हैलो! कौन शामलाल? कौन बोल रहा है? शामलाल? - हां मैं शामलाल। - तुम आ गये? अपने घर से ही बोल रहे हो? हलद्वानी से ही? -तुमने कहां फोन किया है? कानपुर का नंबर मिलाया है क्या? घोंचू जोशी! - कब आये? -कल रात को। -लेकिन इतनी जल्दी कैसे? तुम तो दीवाली के बाद आने वाले थे? - वहां मन नहीं लगा। - बेटा-बहू ने गांठा नहीं क्या? - नहीं यार, ये बात नहीं है। वो तो बिचारे पूरे टाइम मुझे पलकों पर बिठाए रहे। आने की बात की तो रोने तक लगे। लेकिन मैं नहीं रुका। -क्यों? पोते ने घास नहीं डाली? यहां तो बडे पोता-पोता करते थे। उसने पूछा भी नहीं होगा। इन यंग लोगों के पास कहां टाइम है हम बूढों के लिए? -नहीं यह बात भी नहीं है। सच पूछो तो उसने तो मुझे घुमाया खूब। सबसे ज्यादा कंपनी उसने ही दी मुझे। - फिर? मैं समझ गया। हवा-पानी माफिक नहीं आया होगा। हाजमा बिगड गया होगा। दस साल यहां रहकर अस्सी प्रतिशत पहाडी हो गये हो तुम भी। अब कहां यहां का झरनों-सोतों का पानी, कहां वहां का नल का पानी। कहां वहां की भट्टी कारखाने की हवा और कहां यहां की बांज-बुरांस की मीठी बयार। - हां कुछ गडबड रहा था। पर शुरु-शुरु के दो-चार रोज। फिर तो मैं वहां के हवा-पानी का आदी हो गया। मन्नू की बहू खाना भी बहुत अच्छा बनाती है। पूछती भी रोज सुबह-शाम, बिला नागा, बाऊजी, क्या खाओगे? क्या बनाऊं? तो बाकायदा कभी खिचडी, कभी थूली, हरी सब्जियां, कम मसाला। बाकायदा टु द टेस्ट। ये ठोककर रख दे। पढी-लिखी है भई। बुढापे की जरूरत और लिमिटेशन्स को समझती है। मैं तो कहता हूं ठाकुरजी उसे सदा सुखी रखें। खूब लंबी उमर दें। सब किसी को ऐसी गुणवंती बहू मिले। - अरे भई तो भाग क्यों आये? -सच बताऊं? -नहीं, पहले झूठ बोलने की ही कोशिश करो। - वहां के ट्रैफिक से तंग आकर भाग आया। - आंय! तुम क्या वहां ट्रक ड्रायवरी करने लगे थे? - नहीं समझोगे। मैं जानता था। ऐसा करो शाम को आ जाओ। तब तफसील से बताऊंगा। - कौन? घोंचू जोशी? हां बोलो। - यार मुझसे शाम तक सब्र नहीं किया जा रहा। तुम क्या बता रहे थे ट्रैफिक के बारे में? जरा बताओ तो फटाफट? - क्या बताऊं? हुआ यह कि रात को पहुंची मेरी गाडी। बेटा आ गया था स्टेशन पर अपनी मारुति कार लेकर। तो उसके साथ स्टेशन से घर के लिए रवाना हुए। तो भैया, मेरी तो सडकें देखकर ही तबीयत खुश हो गयी। क्या चिकनी-चौडी सडकें। फोर लेन। पेवर रोड्स। बीच में डिवाइडर। हर क्रांसिंग पर ट्रैफिक सिगनल्स। बाकायदा टर्न वगैरह पर ट्रैफिक साइंस, जेबरा पेंटिंग, केट्स पॉ। हमारे शहर में कब थीं ऐसी सडकें? कोई गड्ढा-धचका नहीं। सर्र से सेवंटी-एट्टी में घर पहुंच गये। - चलो। वाह। -दूसरे दिन बेटा तो चला गया दफ्तर। पोता बोला चलिए दादाजी आपको बाजार घुमा लाऊं। मैंने सोचा बाजार क्या घूमने की जगह होती है? पर