सत्यलोक में कमल के आसन पर बैठकर ब्रह्मा दिन भर सृष्टि करके थक गये और कल्प का अंत समीप आते ही उन्हें निद्रा के नशे ने घेर लिया। निद्रा की खुमारी में जब भी वे जंभाइयाँ लेते, तब-तब पहाड़ों की चोटियाँ चटककर आग के शोले छितराने लगतीं। निद्रा के समय ब्रह्मा की आँखें जब गीली हो जातीं तब आसमान में प्रलयकालीन मेघ हाथी की सूंड़ों जैसी धाराओं में बरसकर सारी दुनिया को जलमय करने लगते। उनकी पलकें जब भारी हो गईं तब सारी दिशाओं में अंधकार छा गया।
उस प्रलयकालीन स्थिति में ब्रह्मदेव सो गये। प्रलय उनके लिए रात का समय है। पुन: नये कल्प के आरंभ का समय निकट आया है। नये जगत पर जब प्रकाश फैलने का समय आया, तब सरस्वती देवी वीणा हाथ में लेकर भूपाल राग का आलाप करने लगी। तब जाकर ब्रह्मा की नींद खुली। ब्रह्मदेव ने पद्मासन लगाकर अपने चारों मुखों से दसों दिशाओं में नज़र डाली।
नीचे का सारा जगत जलमय हो पर्वतों के समान लहरों से कल्लोलित था। उन लहरों के बीच एक जगह सफ़ेद प्रकाश की एक किरण दिखाई दी। उस प्रकाश में लहरों पर तिरते एक बड़े वट पत्र पर चन्दामामा जैसा एक शिशु लेटकर अपने दायें पैर का अंगूठा चुबलाते दिखाई दिया।
ब्रह्मा ने हाथ जोड़ और आँखें मूँदकर ध्यान किया। आँखें खोलने पर उन्हें एक विचित्र दृश्य दिखाई दिया।
ब्रह्मा अनुभवपूर्वक जान गये कि वह शिशु कोई और नहीं, बल्कि विश्व विराट स्वरूपी परब्रह्म हैं। लेकिन अब उस शिशु का सर हाथी के सिर के समान है और वह अपनी छोटी-सी सूँड से दायें पैर को पकड़कर मुँह में रखता-सा दीख रहा है।
शिशु का मुख प्रसन्न था और वह चन्द्रमा की कांति से प्रकाशमान था। उसके चार हाथ थे। ब्रह्मा आश्चर्य में आकर उस शिशु की ओर देख ही रहे थे कि अचानक वह दूसरे ही पल में पत्ते के साथ अदृश्य हो गया और उस प्रदेश में मिट्टी का एक टीला मात्र दिखाई दिया।
धीरे-धीरे जल में से विशाल भूभाग और समुद्र उत्पन्न हुए।
ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना करना प्रारंभ किया। उन्होंने शुरू में पर्वत और नदियों के पैदा हो जाने का संकल्प किया और अपने कमंडलु से पानी लेकर जगत पर छिड़क दिया। इसके बाद वृक्ष, फसल और खनिजों का संकल्प किया। तदनंतर समुद्र में मछलियों, जमीन पर जानवरों और कृमि-कीट तथा पक्षियों की सृष्टि की। इसके बाद मनुष्यों की सृष्टि करने का संकल्प करके कमंडलु के जल को फिर छिड़क दिया।
