12 जनवरी 2010

विरोध

यह घर पिता और माँ का है। चार संतानों का विवाह हो चुका है। अवकाश प्राप्ति के बाद उसके दृष्टि-केन्द्र में अब नीरजा और सुमीत हैं।
पिता भोजन के कमरे में लम्बी-चौडी मेज पर फैले कागज-पत्रों में डूबे हुए हैं। उनका पेन निरंतर चल रहा है।
माँ रसोई में खाना पकाने में संलग्न हैं। नीरजा मेज पर बरतन लगा रही है। तभी फोन की घंटी बज उठी है। पिता हाथ बढाकर फोन का चोंगा उठा लेते हैं- हैलो ऽ!
सुमीत है?
नहीं, अभी कालेज से नहीं लौटा। क्या कोई खास काम है आपको?
मेरे नोट्स उसके पास थे। मैंने सोचा, उससे कहूँ, दे जाए।
बेटी आपका नाम क्या है?
कंवलजीत।
आप घर का पता दे दें तो मैं सुमीत को कह दूँगा। वह आपके घर आकर दे जाए।
नहीं, घर ढूंढना उसके लिए मुश्किल होगा। मैं फिर फोन कर दूँगी।
यह पहली ही बार है कि किसी लडकी का सुमीत के नाम फोन आया है।
दिन के दो बजे खाना खाया जा चुकता है। माँ फिर रसोई संभालने में लग जाती हैं। नीरजा मेज को खाली करके पोंछने लगती है। पिता फिर फाइलों के आगे बैठ जाते हैं। हाथ में पेन तीव्र गति से दौडता हुआ और चश्मे के अंदर एकाग्रता के सूत्र में बंधी आंखें मंथर गति से सरकती हुई। कभी चलते-चलते पेन कागज से ऊपर उठकर कुछ सोचने लगता है। सैनिक अनुशासन से फिरा एक जीवन- एक पिता।
इसी बीच सुमीत कालेज से लौट आया है। आते ही पिता ने उसे बुलाया है। पहला सवाल पूछते हैं, तुम्हारे पास किसी के नोट्स हैं?
नहीं तो।
यह कंवलजीत कौन है? उसने कहा है कि उसके नोट्स तुम्हारे पास हैं।
मेरे पास किसी के नोट्स नहीं हैं और न मैं किसी कंवलजीत को जानता हूँ।
उसने कहा है कि वह फिर फोन करेगी। तब शायद तुम्हें पता चल जाए कि वह कौन है और तुम उसे जानते हो या नहीं। पिता ने ठहरी हुई आवाज में कहा है।
पिता की इस कोर्ट आफ इन्क्वायरी के बाद सुमीत बाहर बरामदे की मेज पर अपने आगे रखे भोजन को अनमनेपन से खाने लगा। उसका हाथ रोटी के बदले अनजाने ही में अमरूद और संतरे की प्लेट की ओर बढ गया। पास खडी नीरजा ने कोमलता से टोका, पहले खाना खा लो, फिर इसे खाना। कि तभी फोन की घंटी बज उठी।
कई कदम एक साथ कमरे की ओर बढ गये। आगे सुमीत और पीछे पिता तथा माँ। नीरजा दरवाजे की ओट में कहीं खडी रह गई, जैसे कि किसी के व्यक्तिगत मामले में यूं सबका सक्रिय ढंग से बीच में आना ठीक न हो। वह जैसे बीच में न आकर, साथियों की संख्या कम कर के सुमीत की परेशानी को कम करना चाह रही है।
हैलोऽ!
हैलोऽ!ऽ अपनी पहचान देता हुआ उधर का स्वर।
यह कोई तरीका है फोन करने का? एक आवेश, गुस्सा और तनाव है सुमीत के स्वर में।
क्यों? क्या तरीका पसंद नहीं आया?
... उत्तर में एक तना हुआ मौन है।
बहुत दिन हुए तुम बस में मिले नहीं। सोचा, फोन पर बात कर लूँ..।
उस ओर की बात के खत्म होने से पहले ही चोंगा धडाम से नीचे आकर अपने आसन पर बैठ गया, जैसे कि वह कह रहा हो, बात ही करनी थी तो पिताजी को बीच में लाने की क्या जरूरत थी?
कौन थी?