सोचा, चलो चले चलते हैं, घर बैठे भी क्या करेंगे। दरअसल उसकी मां ने कहा था हरा धनिया ले आ। दादाजी को चटनी अच्छी लगती है करके। -वा वा। - तो भैया बैठते ही.. - काहे में बैठते ही ? - कार में! - धनिया लेने कार में? बेटा ऑफिस नहीं ले जाता कार? - वो चार्टर्ड बस से जाता है, एसी बस से । - वा वा । - तो बैठते ही मेरे पोते ने क्या एक्सीलेटर दबाया है कि मेरी तो पीठ गाडी की सीट से भचाक् से जा लगी। तो मैं तनकर बैठ गया। खिडकी पकडकर। अब कॉलोनी की छोटी-छोटी गलियों में भी वह ऐसे ड्राइव कर रहा था कि समझो पहले मोड पर तो मैं उसके ऊपर गिरते-गिरते बचा। - वा वा । - और बाहर निकले तो भई सडक है, तो उस पर ट्रैफिक तो होगा ही। पर उसने तो जो हॉर्न बजाना शुरू किया चीं पों, चीं पों, कि मुझे कहना पडा बेटा! यह कोई सभ्यता की बात नहीं है। दूसरों को भी इस सडक पर चलने का अधिकार है। तुम तो एकदम दमकल की गाडी बने हुए हो! - बताओ! - तो उस वक्त तो कुछ नहीं बोला, लेकिन सभ्यता शब्द सुनकर कुछ चौंका जरूर। शायद यह शब्द उसने बहुत दिन बाद सुन> - वा! - फिर दूसरे दिन जब मैंने उससे पूछा-क्यों भई? कोई जरूरी है कि एकदम सिक्सटी में गाडी उठाओ और बार-बार खच्च से क्लच-ब्रेक दबाओ? और पूरे टाइम चीं पों, चीं पों! यह क्या है? - तो? क्या बोला?
- बोला दादाजी, आप यहां के ट्रैफिक को नहीं जानते। आपकी सो कॉल्ड सभ्यता से गाडी चलाऊं तो कोई मुझे सडक पर न चलने दे। सभ्यता का जमाना नहीं रहा अब। और वैसे भी इधर जो गाडियां आ रही हैं वो फास्ट चलाने के हिसाब से ही डिजाइन की जाती हैं। स्लो वाली तो बस विंटेज कार रैली में देखने को मिलती हैं। और जिसे आप फास्ट कह रहे हैं, कोई अमेरिकन- जर्मन सुन लेगा तो हंसेगा। वहां तो हंड्रेड से कम पर आप चल ही नहीं सकते। एंड आई थिंक दे आर राइट! वरना फायदा क्या है कार रखने का? - ऐसा बोला? -हां! लेकिन यह तो दूसरे दिन की बात है। पहले दिन तो बेचारा कुछ बोल ही नहीं पाया। - क्यों क्यों? -वह कुछ बोलता उससे पहले ही सामने एक स्पीड ब्रेकर आ गया। एकदम अन अनाउन्स्ड! न कोई सिग्नल साइन्स न कोई जेब्रा पेंटिंग। और स्पीड ब्रेकर क्या हेड ब्रेकर! छह इंच की पतली-सी मुंडेर! गाडी ऐसी उछली कि मेरा सिर गाडी की छत से टकरा गया। पांव अधर में उठ गये और फिर धच्च से सीट पर पटका गया। -तुम्हें गाडी रुकवाकर उतर जाना चाहिए था। भला पोतों को क्या हक पहुंचता है कि वे दादा की ऐतिहासिक या पुरातात्विक कमर से ऐसा क्रूर मजाक करें? - कहां कहां उतरता जोशी? सारा शहर ऐसे ही नाजायज और धोखेबाज स्पीड ब्रेकरों से भरा हुआ था। और गाडीवाले उन्हें अवॉइड करके बाजू की कच्ची जगह से धूल उडाते निकले-भागे जा रहे थे। फिर चलते-फिरते स्पीड ब्रेकर भी थे। -चलते-फिरते? यानी? -जैसे कि गाय! वह तो