12 जनवरी 2010

निशान

लेबर रूम में जैसे ही उसे होश आया, उसने अपना पेट देखने की कोशिश की थी मगर डॉक्टर ने उसे हिलने-डुलने से मना कर दिया। जरा सी करवट बदलते ही दर्द की एक लकीर उसकी जाँघों के बीच से होकर नाभी लाँघती हुई मस्तक तक चढ गयी। उसने होंठ भींच कर दर्द पीने का प्रयास किया साथ ही उस दर्द से जन्मे परिणाम को जानने के प्रयास में उसने अपनी खुली आँखों, भिंचे होठों से ही अनुनय भाव से डॉक्टर की ओर देखा। महिला डॉक्टर ने मुस्कराते हुए उसकी ओर देखा। डॉक्टर की इस मुस्कराहट पर उसकी बेचैनी और बढ गयी। वह और व्यग्रता से अगल-बगल निगाह पसार कर पीडा के परिणाम को ढूंढने का प्रयास करने लगी। डॉक्टर की अनुभवी- पेशेवर निगाहें समझ गयीं कि वो क्या जानना चाहती है सो बिना उसका मौन तुडवाये ही बोल दी। नर्स ले गयी है, अभी तुम्हें रूम में शिफ्ट किया जाएगा वहीं उसे भी नहला-धुलाकर तुम्हारे पास पहुँचा दिया जाएगा। माँ के रूम में जाने के बाद ही हम बच्चे को माँ को सौंपते हैं। माँ शब्द सुनते ही उसके बदन में एक झुरझुरी सी दौड गयी। उसकी रग-रग में एक रोमाँच सा भर गया। उसे लगा जैसे नाभी के पास से उठती एक तेज लहर उसकी छाती से बह निकलेगी। बिल्कुल भागीरथ की गंगा की तरह। उसका हाथ अनायास उठा और सीने पर रेंग गया। सचमुच एक भीगापन उसने महसूस किया। इस भीगेपन के अहसास के साथ ही उसका मन भीगने लगा और उसे याद हो आयी अपनी माँ। माँ.. जो उसके जिज्ञासु स्वभाव से उठते प्रश्नों के जवाब में अक्सर कहा करती थी.. जब खुद माँ बनोगी तब समझोगी कि माँ क्या चीज होती है? माँ के शब्दों के साथ उसका चेहरा भी उसकी आँखों में कौंध गया। बिल्कुल गोरा रंग, दमकता चेहरा, दुबली पतली..। चेहरे की दमक के साथ-साथ कुंठाओं और पीडाओं की कुछ लकीरें भी माँ के माथे पर बन गयी थीं। एक खास बात और माँ के चेहरे पर थी वो ये कि प्रकृति ने ही उसके माथे पर बिल्कुल उस जगह जहाँ से वह माँग निकाल कर सिंदूर भरने की शुरुआत करती थीं एक बडा सा भूरे रंग का मस्सा उगा दिया था। जब वह छोटी थी तो अक्सर माँ के पास लेटकर उस मस्से से खेलती हुई माँ से सवाल-जवाब किया करती थी। एक दिन उसने माँ से पूछा था.. माँ यह क्या है? माँ ने मुस्कराते हुए कहा था, यह एक खजाना है जिसमें मेरा सुख-सुहाग, धन, दौलत सब भरा है। सो कैसे..? उसने फिर पूछा तो माँ समझाने की मुद्रा में बोली थी। देख सुहाग के लिए औरतें बोरला (माथे का एक जेवर) बाँधती हैं मुझे तो भगवान ने ही यह पहनाकर भेजा है और दुनिया की सबसे सुखी औरत वही है जो संसार से सुहागन जाए वही सबसे धनी भी। माँ सुहाग को ही दुनिया का सबसे बडा धन और सुख मानती थी। सुहाग पर आयी विपत्ति ही उसकी दृष्टि में विपत्ति थी बाकी सब संसार की सहज घटनाएं थीं। सचमुच माँ हर स्थिति में स्थिर रहती थीं। माँ के चेहरे के साथ एक चीज और थी माँ की देह पर, जो अक्सर उसके सोच में सवालों की झडी लगा देती थी और वो थे माँ के पेट पर नाभी से नीचे पडे खरोंच जैसे निशान। माँ के गोरे सुन्दर जिस्म पर उसे ये निशान भद्दे लगते थे। जब कभी माँ के दुबलेपन के कारण उनकी धोती नाभी से थोडी नीचे खिसक जाती वह उन निशानों के साथ बँध जाती। फिर एक दिन उसने पूछ ही लिया, माँ तुम्हारे पेट पर यह क्या हुआ? क्या किसी ने नोचा है? नोचने की बात उसने इसलिए पूछी थी कि एक बार जब भाई ने खिलौना छीनते समय उसे हाथ पर नकोट लिया था तो खुरंट उतरने के बाद कुछ दिन ऐसा ही निशान पडा रहा था मगर माँ के यह निशान तो वह अपनी समझ की उम्र से बराबर देखती चली आयी थी सो पूछ बैठी..। माँ ने हँसते हुए जवाब दिया था, हाँ नोचा है। तुम सब भाई-बहनों ने। उसे लगा माँ कितना झूठ बोल रही हैं और वह भी हंसकर। वह सोचने लगी थी कि मैंने, दीदी ने, भैया ने या छोटी ने कभी भी माँ को नहीं नकोटा, क्योंकि माँ से तो हमारा कभी झगडा भी नहीं हुआ। ..