बाबा! भोजन कर लेते, तब चला जाता वहां। मनुहार करते हुए शान्तनु ने बाबा से कहा।
कहां बच्चा? तुम कहां चलने की बात कर रहे हो? बाबा ने मुस्कराते हुए पूछा।
वहीं जहां आप चलना चाहते हैं। दबी जबान उत्तर आया। बाबा ने जोर देते हुए प्रतिप्रश्न किया- वही तो पूछ रहा हूं, तुम क्या समझ रहे हो! तुम्हें कैसे मालूम कि मैं कहां जाने की तैयारी कर रहा हूं?
शान्तनु चुप रह गया। जानता तो है कि पिछले एक साल से बाबा रोज कहां जाने की तैयारी करते हैं और घर के सभी सदस्य यहाँ तक कि नौकर चाकर भी इसी जुगत में लगे रहते हैं कि बाबा भोजन करके सो जाए। उठने के बाद स्वयं भूल जायेंगे। संकट टल जाएगा।
यह सच है कि बाबा अब चीजों को भूलने लगे हैं। उनकी उम्र एक सौ एक वर्ष से आगे निकल गयी है। एक तरह से कह सकते हैं कि बाबा की जीवन-धारा तीन शताब्दियों का स्पर्श करती हुई प्रवाहित है। अठारह सौ निन्यानबे में बाबा का जन्म हुआ था। अपने पहले वर्ष को पार करते ही उन्होंने बीसवीं शताब्दी में प्रवेश किया। पूरी एक शताब्दी का भरापूरा जीवन जीकर बाबा ने जब इक्कीसवीं शताब्दी में प्रवेश किया तो शान्तनु ने एक छोटा सा जश्न कर डाला। वही उनका सबसे दुलारा प्रपौत्र है। उन्होंने उसका नाम रखा रखा था शान्तनु।
अपने पिता और पितामह के सामने कभी उन्होंने अपने बेटे को हाथ भी नहीं लगाया था। वह तो बहुत बाद में जब वे बाबा बने-रघुवीर का जन्म हुआ। तो वे नये सिरे से जवान होने लगे। जीवन में रस लौट आया। अति वृद्ध हो गयीं पत्नी को भी बच्चों के साथ खेल में घसीट लेने लगे। सबको लगने लगा कि वंशवृक्ष की बाढ देखकर कैसा नवजीवन उमंगने लगा है और जब रघुवीर का बेटा आया तो खुशी से गदगद बाबा ने उसका नाम शान्तनु रख दिया। शान्तनु भी अपने पिता और पितामह से अधिक बाबा की माया ममता का एकाधिकारी बन बैठा।
तीसरी शताब्दी को स्पर्श करने वाले बाबा को नए कपडों से सजा कर शान्तनु ने उनकी आरती उतारी। सभी रिश्तेदारों को जुटाया गया था। गाँव जवार से लोग उमड पडे थे। बाबा कौतुक के साथ सब कुछ देखते रहे थे। जब इस भीड-भाड और अपनी आरती का मतलब समझ में नहीं आया तो उन्होंने अपने लाडले शान्तनु को पास बुला कर पूछा-यह सब क्या कर रहे हो? शान्तनु ने कहा-बाबा! आपने तीसरी शताब्दी में प्रवेश किया है। बाबा का मुंह खुला रह गया था। मन ही मन अपनी उम्र अपने बाल-बच्चों, नाती-पोतों और अपने किये कार्यो का लेखा-जोखा पगुराते रहे। उन्हें अब सभी लोग बाबा या बाबाजी कहने लगे हैं। कई बार उन्हें अपना यही नाम याद रह जाता है, शेष सब भूल जाया करता है।
