छोटी-सी 8-9 साल की लडकी, झुग्गी में ही रहती थी। माँ तो थी उसकी, बाप नहीं था। माँ कोठी में काम पर जाती थी। कभी-कभी जब माँ को घर वापस आने की जल्दी होती थी या माँ की तबियत खराब होती थी तो वह भी माँ के साथ जाया करती थी।
माँ सुबह-सवेरे काम पर निकल जाती थी, वह अभी सोई होती थी। माँ जाते हुए आवाज लगा देती थी और वह आँख मलती उठ बैठती थी। उसे कोई लम्बा-चौडा काम नहीं रहता था, बस झोपडी की सफाई, पानी भरना और सध चुके नन्हें-नन्हें हाथों से स्टोव जलाना, चाय बनाना, रोटी बनाना और फिर आस-पडोस की झोपडियों में घूमना-फिरना।
वह आस-पास की झोपडियों के बच्चों को स्कूल जाता हुआ देखती थी तो उसके मन में हूक सी उठती थी। एक दिन वह आँख मलती उठी, मुँह धोया, बाहर आई तो देखा बच्चे स्कूल जा रहे थे। उसके चेहरे पर उदासी घिर आई- वह स्कूल क्यों नहीं जाती? माँ उसे पढाती क्यों नहीं? वह भी पढना चाहती है, वर्दी पहनकर स्कूल जाना चाहती है। वह दौडकर ऊबड-खाबड झोपडियों की कतार से बाहर आई, सडक पर जाते बच्चों को देखा, उन बापों को देखा जो साइकिलों-स्कूटरों पर अपने-अपने बच्चों को स्कूल छोडने जा रहे थे।
उसका बाप कहाँ है? उसकी माँ अकेली क्यों है? उसका कोई भाई बहन भी नहीं। अपनी बाल-बुद्धि से अनेक प्रश्न पूछती वह वापस चली आई। उसे भूख लगी थी, माँ की बनाई चाय के साथ रात की बची रोटी निगल उसने जल्दी-जल्दी झाडू लगाया और झोपडी का टूटा दरवाजा बंद कर अपनी सहेली सुषमा के पास चली आई। सुषमा उस लडकी नीना से थोडी बडी थी। नीना आश्वस्त थी कि सुषमा उसके सवालों का जवाब दे पाएगी। उसने पूछा, सुषमा, तू जानती है मेरा बाप कहाँ है?
- तूने अपनी माँ से नहीं पूछा?
- पूछा था, बताती नहीं। अच्छा यह तो बता, बाप होता कौन है?
- अरे! तुम्हें यह भी नहीं पता, तू तो निरी बुद्धू है। जो माँ के साथ सोता है वह बाप होता है।
इससे ज्यादा शायद सुषमा को भी पता नहीं था। नीना को तसल्ली नहीं हुई। वह अनसुलझी वापस चली आई। सोचती रही, बाप वह होता है जो माँ के साथ सोता है। उसकी माँ के पास तो बहुत लोग आते थे, कभी-कभी कोठी का मालिक भी जिसकी बीबी मोटी काली भैंस है और कभी-कभी कोठी का नौकर भी जो बूढा तो है पर अच्छा है, उसे चॉकलेट और टॉफी भी देता है। कभी-कभी उसकी अपनी झुग्गी में कोई मर्द आता है तो माँ उसे सुषमा के घर सोने भेज देती है। उसे बुरा नहीं लगता, बल्कि सुषमा के साथ सोना, बातें करना, कहानी सुनना अच्छा लगता है। सुषमा ने उसे बताया था कि शायद उसकी माँ उसे कहीं से उठा के लाई थी, इसीलिए उसका बाप नहीं है, इसीलिए उसकी माँ उसे स्कूल नहीं भेजती। परन्तु सुषमा की माँ भी तो उसे स्कूल नहीं भेजती, सुषमा का तो बाप भी है। उसे सुषमा की बात पर विश्वास नहीं हुआ।
नीना के पास कोई काम नहीं था। अपनी झुग्गी में आई तो उसकी एक और सहेली शन्नो जो स्कूल तो जाती थी, पर आज नहीं गई थी, उसके पास चली आई। नीना ने शन्नो को उसकी किताब लाने को कहा। जब शन्नो किताब लाई तो नीना ने कहा कि उसे पढना सिखाए। शन्नो को बहुत खुशी हुई, उसे अध्यापिका बनने का अवसर जो मिल गया था। वह नीना को पढाने लगी। तीन-चार बार उसने बताया, बोला-अ से अनार, आ से आम। नीना ने सीखा, पर उसे यह समझ नहीं आया कि यह अनार और आम अ से क्यों होता है, डंडी न लगाओ तो अनार, डंडी लगाओ तो आम, क्या एक डंडी भर लगा देने से इतना फर्क पड जाता है। अपनी उत्सुकता मन में रख वह सीखने की कोशिश करती रही। जब कहीं अटक जाती तो शन्नो डांटती थी। शन्नो भी उसी के जितनी आयु की थी। थोडी देर में दोनों सहेलियां पढाई से ऊब गई और बातें करने लगीं। नीना ने पूछा,
शन्नो तू आज स्कूल नहीं गई?
