25 मार्च 2010

यक्ष पर्वत - 1



लगभग सौ वर्ष पूर्व नर्मदा नदी तट के पास के जंगलों में आदिवासी लोग रहा करते थे। इन्ही जंगली जातियों में से गण्डक मृग जातिवाले भी थे। उन्होंने जंगल में अपना अलग गाँव बसाया, जिसका नाम रखा गया अरण्यपुर। वे गण्डक मृगों को पालते थे और उन्हीं से खेती का भी काम करवाते थे। उन्हीं पर बैठकर यात्राऐं भी करते थे।

इसी कारण उनकी जाति गण्डक मृग जाति कहलायी गयी। इस जाति का नया राजा बना अरण्यमल। इसी जाति का गणचारी नामक व्यक्ति उसे अधिकारच्युत करने की कोशिश में लगा हुआ था। दो क्षत्रिय युवकों की सहायता से अरण्यमल ने गणाचारी के षडयंत्र का राज़ खोल दिया और उसे मरवा डाला। उसका मृत शरीर बाघ का आहार बना।

अरण्यमल के सिंहासन पर आसीन हुए एक साल गुज़र गया। गण्डक जातिवालों ने उस दिन वार्षिकोत्सव मनाने की ठानी और इसके लिए आवश्यक प्रबंध किया गया। एक टीले पर सुसज्जित सिंहासन पर उसे बिठाया और वे उत्सव मनाने लगे। अरण्यमल की खुशी का ठिकाना न रहा। इतना आदर पाकर वह मन-ही-मन गर्व महसूस करने लगा।

ऐसे समय पर गण्डकमृग जाति के दो युवक मृगों पर बैठकर तेज़ी से वहाँ आये। उतरकर वे सीधे अरण्यमल की ओर बढ़ने लगे। अरण्यमल का शिलामुखी नामक एक मंत्री था। उसने उन युवकों को रोका और उनसे कहा,"क्या भूल गये कि यहाँ मंत्री बैठा हुआ है। मेरी अनुमति के बिना ही राजा से मिलना चाहते हो? कदापि संभव नहीं।"

युवकों में से एक ने कहा, "महोदय, पहाड़ के पास के हमारे ज्वार के खेतों में कुछ नये लोग घुस आये और भुट्टों को तोड़कर ले जा रहे हैं। हमने आज तक उन नये जंतुओं को नहीं देखा, जिनपर वे सवार होकर आये।" मंत्री शिलामुखी ने पूछा, "उन नये जंतुओं की खासियत क्या है? असल में वे होते कैसे हैं ?" "वे हाथी जैसे ऊँचे हैं। बाघ की तरह के उनके पैर हैं। बगुलों की तरह उनके भी गले टेढ़े हैं और लंबे भी।"

आगतों ने आश्चर्य भरे स्वर में उनका वर्णन किया। शिलामुखी उन दोनों को राजा के पास ले गया और उसे उन नये जंतुओं के बारे में पूरा विवरण सुनाया। "हमारे लोगों ने बहुत मेहनत की और फ़सल उगायी। उन लुटेरों की इतनी हिम्मत कि वे हमारी फ़सल लूटकर ले जाएँ। तुम लोगों को उनपर तुरंत धावा बोलना था, उल्टे उन विचित्र जंतुओं को लेकर आश्चर्य प्रकट कर रहे हो?" अरण्यमल ने नाराज़ होकर कहा।

अरण्यमल के ऐसा कहने पर जनता को संबोधित करते हुए मंत्री ने ऊँचे स्वर में कहा, "सुनो, सुनो, अब हम यह उत्सव रोक दें। लुटेरे हमारी फ़सल लूटकर ले जा रहे हैं। उनका नाश करके हमें अपनी फसल को बचाना है। यह हमारा प्रथम कर्तव्य है।" मंत्री से ये बातें सुनते ही गण्डक मृग जाति के लोग उत्तेजित हो उठे। वे भाले, तलवारें और धनुष-बाण लेकर गण्डकमृगों पर बैठकर निकल पड़े।