अम्मा है। उसे कोई क्या कह सकता है? किसी सिपाही ने छडी छुआ दी और अगल-बगल उसके यानी गाय के किसी प्रेमी ने देख लिया तो बस हो गया! और कहीं गलती से सिपाही कोई मुसलमान हुआ, फिर तो पूछो मत। और गाय को बीच बाजार टहलने या पसरने का हक है तो डेमोक्रेटिकली भैंस, ऊंट, गधे, सूअर या कुत्ते को भी है। कोई भी, कभी भी आपकी गाडी के आगे आ सकता है। और अगर आप में जरा-सी भी अक्ल है तो गायपुत्र सांड को तो आप कुछ भी नहीं कहेंगे, भले वह बीच सडक किसी कमसिन बछिया पर डोरे ही क्यों न डाल रहा हा - अहा! क्या सच बात! पर यार, एक बात समझ में नहीं आयी। - क्या? - शुरू में तो तुम कह रहे थे कि बेटा जब स्टेशन से घर ले गया तो रात को, तब तो तुम्हें अपने शहर की सडकें बहुत अच्छी लगी थीं। दिन और रात में इतना फर्क कैसे हो गया? रात के समय तो सडकों पर और अधिक अम्माएं होनी चाहिए थीं? - बेटा मुझे दूसरे शहर से होता हुआ ले गया था। - दूसरे किससे ? - अमीरों के इलाके से। हर शहर में आजकल दो शहर हो गए हैं। एक गरीबों का और एक अमीरों का। - वा वा । क्या तुम्हारे ऑब्जर्वेशंस हैं। पर एक बात बताओ, तुमने इतनी जल्दी सब भांप कैसे लिया? ... - आदरणीय? - साले जोशी, तुम्हारी ऐसी की तैसी। - आंय! - होल्ड करो। .. - सारा दलिया जल गया। जब मर्जी आती है बात करना शुरू कर देते हो। एक बार बोलना शुरू करते हो तो चुप होने का नाम ही नहीं लेते। मैं हीटर बंद करना भूल गया और तुमसे बातें करने लगा। - सॉरी यार। मुझे इतना नहीं बोलना चाहिए। -सॉरी से क्या होता है? अब खाऊंगा क्या? खाक? तुम्हारे हाड? -वा शामलाल वा। क्या बात कही है? मजा आ गया। आ जाओ पजामा पहन के। आज मैंने सीरी पाव बनाये हैं। चंपारानी दे गयी थी सुबह-सुबह। ब्रेड भी पडी है। कम पडी तो जल्दी से दो टिक्कड थेप लेंगे। आ जाओ। - आना ही पडेगा। - और सुनो! तुम्हारा जला हुआ दलिया भी लेते आना। मुर्गियों को डाल देंगे। - शामलाल! क्या हुआ? तुम आये नहीं? - हां यार! - क्या हुआ? मठरी-शक्कर पारे बांध दिये थे क्या बहू ने? - नहीं यार! हुआ यह कि पजामे का नाडा नेफे के अंदर घुस गया। और नाडा डालने की मशीन बहुत ढूंढने पर भी नहीं मिली। शायद मैं वहीं भूल आया। - पुराने टूथब्रश को तोडकर बनायी गयी नाडा डालनी को तुम मशीन कहते हो? - अब हर चीज मशीन ही बन गयी ठहरी । - वा वा । - ऐन वक्त पर पेन-पंसिल, सेफ्टीपिन कुछ नहीं मिला। तो मैंने कहा छोडो। - आरे तुम लुंगी में ही आ जाओ। कौन देखता है? पजामा साथ लेते आना। - अब तो मैंने दलिया ही खा लिया। दूध-शक्कर-इलायची डालकर। - चलो कोई बात नहीं। शाम ो मिलते हैं। - ओके ।