उधर ब्रह्मा सृष्टि की रचना में डूबे हुए थे, इधर सरस्वती वीणा बजाने में लगी थीं। न मालूम क्यों, अनायास ही वीणा से अपश्रुति निकल पड़ी। सरस्वती ने चकित होकर नीचे की ओर देखा औरै वे एकदम आश्चर्य में पड़ गईं। ब्रह्मा अपनी अर्द्धांगिनी के चकित होने का कारण समझ न पाये। उन्होंने अपने कमल के आसन पर से ही झुककर नीचे देखाकि पर्वत सब औंधे मुँह हो रहे हैं। उनकी तलहटियाँ पृथ्वी पर पड़ते सूर्य के प्रकाश को रोकते हुए छत्रों की भांति बढ़ रही हैं। नदियाँ समुद्रों से निकलकर ऊँचे प्रदेशों की ओर बह रही हैं। वृक्ष भी उलट रहे हैं और उनकी जड़ें आसमान को छू रही हैं।
समुद्र की लहरों पर तिरते जलचर उछल-कूद कर रहे हैं। कुछ सीध में बढ़ रहे हैं। कुछ पक्षियों की भांति उड़ रहे हैं।
जानवर विकृत आकार में पैदा हुए। उनमें से कुछ जानवरों के सिर न थे, कुछ जानवरों के पिछली टांगें न थीं, कोई एक पैरवाला जानवर था, कोई तीन पैरोंवाला था, कुछ के तो आँखें व कान थे, पर मुँह न थे। किसी जानवर की पूँछ में सर था, तो किसी के सर में पूँछ उगी थी। कुछ पक्षियों के पंख न थे, कुछ के पैर न थे, इसलिए वे लुढ़कते व लोटते थे।
ब्रह्मा ने घबराकर अपनी सर्वोत्तम सृष्टि मनुष्य की ओर व्यग्रतापूर्वक देखा।
कुछ मनुष्यों के दो सर थे, एक पुरुष का था, तो दूसरा नारी का।
पुरुष कोई वित्ते भर का था, तो कोई बालिश्त भर का। नारियाँ तो बड़े-बड़े हाथियों तथा ताड़ के पेड़ों जैसी थीं। कुछ की पीठों पर सर चिपकाये से थे। किसी के चार पैर थे तो किसी के दो, तीन या एक ही पैर था।
कुछ लोगों के पेट पर बड़े-बड़े मुँह लगे थे जो कबंधों के समान आक्रंदन कर रहे थे। जानवर मुँह बायें दीनतापूर्वक चिल्ला रहे थे। गूँगा बन ताक रहे थे। वे सब ऐसे खींचातानी करते-नाचते से लगते थे, मानो सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की निंदा कर रहे हों।
एक बालिश्त भर का आदमी ताड़ के पेड़ जैसी विकृत आकृतिवाली नारी को दिखाकर आसमान की ओर देखते चीख रहा था-‘‘हे ब्रह्मदेव ! इस तरह की नारी के साथ मैं कैसे अपनी गृहस्थी चला सकता हूँ?''
कुछ विकृत आकारवाले मनुष्य रोते हुए ब्रह्मा की निंदा कर रहे थे-‘‘हे ब्रह्मदेव ! आप तो चतुर्मुखी कहलाते हैं। आप चार मुखों के होते हुए भी ऐसे लगते हैं जैसे आप का कोई वास्तविक सिर ही नहीं है, यानी दिमाग नहीं है। वरना आप हमको इस रूप में क्यों पैदा करते?''
