स्वदेश कुमार अर्धलेटे, अर्धनिद्रा में रेडियो सुन रहा है। प्यास लगने पर उठकर आधा ग्लास पानी पीता है, इससे आलस्य तो खत्म हो जाता है परन्तु रेडियो पर प्रसारित आधी बात ही उसकी समझ में आती है। स्वदेश कुमार के साथ अक्सर ही ऐसा होता है क्योंकि पूरी बात कभी भी उसकी समझ में नहीं आती।
अपना देश छोडकर विदेश में पडा है। इतना घूमने के बाद भी अपने देश के बारे में अधिक नहीं जानता। बचपन में ही उसे पढाई के लिये गांव से शहर आना पडा। अभावग्रस्त जिंदगी में आधा पेट ही खाना खाया। यदि भरपेट खाता, तो शायद यहां नहीं होता। पाठकों यह स्वदेश कुमार मैं ही हूँ।
पिताजी सही कहते थे, यह लडका दिमाग से भी आधा है, गांव में खेती-बारी, मां-बाप, घरबार छोडकर शहर में रहना चाहता है। उस समय उनकी बातें मेरे लिए कोई अर्थ नहीं रखती थीं, परन्तु अशिक्षित व्यक्ति में भी असीमित ज्ञान होता है।
गणतंत्र दिवस के अवसर पर पिता जी से अंतिम मुलाकात दिल्ली में हुई थी। इस अवसर पर वह दो दिन मेरे साथ रहे। उनके साथ समय अच्छा कटा। विदाई के वक्त उनके चेहरे और आँखों में निराशा और खुशी के मिश्रित भाव थे। आशीर्वाद के सिवाय उनके पास देने के लिए कुछ नहीं था। बस, चलते वक्त उन्होंने मेरे सिर और पीठ पर हाथ फेरा था।
जिस समय एक व्यक्ति स्वयं रोजी-रोटी से जूझ रहा हो, दूसरों को क्या दे सकता है? दूसरी ओर जो लोग अपने इष्ट मित्रों एवं रिश्तेदारों को स्टेशन तक छोडने आये थे, वह उपहार स्वरूप देने के लिये कुछ न कुछ वस्तुएं अपने साथ लाये थे। इनमें से कुछ के व्यावसायिक रिश्ते और कुछ को बिछडने का गम भी था। एकाएक पिताजी ट्रेन से उतरे और वापस मेरे पास आ गये।
बोले- बेटा, यह उपहार तुम्हें किसी ने दिया था, जो शर्म के मारे मैं तुम्हें दे नहीं पा रहा था। गांव वापस जाकर, मैं उसे क्या जवाब दूंगा। अतएव उसकी अमानत तुम्हें सौंप रहा हूं। कभी तुम दोनों प्राथमिक पाठशाला में पढते थे, उस समय यह तुम दोनों ने मिलकर बनाया था।
एक दिन मैं अपने सूट की मैचिंग टाई ढूंढ रहा था कि थैले के अन्दर अखबार में लिपटा हुआ, एक गुलदस्ता दिखा। बबूल के काटों वाला सूखा पौधा, कांटों के किनारे लगे रंग-बिरंगे मोती और पारदर्शी पन्नी का कवर जो वर्षो पुराना होकर भी नया लग रहा था।
उस गुलदस्ते को लेकर मैं कक्ष में आ गया। प्यास लगने पर पानी पीने के बाद मैंने बचे हुए पानी को उस गुलदस्ते के गमले में डाल दिया। कुछ समय बाद कमरे में भीनी-भीनी खुशबू आने लगी, साथ ही चिट-चिट की आवाजें भी। तभी मेरी नजर उस पर पडी जो पानी सोख रहा था, क्योंकि यह खुशबू भी उधर से ही आ रही थी। यह तो मिट्टी की खुशबू थी, क्योंकि इस मिट्टी से मैं बचपन में खेला करता था। तभी मैंने उस गमले को उठाया।
उसी समय दरवाजे पर लगी घंटी बजी। मेरा मित्र शेष खाली समय में इधर ही आ जाता है। उसके आ जाने पर मैं विदेश में अकेला नहीं होता। मैंने कहा, दरवाजा खुला है अंदर आ जाओ। शेष ने आते ही टी.वी. ऑन कर दिया। प्रसारित समाचार ने दोनों को सोचने पर मजबूर कर दिया कि गुयाना के राष्ट्रपति भारत आकर अपने पूर्वजों की मातृभूमि देखना चाहते हैं, जिसके लिये वह वर्षो से बेचैन थे।
यह भीनी-भीनी खुशबू कहां से आ रही है। शेष ने कहा।