- हैलो जोशी ! - यस। - माफ करना भैया, आज नहीं आ पाऊंगा। - क्यों? क्या हुआ? - घुटने पिरा रहे हैं यार । - मैं ही आ जाता, पर आज एक साहब आने वाले हैं। तुम आते तो उनसे भी मिल लेते। खैर चलो। हां तो, क्या बता रहे थे तुम ट्रैफिक के बारे में ? हीटर न जल रहा हो तो फोन पर ही बता दो। -हीटर बंद है। - तो? -तो यार बडी अजीब सी बात है। हम लोग अब उस दुनिया के लिए सूटेबल बॉय नहीं रहे, ऐसा लगता है। -क्यों क्यों? क्या हुआ? - एक चीज तो मैंने ये नोटिस की जोशी, कि ट्रैफिक तो सडकों पर बहुत था, पर उसमें अब हथठेले नहीं थे, तांगे नहीं थे, गधागाडी नहीं थी, भैंसागाडी नहीं थी, साइकिल के पहियेवाले ठेले नहीं थे। साइकिलें भी यदाकदा ही थीं। - तो फिर था क्या? -स्कूटर, मोटरसाइकल, मोपेड, पिकअपवैन, जीपें, ट्रक, ट्रेक्टर, ऑटोरिक्शा और ढेर की ढेर मोटरें, तरह-तरह की। छोटी-बडी, नीली-पीली। कोई मेंढक जैसी तो कोई माचिस जैसी। पोता सारे रास्ते उन्हीं के चाल-चलन और चरित्र पर प्रकाश डालता रहा। लगता था सारा देश घोडे पर सवार है। और क्या धुंआ, क्या पौल्यूशन। सांस लेना मुश्किल हो गया। - अच्छा हुआ हम पहले ही इधर आ गये। - और जोशी! कोई धीरे नहीं चलता। सब भागते हैं। खूब तेज। जिस देश को पता ही नहीं है कि कहां जाना है, उसके लोगों की हडबडी और उतावली देखकर तो यही लगता है कि शायद कहीं आग-वाग लग गयी है। - आग ही लगी ठहरी। - और तरह-तरह के विचित्र वाहन। - विचित्र यानी? महाभारत के रथ? - रथ ही समझ लो। किसी ने ट्रेक्टर के पीछे ट्रॉली जोडकर उसे छवा लिया है और उसमें उकडूं सवारियां ढूंस ली हैं, तो किसी ने फटफटी के पीछे तांगे जैसा जोत रखा है। किसी ने जीप के साथ ऊंट गाडीनुमा ट्रोला बांध रखा है। बेचारे आरटीओ वालों को तो यह भी समझ में नहीं आता होगा कि इन्हें क्या कहकर पुकारा जाये? - वा वा! - कोई नहीं जानता किसमें कितनी सवारी अलाउड हैं और कौन कब उलट जाये! जिंदगी की किसी को परवाह नहीं, मरने से कोई डरता नहीं। - आत्मा अजर-अमर है पार्थ! - कानून-कायदे को बुत्ता देना कोई हिंदुस्तानियों से सीखे ! - ठीक बात है, ठीक बात है । - और दूसरी चीज मैंने ये नोटिस की जोशी कि सडकों पर कहीं फुटपाथ नहीं हैं। - ऐं? फुटपाथ नहीं हैं? तो पैदल आदमी कहां चलेगा? - जैसा तुम्हें हो रहा है, मुझे भी ताज्जुब हुआ। मैंने पोते से पूछा भी। - लेकिन उसने कोई जवाब नहीं दिया। - हां। लेकिन तुम्हें कैसे पता चला संजय? - पोते समझते हैं दादा सठिया गये हैं। इनकी बातों का जवाब देना टाइम वेस्ट करना है। - पर यार! ये तो हद्द ही हो गयी। अब किसी का घर ही सडक पर हो और उसे चार मकान छोडकर किसी से मिलने जाना हो तो वह पैदल ही तो जाएगा। लेकिन कैसे? चलेगा कहां? सडक पर चलने का उसका अधिकार तो गाडीवालों ने ही छेंक लिया। किसी ने सोचा इस बारे में? - मतलब आओ-जाओ मत। खाली फोन कर लो। आदमी को आदमी से मिलने-जुलने की क्या जरूरत है? इसी को विकास कहते हैं। हां, अपने यहां