकार कर लेना काफी है।

सलात- इसे हिन्दुस्तानी में नमाज़ भी कहते हैं। यह एक प्रकार की प्रार्थना है जो अरबी भाषा में एक विशेष नियम से पढ़ी जाती है। इस्लाम के अनुसार नमाज़ ईश्वर के प्रति मनुष्य की कृतज्ञता दर्शाती है। यह मक्का की ओर मुँह कर के पढ़ी जाती है। हर मुसलमान के लिये दिन में ५ बार नमाज़ें पढ़ना अनिवार्य है। मजबूरी और बीमारी की हालत में इसे टाला जा सकता है और बाद में समय मिलने पर छूटी हूई नमाज़ें पढ़ी जा सकती हैं।

ज़कात- यह एक सालाना दान है जो कि हर आर्थिक रूप से सक्षम मुसलमान को गरीबों को देना अनिवार्य है। अधिकतम मुसलमान अपनी सालाना आय का २.५% ज़कात में देते हैं। यह एक धार्मिक कर्तव्य इस लिये है क्योंकि इस्लाम के अनुसार मनुष्य की पूंजी असल में ईश्वर की अमानत है।

सौम- इस के अनुसार इस्लामी कैलेण्डर के नवें महीने में सभी सक्षम मुसलमानों के लिये सूर्योदय से सूर्यास्त तक वृत रख्नना अनिवार्य है। इस वृत को रोज़ा भी कहते हैं। रोज़े में हर प्रकार का खाना-पीना वर्जित है। अन्य व्यर्थ कर्मों से भी अपने आप को दूर रखा जाता है। यौनिक गतिविधियाँ भी वर्जित हैं। मजबूरी में रोज़ा रखना ज़रूरी नहीं होता। रोज़ा रखने के कई उद्देश्य हैं जिन में से दो प्रमुख उद्देश्य यह हैं कि दुनिया की बाक़ी आकर्षणों से ध्यान हटा कर ईश्वर से नज़दीकी महसूस की जाए और दूसरा यह कि ग़रीबों, फ़कीरों और भूखों की समस्याओं और मुश्किलों का एहसास हो।
हज- हज उस धार्मिक तीर्थ यात्रा का नाम है जो इस्लामी कैलेण्डर के १२वें महीने में मक्का के शहर में
जाकर की जाती है। हर समर्पित मुसलमान (जो ह्ज का खर्च‍‍ उठा सकता हो और मजबूर न हो) के लिये जीवन में एक बार इसे करना अनिवार्य है।

शरियत और इस्लामी न्यायशास्त्र
मुसलमानों
के लिये इस्लाम जीवन के हर पहलू पर अपना असर रखता है। इस्लामी सिद्धांत मुसलमानों के घरेलू जीवन, उनके राजनैतिक या आर्थिक जीवन, मुसलमान राज्यों की विदेश निति इत्यादि पर प्रभाव डालते हैं। शरियत उस समुच्चय निति को कहते हैं जो इस्लामी कानूनी परंपराओं और इस्लामी व्यक्तिगत और नैतिक आचरणों पर आधारित होती है। शरियत की निति को नींव बना कर न्यायशास्त्र के अध्य्यन को फिक़ह कहते हैं। फिक़ह के मामले में इस्लामी विद्वानों की अलग अलग व्याख्याओं के कारण इस्लाम में न्यायशास्त्र कई भागों में बट गया और कई अलग अलग न्यायशास्त्र से संबंधित विचारधारओं का जन्म हुआ। इन्हें मज़हब कहते हैं। सुन्नी इस्लाम में प्रमुख मज़हब हैं-

हनफी मज़हब- इसके अनुयायी दक्षिण एशिया और मध्य एशिया में हैं।
मालिकी मज़हब-इसके अनुयायी पश्चिम अफ्रीका और अरब के कुछ हिस्सों में हैं।
शाफ्यी मज़हब-इसके अनुयायी अफ्रीका पूर्वी अफ्रीका, अरब के कुछ हिस्सों और दक्षिण पूर्व एशिया में हैं।

हंबली मज़हब- इसके अनुयायी सऊदी अरब में हैं।
अधिकतम मुसलमानों का मानना है कि चारों मज़हब बुनियादी तौर पर सही हैं और इनमें जो मतभेद हैं वह न्यायशास्त्र की बारीक व्याख्याओं को लेकर है।


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