रश्मी।
तुम उसे जानते हो?
हाँ।
तुम्हारा उससे परिचय कैसे हुआ?
बस में मिली थी।
बस में जाने से क्या किसी से दोस्ती हो जाती है?
मेरी इससे कोई दोस्ती नहीं है।
फिर उसे तुम्हारा फोन नम्बर कैसे मिला?
एक बार बस में भीड थी। मेरा एक हाथ बस से छूट गया था और दूसरे हाथ में फाइल थी। मैं बडी मुश्किल से बचा। तब इस लडकी ने मेरी फाइल ले ली थी। शायद वहाँ से उसने फोन नम्बर देख लिया होगा।
पर लगता है, उससे तुम्हारी काफी गहरी और पुरानी जान-पहचान है।
पहले बस में आती थी। अब हमारा रूट बदल गया है तो कभी देखा ही नहीं।
यह ठीक है कि उसने तुम्हें सहायता दी। इसके लिए तुम्हारा धन्यवाद दे देना ही काफी था। मैं भी तो अपने जीवन के आरम्भिक दिनों में ट्रेन में रोज सफर करता था दफ्तर जाने के लिए। पर मेरा तो किसी से परिचय या दोस्ती नहीं हुई।
सुनकर सभी हँस दिए।
अब आपकी तरह सभी तो नहीं हो सकते।
इस पर पिता हँस दिए। सुमीत कहने को यह नहीं सोच पाया कि उस वक्त न लडकियाँ आज की तरह कालेज पढने जाती थीं, न नौकरी करने दफ्तर आदि।
लगा, बात यहीं हँसी में खत्म हो गई है। पिता और माँ विश्राम करने लगे। सुमीत भी खाना खाकर लेट गया। ऊपर से वह सहज था, पर मन ही मन घबराहट और कुढन से भरा हुआ। नीरजा छोटे भाई के इस तरह के स्पष्ट घिराव और पेशी पर संकोच तथा उदासी महसूस करती हुई, अपने कमरे में आकर किसी पत्रिका को पढने बैठी तो सुमीत की बातें एक-एक कर उसके मन-मस्तिष्क में चक्कर काटने लगीं। पिछले वर्ष जब चित्रलेखा और आषाढ का एक दिन सुमीत को पढा रही थी तब प्रेम और नारी का उलझा-उलझा दार्शनिक वर्णन और उसकी व्याख्या सुनते हुए उसने कहा था, जब हमें प्रेम का अता-पता नहीं कि क्या बला है तो ये क्यों ऐसी किताबें रखते हैं हमारे कोर्स में? माँ-बाप प्रेम-दोस्ती का विरोध करते हों और किताबें कोर्स में हैं। इंसान क्या करे, कुछ समझ नहीं आता इस दुनिया का चलन। सुमीत के मन-मस्तिष्क की पंखुडियाँ कदम-कदम पर इस विषय पर उत्सुकता और प्रश्नों से मुकुलित हो उठतीं। उन पंखुडियों को मूँदने के लिए उसने किसी बहस के बदले समयाभाव और परीक्षा की चिंता की ओर सुमीत का ध्यान खींच दिया था।
और एक दिन फिर किसी संदर्भ में, .. मेरा एक दोस्त है। लडकियों के अलावा कोई बात ही उसे नहीं आती। जब भी पूछो, कहाँ गया था कल? वहाँ.. अरे यार वहाँ.. तुम्हें क्या पता..। रहनी-बहनी नहीं रही उसमें। सभ्यता नहीं रही। बटन खुले, बूट सफेद, बिल्कुल मजनू। ठीक है, दोस्ती करो मैं कहता हूँ करनी चाहिए। एकाध लडकी से दोस्ती करनी ही चाहिए.. पर दोस्ती दोस्ती तक.. जायज दोस्ती.. नाजायज दोस्ती नहीं.. दूसरे का जीवन बरबाद करने के लिए.. धोखा देने के लिए नहीं। लडकियों से दोस्ती एक मायने रखती है। उनसे बोलना.. कहीं जाना उनके साथ.. उनके साथ खडा होना मायने रखता है.. व्यक्ति सीखता है बहुत कुछ। यह क्या हुआ कि शादी के बाद जो एक स्त्री मिले, बस उसी से दोस्ती, प्रेम, लडाई-झगडा आदि सब कुछ की शुरुआत और अंत करो। उस दिन संजय भाई इस तरह मुझसे बात कर रहा था जैसे कि लडकियों से दोस्ती करना केवल उसी को आता है..।
नीरजा ने टोकना चाहकर भी धैर्य से सुनने के बाद भयातुर होकर कहा था, अभी तुम बच्चे हो न! समय आने पर अपने आप हो जाएगी दोस्ती।
हाँ, कल बच्चा था.. आज भी बच्चा हूँ.. शादी के बाद भी माँ-बाप बच्चा ही कहेंगे। अपने तो माँ-बाप ही ऐसे हैं.. दोस्ती के नाम पर बवंडर खडा कर देने वाले। कोई कुछ कर ही नहीं सकता।
जिंदगी व्यवस्थित हो जाए, कुछ पढ लो तो ठीक है न!