मैंने, उस गुलदस्ते को शेष के हाथ में थमा दिया।
अरे! यह गुलदस्ता तुम्हें कहां से मिला।
यह किसी का दिया हुआ उपहार है।
यार! उपहार भी क्या शब्द है? प्रकृति द्वारा दिये गये उपहार के रहस्य को कितने लोग जानते हैं। ये नदियां, झरने, पर्वत, पेड-पौधे, जडी बूटियां आदि-आदि। उपहार देने वाले के भाव और उसमें छिपे रहस्य को कौन जानता है।
खाली समय में क्यों न इस उपहार की व्याख्या की जाये। तुम्हें यह कहां से प्राप्त हुआ, इसके बारे में मुझे भी बताओ? तो मुझे इसकी व्याख्या करने में आसानी होगी। तभी मैं पुन: रेलवे स्टेशन पर आ जाता हूँ। मुझे पिताजी के चेहरे पर विदाई के भाव आते जाते नजर आने लगते हैं, जो मैं उस समय समझ नहीं सका था। उनका निराश और रुआसा सा चेहरा, मेरी आंखों के सामने घूमने लगता है। वह आंखों को बार-बार झपकाते और चेहरे का छिपाते, आंख की कोरों में अध टपके आंसू को गमछे से मुंह पोंछने के बहाने, पोंछ लेते। फिर ट्रेन से उतरना और कांपते हुए हाथों से गुलदस्ता देना।
अपने वतन और वतन की मिट्टी से सभी प्रेम करते हैं। शायद ही कोई इसको कभी भूलता हो? जो लोग अपने वतन की मिट्टी से नहीं जुडे होते, उनका हाल इस सूखे वृक्ष के समान होता है। उनके पत्ते, हरियाली विहीन और वृक्ष से गिर कर अलग हो जाते हैं। वे अपना वास्तविक सौंदर्य खो चुके होते हैं। तुलनात्मक दृष्टि से हम इन सूखे वृक्षों की शाखाओं को यहां की सडकें मान सकते हैं और इन लम्बे कांटों को ककंड-पत्थर की बहुमंजिली इमारतें और इन रंग बिरंगे मोतियों को रंग विहीन जीवन जो यथार्थ से परे हैं। इनके जीवन में कोई सच्चा मोती नहीं होता है। इसमें रहने वाले मशीनी व्यक्ति बस, मृग तृष्णा भागमभाग जिन्दगी के बीच जीते रहते हैं। जब कभी किसी अप्रवासी की मृत्यु अकस्मात हो जाती है तो वह इसी प्रकार पारदर्शी पन्नी में लिपटकर अपने वतन वापस आते हैं।
अब मेरी समझ में आने लगा है कि मैं स्वदेश कुमार आधा क्यों हूं। कोई बात मेरी समझ में क्यों नहीं आती? जिसे मैं कूडा समझ रहा था, उसकी व्याख्या के दौरान शरीर में सिरहन सी होने लगी और रोंये खडे हो गए। यह देख कर शेष बोला, यार क्या आज वतन की याद आ गयी? काश! मैं भी विवेकशील होता, तो कभी भी अपनी मातृभूमि और जन्मस्थल को छोडकर यहां नहीं आता। यहां न चैन है और न ही शांति।
पिताजी का क्या हाल होगा पता नहीं? मनुष्य अपने बच्चे को किस प्रकार पालता है। इसका एहसास अब होने लगा है। जब तक बच्चा अपने पैरों पर नहीं खडा होता। उसके मां-बाप अपने सुखों को भूलकर बच्चों के लिये क्या-क्या नहीं करते। जिससे बच्चों को कष्ट न उठाना पडे। जब उनका पौरुष थक जाता है और उन्हें सहारे की जरूरत होती है, उस वक्त हम अपना भविष्य संवारने के चक्कर में उनके बारे में नहीं सोचते हैं।
शेष ने कहा, जब मैं घर से चला था, तो मेरी मां ने भी मेरे गले में एक ताबीज बांधी थी और कहा था, बेटा, मैं तुझे कुछ और तो दे नहीं सकती परन्तु यह ताबीज तेरी सदैव रक्षा करेगा। इसे मां का उपहार समझ सदैव गले में धारण किये रहना।
स्वदेश कुमार ने उसके ताबीज को गले से उतारकर अपने हाथ में लिया ही था कि वह उसके हाथ से छूट कर फर्श पर गिर पडा है। उसके सिरे पर लगा ढक्कन खुल गया है। दोनों यह देखकर आश्चर्यचकित हो गए हैं कि उस ताबीज के अन्दर केवल चुटकी भर मिट्टी मात्र थी।
