परिशोधन तप से होता है। त्याग मार्ग पर आने वाली आत्मा को ज्ञान की आवश्यकता होती है। आत्मा के लिए तप आवश्यक है। आत्मा का सौंदर्य तप है।
उक्त विचार उपाध्याय मूलमुनिजी ने अपने प्रवचन के दौरान व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि ज्ञान दर्शन और चारित्र तप के द्वारा मोक्ष के मार्ग को प्राप्त किया जा सकता है। गुरुदर्शन हमारे मन में विश्वास पैदा करता है। तप से उपद्रव शांत होते हैं। तप से तीर्थंकर गोत्र का बंध होता है। तप करना हमारी संस्कृति है।
हमारी आत्मा द्वारा किया गया थोड़ा तप भी हमें निगोद एवं नरक से मुक्ति दिलाती है। आत्मा का प्रबल दुश्मन कषाय ही है, जो आत्मगुणों को हनन कर रहे हैं। इन कषायों में प्रमुख है क्रोध। कषाय विष के समान है और भवों को बिगाड़ने वाला है। क्रोध की प्रबलता के कारण आज पग-पग पर अशांति व्याप्त है। इसको शांत करने के लिए क्षमारूपी अस्त्र का उपयोग करना ही पड़ेगा। हमारे मन पर विजय प्राप्त करने के लिए अपने इंद्रियों को वश में रखना अनिवार्य है।
इंद्रियों के ऊपर विजय प्राप्त करने के लिए रसना को काबू में रखना चाहिए। जो व्यक्ति रसना जीभ को वश में ले लेता है उसके लिए संसार पार करना आसान हो जाता है। अच्छा होगा कि हम राग-द्वेष और क्रोध को भूलाकर हमारी आत्मा को तप में लगाएँ तो ईश्वर द्वारा दिया गया हमारा यह जन्म सफल हो जाएगा।
13 जनवरी 2010
तप करें कर्मों का परिशोधन
Labels: प्रवचन
Posted by Udit bhargava at 1/13/2010 08:15:00 am
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