प्रतिष्ठान नगर का एक पथिक अपने सिर पर शहद का मटका लिए घूम रहा था। उसकी लापरवाही के कारण वह मटका ज़मीन पर गिर गया। शहद की बूँदों को चूसने के लिए फ़ौरन एक मधुमक्खी वहाँ आ टपकी। उसे निगलने के लिए एक मकड़ी वहाँ आयी। मकड़ी को खा जाने एक छिपकली वहाँ आ पहुँची। छिपकली को खाने एक बिल्ली आयी। इतने में कुत्ते के साथ एक सैनिक वहाँ आ पहुँचा। कुत्ता बिल्ली पर झपटा । वह एक व्यापारी की पालतू बिल्ली थी। वह व्यापारी आकर कुत्ते को मारने लगा। व्यापारी का सिर काटने के लिए सैनिक ने तलवार निकाली।
इतने में मकड़ी मधुमक्खी को खा गई। मकड़ी को छिपकली और बिल्ली छिपकली को निगल गई। कुत्ते ने बिल्ली के गले में काटा। व्यापारी ने लाठी से कुत्ते को मार डाला। सैनिक ने व्यापारी का सिर काट डाला। जनता ने सैनिक को घेर लिया। राजा जनता पर कार्रवाई करने को सेना भेजने लगा।
तब महामंत्री ने राजा को समझाया, ‘‘महाराज, जो होना नहीं चाहिये था, वह हो गया। शहद की बूँदों पर मधुमक्खी का मंडराना, मकड़ी का उसे खा जाना, मकड़ी को छिपकली का खा जाना, और छिपकली को बिल्ली का खा जाना, यह सब कुछ प्रकृति सहज है। परंतु व्यापारी और सैनिक का व्यवहार अप्राकृतिक है। चूँकि वह व्यापारी ईमानदार था, इसलिए जनता बेकाबू हो गयी और सैनिक पर टूट पड़ी। आप भी अब अपने वश में नहीं हैं, जनता को दंड देने पर तुले हुए हैं, यह आपकी प्रकृति नहीं है। अति क्रोध मनुष्य को दानव बना देता है। वह आवेश में कुछ भी करने को सन्नद्ध हो जाता है, जिससे इसके परिणाम बुरे होते हैं।''
राजा को, मंत्री की बातों में भरी विज्ञता समझ में आयी। इससे, जो विनाश होना था, रुक गया।
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