12 जनवरी 2010

तुम ठीक तो हो सांची

कुछ याद है, मॉम! 24 वर्षीय विशेष ने सुबह, कालेज जाने से पहले एक बार फिर कहा।
क्या?
कल वाली बात!
नहीं।
आज शाम, दिशा के मम्मी-पापा हमारे घर आयेंगे। दिशा मनोविज्ञान की लेक्चरर है और विशेष, इतिहास का.. दिन भर साथ रहने से दोनों, एक दूसरे के करीब आ गये हैं और अब विवाह के पवित्र सूत्र बंधन में बंधना चाहते हैं। इसी सिलसिले में दिशा के माता-पिता आज शाम हम दोनों (पति-पत्नी) से मिलने आ रहे थे।
- अरे! आप दोनों तो एक दूसरे को ऐसे देख रहे हैं, जैसे पहले से जानते हो? परिचय कराते हुए विशेष के स्वर ने सहसा हम दोनों को चौंका दिया था।
हां। संभलते हुए दिशा के पिता, कांतिप्रसाद के मुख से निकला, एक सेमिनार में मिले थे हम।
हां, हां याद आया। और एक गहरी लंबी सांस ली मैंने। उनकी पत्नी आभा तथा बेटी, दिशा से भी बात करना अच्छा नहीं लगा। कुछ देर ही उनके पास बैठ मैं, इन बाप-बेटा को बतियाते छोड कर.. किचन में चली आई।
चाय नाश्ते के उपरांत मामूली-सी रस्म अदायगी करते हुए ठीक 15 वें दिन शादी भी तय हो गई और मैं, मूकदर्शक बनी देखती रह गई।
- ओ माइ स्वीट मम्मी! मेहमानों के जाते ही विशेष अबोध बालक-सा लिपट गया।
- अरे.. अरे, पागल हो गया है क्या? बमुश्किल हंसी मैं।
- क्या वे लोग तुम्हें अच्छे नहीं लगे?
- हां भई, कांति प्रसाद कह भी रहे थे! विवेकानाथ मंद-मंद मुस्कराये।
- क्या? मैं बुरी तरह चौंकी।
यही कि तुम्हारी अलग से कोई मांग तो नहीं!
तो?
मैंने साफ कह दिया, दिशा ही दहेज है हमारे लिये!
और मैं चेहरे के भाव छिपाती हुई रसोई में लौट गई।
अच्छा तो दिशा.. कांति की बेटी है। तभी वह, विशेष की मां के रूप में अचानक ही मुझे देख सकपका गया था। मैं भी तो उसके स्वागत का ख्याल न रख पाते हुए बस, उसे देखती रह गई। जीवन में एकाएक आए तूफान की तरह। मेरे समधी के रूप में कभी वह सामने आ जायेगा, यह तो स्वप्न में भी न सोचा था। यही कांति प्रसाद तो उसके पिता के मित्र का वह लडका है। जिसके साथ.. और मैं कब, बिस्तर पर आकर लेट गई पता ही न चला।
कल्लू खां मोहल्ले में ही तो हम एक मकान में रहते थे। पिताजी म्युनिस्पैलिटी के दफ्तर में क्लर्की करते थे। उस दिन तडके ही घर से निकले शाम के झुरमुटे में ही वापस लौट सके थे और आते ही अहाते में पडी चारपाई पर धम्म से गिरे थे।
- तू ठीक कहती थी, पार्वती! पिता के मुख से निकला यह दर्द भरा स्वर सुन.. नजदीक ही दाल में से कंकर बीनते हुए भावना के हाथ ठहर गये, रघु सचमुच बदल गया है।
- क्या कहता है?
- वही कि मैं मजबूर हूं भाई.. लडके की पढाई-लिखाई और नौकरी लगवाने पर बहुत खर्च करना पडा है। शादी पर भी अब खर्चा होगा और तुम जानते ही हो कि कैसे-कैसे घरों से उसके लिये रिश्ते आ रहे हैं। मेरे तो बस, हां करने की देर है! पर तुम तो बचपन के सखा हो सो, तुमसे मोल-भाव क्या करना? वही दे देना, जो कह रखा है। मैं उससे बोला, इतना तो गांव की सारी जमीन बेच कर भी नहीं जुटा पाऊंगा। उससे बहुत मिन्नत चिरौरी की पर वह टस से मस नहीं हुआ।
मेरी मां सिसक उठी थी।
- धत् बावली! ऐसे रोते हैं! अभी तो पहली बार है। बेटी का बाप हूं ना? पता नहीं कितने घरों से निराश होकर लौटना पडे?
