12 जनवरी 2010

तुम्हारा कल्लू

आज अचानक रात को जब कल्लू घर पर नहीं पहुंचा तो सभी को हैरानी हुई। हैरानी ही नहीं, गुस्सा भी आया। दस बज गए। पापा ने गालियां देना शुरू कर दीं। वह दांत पीस-पीस कर अनाप-शनाप बकने लगे। मम्मी भी हैरान हैं। उन्हें गुस्सा भी बहुत आ रहा है। पर सबसे अधिक तो उन्हें चिंता सवार हो गई है, आखिर कल्लू कहां चला गया?
दरअसल, यह वह समय होता है जब घर के सभी सदस्यों में एक ही बडे कमरे में किसी पारिवारिक समस्या या मुहल्ले पडोस की किसी घटना पर बहस छिडी होती है। इसके अलावा घर में कोई विशेष बात नहीं हो रही होती। विशेष बात उस दिन और उस रात मानी जाती है जब कल्लू अपने पापा द्वारा बिना मार खाये ही सो जाता है।
कल्लू स्कूल से दस बजे दिन में पढकर लौट आता है। सातवीं में पढते हुए भी, वह दुकान पर जाकर दिन भर काम करता। वह पापा का हाथ ही नहीं बँटाता वरन् दुकान का सारा कार्य निपटाता। अभी उसकी उम्र ही क्या है? मुश्किल से बारह वर्ष। फिर भी वह अपनी सोच और समझ से कुशलतापूर्वक सारे कार्य करता हुआ ग्राहकों को संतुष्ट रखता।
दुकान पर तस्वीरों का काम होता है।
तस्वीरें बिकती हैं। तस्वीरों को फ्रेम में जडकर बेचा जाता है। कल्लू को तस्वीरें जडना बखूबी आता है। फिर भी कभी-कभी तस्वीरें जडते समय कांच टूट ही जाते हैं। ये कांच कल्लू से जब-जब टूटे तब-तब कल्लू के हाथ-पैर भी टूटे। कांच कल्लू तोडे या कल्लू के पापा, पर हाथ-पैर तो कल्लू के ही टूटेंगे, यह निश्चित और शाश्वत सत्य है कल्लू के लिए।
कल्लू आज तक समझ नहीं सका कि उसे ही इतना क्यों पीटा जाता है? पिटाई के समय यदि मम्मी हस्तक्षेप न करें तो वह धोबी के कपडे की तरह पापा के हाथों पीटा ही जाता रहे।
एक दिन जब दुकान से आकर सदैव की भांति कल्लू के पापा ने खाने के लिए दही मंगवाया, तो कल्लू को थोडी देर हो गई। दही कहीं मिल नहीं रहा था, फिर भी कल्लू दूर के चौराहे तक जाकर दही ले ही आया। कल्लू ने सोचा कि इससे पापा खुश होंगे। मगर पापा ने कल्लू की रुई की तरह धुनाई कर डाली। कल्लू देर से क्यों लौटा? बस इतनी सी ही बात थी न। कल्लू अवश्य ही रास्ते में खेलकूद में लग गया होगा। जब मम्मी बीच में आई तभी कल्लू बच सका। इस बीच मम्मी को भी दो-चार चपतें खाने को मिल गई थीं।
कल्लू ने कई बार मम्मी से करुण स्वर में पूछा कि पापा उसे इतनी निर्दयता से क्यों पीटते हैं?