मंत्री शिलामुखी भी उनके साथ-साथ गया। वे सब जब अपने खेतों के पास पहुँचे तब वहाँ का दृश्य देखकर घबरा गये। वे ड़र के मारे रुक गये। कुल लुटेरों की संख्या होगी लगभग पच्चीस से लेकर तीस तक। वे भुट्टों को तोड़कर उन विचित्र जंतुओं की पीठों पर लदी थैलियों में भर रहे थे। लुटेरों ने भी देखा कि गण्डकमृग जाति के लोग भाले, तलवारें और धनुष-बाण लिये आ रहे हैं और किसी भी क्षण उनपर आक्रमण करनेवाले हैं तो वे भी भयभीत हो गये। अब दोनों मन ही मन एक-दूसरे से डरने लगे।

लुटेरों में से एक ने भाला उठाकर शत्रुओं की ओर दिखाते हुए अपने लोगों से कहा, "देखो, उधर देखो! निर्भय होकर जब ये लोग गण्डक जैसे खूंख्वार जानवरों को ही अपनी सवारी बनाकर निधड़क आ-जा सकते हैं तब हम अनुमान लगा सकते हैं कि वे कितने साहसी हैं ! हम उनके सामने कैसे टिक सकते हैं ?"

लुटेरों के सरदार ने गण्डकमृग जाति के लागों को ग़ौर से देखा। उसे लगा कि वे उनपर हमला करने के लिए आनाकानी कर रहे हैं; उधेड़बुन में हैं; शायद साहस नहीं कर पा रहे हैं। उनकी इस असमंजसता का लाभ उठाने के उद्देश्य से लुटेरों के सरदार ने अपने अनुचरों से कहा, "ओ उष्ट्वीरो, गण्डकमृग जातिवाले हमें देखकर डर रहे हैं। हमपर हमला करने से झिझक रहे हैं। खुद देख लो। एक भी आगे बढ़ने का साहस नहीं कर रहा है। यही अच्छा मौ़क़ा है। घेर लो और उन्हें तितर-बितर कर दो।"

शिलामुखी आगे ब़ढ़ते हुए उन शत्रुओं को देखकर थर-थर कांपने लगा। उसने अपने लोगों से कहा । "इतने ऊँचे जंतुओं पर सवार ये लोग आसानी से हमें खत्म कर देंगे। लौटो और दूर के उन पेड़ो के पीछे छिप जाओ!" शिलामुखी अपने गण्डकमृग को घुमाये, इसके पहले ही लुटेरे तेज़ी से वहाँ पहुँच गये और उन्हें घेर लिया।

शिलामुखी साहसपूर्वक उनका मुक़ाबला करता रहा और जय अरण्यमाता कहकर चिल्लाता हुआ अपने अनुचरों से बोला, "इन लुटेरों का सामना करना हमारे बस की बात नहीं है। भागो अरण्यपुर की ओर!" तब पास ही के पेड़ की डालियों में से एक आवाज़ सुनायी पड़ी,"महामंत्री शिलामुखी, डरो मत ! भागो मत! लुटेरे जिसपर सवार होकर आये हैं, उन्हें ऊँट कहते हैं। इनके बारे में मैं पहले ही सुन चुका हूँ ।

वे कोई भयानक जंतु नहीं हैं। अपने गण्डक को पीछे घुमाओ और तुम्हारे पीछे-पीछे आते हुए ऊँट से भिड़ा दो। गण्डक अपनी सींगों से उसे घायल कर देगा। उसकी सींग वज्रायुध की तरह कठोर है।" शिलामुखी को यह जानने में देर नहीं लगी कि वह आवाज़ क्षत्रियों के पास ही के कुटीर में रहनेवाले स्वर्णाचारी की आवाज़ है। किन्तु लुटेरों से लड़ने का साहस उसमें नहीं रहा।

वह अपने अनुचरों के साथ-साथ अरण्यपुर की ओर भागने लगा। स्वर्णाचारी की चेतावनी को लुटेरों के सरदार ने सुन लिया था। वह उस पेड़ के पास गया, जहाँ स्वर्णाचारी छिपा हुआ था। वह चिल्लाकर बोला "कौन हो तुम? हमारे ही शत्रुओं को उपाय सुझा रहे हो? आहा, तुम तो बड़ी अक़लमंदी से भरी बातें कर रहे हो"। कहता हुआ वह ऊँट पर चढ़ गया और भाला ऊपर उठाया।