सब व्यवस्थित है। कॉलेज में आ गया हूँ। अगर इस जीवन में दोस्ती न हुई तो क्या बूढे होकर दोस्ती करेंगे?
मनोनुकूल श्रेणी पाने के लिए अभी तुम्हें कुछ अंकों की कमी पूरी करनी है। लगता है, परीक्षा के दिनों की परेशानी और चिंता तुम भूल गये हो।
नीरजा ने सुमीत का ध्यान बंटाने की बार-बार कोशिश की लेकिन वह नहीं बंटा, शुरू में कुछ दिन परेशानी होती है जरा.. माइंड डिस्टर्ब रहता है.. अपने को उसकी पटरी पर लाना या उसको अपनी पर.. फिर तो सब सहज चलता रहता है।
नीरजा सोचती है.. इतनी समझदारी और जानकारी की बातें क्या कोई बिना अनुभव के कर सकता है? पर उसने पूछा तो सुमीत ने इनकार कर दिया। तब सांत्वनाभाव से समझाने और अप्रत्यक्ष भाव से उसके मन की भटकन को वर्जते हुए वह बोली, दोस्ती तो ऐसी चीज है जो अपने आप होती है.. उसके लिए सोचने या यत्न की क्या जरूरत है?
यत्न की जरूरत होती है। लडकों को लडकी से दोस्ती करने के लिए चुनाव करना होता है.. किससे करें.. किससे नहीं। वह उत्तर देते-देते नीरजा के प्रश्न पर एकाएक सचेत होकर उसे देखने लगा था।
नीरजा ने उसकी दृष्टि से सचेत होकर कहा, मैंने तो यूँ ही पूछा है। जैसे तुमने सब कुछ कहा है सहजभाव से, क्या मैं तुम्हारी तरह नहीं कह-पूछ सकती?
हाँ, हाँ, क्यों नहीं? मैं तो ये सारी बातें तुमसे इसलिए करता हूँ क्योंकि तुम अभी नादान हो। इससे तुम्हारा ज्ञान बढेगा, जैसे कि हमारा ज्ञान हमारे दोस्त ने बढाया है। नीरजा का मन हँस देता है इस छोटी-सी बुजुर्गियत पर।
सुमीत शंकित होकर चेतावनी देता है, कहीं तुम ये सारी बातें पिताजी को मत कह देना। मैंने देखा है, हमारे घर के लोग किसी बात को ज्यादा देर तक पेट में नहीं पचा सकते।
रात के दस बजे थे। सुमीत के कमरे में पिता और माँ ने उसे जा घेरा और वह इस तरह घिर गया जैसे वह इसके लिए तैयार ही बैठा था। पिता की हँसी के बावजूद उसे मामले के इतनी जल्दी और इतनी आसानी से शांत हो जाने का विश्वास नहीं था। उसे हैरानी यह थी कि घिराव इतनी देर से क्यों हुआ है? एक बार फिर पिता उसे स्पष्ट समझा रहे थे, .. जीवन कुछ खास सिद्धांतों पर चलता है और उन सिद्धांतों में किसी के साथ.. माँ-बाप के साथ.. प्रिय से प्रिय के साथ भी समझौता नहीं किया जाता। क्या तुम्हारे जीवन में ऐसे किसी सिद्धांत का स्थान है? तुम्हारा व्यक्तित्व बहुत ही नाजुक किस्म का है, जो जल्दी ही किसी प्रलोभन में आ जाता है। एक बार आगे भी कहा था.. तुम अपने चाल-चलन का दान हमें दे दो.. उसके अतिरिक्त हमें कुछ भी नहीं चाहिए। लडकियों का मामला बडा खतरनाक होता है.. आत्मघाती.. हत्यारा। उसके साथ खेलना आग के साथ खेलना है। अपने इसी मोहल्ले की यह घटना है..। याद होगी तुम्हें। लडकी माँ बनने वाली थी। लडकी के पिता और भाई लडके वालों के घर आए कि शादी करो। वह नहीं माने। लडका भाग गया। उन्होंने उसके बडे भाई और पिता की हत्या कर दी। इस तरह से तो भ्रष्ट स्त्री ही मिलेगी, फिर उससे छुटकारा पाना कठिन है। तुम्हारी उम्र क्या है अभी? अभी से इस चक्कर में पड गए तो तुम पागल हो जाओगे.. टी.