की बात और है। अब एक दिन हम नहीं मिल पायें तो तबीयत उदास हो जाती है। पर अपन तो पिछडे हुए इलाके ठहरे। - जोशी! तुम्हारा जनरल नॉलेज तो काफी स्ट्रांग निकला! - देखते जाओ! अब प्लस एट्टी वालों के लिए एक कौन बनेगा करोडपति होने वाला है। उसमें मैं भी जाऊंगा। वाइफ तो रही नहीं। उनकी जगह तुम्हें साथ ले चलूंगा। लेकिन एक शर्त है! पैदल नहीं जाएंगे। - हा हा हा हा - वैसे एक बात मन में आयी इसलिए कह रहा हूं। शायद तुमने शहर की सिर्फ व्यस्त सडकें देखी होंगी। वहीं पोते कार लेकर हरा धनिया इत्यादि खरीदने जाते हैं। ठीक है न? - नहीं नहीं, एक दिन पोता मुझे शहर के बाहरी घाघरे पर भी ले गया था। घुमाने । - तो वहां का क्या हाल था? - वहां का हाल थोडा बेहतर था। हाइवे के ट्रक ड्रायवर मुझे शहरियों की तुलना में ज्यादा शरीफ और पढे-लिखे लगे। बाकायदा डिपर मारेंगे, हाथ देंगे, साइड जहां देना चाहिए जरूर देंगे, फालतू की चीं पों, चीं पों नहीं करते रहेंगे। लेकिन एक-दो चीजें वहां भी मुझे काफी डिस्टर्बिग लगीं।
क्या? - एक तो भैया कि आजकल गाडियों में जो हैडलाइट्स होती हैं, वे इतनी तेज रोशनी फेंकती हैं कि एकदम ब्लाइंडिंग! चकाचौंध। बस अंदाज से ही आप निकाल लो। - क्यों? ऊपर का हिस्सा काला नहीं करते? - अरे राम का नाम लो जोशी। वह जमाना गया। लगता है ट्रैफिक के रूल्स बदल गये हैं। अब कोई जरूरी नहीं है कि आप सडक पर दूसरे मुसाफिरों की सुविधा-असुविधा के बारे में भी सोचें। आपको सिर्फ अपने बारे में सोचना है। अपने कफन के बारे में भी नहीं। वह दूसरों का हेडेक है। -यानी सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट? -सरवाइवल ऑफ द रूडेस्ट! और लोगों ने इसका तोड क्या निकाला जानते हो? अगला एक लाइट लगाये तो आप दो लगा लो। वह छह वाट की हेलोजन लगाये तो आप बारह वाट की लगा लो। वह आपको अंधा कर रहा हो तो आप उसे डबल अंधा कर दो। - वाह वा शामलाल! तुम्हारी बातों से तो मुझे कविता सूझने लगी। देखो, गाकर सुनाता हूं। नाऊ माइट इज राइट ! लाइट इज माइट! लाइफ इज फाइट! फाइट इज टाइट! हे.हे. माइट इज राइट! बेबी माइट इज नाइट! डार्क एज इज कॉल्ड सो, बिकॉज देयर वर लॉट्स ऑव नाइट्स इन इट ! कैसी लगी? -लास्ट लाइन थोडी सेंसिबल है क्योंकि वह प्रोज में है। - शटप! - भैया मैंने जिंदगी भर पुलिस में नौकरी की सो भी ज्यादातर ट्रैफिक पुलिस में। तुमने हाइस्कूल में। तुमसे कविता का मर्डर देखा जाता होगा, मुझसे तो ट्रैफिक की ऐसी हत्या नहीं देखी जाती। रोज छाती में हूक उठती है कि क्या हो रहा है? बडी-बडी गाडियां, बडे-बडे हादसे! मल्टीनेशनल का कंटेनर जहाज से उतरकर सीधा झुमरीतलैया तक, आसनसोल तक, गुडगांव तक पहुंच जाये बस! फिर चाहे सडक ससुरी हो या न हो। मरो तुम तो मरो। - देखो देखो.. - समझ में नहीं