ये सब चीख-चिल्लाहटें और आक्रंदन देख सचमुच ही ब्रह्मा के चारों सिर चकरा गये। उनकी आठों आँखों के सामने अंधेरा छा गया। चकित हो ब्रह्मा ने सरस्वती की ओर असमंजस भरी दृष्टि दौड़ाई। उनके चारों सरों को सफ़ेद बने देखकर सरस्वती मुस्कुरा उठीं और मौन रह गईं।
ब्रह्मा स्वगत में सोचते हुए आख़िर जोर से चिल्ला उठे-‘‘मेरी सृष्टि का यह हाल क्यों हुआ? मैंने तो सही ढंग से सृष्टि करने का संकल्प करके ही इस जगत के निर्माण की योजना बनाई। आख़िर ऐसा क्यों हो गया?'' ब्रह्मा की यह आवाज़ दसों दिशाओं में गूंज उठी। असमंजस भरी चकित दृष्टि दौड़ानेवाले ब्रह्मा को एक अपूर्व प्रकाश दिखाई पड़ा। उस प्रकाश में उन्हें एक अद्भुत मूर्ति दिखाई दी। उस मूर्ति के हाथी का सिर था। उसके चार हाथ थे। वे चारों हाथ क्रमश: पाश, अंकुश, कलश और परशु धारण किये हुए थे। वह पूर्ण चन्द्रमा की भांति प्रकाशमान था। उसकी सफ़ेद शाल सारे आसमान में फड़फड़ा रही थी। उस व़क्त सरस्वती ने अपनी वीणा में ओंकार नाद किया। सरस्वती देवी की उंगलियाँ अपने आप वीणा पर नाद नामक्रिया का राग ध्वनित करते माया माळव गौळ राग आलापित करने लगीं, फिर वह राग हंसध्वनि राग में अपने आप बदल गया। गजानन की आकृति में साक्षात्कार हुए मूर्ति ने वट पत्र पर खड़े हो ब्रह्मा को अभय मुद्रा में आशीर्वाद दिया। उनके चारों तरफ़ शरत्कालीन पूर्णिमा की चांदनी जैसी रोशनी फैली हुई थी।
ब्रह्मा ने अप्रयत्न ही हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए पूछा-‘‘हे महानुभाव ! आप अद्भुत मूर्ति कौन हैं? मैं ऐसा अज्ञानी हूँ कि आप को समझ नहीं पा रहा हूँ। इसलिए मुझ पर अनुग्रह कीजिए।''
‘‘वत्स, ब्रह्मदेव ! संकल्प के पीछे सदा विकल्प भी दौड़ा करता है। उसी को विघ्न कहते हैं। विघ्न को रोककर संकल्प की पूर्ति करानेवाला मैं विघ्नेश्वर हूँ। विघ्नों का नेतृत्व करनेवाले विकल्प को मैं अपनी कुल्हाड़ी द्वारा भेद देता हूँ और प्रत्येक कार्य को पूर्ण कलश की तरह सफल बनानेवाला विघ्न विनायक हूँ। पंच भूत कहलानेवाले पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश रूपी भूत गणों का अधिपति बना हुआ मैं गणपति हूँ। खाद्य पदार्थों तथा फसलों को नष्ट करनेवाले मत्त हाथी जैसे विघ्नों को मैं अपने तेज अंकुश से क़ाबू में रखता हूँ और उन्हें अपने पाश नामक मजबूत रस्से से बांध देता हूँ। इसलिए आप मुझे भविष्य में विघ्नेश्वर पुकारा कीजिए।'' यों विघ्नेश्वर ने गंभीर स्वर में समझाया।
इस पर ब्रह्मा ने कहा-‘‘हे देव ! हे विघ्नेश्वर ! मेरी सृजन शक्ति में क्यों इस प्रकार भयंकर विघ्न पैदा हुआ? कृपया आप मेरे द्वारा उत्तम सृष्टि करने लायक़ कोई मार्ग विस्तारपूर्वक समझाइये।'' ‘‘आप को विघ्न की जानकारी कराने के लिए ही यह सब घटित हुआ है। वटपत्र पर बाल गणपति के रूप में मैंने ही आपको दर्शन दिये थे। उस व़क्त आप मेरे बारे में सोच नहीं पाये। मेरे बारे मैं सोचने का मतलब है कि विघ्न के संबंध में पहले ही सावधान रहनेवाला ज्ञान प्राप्त करना। मैं उसी ज्ञान का स्वरूप हूँ। ब्रह्मा से लेकर बुद्धि रख़नेवाले प्रत्येक प्राणी को अपना कार्य प्रारंभ करने