मेरा भाई हुआ है न, इसलिए, शन्नो ने जवाब दिया।
तेरे तो पहले ही चार भाई-बहन हैं और मेरा कोई भी नहीं। नीना उदास हो गई। शन्नो के घर से आवाज आई तो वह भाग गई। किसी तरह दोपहर तक समय गुजरा और नीना की माँ काम करके वापस आ गई।
माँ का मूड देख नीना ने कहा, माँ, मुझे पढना है, स्कूल में दाखिल करवा दे ना! देख, अपनी झुग्गियों से सारे बच्चे स्कूल जाते हैं।
हाँ, देखूँगी, माँ ने अनमना-सा जवाब दिया।
नीना ने पूछा, माँ मेरा बाप कहाँ है? माँ उखड गई, बोली, मरी, क्या लेना है तुझे बाप से पता नहीं पास-पडोस के लोग मरे क्या सिखाते हैं, लडकी उ्ल्टे-सीधे सवाल करती है। अब तू बडी हो गई है, तेरा कुछ प्रबन्ध करना ही पडेगा।
उस रात उसकी झोपडी में दो लोग आए थे। माँ बहुत खुश थी। उन दो लोगों में से एक ने नीना को बहुत प्यार किया था, उसके गाल पर चिकोटी काट ली थी और उसे अपनी गोद में बिठा लिया था, उसे चॉकलेट भी दिया था। नीना उसके साथ घुलमिल गई थी। उसे लगा था, शायद वह उसका बाप हो। वह चाहने लगी थी कि अगले दिन वह आदमी फिर आए, बल्कि उसकी झुग्गी में रहे, उसकी माँ के साथ सोये, उसे स्कूल छोडने जाए। काश: वह उसका बाप बन जाए।
सचमुच वह आदमी अगले दिन भी आया था। उसके पास बहुत-से रुपये थे। रुपयों की एक गड्डी उसने नीना की माँ को दी थी। उसकी माँ फूलकर कुप्पा हो गई थी। नीना भी खुश हो गई थी। चेहरे का नूर देखते ही बनता था। उसकी माँ के पास इतने पैसे थे। उसकी माँ अब जरूर उसे स्कूल में दाखिला दिलवा देगी। उस आदमी ने नीना से पूछा था,
गुडिया, मेरे साथ चलेगी?
मुझे तो स्कूल जाना है, उसने जवाब दिया था।
मैं तुम्हें स्कूल में प्रवेश दिला दूँगा ना, बहुत अच्छे स्कूल में पढाऊँगा। ऐसी ट्रेनिंग दिलाऊँगा कि पैसा ही पैसा बरसेगा।
नीना की आँखों में चमक आ गई थी। उस चमक ने झुग्गी को भी सराबोर कर दिया। यह आदमी सचमुच उसका बाप होगा। खुशी के आवेग में उसने उस आदमी के गले में बाँहें डाल दी। उस आदमी ने समूची उस छोटी-सी देह को भींच लिया। माँ की आँखों में पैसों के नशे की झलक थी, पेट में कुलबुलाती पैसों की भूख थी, हाथों में नोटों की गड्डी की सरसराहट थी।
उस आदमी ने कहा, मैं तुम्हें ऐसे स्कूल में पढाऊँगा जहाँ तू होस्टल में रहेगी।
अंकल, वहां माँ नहीं होगी? उसने उत्सुकता वश पूछ लिया था, भले ही उसे माँ से बहुत प्यार नहीं रहा हो, माँ ने कभी उसे प्यार किया ही नहीं था, फिर भी माँ थी वह। वह भागी-भागी सुषमा के पास गई- सुषमा सुन, मैं स्कूल पढने जाऊँगी, होटल में रहूँगी, होटल में। बहुत बडी ट्रेनिंग करके, वह बनूंगी, वह, क्या कहते हैं, मैं तो भूल ही गई, उसने माथे पर हाथ मारा।- अच्छा! सुषमा ने हैरान होकर कहा।
नीना उदास हो गई, पर जल्दी ही उदासी से बाहर आकर बोली, मुझे नाम भूल गया होगा, पर मैं जाऊंगी, वह अंकल आए हैं ना, वह मुझे ले कर जाएंगे। कोठी में आने-जाने से उसे पता चल गया था कि किसी भी आदमी को वह अंकल कह सकती है। सुषमा की माँ और उसके बाप ने उनकी बातें सुनी, मुँह बिचकाया, थूका, नाक सिकोडा, आँखें तरेरीं और सुषमा को आवाज लगाई। नीना को लगा, सुषमा की माँ उसकी किस्मत पर जल उठी है। सुषमा का कोई ऐसा अंकल नहीं है ना, अच्छे बाप जैसा। वह तो अब पढ लेगी, सुषमा बिना पढे ही रह जाएगी, सिर्फ कोठियों में काम करने लायक, वह घर वापस आ गई।