आता इसका मतलब क्या है? - शामलाल ! बडी उम्र में इतना टेंशन लेना कोई अच्छी बात है क्या? दो-चार रोज भुगत कर आ गये बात खत्म हुई। रहो चैन से इस ठंडी, शांत जगह में। नहीं आएगा यहां कोई कंटेनर-कैरियर, आश्वस्त रहो। - क्या आश्वस्त रहूं यार। रात को नींद में भी सडक की चकाचौंध और शूं शूं दिखाई-सुनाई देती है। लोकूला डाल-डालकर थक गया। आंखों के ढेले दुखना बंद नहीं करते। लगता है दोनों आंखों में ढेर सारे कंकड भर गये हैं। ऐसा भी क्या उदार होना यार कि सारी सडकों की मट्ठ ही मार दी विलायती व्यौपारियों की खातिर। और सारी उदारता बाहरवालों के ही लिए? बाहरवालों के लिए जितने उदार, घरवालों के लिए उतने ही क्रूर! ये क्या माजरा है भाई? -शामलाल, तुम बडी जल्दी इमोशनल हो जाते हो। छोडो ना यार! तुम साले कोई इस देश के प्राइममिनिस्टर तो हो नहीं! फिर एक बात और है। फिरंगी जाएंगे तो अपने साथ सडकें थोडी ना उठा ले जाएंगे! मेरे ख्याल से तो यहीं छोड जाएंगे! जैसे पिछली बार रेलें छोड गए थे। जाने दो इनको! फिर अपन इन्हीं सडकों पर बग्घी में बैठकर सैर को चलेंगे। सोलर पॉवर वाली बग्घी में खरामां-खरामां! कैसा रहेगा? -बग्घी की भली चलायी। सुपरसॉनिक शटल कही होती। सुनो एक वाकया। ये अभी चार रोज पहले की ही बात है। हम जा रहे थे हाइवे पर। पोता चला रहा था। अब हुआ क्या कि सामने आ गयी एक बैलगाडी। अब भैया बैल तो बैल हैं, तुम्हारा हाइवे हो कि खाइवे, वो तो चारा खाते हैं, कोई पेट्रोल तो पीते नहीं। तो पोते ने क्या चीं पों चीं पों मचायी है कि पूछो मत। जैसे उसका बस चले तो बैलगाडी को भस्म कर डाले। लेकिन बैलगाडी वाला भी पट्ठा मस्त था। उसने न साइड दी, न बैलगाडी उतारकर कच्चे में खडी की। और जैसा बैलगाडी वाला वैसे ही बैल, निडर और दबंग। हमारे जमाने के होते तो बैलगाडी लिये-लिये खेतों में भाग छूटते। बैलगाडी वाला रस्सी खींचता ही रह जाता। लेकिन देखते ही देखते इधर भी लाइन लग गयी, उधर भी। और दोनों तरफ से चीं पों चीं पों। हर कोई रांग साइड से ओवरटेक करके निकल जाना चाहता है। कान फट गये। - वा वा! - खैर! जरा ही आगे चौडी सडक थी। पचास कदम बैलगाडी को चल लेने दिया जाता तो सारा ट्रैफिक दस मिनट में क्लीयर हो जाता, लेकिन तभी हमारे पीछे से एक मोटरसाइकल तेजी से आयी और हमें ओवरटेक करती हुई फिसलकर सीधी बैलगाडी के नीचे घुस गयी। बैलगाडी हचमचा गयी और एक बैल का पैर रपट गया। वह पसरकर साइड में जा गिरा। वह तो बैल गाडीवाले की हिम्मत और सूझ-बूझ की दाद दो कि बैलगाडी उलाल नहीं हुई। अब सब निकल आये अपने अपने वाहनों से और लगे बैलगाडी वाले पर बमकने। जबकि उस बेचारे की तो कोई गलती ही नहीं थी। मोटरसाइकल वाले ने हेमलेट भी नहीं पहन रखा था। वह बेहोश पडा था और उसके सिर से खून बह रहा था। - अरे रे! फिर?