अपने एक काम को बाबा एक बार रोज याद रखते हैं। जमींदारी खतम होने ही वाली थी कि उनके गांव के जमींदार ने बाबा के सामने एक प्रस्ताव रख दिया। गांव से थोडी ही दूर पर पांच एकड खेत का एक टुकडा था। जिसे जमींदार बाबा के नाम कर देना चाहता था। एक हजार रुपये की मांग थी उसकी। बाबा को वह खेत बहुत पसंद था मगर एक साथ इतना रुपया कहां से आता? बाबा ने पूछा कि कब तक इन्तजाम करना होगा? जमींदार ने बताया कि दो चार दिन में हो जाना चाहिए नहीं तो हाथ से निकल जाएगा। बाबा ने घर भर की तलाशी ले डाली। अपनी पत्नी और बहू के गहने निकलवा कर एक पोटली में बांध कर सुनार के यहां गए। उसने तीस रुपये तोले के भाव से सोना और एक रुपये के भाव से चांदी के गहने खरीदे। तब भी पूरा न हुआ। बैल, भैंस, पेड, बांस बेचकर और कुछ हथफेर लेकर बाबा ने वह खेत जमींदार से अपने नाम करा लिया। उस खेत का मालिक बनकर उन्हें सबसे ज्यादा खुशी हुई थी।
दूसरे खेतों की सुध भूलकर वे उसी की संभालने में लगे रहते। उस खेत ने भी जैसे नए मालिक की भावनाओं को समझ लिया। इतनी भरपूर उपज होने लगी कि तीन साल में सबके गहने बन गए, सबके उधार लौटा दिए गये, पहले से अच्छे बैल खरीद लिये गये। भैंसें आ गयीं। हलवाहों की संख्या बढ गयी। वह खेत क्या आया लक्ष्मी अपनी पूरी उदारता के साथ बाबा के घर आ गई। जमींदारी उन्मूलन हुआ। किसानों ने लगान का दस गुना सरकारी खजाने में जमा करके भूमिधर होने की सनद ले ली। बाबा ने सबसे पहले उसी खेत का दसगुना जमा किया, बाद में दूसरे खेतों का।
रघुवीर जब खेती में रुचि लेने लगे तो उन्होंने ट्रैक्टर खरीदने की इच्छा व्यक्त की। बाबा को पहले विश्वास ही नहीं हुआ कि लोहे की गाडी उनके खेत जोतेगी। जैसे-तैसे उन्हें समझा बुझाकर ट्रैक्टर आया। उसका फायदा देखकर बाबा प्रसन्न हुए, मगर उन्होंने रघुवीर और उनके पिता दोनों को सख्ती से चेताया-टठ्टर तो ठीक है, पर एक काम करना, बैल कभी मत बेचना। बैल, गाय, भैंस रखना कभी मत भूलना और सबसे जरूरी बात तो यह कि पांच एकड वाला खेत सबसे बडा कमाऊ पूत है इस घर का- इस बात को गांठ बांध लेना।
रघुवीर तो एकदम नए बछेडा थे। उन्होंने और उनके बाप ने भी बाबा को भरोसा दिलाया कि ऐसा ही होगा। ट्रैक्टर के साथ नए तरह की खाद का चलन हुआ और ट्यूबवेल लगाकर पानी का सोता खेत में ही खुलवा लिया। बाबा के घर परिवार में धन और सुख सौभाग्य की बाढ आ गयी। एक चिन्ता चकबन्दी के साथ आई। मगर सौभाग्य से एक चक वहीं काट दिया गया। दुलारा वह खेत जस का तस रह गया। रघुवीर ने एक दिन कहा- बाबा! अपने खेत के पास से पक्की सडक निकाली जा रही है। अपना खेत साफ-साफ बच गया है।
बाबा घबराए। बोले-सडक निकलने में अच्छी बात क्या हो गयी? रघुवीर ने और फायदे गिनाते हुए बताया कि अब अपने खेत की मालियत बहुत बढ जाएगी। कोई चाहे तो एक लाख रुपये एकड के भाव से जमीन बिक जाएगी।
सुनकर बाबा बौखला उठे। क्रोध से थर थर कांपते हुए बोले-एक लाख नहीं, दस लाख रुपये एकड का भाव मिले तब भी उस खेत को बेचने का सपना भी मत देखना। सभी लोगों ने बाबा को मनाया। सबने आश्वासन दिया कि खेत बेचने का कोई सवाल ही नहीं उठता। हम लोगों को क्या कमी है कि खेत बेचेंगे? बाबा संतुष्ट हो गये। रघुवीर ने खेती, बागवानी, पशुपालन, मछली पालन, मशीन से कुटाई-पिसाई के काम एक साथ संभालते हुए कारोबार को बहुत आगे बढा दिया। शान्तनु उनसे भी आगे निकलने लगे। शहर में पढाई करने के बाद नौकरी करने के बदले उन्होंने खेती को ही उद्योग में बदल देने की योजना बनाई। चढने के लिए पहले जीप खरीदी गयी। बाद में कार आ गयी।