आज माँ के पास कोई नहीं था। नीना अंदर आ गई तो माँ ने दरवाजा बंद कर दिया। आज माँ ने उसे जी भर कर प्यार किया, उसे अपने साथ सटाकर सुलाया। उसने सोचा, सुषमा कितना झूठ बोलती है कि माँ उसे कहीं से उठाकर लाई है। माँ के शरीर की गरमाहट से उसे जल्दी नींद आ गई।
सप्ताह भर में माँ ने उसे नये कपडे सिला दिए। वह आदमी रविवार को उसे लेने आया। वह खुशी-खुशी उसकी उंगली पकड कर चल पडी, सब देख रहे थे- माँ, सुषमा, शन्नो और आसपास की झुग्गियों के कुछ दूसरे लोग। स्टेशन तक वे ऑटो रिक्शा पर आए। स्टेशन से उन्होंने गाडी ली। नीना पहली बार गाडी पर चढी थी। जैसे-जैसे गाडी आगे बढ रही थी, नीना का मन भी उडान भर रहा था- कहाँ होगा उसका बडा-सा स्कूल, उस स्कूल में पढकर क्या बनेगी वह? कुछ तो बनेगी! शायद फिर उसकी सहेलियां सुषमा और शन्नो उसे मिल ही न पाएं, अगर कभी मिल जाएं तो, कितना जलेंगी! गाडी के हिचकोलों में कुछ समय के लिए उसे नींद आ गई।
जब नीना की नींद खुली तो उस आदमी के पास कोई पुलिस वाला बैठा था। नीना को पुलिस की पहचान थी क्योंकि उनकी झोपडियों में तो बहुत बार पुलिस आती थी। पुलिस वाले की आँखों ने ऊपर से नीचे तक उसे देखा और उस आदमी से पूछा, बेटी है तेरी? फिर हँसते हुए स्वयं ही बोला, ला पैसे निकाल।
नोटों की एक गड्डी पुलिस वाले के हाथ में थी। पुलिस वाला चला गया।
वे लोग एक बडे-से स्टेशन पर उतरे। वहाँ एक कार उन्हें लेने आई थी। नीना के तो पंख लग गए थे। वह जल्दी से जल्दी स्कूल पहुँच जाना चाहती थी। वह हॉस्टल में रहेगी (अब उसे कहना आ गया था) वह ट्रेनिंग लेगी, बहुत-बहुत बडी कुछ बनेगी। उसकी माँ कितनी अच्छी है! वह जिसके साथ मर्जी सोये, नीना को क्या फर्क पडता है उसका कोई भी बाप हो, तो भी उसे क्या फर्क पडता है।
वे लोग एक सुन्दर और बडी-सी कोठी में आ गए। नीना ने हैरान होकर देखा- यह स्कूल है! यहाँ तो बच्चों ने वर्दियां नहीं पहनीं, बल्कि यहाँ तो पढने वाले बच्चे ही नहीं हैं, यहाँ यह बडी-सी औरत कौन है जिसके साथ अंकल बात कर रहे हैं? शायद बडी मैडम होगी, पर लगती तो नहीं, यहाँ तो सिर्फ लडकियाँ हैं, छोटी-बडी लडकियाँ, सुषमा जैसी, शन्नो जैसी और उसकी माँ जैसी भी! क्या ये सब पढने आई हैं? हैरानी के आवरण ने उसकी खुशी को छा लिया था। वह बाप जैसे अंकल से कुछ पूछना चाहती थी। उस अंकल के हाथ में नोटों की एक बडी-सी गड्डी थी, नीना की आँखों में तैरते प्रश्न थे- यह हॉस्टल है? यहाँ ट्रे¨नग मिलेगी? वह पढेगी? कुछ बनेगी? पैसों की बरसात होगी? बाप जैसा अंकल बिना उससे बात किये ही चला गया। नीना रोने लगी, उसे कोई टीका लगा दिया गया। बेहोशी में वह देख रही थी- माँ के हाथों में नोट, पुलिस वाले के हाथों में नोट, बाप जैसे अंकल के हाथों में नोट!
12 जनवरी 2010
नोटों में उलझे प्रश्न
Posted by Udit bhargava at 1/12/2010 08:59:00 pm
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