मैं रात भर तकिया भिगोती रही। अपनी पढाई-लिखाई और लेखन प्रतिभा.. व्यर्थ-सा लगता रहा और अपना वजूद.. बोझ महसूस होता रहा। बार-बार मेरी आंखों के सामने लडके के बाप के आगे याचक की तरह झुका हुआ पिताजी का शीश, माँ का आंसुओं में डूबा निस्तेज चेहरा और घर में पसरा गहन सन्नाटा उभर आता।
फिर शुरू हुआ, एक अंतहीन सिलसिला। निरीह पिता, हर जगह सुनते ही दौड पडते पर हमेशा की तरह लेन-देन पर जाकर बात अटक जाती। और वह मनहूस दिन तो शायद कभी न भूल पाऊं? उफ! याद आते ही आंखें भर आई। पिता, एक लडका देखने ही तो गये थे और दूसरे दिन.. दोपहर को घर आई थी खून से लथपथ एक लाश। अपने ही जाने-पहचाने शहर में.. बस से उतरते हुए अचानक एक ट्रक उन्हें, निर्ममता से कुचलता चला गया था! खैर, उस दौरान मोहल्ले वालों ने जो हमदर्दी दिखाई.. उसकी जितनी भी प्रशंसा की जाये, वह कम होगी।
पिताजी के ऑफिस में यह उम्मीद थी कि सभी.. संवेदनशीलता से पेश आयेंगे और उनकी जगह.. आसानी से रख लिया जायेगा, पर कटु अनुभव तब हुआ, जब वह रिक्त पद! पिता जी के परम मित्र बॉस ने अपने एक निकट संबंधी को दे दिया? मेरे चारों तरफ अंधेरा-ही-अंधेरा था। और भाइयों को ऐसे में हौसला कैसे बंधाती थी? यह मुझे ही मालूम है और.. स्वयं लेखन के सहारे आत्मविश्वास जुटाती रहती। इसी कोशिश में कुछ ऐसी रचनाएं लिख डालीं जो कि आगे चलकर बहुत चर्चित हुई और..।
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निरंतर संघर्ष करते रहने से ही मैं, एक प्राईवेट कंपनी में स्टेनो टाइपिस्ट चुन ली गई। वहीं मेरे जीवन में आए विवेकानाथ! एक प्रकाश पुंज बनकर.. सुंदर, सजीले, हंसमुख, 30-35 वर्षीय.. वे दफ्तर में मेरे बास थे। जो अपनी स्पष्टवादिता और यथार्थपूर्ण बातों से किसी को भी प्रभावित कर लेने की अद्भुत क्षमता रखते हैं और मुझे.. अंतत: अपने तथा परिवार के प्रति नये सिरे से सोचने को बाध्य कर देते हैं। मां ने उनसे मिलते ही खुशी-खुशी वह कम्प्रोमाइज मंजूर कर लिया। हां, यह एक समझौता ही तो था, जिसके तहत मुझे विधुर विवेकानाथ की पुत्री रिचा को मां का प्यार देते रहना था और उन्हें मेरी मां और भाइयों को अपना समझते रहना था।
मुझे खुशी ही नहीं, बल्कि इस बात पर गर्व है कि इन्होंने जो कहा, उससे कहीं खरे साबित हुए। विशेष के गर्भ में आते ही मुझे घर तक सीमित कर दिया। जहां, मेरा खाली वक्त कथा लेखन में बीतने लगा। जीवनसाथी होने के साथ-साथ यह, मेरी कहानियों के सुधी पाठक एवं कुशल आलोचक भी थे। पिता के दुखद अंत को लेकर बुनी गई वह सशक्त कथा कृति.. मैं इनके भरपूर सहयोग से ही तो कालजयी बना पाई, जिसके लिये पुरस्कार प्राप्त हुआ मुझे और मैं.. हिंदी साहित्य के प्रथम श्रेणी के साहित्यकारों में आ खडी हुई।
