12 जनवरी 2010

वाहो वाहो गोबिंदसिंह !

कुछ खास है गुरु गोबिंदसिंह

गुरु गोबिंदसिंहजी के बारे में लिखना मेरे लिए बहु‍त मुश्किल बात है, क्योंकि साहिब-ए-कलाम बादशाह दरवेश गुरु गोबिंदसिंह जैसा न कोई हुआ और न कोई होगा।
आपके जीवन के बारे में लिखते समय ये समझ में नहीं आता है कि आपका जीवन किस पक्ष में लिखा जाए। अगर आपको एक पुत्र के रूप में ‍देखा जाए तो आपके जैसा कोई पुत्र नहीं जिसने अपने पिता को हिंदू धर्म की रक्षा के लिए शहीद होने का आग्रह किया हो।

अगर आपको पिता के रूप में देखूँ तो भी आपके जैसा महान पिता कोई नहीं जिन्होंने खुद अपने बेटों को शस्त्र दिए और कहा कि जाओ मैदान में दुश्मन का सामना करो और शहीदी जाम को पिओ।

अगर आपको लिखारी के रूप में देखा जाए तो आप धन्य हैं। आपका दसम ग्रंथ, आपकी भाषा, आपकी इतनी ऊँची सोच को समझ पाना आम बात नहीं है।
अगर आपको एक योद्धा के रूप में देखें तो ‍हैरानी होती है कि आपने अपने हर तीर पर एक तोला सोना लगवाया हुआ था। जब इस सोने का कारण आपसे सिखों ने पूछा कि मरते तो इससे दुश्मन होते है फिर ये सोना क्यूँ? तो आपका उत्तर था कि मेरा कोई दुश्मन नहीं है। मेरी लड़ाई जालिम के जुल्म के खिलाफ है। इन तीरों से जो कोई घायल होंगे वो इस सोने की मदद से अपना इलाज करवाकर अच्छा जीवन व्यतीत करें और अगर उनकी मौत हो गई तो उनका अंतिम संस्कार हो सके।

अगर एक त्यागी के रूप में आपको देखा जाए तो आपने आनंदपुर के सुख छोड़, माँ की ममता, पिता का साया, बच्चों के मोह को आसानी से धर्म की रक्षा के लिए त्याग दिया।

आपके जैसा गुरु भी कोई नहीं जिसने अपने को सिखों के चरणों में बैठकर अमृत की दात मँगाई और वचन किया कि मैं आपका सेवक हूँ जो हुकुम दोगे मंजूर करूँगा। समय आने पर आपने सिखों के हुकुम की पालना भी की।

आपने अपने जीवन का हर पल परोपकार में व्यतीत किया। आपके जितने गुणों का बखान किया जाए वो कम ही है। मैं बस इतना कहना चाहूँगी कि 'जैसा तू तैसा तू ही क्या किछ उपमा दी जें।'

त्याग के युग पुरुष : तेज बहादुर साहब
अलौकिक कृति 'जपुजी'