माँ के झूठ पर उसे बहुत हैरानी हुई .. उसे कम करने के लिए वह फिर पूछ बैठी.. पर हमने तो तुम्हें कभी नहीं नोचा..। माँ अचानक गंभीर हो गयी और समझाते हुए बोली.. अरे बेटा ये निशान तुम लोगों ने तब नोच-नोच कर डाले हैं जब तुम मेरे पेट में थे। तुम सब पेट के भीतर से मुझे नोचते थे और ये निशान बढते चले जाते थे। माँ की बात सुनकर उसकी हैरानी और बेचैनी बढ गयी थी.. हम पेट में थे.. पेट में गये कैसे..? गये तो निकले कैसे..? फिर हमने माँ को क्यों नोचा तमाम सवाल उसके मन में उठे थे। जब-जब उसने अपने सवालों का उत्तर मांगा, माँ यह कहकर टाल देती कि जब खुद माँ बनोगी तब पता चल जाएगा..। अबोध जिज्ञासा के प्रति इस उलझे जवाब से उत्पन्न कुंठा ने न जाने उसके मस्तिष्क पर कैसा प्रभाव डाला था कि जब भी वह किसी स्त्री की नाभि पर निगाह डालती वह वहाँ उन निशानों को ढूँढती। परिवार में तो उसने अपनी दादी, नानी, बुआ, ताई, चाची सबके पेट पर पडे निशान देख ही लिये थे। एक बार जब पडोस वाली आंटी अपनी माँ के घर से बहुत दिन बाद लौटीं तो माँ उनसे मिलने गयीं। वह भी माँ के साथ चल दी। वहाँ पहुँचने पर उसने दो बातें देखीं। एक तो आंटी का मोटा पेट सामान्य था और उनके बिस्तर पर एक नन्हा बच्चा कपडों में लिपटा हुआ सो रहा था। आंटी माँ को बता रही थीं, पूरा पेट चीरना पडा बडी मुश्किल से हुआ है चीरने का अर्थ वह जानती थी। यह बताते हुए आंटी ने साडी खिसका कर माँ को वह चीरे जाने का निशान भी दिखाया। काली मोटी त्वचा की गट्ठर सी बनी लम्बी लकीर। वह डर गयी थी उसे अचानक याद हो आया जब पेंसिल छीलते समय ब्लेड से उसकी उंगली कट गयी थी तो कितना दर्द हुआ था। कितना खून भी निकला था। उसे लगा इतना कटने पर तो कितना खून निकला होगा और दर्द का अहसास डर बनकर उसके भीतर समा गया था। उसने फिर माँ से पूछा था, माँ आंटी को बहुत दर्द हुआ होगा ना। माँ ने फिर वह जवाब दिया था जब खुद माँ बनोगी तभी समझ पाओगी, अभी नहीं। निशानों के सत्य को जानने की जिज्ञासा उसके स्वभाव का हिस्सा बन गयी थी। शायद ही कोई स्त्री हो जो उसकी निगाह के दायरे में आती हो और वह उसके पेट पर पडे निशान देखने का प्रयास न करती हो। अक्सर उसे कहीं ज्यादा कहीं कम ये निशान दिख भी जाते। कई बार तो वह बस-रिक्शा में चढती-उतरती स्त्रियों के पेट को घूरने लगती जब उसे वो निशान ढूंढने में दिक्कत होती तो उसे लगता कि इसकी साडी का पल्ला खिसका कर देखें कि इसका पेट कितना नुचा-कटा है। एक अनदेखी पीडा, एक अभोगा डर और एक अनाम सहानुभूति से घिरी वह हर वक्त अपने आपको पाती। उसे बडी तसल्ली होती जब नहाते समय या कपडे बदलते समय वह अपने पेट को देखती। बिल्कुल गोरा, चिकना, कहीं कोई निशान नहीं.. बिल्कुल मूर्तियों जैसा। उसने माँ से पूछा भी था, माँ जो देवी होती है उनके पेट पर भी ये कटे-नुचे निशान होते हैं क्या? माँ चौंक कर हँस पडी थीं और बोली थीं, नहीं। देवियाँ बच्चे पेट से नहीं जनतीं, इसलिए नहीं होते। उसे यह तो बहुत पहले से पता था कि बच्चे सिर्फ औरतों के ही होते हैं इसलिए आदमियों के पेट पर ऐसे निशान होने का प्रश्न ही नहीं उठता। दिन पर दिन एक बात और उसे समझ में आती जा रही थी कि जो भी माँ है उसे दर्द जरूर सहना पडा होगा..। अपनी उम्र के साथ-साथ इन निशानों का भय भी उसके मस्तिष्क में बढता चला गया। अपने भय के कारण वह अक्सर शीशे के सामने खडी होकर अपना