बाबा नब्बे से ऊपर पहुंच रहे थे। अब भी वे एक बार अपने दुलारे खेत की मेड पर जाकर कुछ देर खडे रहते। खेत में खडी फसल को हाथ से छूते, दुलारते, कुछ बुदबुदाते। देखने वाले कहते-बाबा अपने खेत और उसमें लगी फसलों से ही अपने मन की बातें कहते।
धीरे-धीरे भारी डील-डौल वाले बाबा का शरीर खेतों की ओर जाने की शक्ति से खाली होता गया। और नहीं, कभी-कभी पांच एकड वाले खेत तक जाते। बीच में थक कर बैठ जाते। फिर वह भी कठिन हो गया तो शान्तनु जीप पर बिठाकर उस खेत तक बाबा को पहुंचा देते। बाबा कुछ देर मेड पर बैठकर वापस लौट आते। बाद में यह सिलसिला भी बन्द हो गया। शान्तनु का कारोबार जैसे-जैसे बढता गया, उनके लिए एक मिनट का समय निकालना भी मुश्किल होता गया।
एक दिन शहर से लौटकर शान्तनु ने अपने पिता को बताया कि सडक के किनारे वाले खेत को पचास लाख रुपये में एक सिन्धी खरीदना चाहता है। सुनकर रघुवीर पीले पड गये। जल्दी से उन्होंने बाबा की खटिया की दिशा में देखा-कहीं उनके कान में यह भनक न पड जाय।
पिता साफ मुकर गए-यह जानकर शान्तनु उस सिन्धी से फिर मिलने नहीं गए। तीसरे दिन वह स्वयं आ गया। रघुवीर ने साफ मना कर दिया। शान्तनु चाहकर भी कुछ नहीं कर सके। सिन्धी ने अगला प्रस्ताव रखा-ठीक है, आप खेत बैनामा न करें। दस साल के लिए दे दें। हम उसमें ईट का बहुत बडा भट्टा बनाएंगे। दस साल बाद खेत आपका ही हो जायेगा। कुछ गड्ढा हो जाएगा जो दो चार साल में बराबर हो जायेगा। पैसे हम आपको पूरे देंगे।
यह प्रलोभन शान्तनु और उसके पिता रघुवीर से छोडते न बना। गुपचुप सौदा हो गया। सबको हिदायत दे दी गयी कि बाबा को न तो खेत तक कोई ले जायेगा और न उसके बारे में कोई उनको कुछ बतायेगा। गांव के जो लोग बाबा के पास कभी कभार आते थे, उनको भी समझा दिया गया। शहर में उधर करोडों रुपये का कोई बडा भारी कारोबार शान्तनु ने नए ढंग से शुरू किया। अब वे गांव कभी आते भी तो पलभर बाबा के पास बैठकर लौट जाते।
जिस दिन खेत में सिन्धी के मजूर मिस्त्री लगे, उस दिन बाबा दिन भर बुरे सपनों से घिरे बडबडाते रहे। सबसे कहते-हमे खेत पर ले चलो सब लोग बिना कुछ बोले एक ओर हो जाते। नींद, सपनों औैैर जागरण के बीच बाबा एक साल तक पडे रहे। रोज सबेरे वे खेत की ओर जाने की जिद करने लगते। किसी न किसी बहाने बहला फुसलाकर उन्हें खाना खिला दिया जाता। खा पीकर वे ऊंघने लगते, एक दिन और बीत जाता।