कोई बात नहीं, पापा ही तो हैं। मम्मी उसे प्यार से समझातीं और बतातीं, उन्हें पीने के बाद होश नहीं रहता। फिर मम्मी उसका माथा प्यार से चूम लेतीं।
लेकिन यह स्पष्टीकरण कल्लू के गले से नहीं उतरता। पापा जब होश में होते तब भी तो वे कल्लू पर खीझते और दांत पीसते। पापा कभी भी पप्पू से कुछ नहीं कहते। पप्पू तो कल्लू से आठ वर्ष बडा है। वह कभी भी दुकान पर नहीं जाता। पढने के बहाने दिनभर घर में पडा रहता है या फिर बाहर फील्ड में जाकर क्रिकेट के विकेट गाडता रहता।
-पापा होश में होते तो भी कल्लू को प्यार नहीं करते। हर समय खा जाने वाली नजरों से घूरते रहते हैं। क्या वह अपने पापा का बेटा नहीं? कल्लू अपने आपको आइने में देखकर सोचता कि उसका रंग काला है, शायद इसीलिए सब लोग उसकी उपेक्षा करते हैं। और नहीं तो क्या..। पर इसमें उसका क्या दोष? पापा भी तो काले हैं।
जब देखो तब पप्पू भी कल्लू को मारता रहता है। अपने सारे कार्य भी पप्पू उससे करवाता है। जूते की पॉलिश, नहाने का अंडरवियर तक कल्लू को धोना पडता।
कल्लू को यह सब बहुत बुरा लगता। तब वह जी भरकर गालियां देने लगता। गालियां सुनते ही मम्मी चिमटा लेकर उसकी पूजा प्रारम्भ कर देतीं। मगर मम्मी द्वारा मार खा लेना कल्लू को उतना बुरा नहीं लगता, जितना कि पापा के हाथों मार खाना। मम्मी तो कल्लू को बाद में प्यार भी बहुत करतीं।
कल्लू मार खाते-खाते पुख्ता हो गया है। उसे थोडा बहुत नहीं पीटा जाता और न ही थोडी बहुत पिटाई का कल्लू पर कोई असर पडता। छोटी-छोटी बातों पर कल्लू को जानवर की भांति पीटा जाना साधारण बात है। घर व दुकान का अत्यधिक कार्य करने के कारण कल्लू छमाही की परीक्षा में फेल हो गया था। यह अभी पिछले पांच महीने की ही बात है, कल्लू को जब उसके पापा ने लोहे की एक सरिया से मारा था और पैर की हड्डी में अन्दर तक चोट आई थी। काफी दिनों तक कल्लू बीमार रहा था। लंगडा-लंगडा कर दो महीने तक चला था। फिर कहीं जाकर कुछ ठीक हुआ।
लेकिन इस बीच भी कल्लू के चार-छह हाथ तो किसी न किसी बात पर पडते ही रहे। कल्लू के मन में पापा के लिए घृणा और उपेक्षा भर गई। वह उनकी अनुपस्थिति में उन्हें गालियां देता है।
मम्मी को इस बात पर कतई आश्चर्य नहीं। मम्मी स्वयं पापा की निर्दयता को बार-बार कोसती रहतीं। पर वह खुला विरोध भी तो नहीं कर सकतीं।
मम्मी ने कई बार अपने ढंग से पापा को समझाने की कोशिश की लेकिन प्रभाव इसका विपरीत ही पडा।
तू ही बिगाडे हुए है इसे। पापा तुरन्त मम्मी पर ही आंखें तरेरकर आक्षेप लगाते।
मम्मी ने कुछ कहना ही छोड दिया है। इधर कल्लू भी पिट-पिटकर बेशर्म हो गया है। वह जानबूझकर दुकान पर आये दिन कुछ न कुछ नुकसान करने लगा है। घर में शोरगुल मचाने में उसकी सर्वाधिक भूमिका रहती है। हद से हद चार छ: हाथ पड जाएंगे। और इससे अधिक क्या? कल्लू सोच लेता।
पर आज सभी लोग कल्लू के बारे में सोच रहे हैं। रोज तो वह पापा से पहले ही शाम को दुकान बंद करवाकर आ जाता था। आज तो दस बज गये हैं। कल्लू अभी तक नहीं आया है। पापा ने दांत पीस-पीसकर बगैर दही खाना खा लिया है। कल्लू गायब है। अब वह पिटेगा।
कल्लू के पापा अपने कमरे में नशे में धुत पडे हैं। कभी-कभी वह मां-बहन की गालियां देकर जोर से पूछते हैं -
कल्लू आया या नहीं? कहां मर गया हरामी? आने दो कमीने सुअर को..।
बडे वाले कमरे में पिंकी और गुड्डू सोए पडे हैं। मम्मी सोच में डूबी हैं। पप्पू भी जाग रहा है। उसने कोई किताब हाथ में पकडी हुई है।
कल्लू कहां चला गया? मम्मी उदास आंखों से धीमे स्वर में पप्पू से पूछती हैं, क्यों रे, कलुआ कहां गया होगा?