जरूर तेरी मां ने इस मिट्टी को इसलिए इसमें रखा होगा कि जब कभी तू इस मिट्टी को देखेगा तो मां और मातृभूमि की अवश्य याद आयेगी। और हो सकता है, तुझे अपने वतन की भी याद आ जाये।
यहां प्यार, प्रेम, स्नेह, दुलार, लाड का अर्थ बेमानी है। जीवन का अर्थ (धन) भाग-दौड, आधा-धापी, डालर, शिलिंग, पौण्ड के बीच का अन्तर, यह कुछ सोचने समझने का मौका नहीं देता। तभी गमले में रखे एक कागज पर स्वदेश की नजर पडी है। जिसे निकालकर वह पढने लगा।
नदी के तट पर बैठे बुद्धिजीवी से,
जलजीवी ने पूछा,
परिवार को साथ नहीं लाये
बेटा श्रमजीवी हो गया है,
काम पर गया है,
पत्नी भ्रमजीवी हो गयी है,
मायके गयी है,
यहां भी बुरा हाल है,
प्रदूषण की वजह से,
बेटा जन्म स्थली छोड गया,
पत्नी ने जल समाधि ली है,
इस शहर के बुद्धिजीवियों को,
न जाने क्या हो गया है।
यह कागज का टुकडा दोनों को मुंह चिढाने लगा। अब मुझे लगा कि वह मछली का बेटा और बुद्धिजीवी मैं ही हूं। कहीं ऐसा तो नहीं मां ने वास्तव में समाधि ली हो और पिताजी ने हमें सूचित नहीं किया कि अनावश्यक हम परेशान होंगे तथा आने-जाने पर खर्च भी करना पडेगा। अब दिल में बुरे-बुरे ख्याल आने लगे।
बस वतन की मिट्टी है, न पिता की चिट्ठी है,
न हवा का झोंका है, लगा सब नजरों का धोखा है।
विदेश में जब भी मैं किसी अप्रवासियों को देखता हूँ, तो मुझे अपना देश, अपना गांव उनकी वेशभूषा याद आ जाती है। अब लगने लगा कि इतनों दिनों से हम किसी के मेहमान बनकर रह रहे हैं। यहां की हर चीज पर यह प्रतिबंध लगा है।
दोनों मित्र वृद्ध पिता के झरझर बहते आंसू देख रहे हैं, यहां विछोह के आंसू और कोरों में छिपे आंसुओं का अन्तर स्पष्ट नजर आ रहा है। यहां बेबसी और खुशी छिपाने से नहीं छिपती। यह प्रेम का अविरल झरना जो बहे जा रहा है। विदेश में रहते हुए वर्षो से आंसू नहीं देखे।- पिताजी, अब मैं सदैव के लिए अपने वतन आ गया हूं।- बेटे, जब नहर-तालाब सूख जाते हैं और घनघोर बारिश होती है तो किसान को अपने खेत हरे और पेट भरे से लगते हैं। इसलिए आज इन आंसुओं की बारिश हो जाने दो। आज गांव के लोग पिता पुत्र के इस मिलाप को देख रहे हैं। विदेश में हम लोगों के बीच अकेले खडे थे। वहां कोई अपना नहीं था। यहां एक व्यक्ति के चारों ओर मेला लगा हुआ है।
जरूर, यह सद्बुद्धि तेरे मित्र शेष ने दी होगी। पिता ने कहा।
नहीं, पिताजी, यह सद्बुद्धि हमारे वतन की मिट्टी ने दी है और अब मुझे अपने वतन की मिट्टी की कीमत का अहसास हो गया है। क्यों लोग जीतेजी अपने देश की मिट्टी के लिए जान देते हैं और मिट्टी में मिल जाते हैं?
पिताजी अब मैं भी अपने घर जाना चाहूंगा क्योंकि मुझे अपनी मां को भी आश्चर्यचकित करना है कि तेरे बेटे ने ताबीज में रखी मिट्टी को देख लिया है और मैं वतन वापस लौट आया हूं। जो कार्य हम वहां करते थे उसी कार्य को हम दोगुनी लगन और मेहनत के साथ अपने देश में करेंगे। इतना कहते हुए शेष वहां से अपने घर के लिए प्रस्थान करता है।
12 जनवरी 2010
उपहार
Posted by Udit bhargava at 1/12/2010 09:06:00 pm
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