स्वर्णाचारी भय से काँपने लगा। पेड़ पर से उतरते हुए वह कहने लगा, "भाई, मुझे मारकर पाप न कीजियेगा। सभी शास्त्र कहते हैं कि वास्तुविद् को मारने से नरक मिलेगा।" सरदार ज़ोर से हँस पड़ा और कहा, इतने बड़े वास्तुविद् हो तो तुम्हें शहरों में रहना था। इस अरण्य में, इन चट्टानों के बीच में तुम्हें घूमने-फिरने की क्या आवश्यकता है? "देखिये श्रीमान !

गृह-निर्माण कार्य से मेरा और मेरे परिवार का पेट भर नहीं रहा है। इस पेशे से मैं कुछ खास कमा नहीं पा रहा हूँ। यंत्र निर्माण के रहस्यों की भी मुझे जानकारी है। विघ्नेश्वर पुजारी की सहायता से मैने एक मायावी हाथी की सृष्टि की है। किन्तु दो क्षत्रिय युवकों ने मेरे इस प्रयत्न को भी विफल कर दिया।

मेरे पेश को उनके कारण बड़ी हानि पहुँची। इसीलिए मैंने पद्मपुरी छोड़ दिया और इस अरण्य में आ गया। पास ही के एक कुटीर में वे दोनों क्षत्रिय युवक रह रहे हैं। उनसे थोड़ी दूरी पर मैंने और विघ्नेश्वर पुजारी ने वास्तु सम्मत एक गृह का निर्माण किया और उसी में हम दोनों रह रहे हैं" स्वर्णाचारी ने बताया। "वे क्षत्रिय युवक यहाँ रहकर क्या कर रहे हैं? वे कहीं तपस्या तो नहीं कर रहे हैं ?"

सरदार ने पूछा। "भला उन्हें तपस्या करने की क्या आवश्यकता है। वे दोनों क्षत्रियोचित विद्याओं में सिद्धहस्त हैं। शिष्टों की रक्षा करना उनकी दैनिक वृत्ति है", स्वर्णाचिरी ने कहा। सरदार ने व्यंग्यपूरित वाणी में पूछा, "गण्डकमृग की जाति के लोगों की फ़सल को लूटना क्या दुष्टकार्य माना जाता है ?"

उसका जवाब देने में स्वर्णाचारी थोड़ी देर तक सकपकाया और फिर बोला, "आपने बड़ा ही जटिल सवाल पूछा यह अर्थभरित मर्म भरा प्रश्न है। मेरी समझ में नहीं आता कि इसका क्या उत्तर दूँ ?" "अच्छा, मुझे उन क्षत्रियों के निवास स्थल पर ले जाओ !", सरदार ने उसे आज्ञा दी। स्वर्णाचारी ताड़ गया कि सरदार उन दोनों क्षत्रिय युवकों को मार डालना चाहता है, किन्तु विवश होकर उनके कुटीर की ओर ब़ढ़ा।

उस कुटीर के पास पहुँचने के पहले स्वर्णाचारी चाहता था कि उन युवकों को सावधान दूँ,जिससे वे सतर्क हो जाएँ और अपनी रक्षा कर सकें। इसलिए उसने सरदार से कहा, "साहब, आप यहीं ठहर जाइये। मैं देख आता हूँ कि वे दोनों कुटीर में हैं या नहीं!" लुटेरों के सरदार ने मुस्कुराकर कहा "ओहो, बड़े ही चालाक हो। तुम्हारीं चालें मेरे पास नहीं चलेंगी।

सिंधु के रेगिस्तान से निकलकर मैं इन पर्वतीय प्रांतो में आया हूँ। अपने इस सफर के दौरान में, तुम जैसे बहुत-से लोगों को देख चुकाहूँ । तुम्हारी बातों पर विश्वास कर बैठनेवाला कोई मूर्ख नहीं हूँ मैं।" दोनों मिलकर कुटीर के पास गये। बाँस की फट्टी से बना दरवा़ज़ा बंद था।

