आदमी ही आत्महत्या करता है।
और जानवर?
कोई जानवर आत्महत्या नहीं करता। उसमें इतनी बुद्धि भी नहीं होती।
तुम्हारा मतलब क्या है?
मेरा मतलब साफ है कि जो सोचता है, वही मरता है। यह ज्ञान अत्यन्त पीडामय होता है।
तन्वी श्रीवास्तव और प्रलय वर्मा घर के ड्राइंग रूम में आमने-सामने बैठे हुए गंभीर बातचीत कर रहे थे।
दोनों मित्र प्रबुद्ध और हर पहलू पर गंभीरता से सोचने वाले। बदलाव को पसंद करने वाले।
तन्वी ने उठकर कहा, ताजा चाय बनाकर लाती हूँ। बातों ही बातों में काफी समय बीत गया। चाय ठंडी हो गयी। एकदम बर्फ। प्रलय ने कान खुजाते हुए कहा, बहस का भी अपना आनंद होता है।
मैं समझती हूँ कि बहस का सबसे सुनहरा परिणाम यह है कि समय आसानी और जल्दी-जल्दी गुजर जाता है।
तन्वी अपने सामान्य ड्राइंग-रूम से दडबेनुमा रसोईघर में गयी जो दायीं ओर एक खांचे में बना था। वह व्यर्थ ही गुनगुनाने लगी। केतली में चाय डालकर वह जैसे ही ड्राइंग रूम में घुसी उसने प्रणय को शीशे में निहारते पाया। वह मन ही मन मुस्करा कर बोली, शीशे में निहारने पर व्यक्तित्व नहीं निखरता?
उसने चाय बनायी।
प्रलय उसे निरीक्षक की भावना से देखने लगा। देखते-देखते सोचने लगा कि इसने पति से तलाक ले लिया और एक अफसर ने उसको विवाह का आश्वासन देकर बलात्कार कर लिया। फिर भी इसके सुन्दर और आकर्षक मुख पर सतियोंवाली पावनता दपदप कर रही है। यह खूबसूरत लगती है।
न जाने सोचते-सोचते उसने आँखें क्यों बंद कर लीं जैसे उसने क्षणिक समाधि लगा ली हो।
तन्वी ने उसे गौर से देखा- बहुत बुद्धिमान है पर मार खा गया व्यक्तित्व में। प्रलय की शख्सियत जीरो है। इसलिए कई बार आधा-अधूरा लगता है।
प्रलय! कहाँ खो गए? उसने उसका ध्यान भंग किया।
कहीं नहीं। उसने सिर को झटका दिया।
उसने अपने अधरों पर अर्थ भरी मुस्कान लाकर कहा, सोच तो जरूर रहे थे, बताओ भले ही नहीं। कई बार आदमी व्यर्थ ही बातों को छुपाने का प्रयास करता है और दूसरे उन्हें अनुमान से भाँप लेते हैं।
प्रलय ने चाय की चुस्की ली। साथ दिया तन्वी ने। मौन उनके बीच चट्टान की तरह बैठ गया। तन्वी व्यर्थ ही चाय के चम्मच को कप में हिलाने लगी।
प्रलय ने कहा, मैं सोच रहा था कि तुम्हारे चेहरे पर पावनता झलक रही है। एक ऐसी उ”वलता जो सतियों के चेहरों पर चमकती है।
तन्वी हँस पडी। घूंट लेकर बोली, मैं तो कुंती, द्रोपदी और मत्स्यगंधा की वंशज हूँ। मैं ययाति की बेटी माधवी की बहिन हूँ। तुम जानते हो, महादानी, महायोद्धा, महाकामी ययाति ने अपने को श्रीहीन और असमर्थ बताकर अपनी विदुषी और पितृभक्त आज्ञाकारिणी बेटी माधवी को गालव ऋषि को आठ सौ श्याम कर्ण अश्वों को प्राप्त करने के बदले में दे दिया था। और माधवी ने पितृाज्ञा को सर्वोपरि मानकर विभिन्न पुरुषों द्वारा चार पुत्रों को पैदा किया और फिर भी वह वरदान के कारण पवित्र रही। प्रलय! यह पवित्रता और अपवित्रता की जंग कब से शुरू हुई थी?