इतना सम्मानपूर्ण जीवन गुजारते हुए भी यह त्रासदी कैसे भूल जाऊं! पिता जी मेरे लिए ही घर-वर ढूंढते हुए उस दुर्घटना के शिकार हुए थे। अपने बालसखा, रघु के रिश्ता तोड देने की वजह से.. और उनकी भारी लागत से योग्य बना.. वह लडका.. यह कांतिप्रसाद ही तो था, जो एक लंबे अरसे के बाद.. विशेष के भावी ससुर के रूप में उथल-पुथल मचाने मेरे शांत, सुखी तथा सम्मानित जीवन में आ गया। चोर की दाढी में तिनका। कहावत को चरितार्थ करते हुए ही तो विवेकानाथ के माध्यम से कह रहा है, तुम्हारी अलग से कोई मांग तो नहीं! आखिर क्यों? सुना है कि बहुत बडा इंजीनियर है, यानी करोडपति पार्टी।
मुझे लगा कि कांतिप्रसाद सामने खडा कह रहा है, देखो.. तुम्हारे बाप से नहीं दिया गया था तुम्हारे लिए कुछ भी! अब देखना, कैसे ब्याही जाती है बेटी। देखना! अपने घर में उसे सजा कर रख भी न सकोगी.. देखना! देखना!! देखना!!! सोचते-सोचते सिर फटने लगा तो मैंने वहशियों की तरह विवेकानाथ को झिंझोड डाला, उठो विवेक, प्लीज! उठो, उठो! इससे ज्यादा अब और बर्दाश्त न होगा।
- क्या हुआ भावना! तुम ठीक तो हो। कुछ बोलती क्यों नहीं? पूछते-पूछते चिल्ला उठे तो मैं रो पडी नहीं, रिरिया उठी, तुम.. तुम कांतिप्रसाद से साफ-साफ कह देना, दुल्हन के साथ हम कुछ नहीं लेंगे जो है, उसे संभाल कर अपने पास रखे, समझे?
आंखें फैलाकर विवेकानाथ मुझे गौर से देखने लगे, तुम्हारी तबीयत ठीक तो है?
हां, मैं ठीक हूं। और तनिक आक्रोश भरे स्वर में बोली, यह बात भूल मत जाना। सुबह होते ही उसे फोन पर कह देना!
वह अपनी मरजी से दे तो भी कुछ ना लें?
हां।
क्यों?
मैं जो कह रही हूं! इसलिए..।
और तभी विशेष हांफता हुआ अंदर आया।
- अभी-अभी कौन चीखा था, डैड?
तेरी मॉम सपना देखते-देखते डर गई!
मैं जाग रही थी, नाथ। मैंने बताया।
मॉम तुम ठीक तो हो ना? विशेष ने पास बैठते हुए पूछा।
हां, मेरे बच्चे! कहकर उसके बालों में हाथ फेरा।
तो चिल्लाई क्यों?
पहले एक प्रॉमिस करो!
हां.. हां.. बोलो?
दिशा के साथ.. दहेज में कुछ घर नहीं लाओगे!
व्हाट? विशेष बुरी तरह चौंका।
साहित्यकार हूं ना, इसलिए कह रही हूं।
रिचा दीदी को दिया क्यों था?
कोई यह ना कहे कि मैं उसकी सौतेली मां हूं।
- लगता है! इनके मुख से आहिस्ता से निकला, कांतिप्रसाद के स्टेटस से इसे कोई शॉक पहुंचा है?
आयम आल राइट नाथ..ऽ..ऽ! मैं चीखी।
डैड कुछ करो? विशेष घबराकर बोला।
तुम जल्दी से गाडी निकालो! इन्होंने घबराकर मेरा मोबाइल उठा लिया, मैं डॉ. चुग से बात करता हूं।
उफ! मेरा सिर फटा जा रहा है.. ये बाप-बेटा मुझे समझते क्यों नहीं? कहीं मैं.. मैं सचमुच मेंटल अपसेट तो नहीं हो गई हूं? उफ्!