जाने कहां मरा है जाकर। वह उपेक्षा से झटककर अपनी करवट बदल लेता है।
मम्मी खामोशी के साथ बाहर आंगन में आ जाती हैं। नीचे की ओर आंगन में दरवाजे की तरफ देखती हैं। कोई नहीं है। शर्मा जी शायद बाहर का बडा वाला दरवाजा बंद करके ऊपर गये हैं। शर्मा जी इसी मकान की तीसरी मंजिल के किराएदार हैं।
आंटी जी, कल्लू पास हो गया? शर्मा जी का लडका ऊपर से पूछता है।
हैं! मम्मी चौंककर ऊपर की ओर देखती हैं। मम्मी को ध्यान आता है कि आज कल्लू का वार्षिक परीक्षाफल मिलने वाला था। कल्लू का परीक्षाफल कल्लू को मिला होगा। मगर कल्लू ने आज दुकान पर जाने से पूर्व उसका जिक्र भी नहीं किया था और न ही मम्मी को पूछने का ध्यान रहा था। कल्लू बिना कुछ खाये ही आज दुकान पर चला गया था। तभी से नहीं लौटा। वह शाम तक तो दुकान पर ही रहा था।
कल्लू पास हो गया आंटी जी? शर्मा जी का लडका पुन: प्रश्न करता है।
हां, पास हो गया। मम्मी झूठ ही कह देती हैं।
मगर कल्लू का सहपाठी मिथुन तो बता रहा था कि कल्लू तीन विषयों में फेल हो गया है।
क्या? मम्मी की आंखें भय एवं आश्चर्य से बाहर निकल आती हैं, चौडी होकर।
तभी शर्मा जी अपने लडके को पुकारते हैं। वह चला जाता है किन्तु मम्मी आंगन में खडी रह जाती हैं- प्रस्तरखण्ड सी।
क्या कल्लू फेल हो गया? स्वयं से मम्मी मन ही मन कहती हैं- कल्लू अब नहीं आयेगा। कल्लू कहीं चला गया है। पर कहां? क्या पता?
मम्मी आंगन से बाहर की ओर खिडकी में से नीचे देखने लगती हैं। शायद कल्लू यहीं कहीं छुपा बैठा हो। पर नहीं। कल्लू कहीं नहीं है। नीचे दरवाजे पर अंधेरा ही अंधेरा है। मम्मी खिडकी से अपना सिर लगा लेती हैं। कल्लू कहां जा सकता है? क्या सचमुच ही कल्लू कहीं चला गया है? किसी अज्ञात भय का जहर मम्मी के अंदर ही अंदर मन में घुलने लगता है। वह भय से सिहर जाती हैं। एक कंपकंपी सी पूरे शरीर में भर जाती है।
तभी अकस्मात ही खिडकी के कोने में एक कागज के टुकडे पर मम्मी की दृष्टि पडती है। आंगन में जल रहे बल्ब की रोशनी में मम्मी उस सफेद कागज पर लिखी इबारत पढती हैं-प्यारी मम्मी पढकर चौंक जाती हैं। पूरे शरीर में एक फुरफुरी सी भर जाती है।
अरे! यह तो कल्लू की लिखावट है। मम्मी स्वयं से ही कहती हैं। फिर वह पूरी इबारत दिल को थामकर पढती हैं-
प्यारी मम्मी,
तुम्हारा कल्लू जा रहा है। पता नहीं कहां जायेगा? आज तुम्हारे कल्लू को घर छोडना पड रहा है। वह फेल हो गया है। पर कल्लू अब पापा से नहीं पिटेगा। पापा कल्लू की सारी हड्डियां तोडकर ही दम लेंगे, ऐसा अब मुझे विश्वास हो चुका है। तुम मम्मी, अपने कल्लू को बचा भी तो नहीं सकोगी। लेकिन मम्मी मेरे बचने का रास्ता और कुछ नहीं, सिवाय घर छोडने के।
मम्मी, मुझे घर की बहुत याद आएगी। कल्लू को तुम्हारी बहुत याद आएगी। पर कल्लू क्या करे? अब मम्मी तुम फिक्र मत करना। तुम्हारा कल्लू बडा होकर आयेगा। अभी तो कल्लू चौधरी के लडके दिनेश के साथ दिल्ली जा रहा है। वह भी फेल हो गया है। यह बात तुम्हें पापा को नहीं बतानी हैं, नहीं तो वे मुझे बहुत मारेंगे। बस, अब बस।-तुम्हारा कल्लू।
पत्र पढते ही मम्मी की कंपकंपी रुलाई के साथ छूट पडती है। सिसक-सिसक कर रोने लगती हैं। अब तो पूरा प्रमाण सामने है कि कल्लू घर छोडकर चला गया है। मम्मी के सिसकने की आवाज सुनकर पप्पू फौरन बाहर आ जाता है।
कल्लू चला गया। मम्मी का स्वर तेज होकर फूट पडता है। पप्पू भी उस पत्र को पढता है। पप्पू अब गम्भीर है। वह सोचने लगता है, न जाने कब से पप्पू सोचता था कि एक न एक दिन कल्लू भाग जायेगा। यह सब ठीक नहीं। फिर वही हुआ जिसका डर था। लेकिन अब.. अब क्या हो?