जब से पितृसत्तात्मकता ने बल पकडा।.. यह तुम खूब जानती हो कि पुरुषों का सदैव व्यवस्था पर एकाधिकार रहा है। यदि ऐसा नहीं होता तो राम सीता को त्यागते नहीं? .. उमस बढ रही है..।
तन्वी ने खिडकियों के आगे से पर्दे हटाए। वह बाहर देखने लगी।
वापस आकर बोली, अभी मैंने खिडकी की ओर अंतरिक्ष का जो हिस्सा देखा, मुझे लगा कि उजियाले के आगे छेदों वाली चादर लटका दी है और सुराख विपरीत दिशा में तारों की मानिंद लग रहे हैं। .. मैं उस चादर को ओढकर परी की तरह आकाश की सैर कर रही हूँ।
प्रलय में हलके से प्याले को प्लेट में पटक सा दिया, ऐसा एक भावुक लडकी ही सोच सकती है।.. देखो, जमीन की बात सोचो! मैं समझता हूँ कि तुम्हारी यह भावुकता तुम्हारे दु:खों का कारण है।
दोनों रोशनी पर मंडराते दो-चार पतिंगों को देखते रहे।
तन्वी कंधों को तनिक नचा कर बोली, यह तुम ठीक कहते हो। मैंने अपने पति को बेहद प्यार किया। मैं अपने से छल-कपट कतई नहीं कर सकती। एक विशुद्ध औरत की तरह मैंने अपने पति को उत्साह और समर्पण भाव से प्रेम किया था।
उसने सहसा लम्बा साँस लेकर फिर कहा, मेरा अनुभव है कि कोई स्त्री जब तक प्रेमिका रहती है, पुरुष उसका दीवाना होता है। उस पर प्रेमिल शब्दों की वर्षा करता है, तब उसे अपनी प्रेमिका के लिए जुनून की हद तक चिपकाव होता है। पर जैसे ही वह उसकी पत्नी बनती है, तो पति की तमाम सडियल भावनाएं उभर आती हैं। वह उसे चंद ही दिनों में अपनी दासी समझने लगता है। यह मैं अपने अनुभवों से कह सकती हूँ। वह अपने को हल्का झटका देकर बोली, एक बात और है। पत्नी को प्रेमिका की तरह अपने पति की नजरों से घायल करते रहना चाहिए, बीच-बीच में नाराजगी दिखानी चाहिए, उसे अपने नखरों से सताना चाहिए। ..मेरा कहने का मतलब है उसे पति को परमेश्वर नहीं मानना चाहिए बल्कि उसको समानता का अहसास कराते रहना चाहिए।
वह पल भर के लिए चुप हो गयी। उसके चेहरे पर उदासियां मटमैलेपन का अहसास कराने लगीं।
प्रलय ने पूछा, तन्वी! तुम ठीक तो हो? तुम्हारा चेहरा निस्तेज क्यों हो गया?
तेज आयेगा कहाँ से? अपनी सारी सोचों को कुचलते हुए मैंने महसूसा है। पति ने वस्तु की तरह बरता और बलात्कारी ने दरिंदे की तरह नोचा है। तब साहस नहीं जुटा पायी कि दोनों की स्त्री के प्रति वहशी दृष्टि को अदालत में नंगा कर दूं। इतनी असहाय और विवश मैं तब क्यों हो गयी थी?