बी. हो जाएगी.. यह पढाई धरी की धरी रह जाएगी। पढाई साधना मांगती है। सुबह-सुबह कोई माँस नहीं खाता। हम साधारण लोग हैं.. हमें साधारण ही बनकर रहना चाहिए.. यह सब चीजें हमारे लिए नहीं..। जिन्दगी में वैसे ही अनेक परेशानियां हैं। तुम हमारे लिए एक और परेशानी खडी कर रहे हो।
पर मैं आपको सच बता दूँ कि ऐसा कुछ मैंने किया नहीं जिस पर मुझे शर्मिन्दा होने या डरने की जरूरत हो। वास्तव में इस लडकी के साथ मेरा कोई संबंध है ही नहीं। मेरे दोस्त के साथ उसकी मित्रता जरूर रही है। वह उम्र में मुझसे कितनी बडी है। किसी फर्म में रिसेप्शनिस्ट है। और कोई काम न हुआ तो बैठे-बैठे फोन करना उसका शगल है..। इस सारे स्पष्टीकरण से पिता और माँ के मन का बोझ उतर गया था। भले ही एक बोझ सुमीत के मन पर आकर ठहर गया था। किसी भी समस्या को सुलझाने में पिता ने इससे अधिक वक्त कभी नहीं लिया। उनके पास न कभी किसी प्रश्न का संकोच रहा है, न उत्तर का, न निर्णय का.. हर बात और हर फैसला एक ऊँची-सधी और सीधी वाणी में निष्कांपित.. जो कि कभी स्पद्र्धा का विषय भी हो सकता है और कभी दु:ख तथा उदासी का भी।
दूसरे दिन जब सुमीत कॉलेज से लौटा था तो नीरजा से मन की बात कहते हुए बोला, यह बात मैं केवल तुम्हें ही बता रहा हूँ। मैं अपने दोस्त के साथ उस लडकी के पास गया था। पर वह उसके सामने फोन की बात से साफ इनकार कर गई। अब मैं उसे क्या कहता और कैसे डांटता? लडकों से दोस्ती से तो मुझे हमेशा नुकसान ही हुआ है, लडकियों से पहचान का श्रीगणेश भी कैसा खराब हुआ है। बात कुछ भी नहीं और मुफ्त की बदनामी। पिता जी तो बात-बात पर ऐसे-ऐसे बही-खाते, उदाहरण-आँकडें खोलकर बैठ जाते हैं कि रूह कांपने लगती है। लगता है, किसी लडकी से मित्रता या प्रेम न हुआ, कोई हत्या का षड्यंत्र हुआ। इन्हें मुझपर जरा विश्वास नहीं रहा। कोई भी बाहरी व्यक्ति आकर इनसे मेरे बारे में कोई बात कह देगा तो यह उसकी बात मान लेंगे। मेरी स्थिति काफी नाजुक हो गयी है। अब कॉलेज से लौटता हूँ तो ऐसा लगता है मैं कोई चोर हूँ.. पता नहीं मैं बाहर क्या-क्या करके आया हूँ.. पता नहीं मेरे पीछे फिर किस लडकी का फोन आया होगा और मेरी आफत आएगी.. सूँघ लेता हूँ चारों ओर.. सब ठीक तो है।

1 टिप्पणी:

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