
महाभारत में एक कथा आती है। अज्ञातवास के दौरान पांडवों को घूमते हुए प्यास लगी। नकुल पानी ढूँढते-ढूँढते जलाशय के पास पहुँचे। जैसे ही वे पानी पीने को उद्यत हुए, एक यक्ष ने उन्हें रोक दिया और कहा कि मेरे प्रश्नों का उत्तर देने के बाद ही तुम पानी पी सकते।
महाभारतकालीन यक्ष-युधिष्ठिर संवाद के प्रश्नों के उत्तर की प्रासंगिकता उस युग की तुलना में आज कहीं अधिक है। स्थायित्व या सिद्धांतवादिता को लोगों ने हठधार्मिता का रूप दे दिया है, जबकि संकल्प की दृढ़ता या स्थायित्व से आशय अपने कर्तव्य के प्रति दृढ़ता से है। उसे भौतिक सुख-समृद्धि से जोड़ना गलत है। धैर्य को लेकर भी समाज में अनेक गलत धारणाएँ प्रचलित हैं। हाथ पर हाथ धरे निठल्ले और आलसी बनकर अवसर की प्रतीक्षा करना धैर्य का पर्याय कभी नहीं हो सकता है। मनुष्य द्वारा श्रेष्ठ कार्यों के प्रति सक्रिय, तत्पर और आतुर बने रहकर अपनी समस्त इन्द्रियों पर अंकुश पाकर सदाचार का जीवन व्यतीत करना ही वास्तव में धैर्य है। शास्त्रों और साधु-महात्माओं के प्रवचनों में पवित्र नदियों में स्नान की महिमा का बढ़-चढ़कर बखान किया गया है। लेकिन जब तक हमारे मन की मलीनता नहीं मिटती, तब तक बड़ी से बड़ी नदी में किया गया स्नान भी पूर्ण फलदायी नहीं होगा। अतः जिसने अपने मन को ऊँच-नीच, ईर्ष्या-द्वेष, तेरा-मेरा, बड़ा-छोटा आदि के भेद से पूरी तरह मुक्त कर गंगाजल की तरह पवित्र बना लिया, वह भले ही सौ दिन से नहीं नहाया हो, तब भी उसे सबसे पवित्र इंसान माना जाएगा। दान के बारे में भी लोगों को कई तरह की गलतफहमियाँ हैं। जो सक्षम हैं, वे मुट्ठी-दो मुट्ठी दान कर दाता भाव के अभिमान से चूर हो फूले नहीं समाते हैं।
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