लुटेरों का सरदार और उसका एक अनुचार दरवाज़ा खोलकर अंदर गये। वहाँ उन्होने देखा कि बाघ, रीछ जैसे जानवरों के चमड़े दीवारों पर लटक रहे हैं। उन्हें वहाँ एक कोने में रखे धनुष-बाण भी दिखायी पड़े। सरदार ने अपने अनुचार को आज्ञा दी कि वह सारा सामान अपने साथ ले आये। बाहर आकर उसने स्वर्णाचारी को ऊँट पर बैठने का आदेश दिया। स्वर्णाचारी जान गया कि उसकी जान खतरे में है।

सरदार ने जबरदस्ती उसे ऊँट पर चढ़ा दिया। तब स्वर्णाचारी ज़ोर ज़ोर से "मुझे बचाओ, मुझे बचाओ" कहकर चिल्लाने लगा। विघ्नेश्वर पुजारी को यह चिल्लाहट सुनकर संदेह हुआ कि स्वर्णाचारी जैसा बुद्धिमान अपनी रक्षा के लिए चिल्ला पड़े? अवश्य ही वह किसी भारी संकट में फंस गया होगा। मुझे जाकर अवश्य ही उसे बचाना होगा। यों सोचता हुआ वह क्षत्रिय युवकों के कुटीर की ओर बढ़ा।


उसने वहाँ पहुँचने पर देखा कि स्वर्णाचारी ऊँट पर बैठा हुआ है और लुटेरों का सरदार भार्ता दिखाते हुए उसे ड़रा-धमका रहा है। विघ्नेश्वरपुजारी के दिमाग में बिजली की तरह एक उपाय कौध उठा। कुटीर में बसे क्षत्रिय युवक सिंह को उसके वचन में ही ले आये थे और प्यार से उसे पाल रहे थे।

उन्होंने उसका नाम रखा परशुराम। क्षत्रिय युवकों के साथ-साथ स्वर्णाचारी और विघ्नेश्वर पुजारी के साथ वह खूब हिल-मिल गया। जब क्षत्रिय युवक कुटीर में हों तो वह स्वच्छंदतापूर्वक इर्द-गिर्द निर्भय होकर घूमता रहता था। जब वे कुटीर में नहीं होते थे तब वे उसे कुटीर के पीछे के लकडियों से बने पिंजडे में बंद करके जाते थे। अब विघ्नेश्वर पुजारी को लगा कि उस सिंह को छोड दूँ तो स्वर्णाचारी को बचा सकता हूँ और लुटेरों को भगा सकता हूँ।

स्वर्णाचारी की चिल्लाहटें सिंह को क्रोधित करेंगी और वह लुटेरों पर झपट पड़ेगा। चूँकि वह हम दोनों से भी हिल-मिल गया है, अतः अवश्य ही स्वर्णाचारी की रक्षा के लिए कूद पड़ेगा। विघ्नेश्वर पुजारी दौड़ा गया और उसने पिंजडा खोल दिया। सिंह गुर्राता हुआ बाहर आया। बाहर आते ही उसने सिर उठाया और ऊँट को देखा। फिर वह गरजता हुआ विघ्नेश्वर पुजारी की ओर मुडकर देखता रहा।

विघ्नेश्वर पुजारी ने इस मौक़े का फ़ायदा उठाना चाहा। उसने थोड़ी भी देरी न करते हुए चुटकी बजाकर सिंह को उकसाया। जिससे वह लुटेरों पर हमला कर बैठे। स्वर्णाचारी ने यह दृश्य देख लिया और जान-बूझकर ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा, "परशुराम...! परशुराम...!! मेरी रक्षा करो।" सिंह ने स्वर्णाचारी को पहचान लिया। वह अपने पिछले पैरों पर खड़ा हो गया और केसर को एक बार झुलाया।

भयंकर रूप से गरजता हुआ ऊँटों की तरफ़ बड़ी ही तेज़ी से लपका । सिंह को देखते ही ऊँट घबराकर तितर-बितर हो गये। मुड़े बिना वे तेज़ी से भागने लगे। एक लुटेरा धडाम् से नीचे गिरा। सिंह उस पर लपका और उसके गले को पकड़ लिया।

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