फिर उसने ऐसे कहा जैसे वह स्वयं से कह रही हो, यह शरीर विभिन्न सूंइयों से बिंध रहा है। मेरे अंग-प्रत्यंग में बीस नाखून पीडा दे रहे हैं। चाहती हूँ कि पुरुष बन जाऊँ। यदि प्रकृति या ईश्वर नर-नारी को यह अवसर देता कि वह आधी उम्र पुरुष रहेंगे और आधी उम्र स्त्री तो किसी को कोई मलाल नहीं होता। सारे अनुभव एक ही उम्र में हो जाते। कदाचित पुनर्जन्म की लालसा भी नहीं रहती।
प्रलय ने उसे झिंझोडा मानो वह जुनून में बोल रही हो।
क्या पागलों की तरह प्रलाप कर रही हो अब तुम तन्वी, अपने अतीत से मत उलझो। बीते कल को ब्लैक बोर्ड पर लिखे, चाक के अक्षरों की तह मिटा डालो। नौकरी तुम कर रही हो.. तन्वी! तुमने न जाने क्यों शादी की?
यही सोचकर कि वकील, डाक्टर, न्यायाधीश, बडे अधिकारी, पुलिस कमिश्नर, आईएएस, राजनेता, लखपति-करोडपति स्त्रियां शादी करती हैं, यह सोचकर मैंने भी शादी कर ली। तब मैं सोचती थी कि यह सुरक्षात्मक जीवन शैली है। पर अब समझती हूँ जो पीडाएं मुझे बलात्कार होने पर न हुई, वह सामाजिक व धार्मिक परम्परा से बने वैधानिक पति से हुई हैं।
प्रलय ने सिगरेट सुलगा ली। तन्वी को ऑफर की पर उसने मना कर दिया।
तुम ड्रिंक लो तो बाहर से लाऊं।
बाहर जा रहे हो तो दो चिकन तंदूरी और कटा प्याज भी ले आना। उसने आलस मरोडा और छींक पडी।
तुम्हें जुकाम तो नहीं है।
नहीं, मुझे सिगरेट के धुएं से एलर्जी है।
प्रलय ने सिगरेट बुझा दी। वह बाहर निकल गया। तन्वी फिर सोचने लगी, जो सोचता है, वह आत्महत्या करता है फिर हत्या कौन करता है?
वह सहसा गंभीर हो गयी। मौन धारण कर लिया। भांति-भांति के संघर्ष की लहरें उसके मन-सागर में उठ रही थीं।
प्रलय भीतर आया। उसके हाथ में भोजन और शराब की बोतल थी।
सब कुछ व्यवस्थित होने पर दोनों ने रोमांटिक पेयर की तरह जाम टकराए। तन्वी ने दो-चार घूंट लिए। प्रलय ने तो जाम खाली कर दिया और फिर से जाम भर लिया। तन्वी ने पूछा, प्रलय! आदमी हत्या क्यों करता है?
उसने घूंट लेकर कहा, इस नशीले क्षणों में आत्महत्या और हत्या की बातें छोडो डार्लिग।
वह उठकर उसके पास बैठ गया।
वह जरा तल्ख स्वर में बोली, इतने रोमांटिक मत बनो। देखो, मेरा मूड खराब है। खराब क्या, उस पर किसी ने तेजाब के छींटे डाल दिये हो। इसलिए मर्यादा में रहो? मैं पीकर कपडों से बाहर नहीं होती।
प्रलय ने सतही तौर पर अजीब-सा मुँह बनाकर कहा, अरे यार! पीने के बाद सारा मूड पलट जाता है और.. और..। उसने उसका चुम्बन लेना चाहा कि वह धकेल कर उठ गयी। ताडना भरे स्वर में बोली, खबरदार! अपने पर काबू रखो। मैं पीने वालों की प्रकृति से भिन्न हूँ। मैं पीकर और ज्यादा कांशंस हो जाती हूँ। कुतिया की तरह सजग-सचेत। अपने को संभालो और इसी वक्त मेरे फ्लैट से चले जाओ। सुनो, मैं घात-प्रत्याघात बहुत झेल चुकी हूँ, अब किसी तरह की इच्छारहित हलचल पसंद नहीं करती। प्रलय को झटका सा लगा। वह सचेत सा हुआ।
तन्वी ने अपना कथन फिर दोहराया, मैं पूछती हूँ कि आदमी हत्या क्यों करता है? वह मृत्यु का खेल क्यों खेलता है?