उस दिन सबेरे बाबा की आंख खुली तो उनको याद आया कि आज असाढ की पूर्णमासी हैं। दस बरस हो गये, इसी तिथि को उनकी वृद्धा पत्नी का स्वर्गवास हुआ था। दिन भर व्रत रखकर संध्या समय गंगाजल मुंह में डालते ही चल बसी थीं। बाबा को दूसरी याद अपने दुलारे खेत की आई। उन्होंने निश्चय किया कि आज मुंह में अन्न का दाना तभी डालेंगे जब खेत पर से लौट आएंगे। रोज की तरह चाय पीकर बाबा तैयार होने लगे। नौकर से कहकर पास की चौकी पर पानी रखवाया। उसी के सहारे उठकर चौकी पर बैठे। इत्मीनान से स्नान किया, नौकर के सहारे अपने बिस्तर पर आए। साफ धोती निकलवा कर पहनी। नौकर से कहकर मिर्जई निकलवा कर पहनी, किन्तु उस दिन बाबा किसी के बहकावे में नही आए। शान्तनु से उन्होंने साफ कह दिया-खेत पर जाना है। वहाँ से लौटकर ही अन्न ग्रहण करूंगा। शान्तनु किस खेत पर बाबा को ले जायें, उस खेत में तो विशालकाय चिमनी खडी है। कई सौ मजूर मिस्त्री काम कर रहे हैं। ट्रकों से ईटों की ढुलाई हो रही है। बाबा को कहां ले जायें? कैसे मनाएं? शहरी दिमाग में उपाय कौंध गया। शान्तनु बाबा को अपनी कार में बिठाकर सडक पर ले आए। अपने खेत से पहले वाले खेत के पास गाडी रोक कर उतर पडे। बाबा से बोले-आप बैठे रहिए, यही खेत हैं, देख लीजिए।
बाबा ने कुछ देखा, कुछ विचारा, गाडी का फाटक खोलने लगे उनकी जिद देखकर शान्तनु ने फाटक खोल दिया। बाबा उतरकर मेड पर बैठे, पलभर बाद उठ गये बोले-नहीं यह हमारा खेत नही हैं। आगे चलो, शान्तनु कुछ बोलें उससे पहले ही बाबा आगे की ओर बढ चले। आगे बढकर शान्तनु ने सहारा दिया। अपने खेत की मेड पर आकर बाबा रुक गये। मेड क्या वह तो भट्ठे से निकली राख और राबिश से सडक जैसी बन चुकी थी। खेत में दानव की तरह आसमान से धुआँ उगलती चिमनी खडी थी। चारों ओर पकी ईटों के चट्टे लगे थे। ट्रकों, ट्रालियों पर ईटों की लदाई हो रही थी। भट्ठे में दहकती आग का ताप देह में लग रहा था। वर्षा में देर के कारण अभी भी ईटें पकाई जा रही थीं।
पलभर बाबा मुंह उठाए उस अग्नि मैदान में खडे दानव को देखते रहे फिर धीरे से बैठ गये। शान्तनु ने उन्हें संभालना चाहा किन्तु बाबा लेट गये, उनका सिर शान्तनु ने अपनी बांहों मे सहेजा। बाबा के चेहरे पर परम शान्ति दिखाई पडी। उन्होंने शान्तनु से कहा-अपनी जांघ पर मेरा सिर रख लो। भट्ठे की राख में पालथी मारकर जमीन पर बैठे शान्तनु ने बाबा का सिर अपनी जांघ पर रख लिया। झुक कर बाबा की शान्त आंखों में देखकर पूछा-अब कुछ आराम है? घर चलें बाबा।
बाबा मुस्कुराए चमकती आंखों से प्रपौत्र के मुख को भरपूर निहारते हुए बोले-घर ही जा रहा हूं बेटा एक काम करना, मुझे काशी प्रयाग-अयोध्या मत ले जाना। ठीक इसी जगह जलाना, मेरी यह आखिरी बात मत टालना।
शान्तनु हां या न कुछ कहें उससे पहले ही बाबा की आंखें धीरे-धीरे बंद हो गई। चेहरे पर शान्ति विराज रही थी। शान्तनु को जमीन पर इस तरह बैठा देखकर लोग दौड पडे। जुट आने वाली भीड में से किसी ने बाबा की नब्ज पकडकर कहा-बाबा तो गए।
12 जनवरी 2010
महाप्रयाण
Posted by Udit bhargava at 1/12/2010 08:56:00 pm
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