- अब मुझे लगा बैलगाडी वाला पिट जाएगा। घायल लडके को कोई हाथ भी नहीं लगा रहा और बैलगाडी वाले पर सब शेर हो रहे हैं। कुछ ने उसे नीचे खींच लिया और उसकी पगडी उछालकर जमीन पर फेंक दी। - फिर तुमने क्या किया? - दो मिनट तो मैं देखता रहा। फिर पता नहीं अचानक क्या हुआ जोशी, कि मेरे भीतर छुपा अपनी जवानी का पुलिसवाला छलांग मारकर बाहर आ गया। मैंने गाडी से निकलकर सबसे पहले तो तमाशबीनों को तितर-बितर किया, दो लोगों की मदद से छोकरे को उठाकर खडा किया और एक गाडी में पटककर अस्पताल भेजा, मोटरसाइकल निकलवाकर साइड में डलवायी और दो-तीन लोगों की मदद से गिरे हुए बैल को धीरज से खडा किया। - वाह शामलाल वा! क्या मौके से जागी तुम्हारी जवानी! - हां, समझो बस व्हिसल नहीं थी, बाकी सब तो वही था। - लेकिन किसी ने तुम्हारी ऑथोरिटी को चैलेंज नहीं किया? - किया था एक बबुआ ने। मैंने उसे आंख दिखाई और थप्पड भी मार देता जरूरत पडती तो। बात यह है जोशी कि लोग ऑथोरिटी को पसंद करते हैं। वे चाहते हैं कि कोई हो जो सारी व्यवस्था को ठीक कर दे। इसके लिए वे कुछ प्रायवेशन सहने को भी तैयार रहते हैं। वे सख्ती भी पसंद कर सकते हैं, बशर्ते उन्हें ऑथोरिटी पर भरोसा हो। लोग केऑस पसंद नहीं करते। वे कायदे से गवर्न होना पसंद करते हैं। लेकिन कायदा है कहां? और जब सब कुछ बेकायदा है तो ठीक है, सब कुछ बेकायदा है। - अच्छा फिर क्या हुआ? पोता तो तुम्हें देखता रह गया होगा! - फिर और भी डिस्टर्बिग हुआ। पोते को लगा मैंने अपने बुढापे का नाजायज फायदा उठाया है। - क्या क्या? कैसे-कैसे? - जब उसमें से निकल गये तो मैंने पोते से कहा कि अब क्यों दांत पीस रहा है? अब तो आराम से चला। पोता बोला-सारी ड्राइव का मजा किरकिरा कर दिया। साला पग्गड! पहले तो मैं समझा यह मोटरसाइकल वाले लडके को कोस रहा है, पर जब उसने साला पग्गड कहा तो समझ में आया कि बैलगाडी वाले को कोस रहा है। बुरा भी लगा। क्योंकि पगडी तो मैं भी पहनता था। मैंने कहा-भैया! उसे कहीं जाना है तो वह कहां से जाएगा? क्या गांववालों के लिए कोई अलग हाइवे बना रखी है तुमने? तो बोला-इन लोगों को हाइवे पर अलाउ ही नहीं करना चाहिए। मैंने कहा-क्यों भई? क्या इस चिकनी-चौडी-शानदार-ठाठदार सडक को बनाने के लिए उन्होंने पैसा नहीं दिया? मुझे गुस्सा आने