उसे नशे का सुरूर था। अपने को संभालकर वह बुदबुदाया, मैं नहीं जानता डार्लिग, इस समय मेरी मन:स्थिति सिर्फ तुम्हें देख रही है, हमें उत्तेजनाओं के सागर में तैरना चाहिए।
तुम मेरे प्रश्न का उत्तर दो। उसने उसे झिंझोडा।
प्रलय ने अपने को संभाल लिया। अस्पष्ट स्वर में बोला, आदमी शत्रुता, घृणा, प्रतिशोध, स्वार्थ, दु:ख, हताशा, आवेश, अनायास और कभी-कभी व्यर्थ और निरुद्देश्य हत्या करता है।
निरुद्देश्य और व्यर्थ भी हत्या करता है?
हाँ, अपने आप से ऊब कर। अपने आप से ग्लानि करते-करते। कई बार वह इतना विक्षिप्त और असंतुलित हो जाता है कि अनायास वह दूसरे की भी हत्या कर देता है।
हाँ प्रलय, तुम सही कहते हो। कभी-कभी आदमी अपने आप से घृणा और ग्लानि करने लगता है। उसे अपने होने का अहसास भी नहीं होता। तन्वी भावातिरेक हो गई। बोली, वह अपने आप से अजनबी हो जाता है। फिर उसके लिए मृत्यु एक तमाशा हो जाती है और वह तमाशा करने वाला। कई बार हम मृत्यु का वरण इसलिए भी कर लेते हैं कि हमने जो निरंतर त्रुटियां की हैं, उन्हें सुधार नहीं सकते। तंग आ जाते हैं हम। फिर नष्ट करने की सोच लेते हैं, अपने और दूसरे को। हत्या या आत्महत्या कर लेते हैं।
उसकी कठोर मुखाकृति को देखकर प्रलय के मन में करण्ट सा लगा। वह सजग हो गया। वह विस्मय से बोला, क्या तुम मेरी हत्या करोगी?.. तन्वी! अब इन गंभीर चिंतन-मनन वाली बातों पर थूको। आओ, हम आनंद के चरमबिंदु को स्पर्श करें। तुम भावुक हो। कोमल हो। व्यर्थ की उलझनों में मत फंसो। हर बात का एक समय होता है। यह समय..।
प्रलय तो सम्पूर्ण आदम हो गया था। वासना ने उसे एक ही बिंदु पर केंद्रित कर दिया था। पर तन्वी जरा भी हव्वा नहीं बनी। वह इसके व्यवहार पर विस्मित थी।
तन्वी ने कहा, प्रलय! यह क्या पागलपन है। मुझे तुम बौद्धिक रूप से प्रभावित करते हो। तुम्हारे विचारों में एक नया द्वंद्व व बोध होता है, यथार्थ भी होता है। एक नयी दृष्टि भी। जो जीवन में फैले कर्मकांड और पाखंड के प्रति मनुष्य को जाग्रत करती है लेकिन तुमसे मैं सैक्स की दृष्टि से जरा भी प्रभावित नहीं हूँ। तुम्हारे जिस्म, आँखें, हाथ, टाँगें यानि तुम्हारे शरीर का सम्पूर्ण ढांचा मुझमें वितृष्णा भरता है। चलो, हटो, बलात्कारी वाला दुष्कर्म मत करो। उसने उसे धक्का-सा दिया।
प्रलय भावशून्य-सा हो गया। वह उदास तो लगा पर उसकी आँखों में अपमानजनित हिंस्त्र दोष की स्फुलिंगें दहक रही थीं। उसने अपने रोष व आक्रोश को दबाया। शांत भाव से बोला, मैं अपनी बॉडी लैंग्वेज को बखूबी समझता हूँ। तन्वी! यह एक अनिवार्य जरूरत है।
तन्वी ने उसे तिरस्कार भरी दृष्टि से देखा। कहा, मैं मान लेती हूँ कि तुम मर्द हो, मित्र हो, वासना में अंधे हो पर मुझे तुम समर्पण के लायक मर्द नहीं लगते। तुम्हें समर्पण करने की सोचते ही घृणास्पद लहरें मुझमें जन्मने लगती हैं। आई एम सॉरी फॉर दिस..।
तदुपरान्त हताश पुरुष ने दृढ इच्छा से अपना अंतिम पासा फेंका, अतृप्ति और तनाव, मुझे जबरदस्ती करने के लिए मजबूर कर दें तो?