पप्पू अब मम्मी को धीरज बंधाने लगता है। कहता है-
मत रोओ मम्मी। रोने से कल्लू आ तो नहीं जायेगा। ..तुम्हारा ब्लड प्रेशर और बढ जाएगा।
कल्लू कहां चला गया? पूछते हुए पापा भी कमरे से बाहर निकल आते हैं, क्या बात है? ये क्यों रो रही हैं? पापा अब मम्मी की ओर देखते हुए पप्पू से पूछते हैं।
कल्लू भाग गया। पप्पू सीधी सी बात कह देता है।
कहां भाग गया हरामी कहीं का। अभी पापा पूरी तरह से गालियां नहीं दे पाते कि पप्पू बीच में ही उफन पडता है-
क्या..हरदम गालियां ही गालियां..बस पीकर बकने लगते हैं। तुम्हारे ही कारण कल्लू घर से भागा है। तुम्ही ने मार-मारकर कल्लू को भगा दिया है।
पापा कुछ सहम से जाते हैं। पप्पू से वह कुछ नहीं कहते। पप्पू वैसे भी बहुत कम बात करता है। पता नहीं क्यों पप्पू के आगे पापा भी अधिक नहीं बोलते हैं। पप्पू के सामने पापा घर में कल्लू से अधिक कुछ नहीं कहते। पापा को सहमा हुआ चुप देखकर मम्मी भी बिफर पडती हैं-
मैं तो पहले ही कहती थी कि जरा से बच्चे को इतना मारना-पीटना अच्छा नहीं। पर मेरी कौन सुनता था..अब लाओ मेरे कल्लू को ढूंढकर।
आज किसी अपराधी की भांति पापा चुप खडे हैं। अब वह कुछ बोल नहीं पा रहे हैं। यह प्रथम अवसर है जब कल्लू के पक्ष को लेकर पप्पू और मम्मी दोनों ही एक साथ बोल रहे हैं। पापा को दोषी ठहराया जा रहा है। उनकी निर्दयता की भ‌र्त्सना की जा रही है।
कल्लू कहां गया होगा? पापा मिमियाती हुई आवाज में पप्पू की ओर देखकर पूछते हैं।
क्या पता? पप्पू उपेक्षा से मुंह घुमाकर अपने कमरे में चला जाता है।
कल्लू दिल्ली गया है चौधरी फोटोग्राफर के लडके दिनेश के साथ यह देखो। मम्मी भर्राई हुई आवाज में कल्लू द्वारा लिखा गया पत्र पापा के हाथ में थमा देती हैं। कांपते हाथों से पापा पत्र लेकर पढते हैं। फिर काफी देर तक स्थिर जडवत खडे रहते हैं। उनकी आंखों में एक बार जो मम्मी देखती हैं तो आंखें जल भरी होती हैं। इससे पहले कि पापा की आंखों से आंसू ढुलक कर उनकी भूल को प्रकट करें पापा तेजी से घूमकर अपने कमरे में घुस जाते हैं।
दूसरे ही क्षण वह कुर्ता-पायजामा अपने तन पर उलझाकर तेजी से आंगन के किवाड खोल कर घर से बाहर निकल जाते हैं। पीछे से तभी मम्मी उन्हें कहती हैं-
सुनो।
..? पापा खामोश हो प्रश्नवाचक निगाहों से पीछे घूमकर मम्मी की ओर देखते हैं।
इतनी रात को कहां जाओगे? मम्मी कांपते स्वर में पूछती हैं। पापा एक पल मम्मी के उदास चेहरे की ओर देखकर बैठी हुई आवाज में कहते हैं-
तुम्हारा कल्लू ढूंढकर लाने।
फिर पापा मम्मी के कंधे पर सांत्वना भरा हाथ रखते हैं-
तुम चिंता मत करना। किसी भी प्रकार से कल्लू को लेकर कल ही वापस आ जाऊंगा। पापा चले जाते हैं।
मम्मी पूरी रात अब कल्लू और पापा के आने की प्रतीक्षा करतीं चिंतामग्न सी यूं ही सोफे पर बैठे-बैठे गुजार देती हैं। फिर सुबह होते ही दरवाजे की चौखट पर जाकर किवाड से पीठ लगाकर खडी हो जाती हैं। बोझिल नींद भरी पलकें बार- बार उठती-गिरती रहती हैं।