पेट देखती रहती। धीर-धीरे उम्र बढने के साथ-साथ स्त्री होने के तमाम रहस्य स्वत: उसके सम्मुख खुलते चले गये। अब उसे ज्यादा बातें माँ से पूछने की जरूरत नहीं पडती थी क्योंकि उसे पता चल गया था कि माँ महीने में तीन-चार दिन भगवान को क्यों नहीं छूती। क्यों दीदी को अचार के मर्तबान में हाथ नहीं डालने देती। क्यों हम बहनों को ज्यादा कूदने और अकेले इधर उधर आने जाने को मना करती हैं? क्यों लडकियाँ कुर्ते के नीचे शमीज पहनती हैं। सब कुछ सहजता से उसकी जानकारी में आता जा रहा था। शरीर में उठती लडकीपन की पीडाएं बर्दाश्त करना भी उसकी आदत में आता जा रहा था। सब कुछ बडा सहज लगता था मगर पेट पर पडे निशानों का डर और उन्हें देखने की जिज्ञासा उसकी ज्यों कि त्यों थी। कभी-कभी उसे लगता कि वह भैया पापा की तरह आदमी क्यों नहीं? उसे एक सत्य और समझ में आ गया था कि ये निशान तभी पडते हैं जब कोई औरत किसी बच्चे को अपने पेट के अन्दर पालती है। वह निशानों के डर से भइया से ईष्र्या करने लगी थी यहाँ तक कि हर लडके से उसे ईष्र्या होती थी। उसके भीतर एक अभिलाषा भी जन्मती थी कि काश उसके पेट पर ये निशान कभी न पडंे। मगर यह संभव नहीं हो सका। तमाम इनकार के बाद भी उसके पिता ने 21वां लगते-लगते दीदी की ही तरह उसका भी विवाह कर दिया। विवाह यानी प्रकृति के तमाम रहस्य उसके सम्मुख स्वत: खुलते गये और सारे रहस्य जैसे उसके पेट में समाते चले गए; जिनके भरने में उसके पेट का आकार बढता गया। उन रहस्यों में ममता, पीडा, दर्द, जिज्ञासा, आशंका और क्या कुछ नहीं था, जैसे अब किसी सत्य को जानने की इच्छा ही नहीं रह गयी थी। हाँ, एक डर अभी भी उसे चौंकाता था कि न जाने कितने निशान उसके पेट पर पडेंगे। अब कभी-कभी पेट के भीतर से किसी के नोचने का दर्द भी वह महसूस करती थी। और अब जब आज डॉक्टर ने कहा, तुम माँ बन गयी हो तो माँ शब्द के साथ ही वह पेट पर पडने वाले निशान देखने को झुकी थी। उसे लेबर रूम से कमरे में शिफ्ट कर दिया गया था। थोडी ही देर में नर्स गुलाबी चादर में लिपटी एक नन्हीं मानव आकृति उसकी गोद में देकर मुस्कराई। लो अब इसे दूध पिलाओ। शिशु के गोद में आते ही उसके भीतर फिर कुछ बहा। उसने जिज्ञासावश नर्स को देखा, नर्स मुस्करा कर बोली खुद देख लो लडका है या लडकी। उसने बच्चे के चेहरे पर निगाह गडाये हुए चादर हटाई। चेहरे से होती हुई उसकी फिसलती निगाह छाती से होती हुई नाभी तक और फिर जाँघों के पास से पैरों तक गयी। निगाह जितनी तेजी से पैरों तक गयी उससे अधिक तीव्रता से पेट तक लौट आयी फिर नाभि से जाँघों के बीच ठहर गयी। अचानक उसे लगा इस नन्हे गुलाबी पेट पर बडे-बडे निशान उभर आए हैं। कटे हुए निशान, नुचे हुए निशान। भय जल बनकर आँखों से बहने लगा, वह महसूस कर रही थी उसकी जाँघों के बीच गरम-गरम लावे सा रक्त बह रहा है। उसका मन बुक्का फाड कर रोने का हो रहा था कि तभी नन्हें गुलाबी होठों में हरकत हुई। पहले होंठ थोडा सिकुडे, फिर फैले फिर उनमें से रुदन फूट पडा। ऊँ.वा.ऊँ वा का कोमल स्वर कानों में पडते ही उसे लगा उसकी छाती से बहुत तेजी से कुछ बहने लगा है। किसी यंत्र की तरह उसकी देह में प्रतिक्रिया हुई। उसने बच्ची को उठाया और उसके होठों को अपने वक्ष से लगा लिया। बच्ची के होठों का स्पर्श पाते ही उसे लगा दूध जल और रक्त की त्रिवेणी उसकी देह से प्रवाहित हो रही है और कोई ठंडा मरहम उसके पेट की पीडा को दूर कर रहा है। नन्हें होठों के दबाव के आनंद से उसकी आँखें मुँदने लगीं..। ममता से बोझिल आँखों के सम्मुख उसे उभरता दिखा अपनी माँ का चेहरा और दिखे मुस्कराते हुए माँ के पेट के निशान।