वह खिलखिलाकर हँस पडी। पलंग से उठकर खडी हो गयी। आश्चर्य भरे स्वर में बोली, तुम समझते हो कि मैं इतनी कमजोर हूँ कि तुम्हारी धमकियों से डर जाऊँगी। पागल हो तुम।.. एक शरीफ बुद्धिजीवी की तरह तुम चुपचाप चले जाओ।
उसने आखिरी प्रार्थना भरा दांव फेंका, यदि मैं तुम्हें शादी का वचन दूँ तो?
अरे वाह! क्षणिक तृप्ति के लिए तुम यह वायदा भी करने लगे। वासना आदमी को बहुत कमजोर बना देती है। और सुनो जिसके व्यक्तित्व से मैं जरा भी प्रभावित नहीं हूँ, उससे मैं शादी की कैसे सोच सकती हूँ? प्रलय! जैसे कई व्यक्ति काकरोच को देखकर अजीब सी घृणा से भर जाते उसी तरह तुम्हें इस रूप में देखकर मैं घिन से भर जाऊँगी। मैं शरीर की पवित्रता पर विश्वास नहीं करती पर मन के विरुद्ध कुछ भी करना भी तो बलात्कार है।
वासना का भूत प्रलय की बौद्धिकता पर हावी सा हो रहा था। उसने उसे पकडना चाहा। वह भाग कर बाथरूम में गयी और तेजाब की बोतल उठाकर ले आयी। चेतावनी भरे स्वर में बोली, प्रलय! इसमें तेजाब है। मैं झूठ नहीं बोल रही हूँ। यदि यह शरीर के किसी हिस्से पर पड गया तो वह जलकर विकृत हो जाएगा। तुम और बदसूरत हो जाओगे। तब मजाक में लोग कहेंगे- श्रीमानजी! पहले ही बडे खूबसूरत थे और ऊपर से खाक मलली।
उसने उसके बाएं हाथ की उंगलियों पर जरा-सा तेजाब गिरा दिया।
वह चीख पडा। पीडा से आहत होकर वह बोला, यह क्या पागलपन है? तुमने मुझे जला दिया। क्या तुम मेरी हत्या करना चाहती हो? वह तडपने-सा लगा।
वह गंभीर स्वर में बोली, नहीं। बहस का और सवालों का मतलब यह नहीं है कि उनका प्रयोग यूं ही कर लिया जाय। लगता है कि तुम्हारा नशा और उन्माद उतर गया है। सामने दरवाजा है बाहर चले जाओ। चुपचाप वर्ना मैं बोतल भी उडेल सकती हूँ।
तन्वी ने दरवाजा खोला। हाथ के इशारे से कहा, जाइए श्रीमान्, अभी जिंदगी बहुत बाकी है, किसी भी औरत से शादी कर लीजिए ताकि आप उत्तेजना में अंधे होकर कोई अपराध न करें और सामान्य रहें।
तन्वी ने दरवाजा बंद करके घृणा भरा वाक्य उछाला- कम्बख्त! इन मर्दो को वक्त-बेवक्त भेडिया बनते देर नहीं लगती।
वह बिस्तर पर जाकर पड गयी।
12 जनवरी 2010
वक्त-बेवक्त भेडिया..
Posted by Udit bhargava at 1/12/2010 08:49:00 pm
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