के पूर्व विघ्न से बचने के लिए और कार्य की सफलता के लिए उचित सावधानी बरतनी चाहिए। हाथी अपना क़दम आगे बढ़ाने के पहले जमीन की मजबूती को परख लेता है। प्राणियों में हाथी सब से बड़ा है, उसी प्रकार बुद्धि-बल भी ज्ञान के क्षेत्र में बड़ा है। हाथी जैसा मेधा प्राप्त करना चाहिए; इसके संकेत के रूप में मैं गजानन की आकृति में हूँ। आप जब सो रहे थे, तब सोमकासुर नामक राक्षस ने आप के चारों वेदों का अपहरण कर लिया और उन्हें समुद्र तल में छिपा दिया है। महाविष्णु ने मत्स्य का अवतार धारण करके उस राक्षस का संहार किया और आप के वेद लाकर वट पत्र शायी बने मुझे सौंप गये हैं। लीजिए, इनको फिर से ग्रहण कर आप अपनी सृष्टि का कार्य निर्विघ्न संपन्न कीजिए।'' यों समझाकर विघ्नेश्वर ने ब्रह्मा के हाथ वेद सौंप दिये।
ब्रह्मा वेदों को ग्रहण कर परम प्रसन्न हुएऔर विघ्नेश्वर की स्तुति करने लगे-‘‘हे विघ्नेश्वर ! सृष्टि का संकल्प करने के पहले ही आपका ध्यान करके, हृदय पूर्वक आपकी पूजा करके अपने कार्य में प्रवृत्त होऊँ, ऐसा वर प्रदान कीजिए। इस व़क्त मेरी सृष्टि जो बेढंग बनी हुई है, उसे वापस होने लायक़ वर दीजिए।''
इसके बाद विघ्नेश्वर के प्रभाव से पहले की वक्रतापूर्ण सृष्टि पल भर में गायब हो गई। इस पर विघ्नेश्वर ने ब्रह्मा को पुन: समझाया-‘‘हे ब्रह्मदेव ! मैं वक्रता को तुंड-तुंड़ों के रूप में टुकड़े-टुकड़े करता हूँ। इसलिए मैं अपने नाम वक्रतुंड को सार्थक बनाने के लिए अपनी सूंड को वक्र रखता हूँ। वक्रतुंड के रूप में मेरा ध्यान करके जो भी कार्य शुरू किया जाता है, उसमें कोई वक्रता या टेढ़ापन नहीं होता। आप अपनी इच्छा के अनुरूप मेरा ध्यान करके सृष्टि की रचना प्रारंभ कर दीजिए। सृष्टि करना एक कला है। किसी भी प्रकार के टेढ़ेपन या वक्रता के बिना ही जगत आपके द्वारा रचित कला निलय बनकर शोभायमान रहेगा। आप ही के जैसे जगत के सभी प्राणियों की पहुँच में रहकर उनकी प्रथम पूजा पानेवाले विघ्नेश्वर के रूप में, समस्त विघ्नों से रक्षा करते हुए संकल्प-सिद्धि करानेवाले सिद्धि विनायक के रूप में, समस्त गणों के अधिपति के रूप में गणपति बनकर शिवजी और पार्वती के पुत्र के रूप में मैं अवतार लूँगा।'' यों कहकर ब्रह्मा को आशीर्वाद दे वह मूर्ति अदृश्य हुई।
इस पर सरस्वती देवी ने हिंदोळ और श्रीराग के द्वारा मंगलदायक स्वरों को वीणा पर ध्वनित करके इस प्रकार सुनाया कि आकाश भी पुलकित हो उठा।
ब्रह्मदेव ने ‘‘विघ्नेश्वराय नम:'' कहकर सृष्टि का उपक्रम किया। सृष्टि का कार्य पहले से भी कहीं अधिक सुंदर और निर्विघ्न चला। गंभीर व विशाल पर्वत-पंक्तियाँ, अमृत तुल्य जल से भरी नदियाँ, सुंदर वन, रंग-बिरंगे खिलौनों जैसे जानवर, शारीरिक और मानसिक दृष्टि से भी शक्तिशाली बने मानवों से यह सारा जगत ब्रह्मा के कला निलय के रूप में शोभायमान हो गया। वाग्देवी सरस्वती ने अपनी वाणी के संगीत के रूप में प्राणि मात्र को स्वर प्रदान किया। प्राणी समुदाय समस्त शुभ लक्षणों के साथ विकसित होने लगा। जटाओं को फैलानेवाले वट वृक्ष की भांति जगत फैल गया।
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