लगा। पोते ने पूछा-उन्होंने पैसा दिया? अविश्वास से पूछा। मैंने कहा-नहीं दिया? गरीब से गरीब आदमी ने दिया। फुटपाथ पर सोनेवाले और झुग्गी-झोपडी में रहनेवाले तक ने दिया। पोते को जरा कौतुक हुआ। बोला-कैसे? क्या वे टोलटैक्स देते हैं? मैंने कहा-टोलटैक्स तो नहीं देते पर बेटा माचिस और नमक, ये दो चीजें तो ऐसी हैं जो गरीब से गरीब आदमी भी खरीदता है। मानते हो कि नहीं मानते? - वाह शामलाल वा! क्या बात कही है! मजा आ गया। खुला का खुला रह गया होगा पोते का मुंह! जिसे कहते हैं हतप्रभ। - हां, हुआ तो कुछ ऐसा ही। पर मुझे अच्छा नहीं लगा। -क्या? - अब जोशी हम किस-किस का मुंह खुला का खुला रखेंगे? और कब तक? जैसा इन्हें सिखाया जाता है, ये सोचते हैं। - सही बात है। -अच्छा जोशी। बंद करता हूं अभी तो। तुम्हारी बेवाच में टाइम क्या हो गया? - साढे तीन बजने वाले हैं। - हां तो मेरा दवाई लेने का टाइम भी हो गया। -ओके! शामलाल! -ओके डीयर! गॉड ब्लेस यू। ( अगले दिन जोशी शामलाल के घर पहुंचते हैं। साथ में एक नौजवान। चिकनी खाल, तराशी हुई दाढी, सुनहरी फ्रेम का चश्मा, खादी सिल्क का चकाचक हरा कुर्ता, सफेद क्रीजदार पतलून, बगल में प्योर लेदर का झोला और पैर में कोल्हापुरी चप्पल।) - आप कौन? - शामलाल! ये दिल्ली से आये हैं। डॉक्टरी पास की है। पर कहते हैं देशसेवा करेंगे। तुमसे भी मिलना चाहते थे। कल तुम देश के बारे में बता रहे थे न कुछ? - देश के बारे में? मैं तो ट्रैफिक.. - जीवन इन्होंने समझो समर्पित कर दिया है देश की खातिर। एक पला-पलाया एनजीओ पांच लाख में खरीद लिया है। - इनके सामने तो ऐसे मत बोलो यार! इन्हें बुरा लगेगा। - नहीं लगेगा। इनको कुमाउंनी नहीं आती, जिसमें अपन बात कर रहे हैं। ये अंग्रेजी में देशसेवा करेंगे। - और पैसा? पैसा कौन देगा? - देगा कोई नार्वे-फार्वे। स्वीडन-फीडन। मैंने पूछा था इस बडचो से। बताया नहीं। इसे लज्जा लग रही थी। (शामलाल युवक से नमस्कार करते हैं, बैठने को कहते हैं और अपनी लुंगी कसते हुए चाय का पानी चढाने भीतर चले जाते हैं। चाय की पतीली साफ करते हुए बुडबडाते हैं।) - अब ये बुलडोजर कहां से आ गया रांग साइड!
12 जनवरी 2010
ट्रैफिक
Posted by Udit bhargava at 1/12/2010 09:30:00 pm
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